Saturday, 17 June 2017

The great freedom fighter Madan Lal Dhingra

Madan Lal Dhingra
While studying in England, at age of 26 he assassinated Sir William Hutt Curzon Wyllie, a British official, cited as one of the first acts of revolution in the Indian independence movement in the 20th century.

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His statement during his trial :--

I do not want to say anything in defense of myself, but simply to prove the justice of my deed. As for myself, no English law court has got any authority to arrest and detain me in prison, or pass sentence of death on me. That is the reason I did not have any counsel to defend me.

And I maintain that if it is patriotic in an Englishman to fight against the Germans if they were to occupy this country, it is much more justifiable and patriotic in my case to fight against the English. I hold the English people responsible for the murder of eighty millions of Indian people in the last fifty years, and they are also responsible for taking away ₤100,000,000 every year from India to this country. I also hold them responsible for the hanging and deportation of my patriotic countrymen, who did just the same as the English people here are advising their countrymen to do. And the Englishman who goes out to India and gets, say, ₤100 a month, that simply means that he passes a sentence of death on a thousand of my poor countrymen, because these thousand people could easily live on this ₤100, which the Englishman spends mostly on his frivolities and pleasures. Just as the Germans have no right to occupy this country, so the English people have no right to occupy India, and it is perfectly justifiable on our part to kill the Englishman who is polluting our sacred land. I am surprised at the terrible hypocrisy, the farce, and the mockery of the English people. They pose as the champions of oppressed humanity—the peoples of the Congo and the people of Russia—when there is terrible oppression and horrible atrocities committed in India; for example, the killing of two millions of people every year and the outraging of our women. In case this country is occupied by Germans, and the Englishman, not bearing to see the Germans walking with the insolence of conquerors in the streets of London, goes and kills one or two Germans, and that Englishman is held as a patriot by the people of this country, then certainly I am prepared to work for the emancipation of my Motherland. Whatever else I have to say is in the paper before the Court I make this statement, not because I wish to plead for mercy or anything of that kind. I wish that English people should sentence me to death, for in that case the vengeance of my countrymen will be all the more keen. I put forward this statement to show the justice of my cause to the outside world, and especially to our sympathizers in America and Germany.

I have told you over and over again that I do not acknowledge the authority of the Court, You can do whatever you like. I do not mind at all. You can pass sentence of death on me. I do not care. You white people are all-powerful now, but, remember, it shall have our turn in the time to come, when we can do what we like

--MADAN LAL DHINGRA (8 February, 1883 – 16 August, 1909)

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After his execution, Dhingra's body was denied Hindu rites and was buried by British authorities. His family having disowned him, the authorities refused to turn over the body to Savarkar.
Dhingra's coffin was accidentally found while authorities searched for the remains of Shaheed Udham Singh, and re-patriated to India on 12 December 1976.

His remains are kept in one of the main squares, which has been named after him, in the city of Akola in Maharashtra

Courtesy: Shonan Talpade, https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=347127089036007&id=100012161551022

भारतीय मुसल्मानों के हिन्दु पूर्वज मुसलमान कैसे बने?

भारतीय मुसल्मानों के हिन्दु पूर्वज मुसलमान कैसे बने?

