#सिद्ध_और_बुद्ध
सिद्ध और बुद्ध को अक्सर पर्यायवाची मान लिया जाता है जो कि तकनीकी रूप से सही नहीं है।
बुद्ध चेतना का परम विकास है। सिद्ध एक कदम पीछे है।
किंतु सिद्ध अधिक आदरणीय है क्योंकि वो जानबूझकर अपने को अटकाता है।
सिद्ध को बौद्ध परंपरा के वज्रयान तंत्र में बोधिसत्व और तिब्बत में तुलकू कहा जाता है।
वज्रयान तंत्र का जब पतन हुआ तो ८४ सिद्धों के साथ मीनपा अर्थात् मत्स्येंद्रनाथजी ने नाथपंथ का शंखनाद किया।
प्राचीन शैव शाक्त परंपरा के तंत्रमार्ग को बुद्ध के पुत्र राहुल ने बौद्ध मत में स्वीकार किया था और तिब्बत में इसकी प्रयोगशाला बनी जो कालांतर में वज्रयान बौद्ध तंत्र के रूप में प्रचलित हो गई।
वज्रयान बौद्ध तंत्र बहुत अच्छा चल रहा था पर इनसे वही गलती हो गई जो शैव शाक्त परंपरा से हुई थी।
वामदेव शिव से उपदिष्ट वाममार्गी तंत्रमार्ग का सार्वजनिक रूप से प्रदर्शन।
भगवान शिव ने वामतंत्र को प्रज्ञावान प्रशस्य योगी का पथ बताया है। इसलिए इसे जनसामान्य से दूर रखना उचित समझा गया।
एक पुरुष एक स्त्री के साथ संभोगरत होते हुए ऊर्जा को ऊर्ध्व कर सकता है। किंतु ये सब लोगों के साथ संभव नहीं है।
जब जब वामतंत्र को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किया गया, करने वाले धरती से निर्ममता पूर्वक हटाए गए। पाशुपत परंपरा से ओशो तक प्रमाण हैं।
वज्रयान बौद्ध तंत्र भी इस मायाजाल में उलझ कर समाप्त हो गया।
मीनपा वज्रयान बौद्ध तंत्र में ८४ सिद्धों में एक हैं, और दत्तात्रेयनाथ रससिद्ध उन्मुक्त अवधूत उनके गुरु।
दत्तात्रेय भगवान के आदेश पर मीनपा ने वज्रयान त्यागकर नाथपंथ का आधार रखा और मत्स्येंद्रनाथ नाम से जाने गए।
यदि बौद्ध तंत्र के मीनपा और नाथपंथ के मत्स्येंद्रनाथ का जीवन पढ़ें तो अद्भुत साम्य मिलते हैं। इसके अलावा ८४ सिद्धों में अधिकतर वज्रयान में और नाथपंथ में कॉमन हैं।
नाथ संप्रदाय अपने पारंपरिक इतिहास में संभवतः इसका उल्लेख नहीं करता। और वे सही भी हैं क्योंकि प्राचीन शैव शाक्त परंपरा ही वज्रयान से होकर नाथ सिद्धों के रूप में प्रकट हुई है।
नाथ संप्रदाय के उदय के साथ ही बुद्ध शब्द धीरे धीरे चलन से बाहर हुआ क्योंकि इसी बीच आद्यशंकराचार्य आ चुके थे और बौद्ध धर्म को पराभूत कर चुके थे।
मुस्लिम आक्रमण आरंभ हो चुके थे। ब्राह्मण वर्ग अपने बौद्धिक अहं से ही स्वभक्षी हो गया था। इस समय एक ऐसा उन्मेष आवश्यक था जो जनसामान्य को आकर्षित करने के साथ स्वीकार भी करे।
हठयोग, तंत्र और रसायन विज्ञान पर जबरदस्त पकड़ के साथ महागुरु मत्स्येंद्रनाथजी ने अपने प्रिय शिष्य गोरक्षनाथजी को आदेश किया।
कुछ ही समय में नाथों के सिद्ध सब जगह छा गए और सब पर भारी पड़ गए।
सिद्ध एक ऐसा आश्वासन हो गया जिससे हर जाति का हिंदू जुड़कर अभय पा सकता था।
इनका योगदान अतुलनीय है। पर फिर मत्स्येंद्रनाथजी के ही एक अन्य शिष्य ज्वालेंद्रनाथ या जलंधरनाथ के अनुगमन में उसी प्रशस्य वामतंत्र का साधन आरंभ हो गया और शक्तिशाली अघोर पंथ सामने आ गया। वामतंत्र को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करने के कारण फिर एक बार महाकाल का क्रोध जागा और नाथपंथ का ध्वंस हो गया।
पर फिर भी मध्ययुगीन संत आंदोलन को आरंभ देने का श्रेय नाथ सिद्धों को जाता है।
मध्ययुगीन संत परंपराओं में यदि कोई पूज्यनीय है तो नाथ संप्रदाय है। क्योंकि सामर्थ्यवान होते हुए भी सिद्धों ने अपने को सर्वोच्च घोषित कर सनातन की हानि नहीं की।
आज भी आप किसी कबीरपंथी, राधास्वामी वाले या अन्य से तुलना कीजिए, नाथ संप्रदाय का व्यक्ति सनातन धर्म से प्रेम से अधिक गहराई से जुड़ा हुआ मिलेगा।
ये सिद्ध परंपरा का लक्षण है। सनातन का सम्मान। व्यक्ति निष्ठा से परे शक्ति निष्ठा।
#अज्ञेय
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