हिन्दुओं की घृणा के कारण, थक-हार गया था क्रूर बाबर
इस लेख में यहां कुछ अंश ‘बाबरनामा’ से देना चाहेंगे, जिनसे बाबर के भारत के विषय में विचारों पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। मूल सन्दर्भ है "बाबरनामा - अनु रिजवी".
हिंदुस्तान के शासक
हिंदुस्थान के शासकों के विषय में बाबर कहता है - ‘‘जब मैंने हिंदुस्थान को विजय किया, तो वहां पांच मुसलमान तथा दो काफिर बादशाह राज्य करते थे। इन लोगों को बड़ा सम्मान प्राप्त था और ये स्वतंत्र रूप में शासन करते थे। इनके अतिरिक्त पहाडिय़ों तथा जंगलों में भी छोटे-छोटे राय एवं राजा थे किंतु उनको अधिक आदर सम्मान प्राप्त नही था।’’ ‘‘सर्वप्रथम अफगान थे जिनकी राजधानी देहली थी... मीरा से लेकर बिहार तक के स्थान उनके अधिकार में थे। अफगानों के पूर्व में जौनपुर सुल्तान हुसैन शकी के अधीन था। वे लोग सैयद थे। दूसरे, गुजरात में सुल्तान मुजफ्फर था। इब्राहीम की पराजय के कुछ दिन पूर्व उसकी मृत्यु हो गयी थी। तीसरे दक्षिण में बहमनी थे, किंतु आजकल दक्षिण के सुल्तानों की शक्ति एवं अधिकार छिन्न-भिन्न हो गया है। उनके समस्त राज्य पर उनके बड़े बड़े अमीरों ने अधिकार जमा लिया है। चौथे मालवा में, जिसे मंदू भी कहते हैं, सुल्तान महमूद भी था। वे खिलजी सुल्तान कहलाते हैं, किंतु राणा सांगा ने उसे पराजित करके उसके राज्य के अधिकांश भाग पर अधिकार स्थापित कर लिया था। यह वंश भी शक्तिहीन हो गया था। पांचवें बंगाल के राज्य में नुसरतशाह था। वह सैयद था उसकी उपाधि सुल्तान अलाउद्दीन थी।’’ ‘‘इनके अतिरिक्त हिंदुस्तान में चारों ओर राय एवं राजा बड़ी संख्या में फैले हुए हैं। बहुत से मुसलमानों के आज्ञाकारी हैं, और (उनमें से) कुछ दूर होने के कारण उनके स्थान बड़े दृढ़ हैं। वे मुसलमान बादशाहों के अधीन नही हैं।’’
‘हिन्दुस्थान की ताकत’ का अर्थ
बाबर ने एक प्रकार से यहां भारत की राजनीतिक स्थिति को स्पष्ट किया है। सामान्यत: भारत के इन राज्यों को शक्ति (ताकत) कहने का प्रचलन मुसलमान बादशाहों के काल में ही स्थापित हुआ। ‘हिंदुस्तान की कोई ताकत नही’, जो ऐसा कर दे या वैसा कर दे। ऐसी बातें हम अपने सामान्य वार्तालाप में भी करते हैं। वस्तुत: हमारे वार्तालाप में यह शब्दावली मुसलमानी शासकों के काल से आयी है। ये लोग राष्ट्र को रियासत और राज्य की सैन्य शक्ति के आधार पर उसे शक्ति नाम से पुकारते थे। इस शक्ति के साथ लगने वाला सैन्य शब्द छूट गया, और शक्ति ही रह गया। यह काल केवल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को अपनी सैन्य शक्ति के आधार पर पूर्ण करने का था, जिसके लिए वर्चस्व का संघर्ष केवल राज्य विस्तार में ही देखा जाता था। इसका एक कारण यह भी था कि जितना अधिक राज्य विस्तार होगा उतना ही देश के आर्थिक संसाधनों पर अधिकार होगा, और जितना अधिक आर्थिक संसाधनों पर अधिकार होगा, उतना ही अधिक सैन्यबल रखा जा सकता है। इससे राज्य की शक्ति का अनुमान लगा लिया जाता था इसलिए रियासतों को लोग ‘ताकत’ कहकर भी पुकारते थे। उस समय हिंदुस्थान में ‘ताकतें’ तो थीं, परंतु कोई चक्रवर्ती सम्राट नही था, इसलिए ये ‘ताकतें’ परस्पर संघर्ष करती रहती थीं।
