#परशुराम के जनआंदोलनकारी स्वरूप पर गहन अनुसंधान...
.... #सम्भवामि_युगे_युगे।
"न्यायिक राज्य के पूर्णस्थापक थे राम-भार्गव,।
''जब राजा अपने धर्म से च्युत होकर प्रजा,और अन्य जीवों पर अत्याचारी हो जाए तो ऋषियों का तेज 'मानव एवं जीव,,कल्याण के लिए वाह्य रूप में प्रकट होना आवश्यक है।हरि का अवतार निमित्त है।,,
'वृहष्पति,
राम भार्गव जिन्हें 'परशुराम,, कहा जाने लगा है... जिस कुल में जन्मे वह भृगु-ऋषि से शुरू हुआ था।
पुराण शास्त्रो के अनुसार प्रारम्भ मे ब्रह्मा के पुत्र,सनक,सनन्दन,सनातन, सनत्कुमार,छायापुत्र(दिव्य-चेतना पुत्र)फिर विष्वकर्मा,अधर्म, अलक्ष्मी, आठवसु, चार कुमार, 14 मनु, 11 रुद्र,इत्यादि देवत्व पराशक्तियां थीं।
पुलस्य, पुलह, अत्रि, क्रतु, अरणि, अंगिरा, रुचि, भृगु, दक्ष, कर्दम, पंचशिखा, वोढु, नारद, मऱीचि, अपान्तरतमा, वशिष्ठ,आदि ऋषि पुत्र हुये थे।इसे ही सनातन चेतना कहा गया।ग्रन्थों और चैतन्य-व्यवस्था के अनुसार प्रारम्भ के नौ ब्राम्हण-ऋषियों से ही सभी वर्णो के लोग निकले।मूल नौ गोत्रो से सारे गोत्र निकले हैं।आगे चलकर कर्म के लिहाज से उनमे और भी विभाजन होते गए।
ब्रम्ह पुत्र "सनातन, ने यह व्यवस्था बनाई की सारे वर्ण कर्म से तय होंगे...सारे हिन्दू आज भी उसी सनातन धर्म के मानते है।..कोई छोटा-बड़ा नही पैदा होता सब-जीव(केवल मनुष्य ही नही) उसी परम्-प्रभु के अंश हैं।
आध्यात्मिक रुचि व तेज वाला ब्राम्हण होता था......राज कर्म,रक्षा कार्य में निपुण क्षत्रिय,जो लोग क्षत्रिय हो गए उसका मतलब क्षत्र धारण करने से था अर्थात जन-साधारण की जान-मॉल की सुरक्षा की प्रतिज्ञा से बंधेंगे।
उसका सीधा सा मतलब है Force and Policing..।
क्षत्रिय से यहाँ 'धर्म रक्षक,से भी।उन्ही को राज्य और व्यवस्था सम्भालने का दायित्व दिया जाता था।
वाणिज्य या भोग वृत्ति वाला
वैश्य,सेवावृत्ति लायक शूद्र।
ऐसे हजारों उदारहण है जब कोई ब्राम्हण शूद्र हो जाता था या क्षत्रिय बनिया हो जाता था और शुद्र ब्राम्हण या क्षत्रिय।इसीलिए आज भी सभी जाति के व्यक्तियो के गोत्र होते हैं।
बिलकुल आज की तरह, किसी एससी ने आईएएस निकाल लिया है तो वह आईएएस हो जाता है न कि अनुसूचित जाति।
यह व्यवस्था दसवीं शताब्दी के काफी बाद तक चली।फिलहाल विषय दूसरा है।उस पर ही बात करते हैं।
आज भी सगोत्रो में विवाह वर्जित होते हैं।जम्बूद्वीप से बाहर जाकर कुछ ऋषियो ने गोत्र चलाये थे।बाद में कलि-काल(टेक्निक एज)ने जब माइंड पोल्युट किया तो उनके वंशजो ने सब भुला कर एक गोत्रीय प्रजनन व्यवस्था बना ली...दुष्परिणाम दिख रहा है( शोध विषय है)।
नौ ऋषियो में ही भृगु भी थे।
.. ये वही भृगु हैं जिनके प्रयासों से वह भृगुसंहिता रची गई, जिसे पढ़कर लोग अपना भविष्य जानने को उत्सुक रहते हैं।शुक्र,उनके
बेटे थे...उनके पुत्र कवि हुये कवि से ऋचीक॥
चन्द्र वंश में पुरुरवा के वंशज राजा गाधि की पुत्री सत्यवती से ऋचीक का विवाह हुआ था।सत्यवती से ही क्षत्रियो का कौशिक गोत्र शुरू हुआ था।
