Wednesday 14 February 2018

शिव और सौरमंडल

शिव
(१) गायत्री मन्त्र का खण्ड-गायत्री मन्त्र के ३ पाद हैं। इसके ३ पाद हैं-स्रष्टा रूप ब्रह्मा, तेज रूप में दृश्य विष्णु जिसका रूप सूर्य है, तथा ज्ञान रूप शिव। इसी प्रकार ॐ के भी ३ भाग हैं, चतुर्थ अव्यक्त है जिसे अर्द्धमात्रा कहते हैं।
(२) पूर्ण गायत्री-केवल शिव रूप में, गायत्री का प्रथम पाद मूल सङ्कल्प है जिससे सृष्टि हुयी, द्वितीय पाद तेज का अनुभव है, तृतीय पाद ज्ञान है। तीव्र तेज रुद्र है, शान्त रूप शिव है। सौर मण्डल में १०० सूर्य व्यास (योजन) तक ताप क्षेत्र या रुद्र है। इसके बाद चन्द्र कक्षा से शिव क्षेत्र आरम्भ होता है, जिससे पृथ्वी पर जीवन है। अतः शिव के ललाट पर चन्द्र है, मूल स्थान को सिर या शीर्ष कहते हैं। शनि कक्षा तक या १००० व्यास दूरी तक शिव, उसके बाद शिवतर १ लाख व्यास तक तथा सौरमण्डल की सीमा १५७ लाख व्यास तक शिवतम क्षेत्र है। ये विष्णु के ३ पद हैं जो ताप, तेज और प्रकाश क्षेत्र हैं, या अग्नि-वायु-रवि हैं। उसके बाद ब्रह्माण्ड सूर्य के प्रकाश की सीमा है अर्थात् इसकी सीमा पर सूर्य विन्दु-मात्र दीखता है, उसके बाद वह भी नहीं दीखता। यह सूर्य रूप विष्णु का परम-पद है।
या ते रुद्र शिवा तनूरघोरा ऽपापकाशिनी। तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्तामि चाकशीहि॥
(वाजसनेयी सं. १६/२, श्वेताश्वतर उपनिषद् ३/५)
नमः शिवाय च शिवतराय च (वाजसनेयी सं. १६/४१, तैत्तिरीय सं. ४/५/८/१, मैत्रायणी सं. २/९/७)
यो वः शिवतमो रसः, तस्य भाजयतेह नः।  (अघमर्षण मन्त्र, वाजसनेयी सं. ११/५१)
सदाशिवाय विद्महे, सहस्राक्षाय धीमहि तन्नो साम्बः प्रचोदयात्। (वनदुर्गा उपनिषद् १४१)
शत योजने ह वा एष (आदित्य) इतस्तपति (कौषीतकि ब्राह्मण उपनिषद् ८/३)
स एष (आदित्यः) एक शतविधस्तस्य रश्मयः । शतविधा एष एवैक शततमो य एष तपति (शतपथ ब्राह्मण १०/२/४/३)
युक्ता ह्यस्य (इन्द्रस्य) हरयः शतादशेति । सहस्रं हैत आदित्यस्य रश्मयः (इन्द्रः=आदित्यः) जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण १/४४/५)
असौ यस्ताम्रो अरुण उत बभ्रुः सुमङ्गलः । ये चैनं रुद्रा अभितो दिक्षु श्रिताः सहस्रोऽवैषां हेड ईमहे ॥ (वा.यजु.१६/६)
इदं विष्णुर्विचक्रमे त्रेधा निदधे पदम्। समूळ्हमस्य पांसुरे॥ (ऋक् १/२२/१७)
तद् विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः। दिवीव चक्षुराततम्। (ऋक् १/२२/२०)
ख व्योम खत्रय ख-सागर षट्क-नाग व्योमाष्ट शून्य यम-रूप-नगाष्ट-चन्द्राः।
ब्रह्माण्ड सम्पुटपरिभ्रमणं समन्तादभ्यन्तरा दिनकरस्य कर-प्रसाराः। (सूर्य सिद्धान्त १२/ ९०)