राणा संग्राम सिंह की चुनौती
बाबर को उस समय प्रमुख रूप से इब्राहीम लोदी ओर सबसे अधिक शक्ति संपन्न राणा संग्राम सिंह ने चुनौती दी थी। बाबर को इब्राहीम लोदी से संघर्ष करने के उपरांत भी यह अनुमान था कि जब तक राणा संग्राम सिंह से दो-दो हाथ नही हो जाते हैं, तब तक हिंदुस्थान पर निष्कंटक होकर राज्य किया जाना असंभव है। भारत की राजनीतिक परिस्थितियों को वह अपने लिए अनुकूल मान रहा था पर उनमें सबसे बड़ी बाधा राणा संग्राम सिंह ही थे। बाबर ने तत्कालीन हिंदुस्थान के प्रदेश और नगरों का वर्णन करते हुए लिखा है-‘‘हिंदुस्थान के प्रदेश और नगर अत्यंत कुरूप हैं। इसके नगर और प्रदेश सब एक जैसे हैं। इसके बागों के आसपास दीवारें नही हैं और इसका अधिकांश भाग मैदान है। कई स्थानों पर ये मैदान कांटेदार झाडिय़ों से इतने ढंके हुए हैं कि परगनों के लोग इन जंगलों में छिप जाते हैं। (ये छिपने वाले हिंदू स्वतंत्रता सेनानी ही होते थे।) वे समझते हैं कि वहां पर उनके पास कोई नही पहुंच सकता। इस प्रकार ये लोग प्राय: विद्रोह (अर्थात हिंदू अपना स्वतंत्रता संग्राम चलाते रहते हैं) करते रहते हैं, और कर नही देते हैं। भारतवर्ष में गांव ही नही, बल्कि नगर भी एकदम उजड़ जाते हैं और बस जाते हैं। (यह बहुत ही महत्वपूर्ण संकेत बाबर ने दिया है-इसका अर्थ है कि किसी मुस्लिम आक्रांता के आक्रमण के समय भारतवर्ष के शहर बड़ी शीघ्रता से उजड़ जाते हैं और आक्रांता के निकल जाने पर लोगों के लौट आने पर उतनी ही शीघ्रता से पुन: बस भी जाते हैं) बड़े-बड़े नगरों जो कितने ही बरसों से बसे हुए हैं, खतरे (मुस्लिम आक्रमण) की खबर सुनकर एक दिन में या डेढ़ दिन में ऐसे सूने हो जाते हैं कि वहां आबादी का कोई चिन्ह भी नही मिलता। लोग भाग जाते हैं।’’
वास्तव में बाबर ने यहां भारत के लोगों के उस संघर्षपूर्ण जीवन और स्वतंत्रता के प्रति समर्पण का संकेत यहां दिया है जिसको अपनाते-अपनाते वह उसके अभ्यस्त हो गये थे। लोगों को अपनी स्वतंत्रता और अपना धर्मप्रिय था उसके लिए चाहे जितने कष्ट आयें, वे सब उन्हें सहर्ष स्वीकार थे और कष्ट संघर्ष का ही दूसरा नाम है। इसलिए बाबर ने उक्त वर्णन में भारतीयों के द्वारा कष्टों के सहने की क्षमता और अपने राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति समर्पण का भाव स्पष्ट होता है। बाबर ने अपने काल में जिन-जिन नगरों में यह स्थिति देखी होगी उन्हीं के विषय में अपना दृढ़ मत उसने स्पष्ट किया है। उसने कहीं पर यह नही लिखा कि अमुक शहर इस प्रकार की प्रवृत्ति का अपवाद रहा और जब वह उक्त शहर में प्रविष्ट हुआ तो लोगों ने एक सामूहिक याचना की और अपना धर्मांतरण कर इस्लाम को स्वीकार कर लिया।
हमारी सामूहिक चेतना