गाधि के ही बेटे विश्वरथ भी राजा हुए थे जो आगे चलकर विश्वामित्र नाम से ब्राम्हण हो गए।विश्वामित्र ने ही गायत्री मंत्र की रचना की थी।
ऋचीक ऋषि के पुत्र थे जमदग्नि और जमदग्नि के पुत्र थे राम भार्गव।
रेणुका जो इनकी माँ थी इच्छवांकु वंश की एक शाखा के राजा भीमरथ (रेणु)की बेटी थीं।काशिराज धन्व के पुत्र धन्वन्तरि हुए थे जिन्होंने ब्राम्हण होकर आयुर्वेद की रचना की।आज भी उन्ही के चिकित्सा सिद्धांतो से लोग स्वस्थ्य होते हैं।धन्वतंरी के पुत्र केतुमान के बेटे राजा भीमरथ थे 'रेणुका इन्ही की बेटी थीं।
बेटे थे दिवोदास उनके पुत्र हुए प्रतर्दन जो कुवलयाश्व के नाम से जगत-प्रसिद्द राजा हुए थे।जिन्होंने धरती पर शान्ति स्थापित किया था।राम भार्गव इन क्षत्रिय प्रतर्दन के सगे फुफेरे भाई थे।
यानी रेणुका इच्छवांकु वंश के कुवलयाश्व की बुआ थी।
ननिहाल क्षत्रियो में,ददिहाल क्षत्रियो में जीजा क्षत्रियो में,लोपामुद्रा के कारण फूफा क्षत्रियो में ...और युद्द का
..।
उन ग्रंथो को पढिये सारा वामी-सामी कूड़ा निकल जाएगा।
जाति का सारा माजरा बारहवीं शती के बाद बना।
इसीलिये पुराणो को झुठलाया गया जबकि वे हमारे देश की इतिहास-अवधारणा थे।शायद पुराने धर्मग्रंथो को आक्रमण काल मे इसी दृष्टिकोण के कारण जलाया जाता था।
भृगु वंश मे ही आगे चलकर क्षत्रियों के पाँच कुल ऋचीक से निकले थे।...विश्वामित्र आदि उसी वंश की रिश्तेदारियों से चले....काशी का "क्षत्रिय राजवंश, भी उनके रिश्तेदारियों मे से था। राम भार्गव के पिता का नाम जमदग्नि था, इसलिए उन्हें परशुराम भार्गव के अलावा परशुराम जागदग्न्य भी कहा जाता है।
इनकी माता का नाम रेणुका था और आपने यह गाथा सुनी ही होगी कि यज्ञ में मन न लगने की बात पर रुष्ट जन्मदग्नि ने परशुराम से माँ का वध करने की आज्ञा दी। राम ने अपने परशु (फरसा) से मां का वध कर दिया।आज्ञा पालन से प्रसन्न पिता ने वर मांगने को कहा तो उन्होंने अपनी मां का ही पुनर्जीवन मांगा।इस घटना से उनकी पितृभक्ति जगत-विख्यात हो गयी थी।
भार्गव लोग नर्मदा के किनारे रहा करते होंगे।बाद में कन्नौज आ गए...अब भी गंगा के किनारे रह रहे।उन दिनों परशुराम भी अपने पिता जगदग्नि के साथ नर्मदा नदी के तट पर बने अपने आश्रम में रहा करते थे। अब तो परशुराम नाम का रिश्ता ही फरसे और दूसरे कई तरह के शस्त्रों के कारण युद्ध के साथ जुड़ गया है। पर मूलत: भार्गव युद्द-विज्ञानी ब्राह्मण तो थे ही वे वेद-शास्त्र और धर्म के भी जबर्दस्त ज्ञाता थे।शायद हैहय उनके पुरोहितीे काल में ही विशाल-राज्य क्षेत्र के मालिक बन बैठे थे और वैभव की वजह से उनकी मति मारी गई थी।
किन्तु ऋषि जमदग्नि का नाम ज्यादातर शस्त्र के बजाय ज्ञान और विद्या के साथ ही जोड़ा जाता है।उनकी ऋचाएं आज भी सामवेद में गाई जाती हैं।तर्पण स्त्रोत में भी उनका आता है।