ज्ञान रूप में गुरु-शिष्य परम्परा का प्रतीक वट है। जैसे वट वृक्ष की शाखा जमीन से लग कर अपने जैसा वृक्ष बनाता है, उसी प्रकार गुरु अपना ज्ञान देकर शिष्य को अपने जैसा मनुष्य बनाता है। मूल वृक्ष शिव है, उससे निकले अन्य वृक्ष लोकभाषा में दुमदुमा (द्रुम से द्रुम) हैं। दुमदुमा हनुमान् का प्रतीक है।
वटविटपसमीपे भूमिभागे निषण्णं, सकलमुनिजनानां ज्ञानदातारमारात्।
त्रिभुवनगुरुमीशं दक्षिणामूर्तिदेवं, जननमरणदुःखच्छेददक्षं नमामि॥११॥ (दक्षिणामूर्ति स्तोत्र)
(३) मनुष्य रूप में-कूर्म, वायु, ब्रह्माण्ड आदि पुराणों में ज्ञान अवतार के रूप में शिव के २८ अवतार वर्णित हैं। प्रथम स्वायम्भुव मनु (२९१०२ ई.पू.-ब्रह्माण्ड पु.) को ब्रह्मा भी कहा है, जिन्होंने सबसे पहले वेद की सृष्टि की। सभी अवतार २८ व्यास हैं-अन्तिम कृष्ण द्वैपायन व्यास महाभारत काल में थे। कूर्म पुराण में इनको शिव का अवतार कहा है। ११वें ऋषभ देव को जल-प्रलय के बाद पुनः सभ्यता स्थापित करने के लिये विष्णु अवतार भी कहा है।
(४) काल रूप- -अव्यक्त विश्व से व्यक्त विश्व होने पर ताप, तेज आदि के भेद हुये जो इनकी कला हैं। भेदों में परिवर्तन का अनुभव काल है। परिवर्तन की क्रिया विष्णु, तथा उसका अनुभव या माप शिव है। निर्माण या परिवर्तन यज्ञ है, अतः शिव और विष्णु दोनों को यज्ञ कहा गया है। परिवर्तन के अनुसार ४ प्रकार के काल तथा ४ पुरुष हैं-
(क) क्षर पुरुष-नित्य काल-जो स्थिति एक बार चली गयी वह वापस नहीं आती है, बालक वृद्ध हो सकता है, वृद्ध बालक नहीं। अतः इसे मृत्यु भी कहते हैं।  
(ख) अक्षर पुरुष-जन्य काल-क्रियात्मक परिचय अक्षर है। यज्ञ चक्र से काल की माप होती है अतः इसे जन्य कहते हैं। प्राकृतिक चक्रों दिन, मास, वर्ष से काल की माप होती है।
(ग) अव्यय पुरुष-पुरुष में परिवर्तन का क्रम अव्यय है, क्योंकि कुल मिला कर कोई अन्तर नहीं होता, एक जगह जो वृद्धि है उतना दूसरे स्थान पर क्षय होता है। अतः इसे अक्षय काल कहते हैं।  कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो (गीता ११/३२)
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः । अनेन प्रसविष्यध्वमेषवोऽस्त्विष्ट कामधुक् ॥१०॥
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ….॥१६॥ (गीता, ३) कालः कलयतामहम् ॥(गीता, १०/३०)
(घ) अतिसूक्ष्म या अति विराट् हमारे अनुभव से परे है अतः वह परात्पर पुरुष तथा उसका काल परात्पर काल है (भागवत पुराण ३/११)।