ध्यान देने की बात है कि बाबर मुस्लिम आक्रमणों के समय शहरों के पूर्णत: निर्जन (सूना) होने की बात कहता है। इसका अभिप्राय है कि लोग सामूहिक रूप से पलायन करते थे और पूरे शहर की एक सामूहिक चेतना थी कि इस्लाम स्वीकार नही करना है और चाहे जो कुछ हो जाए, अपनी चोटी नही कहायेंगे और अपना यज्ञोपवीत नही उतारेंगे। इन बातों को जब कोई भी जाति अपना राष्ट्रीय चरित्र बना लेती है या अपना युग धर्म बनाकर उन्हीं के लिए जीने मरने का संकल्प ले लेती है, तो इतिहास उसे संघर्ष करते देखता है और उसका निरूपण भी इसी प्रकार की जाति के रूप में किया करता है। हमें गर्व होना चाहिए कि हमारे आर्य (हिंदू) पूर्वजों ने बड़ी सफलता से इस प्रकार के गुणों को अपना राष्ट्रधर्म या युग धर्म घोषित किया।
बाबर को कैसा लगा हिंदुस्थान
बाबर ने भारतवर्ष के विषय में लिखा है-‘‘हिंदुस्तान की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह बहुत बड़ा देश है। यहां अत्यधिक सोना चांदी है। शीतकाल तथा ग्रीष्म ऋतु में भी हवा बड़ी ही उत्तम रहती है। यहां बल्ख तथा कंधार के समान तेज गर्मी नही पड़ती और जितने समय तक वहां गर्मी पड़ती है उसकी अपेक्षा यहां आधे समय तक भी गर्मी नही पड़ती। हिंदुस्तान का एक बहुत बड़ा गुण यह है कि यहां हर प्रकार एवं हर कला के जानने वाले असंख्य कारीगर पाये जाते हैं। प्रत्येक कार्य तथा कला के लिए जातियां निश्चित हैं, जो पूर्वजों के समय से वही कार्य करती चली आ रही है."
मौहम्मद बिन कासिम भी हो गया था मुग्ध
स्पष्ट है कि बाबर को भारत का प्राकृतिक सौंदर्य तो मंत्रमुग्ध करने वाला लगा ही साथ ही उसे भारत की वर्ण-व्यवस्था प्रधान सामाजिक-व्यवस्था भी प्रभावित कर गयी। यही स्थिति मौहम्मद बिन कासिम के लिए बनी थी। उसे भी यह देखकर आश्चर्य हुआ था कि भारत में परंपरा से कारीगरी का कार्य होता है, और उस कारीगरी को लोग परिवार में ही सीख लेते हैं। किसी विद्यालय में जाकर उसके लिए डिग्री लेने की आवश्यकता नही है। परंपरा से ही भारत का ज्ञान संचित है और वह पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ रहा है। जिस व्यवस्था को समाप्त कर यहां डिग्रीधारी लोगों को ही विशेषज्ञ या कुशल शिल्पी होने का प्रमाण पत्र दिये जाने का क्रम आगे चला वह भारत की सामाजिक व्यवस्था को नष्ट करने के लिए अंग्रेजों ने यहां लागू की, उसके परिणाम स्वरूप भारतीय समाज में अनेकों विसंगतियां आ गयी हैं।
भारत की वर्ण-व्यवस्था को समझ नही पाया था बाबर
वास्तव में बाबर के लिए भारत की वर्णव्यवस्था और उसमें फूल फल रहा समाज एक आश्चर्य और कौतूहल का विषय था कि सब लोग बड़े संतोषी भाव से अपने कार्यों में लगे रहते हैं और उनके लिए उन्हें किसी भी प्रकार से राज्यव्यवस्था पर निर्भर नही रहना पड़ता। राज्य के अपने कार्य हैं और प्रजा के अपने कार्य हैं। मानो शांति पूर्ण परिवेश स्थापित किये रखना राज्य का कार्य है और उस शांति पूर्ण परिवेश में अपना कार्यसंपादन करते रहना प्रजा का कार्य है। कहीं पर आजीविका प्राप्ति के लिए संघर्ष नही है।
गांवों ने अपनाए रखी वर्ण-व्यवस्था