कहा जाता है भार्गव और आंगिरस कुल के विद्वानों ने ही रामायण, महाभारत और पुराणों का संपूर्ण नव-संस्कार किया था। कई परम्पराओं को पुराणों-ग्रन्थों में जोड़कर इन्हें लगातार नवीनतम बनाने का प्रयास किया था। भार्गव बहुत विद्यानुरागी थे.....बहुत सारे ज्ञान-विज्ञान और शस्त्र-शास्त्र ग्रन्थ उन्होंने लिखे-रचे थे....कालांतर में मुस्लिम आक्रमणों में जला दिए जाने के कारण कुछ ही पुस्तके प्राप्त हो सकी किन्तु बाद के सभी ग्रन्थों में उनके लेखन की चर्चा है।हैहयों के अत्याचार से त्रस्त होकर झगड़ने की बजाय वे लोग 'कान्यकुब्ज,, में जाकर रहने लग गए थे...खिलभाग में इसका विवरण दिया।
हैहयों पर दत्तात्रेय जी की कृपा हो गयी थी।दत्ता जी ने उनको सहस्र-शक्ति का वरदान दिया था।यह वही कार्तवीर्य वही हैहय राजा था जिसने रावण को छः माह जेल में डाल दिया था और बलि को मुस्टिक प्रहार से अचेत कर चुका था।उसकी शक्ति-क्षमाताओ के बारे में कई कथाएं प्रचलित हैं।
कई जगह अलग-अलग बाते-कथाएं दी गई हैं "हैहय राजा कृतवीर्य ने अपने कुल-पुरोहित 'और्व, भार्गव,, को जब-तब दान में धन दिया था।कई स्थानों पर और्व को औचीक कहा गया है।कई विद्वानों का मत है ऋचीक ही और्व या औचीक है।एक ही काल में यह सम्भव नही है इसलिए मैं दोनों को अलग-अलग मानता हूं।
वह खर्च हो गया। जब कुछ समय बाद राजा ने पैसा वापस मांगना शुरू कर दिया।और्व ने 'दान,का धन वापस नही किया जाता,कहकर आनाकानी की।राजा ने उनका अपमान करना शुरू दिया।कुछ ग्रन्थों में लिखा है कि 'और्व, अपना आश्रम छोड़ कान्यकुब्ज चले गये।कुछ में लिखा है उसने सभी भार्गवों को मरवा दिया...उनके घरों को आग लगा दी...कुल की स्त्रियों को दूषित किया।और्व किसी तरह अपने परिवार के साथ भाग कर जंगल में रहने लगे।वहां उन्होंने नया आश्रम बना लिया।
लगभग सभी धर्मग्रंथो,रामायण,महाभारत यहॉ तक कि आगम-निगम ग्रन्थों में भी और अधिकांश पुराणो मे यह घटना किसी न किसी रूप में कही गई है...इसलिए न मानना उचित नही होगा॥
उस कथा के अनुसार "" हैहय राजवंश एक शक्तिशाली कुल था.... वे लोग अत्यंत अत्याचारी हो गए थे.कहते हैं'कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन इतना ताकतवर था की अपने हजार हाथो से नर्मदा की तेजधार रोक देता था॥ ..कुछ ही सालों पूर्व उन्होने भार्गवों को किसी बात पर कुपित होकर बर्बरता से उजाड़ा था॥
राजा जंगल से जा रहा था...रात हो गई तो ऋषि से स्थान और मदद मांगी...जमदग्नि ऋषि ने उनकी सेना-सहित गज़ब की आव-भगत कर दी।...यह देख कर राजे ईर्ष्या से भर उठे...."उन्होने पूछा की इतने संसाधन एक ऋषि के पास कैसे। वह तो भिखमंगे होते हैं....ऋषि ने जबाब दिया "गो-अर्थ-व्यवस्था। और क्या!!
ईर्ष्याग्नि मे जलते राजा कृतवीर्य के पुत्र 'कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन ने, जमदग्नि से उनकी कामधेनु गाय मांगी।उन्होने मना कर दिया,बोले'सारे किसान उससे भर-पोषण करते है राजा ले लेगा तो कैसे जीयेंगे....खाएँगे?