इस तथ्य को सभी स्वीकार करते हैं कि लगभग 99 प्रतिशत भारतीय मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू थे। वह स्वधर्म को छोड़ कर कैसे मुसलमान हो गये?अधिकांश हिन्दू मानते हैं कि उनको तलवार की नोक पर मुसलमान बनाया गया अर्थात्‌ वे स्वेच्छा से मुसलमान नहीं बने। मुसलमान इसका प्रतिवाद करते हैं। उनका कहना है कि इस्लाम का तो अर्थ ही शांति का धर्म है। बलात धर्म परिवर्तन की अनुमति नहीं है। यदि किसी ने ऐसा किया अथवा करता है तो यह इस्लाम की आत्मा के विरुद्ध निंदनीय कृत्य है। अधिकांश हिन्दू मुसलमान इस कारण बने कि उन्हें अपने दम घुटाऊ धर्म की तुलना में समानता का सन्देश देने वाला इस्लाम उत्तम लगा।
इस लेख में हम इस्लमिक आक्रान्ताओं के अत्याचारों को सप्रमाण देकर यह सिद्ध करेंगे की भारतीय मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू थे एवं उनके पूर्वजों पर इस्लामिक आक्रान्ताओं ने अनेक अत्याचार कर उन्हें जबरन धर्म परिवर्तन के लिए विवश किया था। अनेक मुसलमान भाइयों का यह कहना हैं कि भारतीय इतिहास मूलत: अंग्रेजों द्वारा रचित हैं। इसलिए निष्पक्ष नहीं है। यह असत्य है। क्यूंकि अधिकांश मुस्लिम इतिहासकार आक्रमणकारियों अथवा सुल्तानों के वेतन भोगी थे। उन्होंने अपने आका की अच्छाइयों को बढ़ा-चढ़ाकर लिखना एवं बुराइयों को छुपाकर उन्होंने अपनी स्वामी भक्ति का भरपूर परिचय दिया हैं। तथापि इस शंका के निवारण के लिए हम अधिकाधिक मुस्लिम इतिहासकारों के आधार पर रचित अंग्रेज लेखक ईलियट एंड डाउसन द्वारा संगृहीत एवं प्रामाणिक समझी जाने वाली पुस्तकों का इस लेख में प्रयोग करेंगे।
भारत पर 7वीं शताब्दी में मुहम्मद बिन क़ासिम से लेकर 18वीं शताब्दी में अहमद शाह अब्दाली तक करीब 1200 वर्षों में अनेक आक्रमणकारियों ने हिन्दुओं पर अनगिनत अत्याचार किये। धार्मिक, राजनैतिक एवं सामाजिक रूप से असंगठित होते हुए भी हिन्दू समाज ने मतान्ध अत्याचारियों का भरपूर प्रतिकार किया। सिंध के राजा दाहिर और उनके बलिदानी परिवार से लेकर वीर मराठा पानीपत के मैदान तक अब्दाली से टकराते रहे। आक्रमणकारियों का मार्ग कभी भी निष्कंटक नहीं रहा अन्यथा सम्पूर्ण भारत कभी का दारुल इस्लाम (इस्लामिक भूमि) बन गया होता। आरम्भ के आक्रमणकारी यहाँ आते, मारकाट -लूटपाट करते और वापिस चले जाते। बाद की शताब्दियों में उन्होंने न केवल भारत को अपना घर बना लिया अपितु राजसत्ता भी ग्रहण कर ली। इस लेख में हम कुछ आक्रमणकारियों जैसे मौहम्मद बिन कासिम,महमूद गजनवी, मौहम्मद गौरी और तैमूर के अत्याचारों की चर्चा करेंगे।
मौहम्मद बिन कासिम
भारत पर आक्रमण कर सिंध प्रान्त में अधिकार प्रथम बार मुहम्मद बिन कासिम को मिला था।उसके अत्याचारों से सिंध की धरती लहूलुहान हो उठी थी। कासिम से उसके अत्याचारों का बदला राजा दाहिर की दोनों पुत्रियों ने कूटनीति से लिया था।
1. प्रारंभिक विजय के पश्चात कासिम ने ईराक के गवर्नर हज्जाज को अपने पत्र में लिखा-'दाहिर का भतीजा, उसके योद्धा और मुख्य मुख्य अधिकारी कत्ल कर दिये गये हैं। हिन्दुओं को इस्लाम में दीक्षित कर लिया गया है, अन्यथा कत्ल कर दिया गया है। मूर्ति-मंदिरों के स्थान पर मस्जिदें खड़ी कर दी गई हैं। अजान दी जाती है। [i]
2. वहीँ मुस्लिम इतिहासकार आगे लिखता है- 'मौहम्मद बिन कासिम ने रिवाड़ी का दुर्ग विजय कर लिया। वह वहाँ दो-तीन दिन ठहरा। दुर्ग में मौजूद 6000 हिन्दू योद्धा वध कर दिये गये, उनकी पत्नियाँ, बच्चे, नौकर-चाकर सब कैद कर लिये (दास बना लिये गये)। यह संख्या लगभग 30 हजार थी। इनमें दाहिर की भानजी समेत 30 अधिकारियों की पुत्रियाँ भी थी[ii]।
महमूद गौरी
मुहम्मद गौरी का नाम भारत के अंतिम हिन्दू सम्राट पृथ्वी राज चौहान को युद्ध में हराने और बंदी बनाकर अफगानिस्तान लेकर जाने के लिए प्रसिद्द है। गजनी मजहबी उन्माद एवं मतान्धता का जीता जागता प्रतीक था।
1. भारत पर आक्रमण प्रारंभ करने से पहले इस 20 वर्षीय सुल्तान ने यह धार्मिक शपथ ली कि वह प्रति वर्ष भारत पर आक्रमण करता रहेगा, जब तक कि वह देश मूर्ति और बहुदेवता पूजा से मुक्त होकर इस्लाम स्वीकार न कर ले। अल उतबी इस सुल्तान की भारत विजय के विषय में लिखता है-'अपने सैनिकों को शस्त्रास्त्र बाँट कर अल्लाह से मार्ग दर्शन और शक्ति की आस लगाये सुल्तान ने भारत की ओर प्रस्थान किया। पुरुषपुर (पेशावर) पहुँचकर उसने उस नगर के बाहर अपने डेरे गाड़ दिये[iii]।
2. मुसलमानों को अल्लाह के शत्रु काफिरों से बदला लेते दोपहर हो गयी। इसमें 15000 काफिर मारे गये और पृथ्वी पर दरी की भाँति बिछ गये जहाँ वह जंगली पशुओं और पक्षियों का भोजन बन गये। जयपाल के गले से जो हार मिला उसका मूल्य 2 लाख दीनार था। उसके दूसरे रिद्गतेदारों और युद्ध में मारे गये लोगों की तलाशी से 4 लाख दीनार का धन मिला। इसके अतिरिक्त अल्लाह ने अपने मित्रों को 5 लाख सुन्दर गुलाम स्त्रियाँ और पुरुष भी बखशो[iv]।
3. कहा जाता है कि पेशावर के पास वाये-हिन्द पर आक्रमण के समय महमूद ने महाराज जयपाल और उसके 15 मुख्य सरदारों और रिश्तेदारों को गिरफ्तार कर लिया था। सुखपाल की भाँति इनमें से कुछ मृत्यु के भय से मुसलमान हो गये। भेरा में, सिवाय उनके, जिन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया, सभी निवासी कत्ल कर दिये गये। स्पष्ट है कि इस प्रकार धर्म परिवर्तन करने वालों की संखया काफी रही होगी[v]।
4. मुल्तान में बड़ी संख्या में लोग मुसलमान हो गये। जब महमूद ने नवासा शाह पर (सुखपाल का धर्मान्तरण के बाद का नाम) आक्रमण किया तो उतवी के अनुसार महमूद द्वारा धर्मान्तरण का अभूतपूर्व प्रदर्शन हुआ[vi]। काश्मीर घाटी में भी बहुत से काफिरों को मुसलमान बनाया गया और उस देश में इस्लाम फैलाकर वह गजनी लौट गया[vii]।
5. उतबी के अनुसार जहाँ भी महमूद जाता था, वहीं वह निवासियों को इस्लाम स्वीकार करने पर मजबूर करता था। इस बलात्‌ धर्म परिवर्तन अथवा मृत्यु का चारों ओर इतना आतंक व्याप्त हो गया था कि अनेक शासक बिना युद्ध किये ही उसके आने का समाचार सुनकर भाग खड़े होते थे। भीमपाल द्वारा चाँद राय को भागने की सलाह देने का यही कारण था कि कहीं राय महमूद के हाथ पड़कर बलात्‌ मुसलमान न बना लिया जाये जैसा कि भीमपाल के चाचा और दूसरे रिश्तेदारों के साथ हुआ था[viii]।