परंपरा से अपने ज्ञान को सुरक्षित रखने की प्रवृति के कारण और वर्ण व्यवस्था को आजीविका का प्रमुख माध्यम बनाये रखने के कारण ही भारत नष्ट नही हो पाया। वर्ण-व्यवस्था को जब जातिगत आधार प्रदान किया गया या उसका अर्थ समझने या समझाने में चूक की गयी, तब वह हमारे लिए दुखदायी बनी, अन्यथा अंग्रेजों तक ने भी अपनी चाहे जो शिक्षा पद्घति प्रचलित की भारत की आत्मा कहे जाने वाले गांवों ने उसका पूर्णत: बहिष्कार जारी रखा, और हमने देखा कि हम अपने आपको बचाने में सफल हो गये। बस, वही भारत जो अपनी जीवट शक्ति और सामाजिक वर्ण व्यवस्था के लिए जातिविख्यात था, बाबर को हृदय से प्रभावित कर रहा था।
भारत की अर्थ व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था
भारत की इस वर्ण-व्यवस्था के कारण उसकी अर्थ-व्यवस्था भी उन्नत थी। अर्थव्यवस्था को वर्ण व्यवस्था ने जिस प्रकार अपना अवलंब प्रदान किया अथवा उसके प्रचलन का प्रारंभ किस प्रकार हुआ इस पर 16.6.1986 ई. को संत विनोबा भावे द्वारा लिखा गया एक लेख अच्छा प्रकाश डालता है। उनके अनुसार, वैदिक आख्यानों में ऋषि गृत्स्मद द्वारा कपास का पेड़ बोने और उससे दस सेर कपास प्राप्त करने लकड़ी की तकली से सूत कातने और इस प्रकार वस्त्र बनाने की प्रक्रिया प्रारंभ करने का वर्णन आता है। अरब यात्रियों का मत रहा है कि नौंवी शताब्दी में ढाका की मलमल ने विश्व में धूम मचा रखी थी। इस कपड़ा से बनी साड़ी पूरी की पूरी एक अंगूठी में से निकल जाती थी। सरजी वुडवर्ड ने पुस्तक ‘इंडस्ट्रियल आटर््स ऑफ इंडिया’ में लिखा है-‘‘जहांगीर के काल में 15 गज लंबी और एक गज चौड़ी ढाका की मलमल का भारत 100 ग्रेन (लगभग 7 ग्राम) होता था। अंग्रेज और अन्य अंग्रेजी लेखकों ने तो यहां की मलमल सूती व रेशमी वस्त्रों को बुलबुल की आंख, मयूरकंठ, चांद सितारे, पवन के तारे, बहता पानी और संध्या की ओस जैसी अनेक काव्यमय उपमायें दी हैं।’’
वर्ण-व्यवस्था की सुदृढ़ता ने नही होने दिया पराधीन
बाबर तक आते-आते भारत को लुटते-पिटते हुए लगभग आठ सौ वर्ष हो गये थे। परंतु इसके उपरांत भी भारत की सुव्यवस्थित सामाजिक वर्णव्यवस्था के कारण देश अब भी संपन्न था। बाबर को भी पानीपत के युद्घ के पश्चात पर्याप्त धन संपदा प्राप्त हुई थी। उसकी बुत्री गुलबदन बेगम ने लिखा है-‘‘हजरत बादशाह को पांच बादशाहों का खजाना प्राप्त हुआ और उसने वह सारा खजाना सबमें बांट दिया। उसने 10 मई 1526 ई. को अनेक सरदारों को इकट्ठा किया तथा स्वयं गड़े हुए खजाने का निरीक्षण करने आगरा पहुंचा। उसने 70 लाख सिकंदरी तन्के हजरत जहां बानी (हुमायूं) को प्रदान किये। इसके अतिरिक्त खजाने का एक घर भी यह पता लगाये बिना कि उसमें क्या है? उसे प्रदान कर दिया। अमीरों को उनकी श्रेणी के एवं पद के अनुसार दस लाख से पांच तन्कों तक नकद प्रदान किया गया। समस्त वीरों, सैनिकों को उनकी श्रेणी से अधिक ईनाम देकर सम्मानित किया। सभी भाग्यशाली व्यक्ति छोटे-बड़े पुरस्कृत किये गये। शाही शिविर से लेकर बाजारी शिविर तक के लोगों के लिए कोई भी व्यक्ति पर्याप्त पुरस्कार से वंचित न रहा। सफलता के उद्यान के पौधों के लिए जो बदख्शां, काबुल तथा कंधार में थे नकद धन तथा अन्य वस्तुएं पृथक कर ली गयीं, कामरान मिर्जा को सत्रह लाख तन्के, मुहम्मद जुमान मिर्जा को पंद्रह लाख तन्के इसी प्रकार अस्करी मिर्जा, हिंदाल मिर्जा एवं अंत:पुर