सैनिक जबर्दस्ती गाएँ हांक कर ले जाने लगे॥
'ऋषि, के साथ कुछ मजदूरो-किसानो ने रोका॥
उसने दूसरे दिन सेना भेज दी॥किसानो और कुछ भार्गवों ने प्रतिरोध किया
...(उस समय जमदग्नि-ऋषि के पुत्र राम-भार्गव तप-शि्क्षा-साधना के लिए आश्रम से बाहर गए हुए थे) तो कार्तवीर्य के पुत्रों ने जमदग्नि का वध कर दिया।
तप से लौटे परशुराम ने इससे कुपित होकर हैहयों के नाश की प्रतिज्ञा कर डाली।
यह हत्या इतनी वीभत्स थी की उनके सिर को कुंत-कुंत से कुचल दिया गया था.।........शायद राम भार्गव के अन्य भाई भी मारे गए थे,।
पूरे आर्यावर्त मे क्या भारत-वर्ष में यह बात आग की तरह फैल गई थी!
अपने पिता और महान ऋषि,वेदो के तमाम श्लोको के रचयिता-तपस्वी जमदग्नि कि इस तरह हुई 'जघन्य हत्या, और जन-सामान्य के अपमान को उनके पुत्र "राम, सहन नहीं कर पाए॥..वे खुद भी शारीरिक रुप से ताकतवर थे,शस्त्र विद्या के परमज्ञाता भी थे..........उल्लेख है उन्होने सीधे महादेव से शस्त्र ज्ञान लिया था॥
माहिष्मती किले के सामने.....ललकार कर उसे युद्द के लिए बुलाया।
सारी सेना को गाजर-मूली की तरह काट डाला
पहले कार्तवीर्य के सारे हाथ काट डाले..उसके सभी अंगो को तोड़ दिया...उसका घमंड तोड़ कर उसे मारने से पहले गरजे....'न राज्य अहं अन्याय-फलेत।,,
"राज्य शक्ति का अन्याय उसे भुगतना ही पड़ता है।,
गुस्से से पगला चुके राम ने एक-एक कर सारे हैहयो को अकेले काटा॥
यह अन्यायी राजतंत्र के साथ बड़ा एक 'जन-संघर्ष,था
उन्होंने राजाओं से त्रस्त ब्राम्हणों-वनवासियों-कृषकों का संगठन खड़ा किया उनको कई राजाओं का सहयोग भी मिल गया।अयोध्या,मिथिला, काशी,कान्यकुब्ज,कनेर,बिंग और पूर्व-प्रान्त,शायद मगध और वैशाली भी उस महासंघ में था। खुद परशुराम उसके नेता बने।
उधर हैहयों के साथ आज के सिन्ध,महाराष्ट्र,गुजरात और राजस्थान,पंजाब,लाहौर,अफगानिस्तान,कंधार,ईरान,ट्रांस-आक्सियाना तक फैले यह कुल 21 राज्य थे 21 राजा अलग-अलग लड़े।
जिनको उन्होंने हराया था और सम्भवत: सारे राजो को उनके उत्तराधिकारियों सहित मार भी दिया था।जिससे बदला या अधर्म पुनः सर न उठाये।'पछतावा और पापकृत्य,इसी को लिखा है।21 बार विनाश का सम्बन्ध 21 राज्य से था।कुछ बेवकूफ कथावाचको ने इसी को 21 बार क्षत्रिय-विनाश कहना शुरू कर दिया।
दशवी शताब्दी के बाद लिखे ग्रंथो में हैहय की जगह क्षत्रिय लिखना शुरू कर दिया।
इस्लामियों और वामियो के साथ कांग्रेसी इतिहासकारों को तो मानो खजाना ही मिल गया...इसे उन्होंने कट्टर जाति-प्रथा के सबूत के रूप में पेश करना शुरू कर दिया।
परशुराम ने 'हैहयों, को इक्कीस जगह पराजय दी थी जाहिर है कि युद्ध लंबा और भयानक चला होगा। यह युद्ध कई साल चला और इसमें हैहयों को भारी हार का सामना करना पड़ा।सम्भवतः उन्होंने अपने प्रचंड क्रोध में अधिकाँश हैहयों को मार दिया।
उनके ऊपर 'यमछाया, सी थी.
...अंत:ऊर्जा भयंकर प्रतिशोध शक्ति में प्रकट हो रही थी...हैहयों के प्रति क्रोध आग बनकर बरसा... जिधर गुजरते मौत का सन्नाटा..ब्राम्हण
कभी हत्या या पाप् का दोष नही सम्भाल सकता.अध्यात्म से भरा उग्र ब्राम्हण राज्य भी नही चला सकता...उसके लिए तो रजो-गुण से भरा 'क्षात्रय तेज, ही योग्य होता है...इनको तो वैसे भी राज्य या भौतिक सुखों की कामना न थी!