6. 1023 ई. में किरात, नूर, लौहकोट और लाहौर पर हुए चौदहवें आक्रमण के समय किरात के शासक ने इस्लाम स्वीकार कर लिया और उसकी देखा-देखी दूसरे बहुत से लोग मुसलमान हो गये। निजामुद्‌दीन के अनुसार देश के इस भाग में इस्लाम शांतिपूर्वक भी फैल रहा था, और बलपूर्वक भी`[ix]। सुल्तान महमूद कुरान का विद्वान था और उसकी उत्तम परिभाषा कर लेता था। इसलिये यह कहना कि उसका कोई कार्य इस्लाम विरुद्ध था, झूठा है।
7. हिन्दुओं ने इस पराजय को राष्ट्रीय चुनौती के रूप में लिया। अगले आक्रमण के समय जयपाल के पुत्र आनंद पाल ने उज्जैन, ग्वालियर, कन्नौज, दिल्ली और अजमेर के राजाओं की सहायता से एक बड़ी सेना लेकर महमूद का सामना किया। फरिश्ता लिखता है कि 30,000 खोकर राजपूतों ने जो नंगे पैरों और नंगे सिर लड़ते थे, सुल्तान की सेना में घुस कर थोड़े से समय में ही तीन-चार हजार मुसलमानों को काट कर रख दिया। सुल्तान युद्ध बंद कर वापिस जाने की सोच ही रहा था कि आनंद पाल का हाथी अपने ऊपर नेपथा के अग्नि गोले के गिरने से भाग खड़ा हुआ। हिन्दू सेना भी उसके पीछे भाग खड़ी हुई[x]।
8. सराय (नारदीन) का विध्वंस- सुल्तान ने (कुछ समय ठहरकर) फिर हिन्द पर आक्रमण करने का इरादा किया। अपनी घुड़सवार सेना को लेकर वह हिन्द के मध्य तक पहुँच गया। वहाँ उसने ऐसे-ऐसे शासकों को पराजित किया जिन्होंने आज तक किसी अन्य व्यक्ति के आदेशों का पालन करना नहीं सीखा था। सुल्तान ने उनकी मूर्तियाँ तोड़ डाली और उन दुष्टों को तलवार के घाट उतार दिया। उसने इन शासकों के नेता से युद्ध कर उन्हें पराजित किया। अल्लाह के मित्रों ने प्रत्येक पहाड़ी और वादी को काफिरों के खून से रंग दिया और अल्लाह ने उनको घोड़े, हाथियों और बड़ी भारी संपत्ति मिली[xi]।
9. नंदना की विजय के पश्चात् सुल्तान लूट का भारी सामान ढ़ोती अपनी सेना के पीछे-पीछे चलता हुआ, वापिस लौटा। गुलाम तो इतने थे कि गजनी की गुलाम-मंडी में उनके भाव बहुत गिर गये। अपने (भारत) देश में अति प्रतिष्ठा प्राप्त लोग साधारण दुकानदारों के गुलाम होकर पतित हो गये। किन्तु यह तो अल्लाह की महानता है कि जो अपने महजब को प्रतिष्ठित करता है और मूति-पूजा को अपमानित करता है[xii]।
10. थानेसर में कत्ले आम- थानेसर का शासक मूर्ति-पूजा में घोर विश्वास करता था और अल्लाह (इस्लाम) को स्वीकार करने को किसी प्रकार भी तैयार नहीं था। सुल्तान ने (उसके राज्य से) मूर्ति पूजा को समाप्त करने के लिये अपने बहादुर सैनिकों के साथ कूच किया। काफिरों के खून से, नदी लाल हो गई और उसका पानी पीने योग्य नहीं रहा। यदि सूर्य न डूब गया होता तो और अधिक शत्रु मारे जाते। अल्लाह की कृपा से विजय प्राप्त हुई जिसने इस्लाम को सदैव-सदैव के लिये सभी दूसरे मत-मतान्तरों से श्रेष्ठ स्थापित किया है, भले ही मूर्ति पूजक उसके विरुद्ध कितना ही विद्रोह क्यों न करें। सुल्तान, इतना लूट का माल लेकर लौटा जिसका कि हिसाब लगाना असंभव है। स्तुति अल्लाह की जो सारे जगत का रक्षक है कि वह इस्लाम और मुसलमानों को इतना सम्मान बख्शता है[xiii]।
11. अस्नी पर आक्रमण- जब चन्देल को सुल्तान के आक्रमण का समाचार मिला तो डर के मारे उसके प्राण सूख गये। उसके सामने साक्षात मृत्यु मुँह बाये खड़ी थी। सिवाय भागने के उसके पास दूसरा विकल्प नहीं था। सुल्तान ने आदेश दिया कि उसके पाँच दुर्गों की बुनियाद तक खोद डाली जाये। वहाँ के निवासियों को उनके मल्बे में दबा दिया अथवा गुलाम बना लिया गया।चन्देल के भाग जाने के कारण सुल्तान ने निराश होकर अपनी सेना को चान्द राय पर आक्रमण करने का आदेश दिया जो हिन्द के महान शासकों में से एक है और सरसावा दुर्ग में निवास करता है[xiv]।
12. सरसावा (सहारनपुर) में भयानक रक्तपात- सुल्तान ने अपने अत्यंत धार्मिक सैनिकों को इकट्‌ठा किया और द्गात्रु पर तुरन्त आक्रमण करने के आदेश दिये। फलस्वरूप बड़ी संख्या में हिन्दू मारे गये अथवा बंदी बना लिये गये। मुसलमानों ने लूट की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जब तक कि कत्ल करते-करते उनका मन नहीं भर गया। उसके बाद ही उन्होंने मुर्दों की तलाशी लेनी प्रारंभ की जो तीन दिन तक चली। लूट में सोना, चाँदी, माणिक, सच्चे मोती, जो हाथ आये जिनका मूल्य लगभग तीस लाख दिरहम रहा होगा। गुलामों की संखया का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रत्येक को 2 से लेकर 10 दिरहम तक में बेचा गया। द्गोष को गजनी ले जाया गया। दूर-दूर के देशों से व्यापारी उनको खरीदने आये। मवाराउन-नहर ईराक, खुरासान आदि मुस्लिम देश इन गुलामों से पट गये। गोरे, काले, अमीर, गरीब दासता की समान जंजीरों में बँधकर एक हो गये[xv]।
13. सोमनाथ का पतन- अल-काजवीनी के अनुसार 'जब महमूद सोमनाथ के विध्वंस के इरादे से भारत गया तो उसका विचार यही था कि (इतने बड़े उपसाय देवता के टूटने पर) हिन्दू (मूर्ति पूजा के विश्वास को त्यागकर) मुसलमान हो जायेंगे[xvi]।दिसम्बर 1025 में सोमनाथ का पतना हुआ। हिन्दुओं ने महमूद से कहा कि वह जितना धन लेना चाहे ले ले, परन्तु मूर्ति को न तोड़े। महमूद ने कहा कि वह इतिहास में मूर्ति-भंजक के नाम से विखयात होना चाहता है, मूर्ति व्यापारी के नाम से नहीं। महमूद का यह ऐतिहासिक उत्तर ही यह सिद्ध करने के लिये पर्याप्त है कि सोमनाथ के मंदिर को विध्वंस करने का उद्‌देश्य धार्मिक था, लोभ नहीं।मूर्ति तोड़ दी गई। दो करोड़ दिरहम की लूट हाथ लगी, पचास हजार हिन्दू कत्ल कर दिये गये[xvii]। लूट में मिले हीरे, जवाहरातों, सच्चे मोतियों की, जिनमें कुछ अनार के बराबर थे, गजनी में प्रदर्शनी लगाई गई जिसको देखकर वहाँ के नागरिकों और दूसरे देशों के राजदूतों की आँखें फैल गई[xviii]।
मौहम्मद गौरी
मुहम्मद गौरी नाम नाम गुजरात के सोमनाथ के भव्य मंदिर के विध्वंश के कारण सबसे अधिक कुख्यात है। गौरी ने इस्लामिक जोश के चलते लाखों हिन्दुओं के लहू से अपनी तलवार को रंगा था।