(५) काल के शिव रुद्र रूप-विश्व की क्रियाओं का समन्वय नृत्य है। जब क्रियाओं का परस्पर मेल होता है तो वह लास्य है, अतः इससे रास रूप सृष्टि होती है। जब क्रियाओं में ताल-मेल नहीं होता तो वह शिव (रुद्र) का ताण्डव होता है जिससे प्रलय होता है। वर्ष में संवत्सर को अग्नि रूप कहते हैं, इसका आरम्भ सम्वत् जलाने से होता है। धीरे धीरे अग्नि खर्च होती रहती झै। जब बिल्कुल खाली हो जाती है, तो फाल्गुन मास होता है। फल्गु = खाली (फल्ग्व्या च कलया कृताः= असत् से सत् की सृष्टि हुयी-गजेन्द्र मोक्ष)। यह खाली बाल्टी जैसा है अतः इसे दोल पूर्णिमा भी कहते हैं। सम्वत्सर रूप सृष्टि का अन्त शिव का श्मशान है, जिसके बाद पुनः सम्वत् जला कर नया वर्ष आरम्भ होता है। अतः फाल्गुन मास शिव मास है। मास में शुक्ल पक्ष में चन्द्र का प्रकाश बढ़ता है अतः यह रुद्र रूप है। कृष्ण पक्ष शिव है। कृष्ण पक्ष में भी रात्रि को जब चतुर्दशी तिथि होगी तब शिवरात्रि होगी, क्यों कि १४ भुवन हैं, जो तेज शान्त होने से उत्पन्न हुये हैं। शान्त या शिव अवस्था में ही सृष्टि होती है। जिस विचार से सृष्टि सम्भव है वह सङ्कल्प है-तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु (यजुर्वेद ३४/१-५)। अतः फाल्गुन कृष्ण पक्ष १४ (रात्रि कालीन) तिथि को महाशिवरात्रि होती है।
(६) लिङ्ग-लीनं + गमयति = लिंग। ३ प्रकार के लिंग हैं-
मूल स्वरूप लिङ्गत्वान्मूलमन्त्र इति स्मृतः । सूक्ष्मत्वात्कारणत्वाच्च लयनाद् गमनादपि ।
लक्षणात्परमेशस्य लिङ्गमित्यभिधीयते ॥ (योगशिखोपनिषद्, २/९, १०)
(क) स्वयम्भू लिङ्ग-लीनं गमयति यस्मिन् मूल स्वरूपे। जिस मूल स्वरूप में वस्तु लीन होती है तथा उसी से पुनः उत्पन्न होती है, वह स्वयम्भू लिंग है। यह एक ही है। (ख) बाण लिंग-लीनं गमयति यस्मिन् दिशायाम्-जिस दिशा में गति है वह बाण लिंग है। बाण चिह्न द्वारा गति की दिशा भी दिखाते हैं। ३ आयाम का आकाश है, अतः बाण लिंग ३ हैं। (ग) इतर लिंग-लीनं गमयति यस्मिन् बाह्य स्वरूपे-जिस बाहरी रूप या आवरण में वस्तु है वह इतर (other) लिंग है। यह अनन्त प्रकार का है, पर १२ मास में सूर्य की १२ प्रकार की ज्योति के अनुसार इसे १२ ज्योतिर्लिंगों में विभक्त किया गया है।
आकाश में विश्व का मूल स्रोत अव्यक्त लिंग है, ब्रह्माण्डों के समूह के रूप में व्यक्त स्वयम्भू लिंग है। ब्रह्माण्ड या आकाशगंगा से गति का आरम्भ होता है, अतः यह बाण-लिंग है। सौर मण्डल में ही विविध सृष्टि होती है अतः यह इतर लिंग है।
भारत में अव्यक्त स्वयम्भू लिंग भुवनेश्वर का लिंगराज है, जो जगन्नाथ धाम की सीमा है। वेद में उषा सूक्त में पृथ्वी परिधि का १/२ अंश = ५५.५ कि.मी. धाम है, जगन्नाथ मन्दिर से उतनी दूरी पर एकाम्र क्षेत्र तथा लिंगराज है। व्यक्त स्वयम्भू लिंग ब्रह्मा के पुष्कर क्षेत्र की सीमापर मेवाड़ का एकलिंग है। त्रिलिंग क्षेत्र तेलंगना है, जो अब नया राज्य बना है। जनमेजय काल में यह त्रिकलिंग का भाग था। १२ ज्योतिर्लिंग भारत के १२ स्थानों में हैं।