राजे तो मार दिए...जीत तो लिया किन्तु..राज्यव्यवस्था खत्म होने से...चारो तरफ मार-काट मच गया,..अपराध का बोल-बाला.....धर्म का नाश.....लूट-पाट मच गई....।
आखिर में ईश्वरीय चेतना ने दत्तात्रेय जी को हिलाया।उन्होंने कपिल ऋषि के साथ जाकर 'राम,को पकड़ा...उनकी बुध्दि और मस्तिष्क को झकझोरा..योगबल से पुनः चैतन्य-जागृत किया।ग्रन्थ कहते हैं उन कई सालो में वह आपे में नही थे।
जब वह होश में आये तो अपने ही 'अब्राम्हणीय अमानवीय कृत्यों,से चीत्कार उठे।अपने द्वारा उपजाए दुःख को देखकर वह काँप उठे।
उन्हें कपिल,दत्तात्रेय जी और कश्यप तीनो ही ऋषियों ने इस कार्य के लिए बहुत धिक्कारा..।
होश में आने के बाद उन्होंने संगम तट पर सारे विजित राज्य,कश्यप ऋषि को समस्त-सम्प्रभुता सहित सब कुछ दान दिया।कश्यप जी ने पूरे जम्बू द्वीप को कई राज्यो विभाजित कर पुनः-से राज क्षत्रियो के हाथ में राज्यतंत्र दिया।कई वंश उसी के बाद पनपे। फिर से विधि-व्यवस्था का शासन चालू हुआ।
इसके ढेरो प्रमाण मिल रहे हैं कि इसी युध्द के बाद ही राज्य तत्त्व में न्याय-प्राधिकरण की अवधारणा बनाई।भुक्ति और "स्वतंत्र न्याय-पंचायत प्राधिकरण,, राज्य के मूल भूत तत्त्वों में समाहित कर लिया गया।
स्थानिक न्यायिक-प्रणाली के बाद सभी राज्यो में भुक्ति-न्याय फिर राज-व्यवस्था से अपील उसके ऊपर....
यदि राजा पर भी किसी ने मुकदमा किया.....या कोई राजकीय न्याय-व्यवस्था से असन्तुष्ट रह गया है तो 'अपीली ज्युरिसडिक्सन,,बना दी गयी थी। समाज के कुछ मनीषियो-ऋषियों को उसका संरक्षक बना दिया जाता था।ऐसे सैकड़ो उदाहरण परवर्ती समाज में दिखे हैं जब राजा पर साधारण जन ने आरोप लगाए और 'राजा,उस ट्रिब्यूनल द्वारा दण्डित हुआ है।परशुराम के इस युध्द के बाद न्यायिक/प्रणाली को बाध्य कर दिया गया था।
उनके साथ जिन ब्राम्हणों-क्षत्रियो-अन्य वर्णो ने शस्त्र उठाया था उनसे शिक्षा,दीक्षा का अधिकार ले लिया गया..अब वे धर्म-काण्ड नही करा सकते थे।उनको
भूमि दे दी गई,लम्बे समय तक वे ब्रम्ह-क्षत्रिय कहलाते थे। वे अब भूमिहार कहलाते है,कही त्यागी और कहीं चितपावन के नाम से जाने जाते है।कुछ खण्ड में जा बसे वे केवल कठोर धर्म-कार्य के लिए प्रसिद्द हो गए।
आश्रम पर लौट कर राम ने बहुत बड़ा यज्ञ किया।अपने पिता जमदग्नि को सप्तर्षियों में स्थान दिलाकर सम्मानित किया।
उसके बाद वे खुद तपस्या करने चले गए।महादेव-शिव के चरणों में रहकर उन्होंने लम्बी तपस्या की...उनका लिखा काली-सहस्रनाम आज भी निष्कीलित मंत्रो में सर्वश्रेष्ठ कहा जाता है...वह निष्पाप होकर लौटे।उन्हें विष्णु का अवतार माना जाता है
परशुराम के बारे में पुराणों में लिखा है कि महादेव की कृपा व् योग के उच्चतम ज्ञान के सहारे वे अजर-अमर हो गए थे।
आज भी महेंद-पर्वत् में वे कही आश्रम बनाकर रहते हैं।जब-तब कई हिमालय यात्री भी उनसे भेंट होने की बात कहते रहते हैं।
सुयोग्य शिष्यों को वे युगों से अस्त्र-शस्त्र,योग,प्राणायम,तंत्र,राजनीति,
तथा पूर्ण-विज्ञान की शिक्षा देते हैं। यही वह गुरु थे,जिन्होंने भीष्म को युद्द-विज्ञान सिखाया था।फिर उनके साथ इसलिए युद्ध किया था ताकि भीष्म खुद उनके (भीष्म के) द्वारा अपहरण करके लाई गई अम्बा (अम्बा, अम्बिका, अम्बालिका वाली अम्बा) के साथ विवाह करवा सकें।पर वे भीष्म को आजीवन विवाह न करने की प्रतिज्ञा से डिगा नहीं सके।इन्हीं परशुराम से आगे चलकर कुन्तीपुत्र कर्ण ने भी अस्त्र विद्या सीखी थी।
जरा आप खुद सोचिये राजमद में जकड़ा कोई विधायक कुदाल से आपके पिता की हत्या कर दे तो आप किस मनोदशा में होंगे???