1. मुस्लिम सेना ने पूर्ण विजय प्राप्त की। एक लाख नीच हिन्दू नरक सिधार गये (कत्ल कर दिये गये)। इस विजय के पश्चात्‌ इस्लामी सेना अजमेर की ओर बढ़ी-वहाँ इतना लूट का माल मिला कि लगता था कि पहाड़ों और समुद्रों ने अपने गुप्त खजानें खोल दिये हों। सुल्तान जब अजमेर में ठहरा तो उसने वहाँ के मूर्ति-मंदिरों की बुनियादों तक को खुदावा डाला और उनके स्थान पर मस्जिदें और मदरसें बना दिये, जहाँ इस्लाम और शरियत की शिक्षा दी जा सके[xix]।
2. फरिश्ता के अनुसार मौहम्मद गौरी द्वारा 4 लाख 'खोकर' और 'तिराहिया' हिन्दुओं को इस्लाम ग्रहण कराया गया[xx]।
3. इब्ल-अल-असीर के द्वारा बनारस के हिन्दुओं का भयानक कत्ले आम हुआ। बच्चों और स्त्रियों को छोड़कर और कोई नहीं बक्शा गया[xxi]।स्पष्ट है कि सब स्त्री और बच्चे गुलाम और मुसलमान बना लिये गये।
तैमूर लंग
तैमूर लंग अपने समय का सबसे अत्याचारी हमलावर था। उसके कारण गांव के गांव लाशों के ढेर में तब्दील हो गए थे।लाशों को जलाने वाला तक बचा नहीं था।
1. 1399 ई. में तैमूर का भारत पर भयानक आक्रमण हुआ। अपनी जीवनी 'तुजुके तैमुरी' में वह कुरान की इस आयत से ही प्रारंभ करता है 'ऐ पैगम्बर काफिरों और विश्वास न लाने वालों से युद्ध करो और उन पर सखती बरतो।' वह आगे भारत पर अपने आक्रमण का कारण बताते हुए लिखता है। 'हिन्दुस्तान पर आक्रमण करने का मेरा ध्येय काफिर हिन्दुओं के विरुद्ध धार्मिक युद्ध करना है (जिससे) इस्लाम की सेना को भी हिन्दुओं की दौलत और मूल्यवान वस्तुएँ मिल जायें[xxii]।
2. कश्मीर की सीमा पर कटोर नामी दुर्ग पर आक्रमण हुआ। उसने तमाम पुरुषों को कत्ल और स्त्रियों और बच्चों को कैद करने का आदेश दिया। फिर उन हठी काफिरों के सिरों के मीनार खड़े करने के आदेश दिये। फिर भटनेर के दुर्ग पर घेरा डाला गया। वहाँ के राजपूतों ने कुछ युद्ध के बाद हार मान ली और उन्हें क्षमादान दे दिया गया। किन्तु उनके असवाधान होते ही उन पर आक्रमण कर दिया गया। तैमूर अपनी जीवनी में लिखता है कि 'थोड़े ही समय में दुर्ग के तमाम लोग तलवार के घाट उतार दिये गये। घंटे भर में दस हजार लोगों के सिर काटे गये। इस्लाम की तलवार ने काफिरों के रक्त में स्नान किया। उनके सरोसामान, खजाने और अनाज को भी, जो वर्षों से दुर्ग में इकट्‌ठा किया गया था, मेरे सिपाहियों ने लूट लिया। मकानों में आग लगा कर राख कर दिया। इमारतों और दुर्ग को भूमिसात कर दिया गया[xxiii]।
3. दूसरा नगर सरसुती था जिस पर आक्रमण हुआ। 'सभी काफिर हिन्दू कत्ल कर दिये गये। उनके स्त्री और बच्चे और संपत्ति हमारी हो गई। तैमूर ने जब जाटों के प्रदेश में प्रवेश किया। उसने अपनी सेना को आदेश दिया कि 'जो भी मिल जाये, कत्ल कर दिया जाये।' और फिर सेना के सामने जो भी ग्राम या नगर आया, उसे लूटा गया।पुरुषों को कत्ल कर दिया गया और कुछ लोगों, स्त्रियों और बच्चों को बंदी बना लिया गया[xxiv]।'
4. दिल्ली के पास लोनी हिन्दू नगर था। किन्तु कुछ मुसलमान भी बंदियों में थे। तैमूर ने आदेश दिया कि मुसलमानों को छोड़कर शेष सभी हिन्दू बंदी इस्लाम की तलवार के घाट उतार दिये जायें। इस समय तक उसके पास हिन्दू बंदियों की संखया एक लाख हो गयी थी। जब यमुना पार कर दिल्ली पर आक्रमण की तैयारी हो रही थी उसके साथ के अमीरों ने उससे कहा कि इन बंदियों को कैम्प में नहीं छोड़ा जा सकता और इन इस्लाम के शत्रुओं को स्वतंत्र कर देना भी युद्ध के नियमों के विरुद्ध होगा। तैमूर लिखता है- 'इसलिये उन लोगों को सिवाय तलवार का भोजन बनाने के कोई मार्ग नहीं था। मैंने कैम्प में घोषणा करवा दी कि तमाम बंदी कत्ल कर दिये जायें और इस आदेश के पालन में जो भी लापरवाही करे उसे भी कत्ल कर दिया जाये और उसकी सम्पत्ति सूचना देने वाले को दे दी जाये। जब इस्लाम के गाजियों (काफिरों का कत्ल करने वालों को आदर सूचक नाम) को यह आदेश मिला तो उन्होंने तलवारें सूत लीं और अपने बंदियों को कत्ल कर दिया। उस दिन एक लाख अपवित्र मूर्ति-पूजक काफिर कत्ल कर दिये गये[xxv]।
इसी प्रकार के कत्लेआम, धर्मांतरण का विवरण कुतुबुद्दीन ऐबक, इल्लतुमिश, ख़िलजी,तुगलक से लेकर तमाम मुग़लों तक का मिलता हैं। अकबर और औरंगज़ेब के जीवन के विषय में चर्चा हम अलग से करेंगे। भारत के मुसलमान आक्रमणकारियों बाबर, मौहम्मद बिन-कासिम, गौरी, गजनवी इत्यादि लुटेरों को और औरंगजेब जैसे साम्प्रदायिक बादशाह को गौरव प्रदान करते हैं और उनके द्वारा मंदिरों को तोड़कर बनाई गई मस्जिदों व दरगाहों को इस्लाम की काफिरों पर विजय और हिन्दू अपमान के स्मृति चिन्ह बनाये रखना चाहते हैं। संसार में ऐसा शायद ही कहीं देखने को मिलेगा जब एक कौम अपने पूर्वजों पर अत्याचार करने वालों को महान सम्मान देते हो और अपने पूर्वजों के अराध्य हिन्दू देवी देवताओं, भारतीय संस्कृति एवं विचारधारा के प्रति उसके मन में कोई आकर्षण न हो।
(नोट- इस लेख को लिखने में "भारतीय मुसल्मानों के हिन्दु पूरवज (मुसलमान कैसे बने)" नामक पुस्तक लेखक पुरुषोत्तम, प्रकाशक कर्ता हिन्दू राइटर फोरम, राजौरी गार्डन, दिल्ली का प्रयोग किया गया है।)
डॉ विवेक आर्य
[i] इलियटएंड डाउसन खंड-1 पृ.164
[ii] इलियटएंड डाउसन खंड-1 पृ.164
[iii] इलियटएंड डाउसन खंड-1 पृ 24-25
[iv] उपरोक्त पृ. 26
[v] के. एस. लाल : इंडियन मुस्लिम : व्हू आर दे, पृ. 6
[vi] अनेक स्थानों पर महमूद द्वारा धर्मान्तरण के लिये देखे-उतबी की पुस्तक 'किताबें यामिनी' का अनुवाद जेम्स रेनाल्ड्‌स द्वारा पृ. 451-463
[vii] जकरिया अल काजवीनी, के. एस. लाल, उपरोक्त पृ. 7
[viii] ईलियट एंड डाउसन, खंड-2, पृ.40 / के. एस. लाल, पूर्वोद्धत पृ. 7-8
[ix] के. एस. लाल, पूर्वोद्धत पृ. 7
[x] प्रो. एस. आर. द्गार्मा, द क्रीसेन्ट इन इंडिया, पृ. 43
[xi] ईलियट एंड डाउसन, खण्ड-2, पृ. 36
[xii] उपरोक्त, पृ.39
[xiii] उपरोक्त, पृ. 40-41
[xiv] उपरोक्त, पृ. 47
[xv] उपरोक्त, पृ. 49-50
[xvi] के. एस. लाल : इंडियन मुस्लिम व्यू आर दे, पृ. 7
[xvii] प्रो. एस. आर. शर्मा, द क्रीसेन्ट इन इंडिया, पृ. 47
[xviii] ईलियट एंड डाउसन, खण्ड-2, पृ. 35
[xix] उपरोक्त पृ. 215
[xx] के. एस. लाल : इंडियन मुस्लिम व्यू आर दे, पृ. 11
[xxi] उपरोक्त पृ.23
[xxii] सीताराम गोयल द्वारा 'स्टोरी ऑफ इस्लामिक इम्पीरियलिज्म इन इंडिया में उद्धत, पृ. 48
[xxiii]उपरोक्त
[xxiv] उपरोक्त, पृ.49-50
[xxv] सीताराम गोयल द्वारा 'स्टोरी ऑफ इस्लामिक इम्पीरियलिज्म इन इंडिया में उद्धत, पृ. 48