शरीर में मूलाधार में स्वयम्भू लिंग है क्योंकि यहां के अंगों से प्रजनन होता है। शरीर के भीतर श्वास और रक्त सञ्चार हृदय के अनाहत चक्र से होते हैं अतः यह बाण लिंग है। विविध वस्तुओं का स्वरूप आंख से दीकता है तथा मस्तिष्क द्वारा बोध होता है, अतः इसके आज्ञा चक्र में इतर लिंग है।
योनिस्थं तत्परं तेजः स्वयम्भू लिङ्ग संस्थितम् । परिस्फुरद् वादि सान्तं चतुर्वर्णं चतुर्दलम् ।
कुलाभिधं सुवर्णाभं स्वयम्भू लिङ्ग संगतम् । हृदयस्थे अनाहतं नाम चतुर्थं पद्मजं भवेत् ।
पद्मस्थं तत्परं तेजो बाण लिङ्गं प्रकीर्त्तितम् । आज्ञापद्मं भ्रुवो र्मध्ये हक्षोपेतं द्विपत्रकम् ।
तुरीयं तृतीय लिङ्गं तदाहं मुक्तिदायकः । (शिवसंहिता, पटल ५)
(७) शब्द लिंग-अव्यक्त शब्दों को व्यक्त अक्षरों द्वारा प्रकट करना भी लिंग (Lingua = language) है। लिंग पुराण में अलग अलग उद्देश्यों के लिये अलग अलग लिपियों का उल्लेख है-शुद्ध स्फटिक संकाशं शुभाष्टस्त्रिंशदाक्षरम् । मेधाकरमभूद् भूयः सर्वधर्मार्थ साधकम् ॥८३॥
गायत्री प्रभवं मन्त्रं हरितं वश्यकारकम् । चतुर्विंशति वर्णाढ्यं चतुष्कलमनुत्तमम् ॥८४॥
अथर्वमसितं मन्त्रं कलाष्टक समायुतम् । अभिचारिकमत्यर्थं त्रयस्त्रिंशच्छुभाक्षरम्॥८५॥
यजुर्वेद समायुक्तम् पञ्चत्रिंशच्छुभाक्षरम् । कलाष्टक समायुक्तम् सुश्वेतं शान्तिकं तथा॥८६॥
त्रयोदश कलायुक्तम् बालाद्यैः सह लोहितम् । सामोद्भवं जगत्याद्यं बृद्धिसंहार कारकम् ॥८७॥
वर्णाः षडधिकाः षष्टिरस्य मन्त्रवरस्य तु । पञ्च मन्त्रास्तथा लब्ध्वा जजाप भगवान् हरिः ॥८८॥
(लिङ्ग पुराण १/१७)
गायत्री के २४ अक्षर-४ प्रकार के पुरुषार्थ के लिये।
कृष्ण अथर्व के ३३ अक्षर-अभिचार के लिये।
३८ अक्षर-धर्म और अर्थ के लिये (मय लिपि के ३७ अक्षर=अवकहडा चक्र + ॐ)
यजुर्वेद के ३५ अक्षर-शुभ और शान्ति के लिये-३५ अक्षरों की गुरुमुखी लिपि।
साम के ६६ अक्षर-संगीत तथा मन्त्र के लिये।
(८) दिगम्बर-ज्ञान अव्यक्त होता है अतः शिव को दिगम्बर कहा गया है। क्रिया व्यक्त होती है-उसमें भीतरी गति कृष्ण तथा बाह्य गति जो दीखती है वह शुक्ल है। अतः क्रिया या यज्ञ रूप विष्णु का शरीर कृष्ण पर उनका वस्त्र श्वेत है। हम ज्ञान या क्रिया रूप की ही उपासना करते हैं ( २ प्रकार की निष्ठा), पदार्थ रूप ब्रह्मा की नहीं। अतह शैव और वैष्णव के समान दिगम्बर और श्वेताम्बर मार्ग जैन धर्म में हैं।
लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्। (गीता ३/३)
नित्याय शुद्धाय दिगम्बराय तस्मै नकाराय नमः शिवाय।१।
दिव्याय देवाय दिगम्बराय तस्मै य काराय नमः शिवाय।५। (शिव पञ्चाक्षर स्तोत्र)
शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम् । प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये॥ (विष्णु स्तोत्र)
(९) महादेव-किसी पुर या वस्तु का प्रभाव क्षेत्र महर् है। आकाश में यह सौर मण्डल का बाहरी आवरण है। इसके देवता महादेव हैं। जिस मनुष्य में यज्ञ रूपी वृषभ रव करता है, वह महादेव के समान पूजनीय है। अतः यज्ञ संस्था आरम्भ करने वाले पुरु को सम्मान के लिये पुरु-रवा कहा गया और भोजपुरी में आज भी सम्मान के लिये रवा सम्बोधन होता है। मनुष्य रूप में शिव के ११ वें अवतार को भी ऋषभ देव कहा गया (कूर्म पुराण, अध्याय १०), जो ३ प्रकार के यज्ञों असि-मसि-कृषि का पुनरुद्धार करने के कारण स्वायम्भुव मनु (ब्रह्मा) के वंशज कहे गये हैं। यह इस युग में जैन धर्म के प्रथम तीर्थङ्कर हुये। महर् की सीमा महावीर है जो हनुमान् रूप में शिव के पुत्र या अवतार हैं। जब अपना युग समाप्त होता है तब पुत्र का आरम्भ होता है। अतः तीर्थङ्कर परम्परा के अन्तिम को भी महावीर कहा गया।
(१०) प्राण रूप-किसी भी पिण्ड में स्थित ब्रह्म ॐ है। प्राण रूप में गति होने पर वह रं है। उसके कारण क्रिया होने पर वह कं (कर्त्ता) है। शान्त अवस्था शं है जिसमें सृष्टि बनी रहती है। तीनों का समन्वय है शंकर = शं + कं + रं। ब्रह्म को ॐ तत्सत् कहते हैं (गीता १७/२३), ॐ गतिशील होने पर रं है। व्यक्ति का निर्देश (तत्) नाम से होता है अतः व्यक्ति के प्राण निकलने पर उसे ॐ तत्सत् के स्थान पर राम (रं)-नाम सत् कहते हैं। 
प्राणो वै रं प्राणे हीमानि भूतानि रमन्ते। (बृहदारण्यक उपनिषद् ५/१२/१)
प्राणो वै वायुः। (मैत्रायणी उपनिषद् ६/३३)
ॐ तत्सदिति निर्देशः ब्रह्मणः त्रिविधः स्मृतः (गीता १७/२३)
(११) मृत्युञ्जय-नित्य काल के रूप में शिव मृत्यु हैं अतः मृत्यु को जीतने के लिये उनके महामृत्युञ्जय मन्त्र का पाठ होता है।
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥
(ऋग्वेद ७/५९/१२, अथर्व १४/१/१७, वाजसनेयी यजुर्वेद ३/६०, तैत्तिरीय सं. १/८/६/२)
हम ३ अम्बक (सृष्टि के ३ स्रोत, पृथ्वी-आकाश के ३ जोड़े) रूप में शिव की पूजा करते हैं, जिससे हमें सुगन्धि (पृथ्वी तत्त्व का गुण गन्ध है, भौतिक सम्पत्ति की वृद्धि सुगन्धि है) मिले तथा उससे अपनी पुष्टि हो। शिव के ज्ञान तथा प्रसाद से मनुष्य मृत्यु के बन्धन से वैसे ही मुक्त हो जाता है जैसे वट वृक्ष से उसका फल स्वतः गिर जाता है।
३ अम्बकों (पूर्ण विश्व, ब्रह्माण्ड, सौर मण्डल) का क्षेत्र गौरी है, जिनको त्र्यम्बका कहते हैं-
सर्वमंगल माङ्गल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणी नमोऽस्तु ते। (दुर्गा सप्तशती ११/१०)