रेणुका-वध प्रसंग इस बात को दर्शाता है कि अपने पिता को इतना प्रेम करते थे की आज्ञा मिलने पर माँ को भी मार सकते थे।
उस पिता की कुदाल से कुचल-कुचल कर....उन्हें जैसा रिएक्शन होना चाहिए वही हुआ।
परशुराम इतिहास के पहले ""महापुरुष,, हैं जिन्होंने किसी राजा को दंड देने के लिए राजाओं को इकट्ठा करके राजव्यवस्था बनाई।
वैसे इस तरह ब्राम्हणों-ऋषियों के आगे आने की कई उदाहरण-घटनाये हैं।जब भी राजा अपने 'राजधर्म,, से हटा है ऋषि अपने तपस्थली से निकल कर दण्डित करने आगे आएं हैं।इसके पहले पुरुरवा,....वेन,...नहुष, शशाद जैसे राजाओं की दुष्टताओं या लापरवाहियों को दंडित करने के लिए ऋषि या ब्राह्मण अपने ही स्तर पर आगे आए थे....आचार्य कौटिल्य(चाणक्य)भी उसी कड़ी में एक ऋषि थे।
पुराणीक इतिहास में ऐसा कई बार देखने को मिला है। इसके भौगोलिक और पुरातात्विक प्रमाण भी हैं
कई ऐसे राजनीतिक स्वरूप का संघर्ष जो बड़े बदलाव के लिए हुए थे... 'दाशराज युद्ध,, भी उन्ही में से था।
यह'महायुद्द, पुरुवंशी सुदास और दस विरोधी राजाओं के महासंघ के बीच सरस्वती,परुष्णी और दृषद्वती नदियों के बीच राम-भार्गव के होने से कुछ साल पहले ही समाप्त हुआ था।जिसमें राजा सुदास जीते और दस-राजाओं का महासंघ हारा था।यह भी एक राजनीतिक परिवर्तन था।उसके कुछ ही साल बाद भगवान परशुराम ने उत्तर और पूर्व और मध्य के किसानों-मजदूरों-वनवासियों तथा कई राजाओं के साथ मिलकर हैहयों को हराया था।उन्होंने आधुनिक मध्य-भारत,महाराष्ट्र,गुजरात,राजस्थान में फैले 'हैहय राजाओं,, के खिलाफ उस 'महासंग्राम, का नेतृत्व किया था।
कई धर्मग्रन्थो में वर्णित नक्षत्रो की गणना से महाभारत युद्ध आज से कम से कम 13400 वर्ष पूर्व,राम-रावण युद्ध आज से 16000 वर्ष पूर्व हुआ था।अब हैहृय-परशुराम युद्ध भी आज से करीब 16300 साल के पहले ही माने जा सकते है।यदि कुछ शोधार्थी इस पर काम करें तो ठीक-ठीक मूल्यांकन और इतिहास सामने आ सकता है।
फ़िलहाल अगर कोई पैसा लगाने सामने आये तो रोमांच से भरी इस पटकथा पर एक शानदार फिल्म तो बन ही सकती है।
(नोट-लेख बड़ा हो जाने के डर से सन्दर्भ पुस्तको(बिब्लियोग्राफी)की सूची नही दी है...अगर कोई चाहे तो आ जाये।)
#पवन_त्रिपाठीजी