साभार: https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=753180984855209&id=100004899430216

क्रूर लुटेरा बाबर व समसामयिक हिन्दू समाज व्यवस्था

हिन्दुओं की घृणा के कारण, थक-हार गया था क्रूर बाबर

इस लेख में यहां कुछ अंश ‘बाबरनामा’ से देना चाहेंगे, जिनसे बाबर के भारत के विषय में विचारों पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। मूल सन्दर्भ है "बाबरनामा - अनु रिजवी".

हिंदुस्तान के शासक

हिंदुस्थान के शासकों के विषय में बाबर कहता है - ‘‘जब मैंने हिंदुस्थान को विजय किया, तो वहां पांच मुसलमान तथा दो काफिर बादशाह राज्य करते थे। इन लोगों को बड़ा सम्मान प्राप्त था और ये स्वतंत्र रूप में शासन करते थे। इनके अतिरिक्त पहाडिय़ों तथा जंगलों में भी छोटे-छोटे राय एवं राजा थे किंतु उनको अधिक आदर सम्मान प्राप्त नही था।’’ ‘‘सर्वप्रथम अफगान थे जिनकी राजधानी देहली थी... मीरा से लेकर बिहार तक के स्थान उनके अधिकार में थे। अफगानों के पूर्व में जौनपुर सुल्तान हुसैन शकी के अधीन था। वे लोग सैयद थे। दूसरे, गुजरात में सुल्तान मुजफ्फर था। इब्राहीम की पराजय के कुछ दिन पूर्व उसकी मृत्यु हो गयी थी। तीसरे दक्षिण में बहमनी थे, किंतु आजकल दक्षिण के सुल्तानों की शक्ति एवं अधिकार छिन्न-भिन्न हो गया है। उनके समस्त राज्य पर उनके बड़े बड़े अमीरों ने अधिकार जमा लिया है। चौथे मालवा में, जिसे मंदू भी कहते हैं, सुल्तान महमूद भी था। वे खिलजी सुल्तान कहलाते हैं, किंतु राणा सांगा ने उसे पराजित करके उसके राज्य के अधिकांश भाग पर अधिकार स्थापित कर लिया था। यह वंश भी शक्तिहीन हो गया था। पांचवें बंगाल के राज्य में नुसरतशाह था। वह सैयद था उसकी उपाधि सुल्तान अलाउद्दीन थी।’’ ‘‘इनके अतिरिक्त हिंदुस्तान में चारों ओर राय एवं राजा बड़ी संख्या में फैले हुए हैं। बहुत से मुसलमानों के आज्ञाकारी हैं, और (उनमें से) कुछ दूर होने के कारण उनके स्थान बड़े दृढ़ हैं। वे मुसलमान बादशाहों के अधीन नही हैं।’’

‘हिन्दुस्थान की ताकत’ का अर्थ

बाबर ने एक प्रकार से यहां भारत की राजनीतिक स्थिति को स्पष्ट किया है। सामान्यत: भारत के इन राज्यों को शक्ति (ताकत) कहने का प्रचलन मुसलमान बादशाहों के काल में ही स्थापित हुआ। ‘हिंदुस्तान की कोई ताकत नही’, जो ऐसा कर दे या वैसा कर दे। ऐसी बातें हम अपने सामान्य वार्तालाप में भी करते हैं। वस्तुत: हमारे वार्तालाप में यह शब्दावली मुसलमानी शासकों के काल से आयी है। ये लोग राष्ट्र को रियासत और राज्य की सैन्य शक्ति के आधार पर उसे शक्ति नाम से पुकारते थे। इस शक्ति के साथ लगने वाला सैन्य शब्द छूट गया, और शक्ति ही रह गया। यह काल केवल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को अपनी सैन्य शक्ति के आधार पर पूर्ण करने का था, जिसके लिए वर्चस्व का संघर्ष केवल राज्य विस्तार में ही देखा जाता था। इसका एक कारण यह भी था कि जितना अधिक राज्य विस्तार होगा उतना ही देश के आर्थिक संसाधनों पर अधिकार होगा, और जितना अधिक आर्थिक संसाधनों पर अधिकार होगा, उतना ही अधिक सैन्यबल रखा जा सकता है। इससे राज्य की शक्ति का अनुमान लगा लिया जाता था इसलिए रियासतों को लोग ‘ताकत’ कहकर भी पुकारते थे। उस समय हिंदुस्थान में ‘ताकतें’ तो थीं, परंतु कोई चक्रवर्ती सम्राट नही था, इसलिए ये ‘ताकतें’ परस्पर संघर्ष करती रहती थीं।