की पवित्र एवं सम्मानित महिलाओं और उन सब अमीरों तथा सेवकों के लिए जो उस समय शाही सेना में थे, उनकी श्रेणी के अनुसार उत्तम जवाहरात अप्राप्य वस्त्र सोने तथा चांदी के सिक्के निश्चित किये गये। शाही वंश से संबंधित लोगों एवं पादशाही कृपा की प्रतीक्षा करने वालों को जो समरकंद, खुरासान, काश्गर तथा इराक में थे मजारों के लिए चढ़ावे तथा उपहार भेजे गये। यह भी आदेश हुआ कि काबुल, सदृरह, वरसक, खूस्त तथा बदख्शां के सभी नरनारियों एवं बालकों तथा प्रौढ़ों के लिए एक एक शाहरूखी भेजी जाए। इस प्रकार सभी विशेष तथा साधारण व्यक्तियों को बादशाह के परोपकार द्वारा लाभ हुआ। मक्का, मदीना आदि स्थलों पर भी धन भेजा गया।’’
‘लूट का माल’ परोपकार नही कहा जा सकता
इस लूट के माल को वितरित करना भी वामपंथी इतिहासकारों द्वारा "बाबर का परोपकार" कहा गया है। इतिहास ने इसे इसी प्रकार मान कर जिन हिंदू लोगों ने अपने धन को वापस लेने या ऐसे लुटेरों के विरूद्घ शस्त्र उठाये उन्हें इतिहास ने उल्टा लुटेरा कहना आरंभ कर दिया। इसे ही कहते हैं-‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे।’ बाबर ने मंत्री से लेकर संतरी तक के अपने हर व्यक्ति को, अपने हर संबंधी को मित्र को, परिचित को, अपरिचित को ‘भारत की लूट के माल’ से हिस्सा देकर उन्हें प्रसन्न और संतुष्ट करना चाहा। इसके पीछे कारण था कि उसे भारत का बादशाह माना जाए। पर बाबर यह भूल रहा था कि उसे हिन्दुस्थान का बादशाह उसके अपने लोग नही भारत के लोग मानेंगे, जिनकी संपत्ति और सम्मान का वह भक्षक बन बैठा था। दूसरे, बाबर भारत में कुछ ऐसे लोग रखना चाहता था जो उसे अपना कह सकें, और वह उसके अपने ही लोग हो सकते थे। इसलिए वह उन्हें प्रसन्न कर अपने साथ रखना चाहता था। क्योंकि भारत के लोग बाबर से घोर घृणा करते थे। उन्हें उसके चेहरे और नाम तक से घृणा थी।
अबुल फजल लिखता है-‘‘यद्यपि बाबर के कब्जे में दिल्ली तथा आगरा आ गये थे परंतु हिंदुस्थानी उससे घृणा करते थे। ‘इस प्रकार की घटनाओं में से यह एक विचित्र घटना है कि इतनी महान विजय एवं दान पुण्य के उपरांत इनकी दूसरी नस्ल का होना, हिंदुस्थान वालों का मेल जोल न करने का कारण बन गया, और सिपाही इनसे मेल जोल पैदा करने एवं बेग व श्रेष्ठ जवान हिंदुस्थान में ठहरने को तैयार न थे। यहां तक कि सबसे अधिक विश्वास पात्र ख्वाजा कला बेग का भी व्यवहार बदल गया, तथा बाबर को उसे भी वापस काबुल भेजना पड़ा।’’ (अबुल फजल: ‘अकबरनामा’ अनु. रिजवी) बाबर हिंदुस्थान का बादशाह होकर भी बादशाह नही था, क्योंकि एक बात तो यह थी कि उससे लोग घृणा करते थे, उसके साथ या उसकी सेना या उसके किसी भी व्यक्ति के साथ उठने बैठने तक को लोग तैयार नही थे, दूसरे उसके अपने लोग भारत में रहने को तैयार नही थे। बात साफ थी कि भारत में इन लोगों के लिए घृणा का ही वातावरण नही था, अपितु भय का भी वातावरण था। लोग नगरों और ग्रामों को खाली करके भाग गये, यह दिखने में तो ऐसा लगता है कि जैसे भारतीय डरे और भाग गये, परंतु बीते आठ सौ वर्षों के इतिहास में ऐसे अवसर कितनी ही बार आये थे कि जब