साभार: अरुण उपाध्याय, https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=10208645294369653&id=1829149612

Monday 12 February 2018

History of Brahmin resistance to destroyers of Hinduism and India

Hindu Shahi---a Brahminical Dynasty formed the last defense of Gandhara before they fell to Jihadists.

Konkani Brahmins acted as a bulwark against Portuguese Christian terrorists, leading to the mass genocide of Brahmins, causing 2 million casualties and rapes of several thousand women. The fathers, husbands and children of these women had their eyelids removed, forced to watch the indescribable horrors. Francis Xavier---founder of Anti-Brahminism said, "If there were no Brahmins in the area, all Hindus would accept conversion to our faith."

The Holocaust of Kashmiri Brahmins began since the day Sikandar Butshikan became the Sultan of Miri dynasty which ended in the bloodbath and mass exodus of Pundits in 1990 annihilating Kashmir's ethnic culture---Kashmiri Shaivism.

Post the excruciating killing of Sambhaji Maharaj, Maratha empire was reduced to small territory before Brahminical Peshwas starting with Bajirao I not just revived it but controlled Bharatavarsha under Maratha confederacy by 1812 before they were toppled by British.

Sikh empire---predominantly made-up of Mohyal Brahmins and Vedis sustained bouts off attacks from British before they too were downsized.

Post the collapse of Maratha and Sikh empire, British besieged India by 1857. Brahmins formed majority of the Bengali remnants led by Mangal Pandey that hard fought British before being taken out and had their women raped by British, Balochis and Pashtuns.

British after realizing the role of Brahmins in 1857 revolt, viciously attacked Brahmins physically, militarily, psychologically and intellectually. Colonials orchestrated the pogrom against their eradication in 1921 & 1923 and by Republic of India in 1949 & 1959 through confiscation of temples, treasuries, land, water bodies, gymnasiums, their right to propagate education, culture and the pogrom is still carried out by the present intellectually bereft government.

Currently Brahmins are unconscionably abused, persecuted and mauradered by politicians, state, media, intelligentsia, Missionaries, Mullahs and communists. Unfortunately some of the so-called Hindu Nationalists and left diaspora have Anti-Brahminism as a common denominator. Anti-Brahminism has been a genocidal tool used to destroy Brahmins, thereby Hindus and Sanatana Dharma.

To our dismay modern day Brahmins indoctrinated with concocted history of British are made to be guilt-stricken for something that their forefathers hadn't committed and some of them are enamored by Marxist ideologue turn out to be the traitors of Brahmins and Hindus. Many fled Bharat due to persecution at the hands of Jihadists/Dravidianists/Communists/state and due to reservations that failed to recognize their meritocracy.

History stands as a testimony that every time Brahmins fell so did Hindudom. With decreasing birth rates among Brahmins, holocaust perpetrated at them, imminent exodus in many states, Brahmin populace would be extinct within 3 generations rendering Brahminhood as a defunct identity. At the rate in which temples are pillaged, and recent conscientious fire attacks on 4 temples that took place in Tamil Nadu, temple eco-system will also cease to exist. Soon both our internal and external enemies have a field day ravaging Bharat from within and outside and Hindu civilization will be obliterated from the face of the earth.

Christians, Mohammedans and Marxists laid waste every civilization they spread their tentacles into. But to all the contributions of our forefathers, Hindu civilization has survived 1200 years of massive onslaughts which is the only thing that invokes conviction in me.

I call for Brahmins from all walks of life from different states to Unite and wield Dharma which is what you're destined for. I also urge Hindus from every castes to shield Brahmins. Their survival is pertinent in order for yours. Our forefathers didn't acquire this civilization.. They built it and protected it using blood and sweat.. It's upto us to revive it to its Zenith, do justice for our forefathers and hand it over to our posterity, so that they don't become despondent like us.

- Sooraj Kumar 🌸🌷
Courtesy:
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1061826200627020&id=100003989518451

विश्वगुरु_भारत_से_विकासशील_भारत_का_सफर

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