राणा संग्राम सिंह की चुनौती

बाबर को उस समय प्रमुख रूप से इब्राहीम लोदी ओर सबसे अधिक शक्ति संपन्न राणा संग्राम सिंह ने चुनौती दी थी। बाबर को इब्राहीम लोदी से संघर्ष करने के उपरांत भी यह अनुमान था कि जब तक राणा संग्राम सिंह से दो-दो हाथ नही हो जाते हैं, तब तक हिंदुस्थान पर निष्कंटक होकर राज्य किया जाना असंभव है। भारत की राजनीतिक परिस्थितियों को वह अपने लिए अनुकूल मान रहा था पर उनमें सबसे बड़ी बाधा राणा संग्राम सिंह ही थे। बाबर ने तत्कालीन हिंदुस्थान के प्रदेश और नगरों का वर्णन करते हुए लिखा है-‘‘हिंदुस्थान के प्रदेश और नगर अत्यंत कुरूप हैं। इसके नगर और प्रदेश सब एक जैसे हैं। इसके बागों के आसपास दीवारें नही हैं और इसका अधिकांश भाग मैदान है। कई स्थानों पर ये मैदान कांटेदार झाडिय़ों से इतने ढंके हुए हैं कि परगनों के लोग इन जंगलों में छिप जाते हैं। (ये छिपने वाले हिंदू स्वतंत्रता सेनानी ही होते थे।) वे समझते हैं कि वहां पर उनके पास कोई नही पहुंच सकता। इस प्रकार ये लोग प्राय: विद्रोह (अर्थात हिंदू अपना स्वतंत्रता संग्राम चलाते रहते हैं) करते रहते हैं, और कर नही देते हैं। भारतवर्ष में गांव ही नही, बल्कि नगर भी एकदम उजड़ जाते हैं और बस जाते हैं। (यह बहुत ही महत्वपूर्ण संकेत बाबर ने दिया है-इसका अर्थ है कि किसी मुस्लिम आक्रांता के आक्रमण के समय भारतवर्ष के शहर बड़ी शीघ्रता से उजड़ जाते हैं और आक्रांता के निकल जाने पर लोगों के लौट आने पर उतनी ही शीघ्रता से पुन: बस भी जाते हैं) बड़े-बड़े नगरों जो कितने ही बरसों से बसे हुए हैं, खतरे (मुस्लिम आक्रमण) की खबर सुनकर एक दिन में या डेढ़ दिन में ऐसे सूने हो जाते हैं कि वहां आबादी का कोई  चिन्ह भी नही मिलता। लोग भाग जाते हैं।’’

वास्तव में बाबर ने यहां भारत के लोगों के उस संघर्षपूर्ण जीवन और स्वतंत्रता के प्रति समर्पण का संकेत यहां दिया है जिसको अपनाते-अपनाते वह उसके अभ्यस्त हो गये थे। लोगों को अपनी स्वतंत्रता और अपना धर्मप्रिय था उसके लिए चाहे जितने कष्ट आयें, वे सब उन्हें सहर्ष स्वीकार थे और कष्ट संघर्ष का ही दूसरा नाम है। इसलिए बाबर ने उक्त वर्णन में भारतीयों के द्वारा कष्टों के सहने की क्षमता और अपने राष्ट्रीय आंदोलन के प्रति समर्पण का भाव स्पष्ट होता है। बाबर ने अपने काल में जिन-जिन नगरों में यह स्थिति देखी होगी उन्हीं के विषय में अपना दृढ़ मत उसने स्पष्ट किया है। उसने कहीं पर यह नही लिखा कि अमुक शहर इस प्रकार की प्रवृत्ति का अपवाद रहा और जब वह उक्त शहर में प्रविष्ट हुआ तो लोगों ने एक सामूहिक याचना की और अपना धर्मांतरण कर इस्लाम को स्वीकार कर लिया।

हमारी सामूहिक चेतना

ध्यान देने की बात है कि बाबर मुस्लिम आक्रमणों के समय शहरों के पूर्णत: निर्जन (सूना) होने की बात कहता है। इसका अभिप्राय है कि लोग सामूहिक रूप से पलायन करते थे और पूरे शहर की एक सामूहिक चेतना थी कि इस्लाम स्वीकार नही करना है और चाहे जो कुछ हो जाए, अपनी चोटी नही कहायेंगे और अपना यज्ञोपवीत नही उतारेंगे। इन बातों को जब कोई भी जाति अपना राष्ट्रीय चरित्र बना लेती है या अपना युग धर्म बनाकर उन्हीं के लिए जीने मरने का संकल्प ले लेती है, तो इतिहास उसे संघर्ष करते देखता है और उसका निरूपण भी इसी प्रकार की जाति के रूप में किया करता है। हमें गर्व होना चाहिए कि हमारे आर्य (हिंदू) पूर्वजों ने बड़ी सफलता से इस प्रकार के गुणों को अपना राष्ट्रधर्म या युग धर्म घोषित किया।

बाबर को कैसा लगा हिंदुस्थान

बाबर ने भारतवर्ष के विषय में लिखा है-‘‘हिंदुस्तान की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह बहुत बड़ा देश है। यहां अत्यधिक सोना चांदी है। शीतकाल तथा ग्रीष्म ऋतु में भी हवा बड़ी ही उत्तम रहती है। यहां बल्ख तथा कंधार के समान तेज गर्मी नही पड़ती और जितने समय तक वहां गर्मी पड़ती है उसकी अपेक्षा यहां आधे समय तक भी गर्मी नही पड़ती। हिंदुस्तान का एक बहुत बड़ा गुण यह है कि यहां हर प्रकार एवं हर कला के जानने वाले असंख्य कारीगर पाये जाते हैं। प्रत्येक कार्य तथा कला के लिए जातियां निश्चित हैं, जो पूर्वजों के समय से वही कार्य करती चली आ रही है."
मौहम्मद बिन कासिम भी हो गया था मुग्ध

स्पष्ट है कि बाबर को भारत का प्राकृतिक सौंदर्य तो मंत्रमुग्ध करने वाला लगा ही साथ ही उसे भारत की वर्ण-व्यवस्था प्रधान सामाजिक-व्यवस्था भी प्रभावित कर गयी। यही स्थिति मौहम्मद बिन कासिम के लिए बनी थी। उसे भी यह देखकर आश्चर्य हुआ था कि भारत में परंपरा से कारीगरी का कार्य होता है, और उस कारीगरी को लोग परिवार में ही सीख लेते हैं। किसी विद्यालय में जाकर उसके लिए डिग्री लेने की आवश्यकता नही है। परंपरा से ही भारत का ज्ञान संचित है और वह पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ रहा है। जिस व्यवस्था को समाप्त कर यहां डिग्रीधारी लोगों को ही विशेषज्ञ या कुशल शिल्पी होने का प्रमाण पत्र दिये जाने का क्रम आगे चला वह भारत की सामाजिक व्यवस्था को नष्ट करने के लिए अंग्रेजों ने यहां लागू की, उसके परिणाम स्वरूप भारतीय समाज में अनेकों विसंगतियां आ गयी हैं।