भारतीयों ने समय के अनुुसार भागने का निर्णय लिया, परंतु उसके उपरांत बड़ी वीरता और साहस के साथ शत्रु पर प्रहार भी किया और कई बार तो अपने ‘शिकार’ को समाप्त ही कर दिया। इतिहास की यह लंबी हिंदू वीर परंपरा ही थी जो बाबर और उसके लोगों को भारत में ठहरने से रोक रही थी। इतिहास के इस सच को भी इतिहास के पृष्ठों में स्थान मिलना चाहिए। ऐसी परिस्थितियों में बाबर ने हिंदुस्थान के लोगों को आतंकित करने का मन बनाया और उसने आदेश दिया कि काफिरों के सिरों का एक स्तंभ उसी पहाड़ी पर बनाया जाए, जिसके निकट और उसके शिविरों के मध्य युद्घ हुआ था। (बाबरनामा अनु. रिजवी पृष्ठ 251)
बाबर की हत्या का प्रयास
बाबर नामा से ही हमें ज्ञात होता है कि दिसंबर 1526 ई. में बाबर को इब्राहीम लोदी की बुआ ने विष देकर मरवाने का प्रयास किया था, तब बाबर ने दो पुरूषों तथा दो महिलाओं को क्रूरता पूर्वक मरवा दिया था। एक पुरूष के टुकड़े-टुकड़े कर दिये थे बावर्ची की जीवित अवस्था में खाल खिंचवाई। एक महिला को हाथी के नीचे डाल दिया। दूसरी को तोप के मुंह पर रखकर उड़वा दिया। बाबर ने ऐसी क्रूरता भी हिंदू वीरता के भय से भयभीत होकर मचायी थी। वह अपने पाशविक अत्याचारों से लोगों में भय बैठाना चाहता था। इतिहास का उद्देश्य कार्य के कारण को भी स्पष्ट करना होता है, जिससे कि व्यक्तियों या परिस्थितियों का सही निरूपण और सत्यापन किया जा सके। बाबर की क्रूरता और हिंदुओं के उसके प्रति व्यवहार की भी यदि समीक्षा की जाये तो स्पष्ट हो जाएगा कि हिंदुओं की वीरता उसे किस सीमा तक भयभीत कर रही थी? बाबर ने पानीपत के युद्घ के पश्चात ही अपने सैनिकों से जो कुछ कहा था वह भी उसके भीतर के भय को और अधिक स्पष्ट करता है। उसने कहा था-‘‘वर्षों के परिश्रम से कठिनाइयों का सामना करके लंबी यात्राएं करके अपने वीर सैनिकों को युद्घ में झोंक कर और भीषण हत्याकांड करके हमने खुदा की कृपा से दुश्मनों के झुंड को हराया है, ताकि हम उनकी लंबी चौड़ी विशाल भूमि को प्राप्त कर सकें। अब ऐसी कौन सी शक्ति है जो हमें विवश कर रही है और कौन सी आवश्यकता है जिसके कारण हम उन प्रदेशों को छोड़ दें, जिन्हें हमने जीवन को संकट में डालकर जीता है।’’
बात स्पष्ट है कि बाबर को अब भारत की स्वतंत्रता प्रेमी जनता और स्वतंत्रता के परमभक्त राणा संग्राम सिंह से टक्कर लेनी थी। वह जानता था कि भारत जैसे स्वतंत्रता प्रेमी देश में प्रमाद प्रदर्शन कितना घातक होता है? अथर्ववेद (2/15/5) में आया है कि-‘‘जिस प्रकार परमात्मा और देवी देवताओं की शक्तियां भयभीत नही होतीं, उसी प्रकार हम किसी से डरें नही।’’ यह था भारतीयों का आदर्श जो सदियों से उनका मार्गदर्शन कर रहा था। पर विदेशी आक्रांता बाबर या किसी अन्य के लिए ऐसी मार्गदर्शक बातें उनके धर्मग्रंथों में नही थीं। उनके पास केवल काफिरों की हत्या कर और उनके माल असबाब को लूटने के दिये गये निर्देश थे, और बाबर उन्हीं निर्देशों के अनुसार अपना राज्य स्थापित करना चाहता था। {Written by:- राकेश कुमार आर्य}
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