भारत की वर्ण-व्यवस्था को समझ नही पाया था बाबर

वास्तव में बाबर के लिए भारत की वर्णव्यवस्था और उसमें फूल फल रहा समाज एक आश्चर्य और कौतूहल का विषय था कि सब लोग बड़े संतोषी भाव से अपने कार्यों में लगे रहते हैं और उनके लिए उन्हें किसी भी प्रकार से राज्यव्यवस्था पर निर्भर नही रहना पड़ता। राज्य के अपने कार्य हैं और प्रजा के अपने कार्य हैं। मानो शांति पूर्ण परिवेश स्थापित किये रखना राज्य का कार्य है और उस शांति पूर्ण परिवेश में अपना कार्यसंपादन करते रहना प्रजा का कार्य है। कहीं पर आजीविका प्राप्ति के लिए संघर्ष नही है।

गांवों ने अपनाए रखी वर्ण-व्यवस्था

परंपरा से अपने ज्ञान को सुरक्षित रखने की प्रवृति के कारण और वर्ण व्यवस्था को आजीविका का प्रमुख माध्यम बनाये रखने के कारण ही भारत नष्ट नही हो पाया। वर्ण-व्यवस्था को जब जातिगत आधार प्रदान किया गया या उसका अर्थ समझने या समझाने में चूक की गयी, तब वह हमारे लिए दुखदायी बनी, अन्यथा अंग्रेजों तक ने भी अपनी चाहे जो शिक्षा पद्घति प्रचलित की भारत की आत्मा कहे जाने वाले गांवों ने उसका पूर्णत: बहिष्कार जारी रखा, और हमने देखा कि हम अपने आपको बचाने में सफल हो गये। बस, वही भारत जो अपनी जीवट शक्ति और सामाजिक वर्ण व्यवस्था के लिए जातिविख्यात था, बाबर को हृदय से प्रभावित कर रहा था।

भारत की अर्थ व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था

भारत की इस वर्ण-व्यवस्था के कारण उसकी अर्थ-व्यवस्था भी उन्नत थी। अर्थव्यवस्था को वर्ण व्यवस्था ने जिस प्रकार अपना अवलंब प्रदान किया अथवा उसके प्रचलन का प्रारंभ किस प्रकार हुआ इस पर 16.6.1986 ई. को संत विनोबा भावे द्वारा लिखा गया एक लेख अच्छा प्रकाश डालता है। उनके अनुसार, वैदिक आख्यानों में ऋषि गृत्स्मद द्वारा कपास का पेड़ बोने और उससे दस सेर कपास प्राप्त करने लकड़ी की तकली से सूत कातने और इस प्रकार वस्त्र बनाने की प्रक्रिया प्रारंभ करने का वर्णन आता है। अरब यात्रियों का मत रहा है कि नौंवी शताब्दी में ढाका की मलमल ने विश्व में धूम मचा रखी थी। इस कपड़ा से बनी साड़ी पूरी की पूरी एक अंगूठी में से निकल जाती थी। सरजी वुडवर्ड ने पुस्तक ‘इंडस्ट्रियल आटर््स ऑफ इंडिया’ में लिखा है-‘‘जहांगीर के काल में 15 गज लंबी और एक गज चौड़ी ढाका की मलमल का भारत 100 ग्रेन (लगभग 7 ग्राम) होता था। अंग्रेज और अन्य अंग्रेजी लेखकों ने तो यहां की मलमल सूती व रेशमी वस्त्रों को बुलबुल की आंख, मयूरकंठ, चांद सितारे, पवन के तारे, बहता पानी और संध्या की ओस जैसी अनेक काव्यमय उपमायें दी हैं।’’

वर्ण-व्यवस्था की सुदृढ़ता ने नही होने दिया पराधीन

बाबर तक आते-आते भारत को लुटते-पिटते हुए लगभग आठ सौ वर्ष हो गये थे। परंतु इसके उपरांत भी भारत की सुव्यवस्थित सामाजिक वर्णव्यवस्था के कारण देश अब भी संपन्न था। बाबर को भी पानीपत के युद्घ के पश्चात पर्याप्त धन संपदा प्राप्त हुई थी। उसकी बुत्री गुलबदन बेगम ने लिखा है-‘‘हजरत बादशाह को पांच बादशाहों का खजाना प्राप्त हुआ और उसने वह सारा खजाना सबमें बांट दिया। उसने 10 मई 1526 ई. को अनेक सरदारों को इकट्ठा किया तथा स्वयं गड़े हुए खजाने का निरीक्षण करने आगरा पहुंचा। उसने 70 लाख सिकंदरी तन्के हजरत जहां बानी (हुमायूं) को प्रदान किये। इसके अतिरिक्त खजाने का एक घर भी यह पता लगाये बिना कि उसमें क्या है? उसे प्रदान कर दिया। अमीरों को उनकी श्रेणी के एवं पद के अनुसार दस लाख से पांच तन्कों तक नकद प्रदान किया गया। समस्त वीरों, सैनिकों को उनकी श्रेणी से अधिक ईनाम देकर सम्मानित किया। सभी भाग्यशाली व्यक्ति छोटे-बड़े पुरस्कृत किये गये। शाही शिविर से लेकर बाजारी शिविर तक के लोगों के लिए कोई भी व्यक्ति पर्याप्त पुरस्कार से वंचित न रहा। सफलता के उद्यान के पौधों के लिए जो बदख्शां, काबुल तथा कंधार में थे नकद धन तथा अन्य वस्तुएं पृथक कर ली गयीं, कामरान मिर्जा को सत्रह लाख तन्के, मुहम्मद जुमान मिर्जा को पंद्रह लाख तन्के इसी प्रकार अस्करी मिर्जा, हिंदाल मिर्जा एवं अंत:पुर की पवित्र एवं सम्मानित महिलाओं और उन सब अमीरों तथा सेवकों के लिए जो उस समय शाही सेना में थे, उनकी श्रेणी के अनुसार उत्तम जवाहरात अप्राप्य वस्त्र सोने तथा चांदी के सिक्के निश्चित किये गये। शाही वंश से संबंधित लोगों एवं पादशाही कृपा की प्रतीक्षा करने वालों को जो समरकंद, खुरासान, काश्गर तथा इराक में थे मजारों के लिए चढ़ावे तथा उपहार भेजे गये। यह भी आदेश हुआ कि काबुल, सदृरह, वरसक, खूस्त तथा बदख्शां के सभी नरनारियों एवं बालकों तथा प्रौढ़ों के लिए एक एक शाहरूखी भेजी जाए। इस प्रकार सभी विशेष तथा साधारण व्यक्तियों को बादशाह के परोपकार द्वारा लाभ हुआ। मक्का, मदीना आदि स्थलों पर भी धन भेजा गया।’’

‘लूट का माल’ परोपकार नही कहा जा सकता

इस लूट के माल को वितरित करना भी वामपंथी इतिहासकारों द्वारा "बाबर का परोपकार" कहा गया है। इतिहास ने इसे इसी प्रकार मान कर जिन हिंदू लोगों ने अपने धन को वापस लेने या ऐसे लुटेरों के विरूद्घ शस्त्र उठाये उन्हें इतिहास ने उल्टा लुटेरा कहना आरंभ कर दिया। इसे ही कहते हैं-‘उल्टा चोर कोतवाल को डांटे।’ बाबर ने मंत्री से लेकर संतरी तक के अपने हर व्यक्ति को, अपने हर संबंधी को मित्र को, परिचित को, अपरिचित को ‘भारत की लूट के माल’ से हिस्सा देकर उन्हें प्रसन्न और संतुष्ट करना चाहा। इसके पीछे कारण था कि उसे भारत का बादशाह माना जाए। पर बाबर यह भूल रहा था कि उसे हिन्दुस्थान का बादशाह उसके अपने लोग नही भारत के लोग मानेंगे, जिनकी संपत्ति और सम्मान का वह भक्षक बन बैठा था। दूसरे, बाबर भारत में कुछ ऐसे लोग रखना चाहता था जो उसे अपना कह सकें, और वह उसके अपने ही लोग हो सकते थे। इसलिए वह उन्हें प्रसन्न कर अपने साथ रखना चाहता था। क्योंकि भारत के लोग बाबर से घोर घृणा करते थे। उन्हें उसके चेहरे और नाम तक से घृणा थी।

अबुल फजल लिखता है-‘‘यद्यपि बाबर के कब्जे में दिल्ली तथा आगरा आ गये थे परंतु हिंदुस्थानी उससे घृणा करते थे। ‘इस प्रकार की घटनाओं में से यह एक विचित्र घटना है कि इतनी महान विजय एवं दान पुण्य के उपरांत इनकी दूसरी नस्ल का होना, हिंदुस्थान वालों का मेल जोल न करने का कारण बन गया, और सिपाही इनसे मेल जोल पैदा करने एवं बेग व श्रेष्ठ जवान हिंदुस्थान में ठहरने को तैयार न थे। यहां तक कि सबसे अधिक विश्वास पात्र ख्वाजा कला बेग का भी व्यवहार बदल गया, तथा बाबर को उसे भी वापस काबुल भेजना पड़ा।’’ (अबुल फजल: ‘अकबरनामा’ अनु. रिजवी) बाबर हिंदुस्थान का बादशाह होकर भी बादशाह नही था, क्योंकि एक बात तो यह थी कि उससे लोग घृणा करते थे, उसके साथ या उसकी सेना या उसके किसी भी व्यक्ति के साथ उठने बैठने तक को लोग तैयार नही थे, दूसरे उसके अपने लोग भारत में रहने को तैयार नही थे। बात साफ थी कि भारत में इन लोगों के लिए घृणा का ही वातावरण नही था, अपितु भय का भी वातावरण था। लोग नगरों और ग्रामों को खाली करके भाग गये, यह दिखने में तो ऐसा लगता है कि जैसे भारतीय डरे और भाग गये, परंतु बीते आठ सौ वर्षों के इतिहास में ऐसे अवसर कितनी ही बार आये थे कि जब भारतीयों ने समय के अनुुसार भागने का निर्णय लिया, परंतु उसके उपरांत बड़ी वीरता और साहस के साथ शत्रु पर प्रहार भी किया और कई बार तो अपने ‘शिकार’ को समाप्त ही कर दिया। इतिहास की यह लंबी हिंदू वीर परंपरा ही थी जो बाबर और उसके लोगों को भारत में ठहरने से रोक रही थी। इतिहास के इस सच को भी इतिहास के पृष्ठों में स्थान मिलना चाहिए। ऐसी परिस्थितियों में बाबर ने हिंदुस्थान के लोगों को आतंकित करने का मन बनाया और उसने आदेश दिया कि काफिरों के सिरों का एक स्तंभ उसी पहाड़ी पर बनाया जाए, जिसके निकट और उसके शिविरों के मध्य युद्घ हुआ था।  (बाबरनामा अनु. रिजवी पृष्ठ 251)

बाबर की हत्या का प्रयास

बाबर नामा से ही हमें ज्ञात होता है कि दिसंबर 1526 ई. में बाबर को इब्राहीम लोदी की बुआ ने विष देकर मरवाने का प्रयास किया था, तब बाबर ने दो पुरूषों तथा दो महिलाओं को क्रूरता पूर्वक मरवा दिया था। एक पुरूष के टुकड़े-टुकड़े कर दिये थे बावर्ची की जीवित अवस्था में खाल खिंचवाई। एक महिला को हाथी के नीचे डाल दिया। दूसरी को तोप के मुंह पर रखकर उड़वा दिया। बाबर ने ऐसी क्रूरता भी हिंदू वीरता के भय से भयभीत होकर मचायी थी। वह अपने पाशविक अत्याचारों से लोगों में भय बैठाना चाहता था। इतिहास का उद्देश्य कार्य के कारण को भी स्पष्ट करना होता है, जिससे कि व्यक्तियों या परिस्थितियों का सही निरूपण और सत्यापन किया जा सके। बाबर की क्रूरता और हिंदुओं के उसके प्रति व्यवहार की भी यदि समीक्षा की जाये तो स्पष्ट हो जाएगा कि हिंदुओं की वीरता उसे किस सीमा तक भयभीत कर रही थी? बाबर ने पानीपत के युद्घ के पश्चात ही अपने सैनिकों से जो कुछ कहा था वह भी उसके भीतर के भय को और अधिक स्पष्ट करता है। उसने कहा था-‘‘वर्षों के परिश्रम से कठिनाइयों का सामना करके लंबी यात्राएं करके अपने वीर सैनिकों को युद्घ में झोंक कर और भीषण हत्याकांड करके हमने खुदा की कृपा से दुश्मनों के झुंड को हराया है, ताकि हम उनकी लंबी चौड़ी विशाल भूमि को प्राप्त कर सकें। अब ऐसी कौन सी शक्ति है जो हमें विवश कर रही है और कौन सी आवश्यकता है जिसके कारण हम उन प्रदेशों को छोड़ दें, जिन्हें हमने जीवन को संकट में डालकर जीता है।’’

बात स्पष्ट है कि बाबर को अब भारत की स्वतंत्रता प्रेमी जनता और स्वतंत्रता के परमभक्त राणा संग्राम सिंह से टक्कर लेनी थी। वह जानता था कि भारत जैसे स्वतंत्रता प्रेमी देश में प्रमाद प्रदर्शन कितना घातक होता है? अथर्ववेद (2/15/5) में आया है कि-‘‘जिस प्रकार परमात्मा और देवी देवताओं की शक्तियां भयभीत नही होतीं, उसी प्रकार हम किसी से डरें नही।’’ यह था भारतीयों का आदर्श जो सदियों से उनका मार्गदर्शन कर रहा था। पर विदेशी आक्रांता बाबर या किसी अन्य के लिए ऐसी मार्गदर्शक बातें उनके धर्मग्रंथों में नही थीं। उनके पास केवल काफिरों की हत्या कर और उनके माल असबाब को लूटने के दिये गये निर्देश थे, और बाबर उन्हीं निर्देशों के अनुसार अपना राज्य स्थापित करना चाहता था। {Written by:- राकेश कुमार आर्य}

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