Wednesday 4 July 2018

ब्राम्हण_राजवंश - भाग - 02- शुंग_राजवंश-महाराज_अग्निमित्र_शुंग

------------- #ब्राम्हण_राजवंश - #भाग - 02 --------------
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                             #शुंग_राजवंश

#राजवंश_समयकाल - 185ई.पू.-75 ई.पू. (112 वर्ष )

#संस्थापक -  #पुष्यमित्र_शुंग ( भारद्वाज और कश्यप द्वैयमुष्यायन गोत्र )

----------------- #महाराज_अग्निमित्र_शुंग -----------------
                        (149-141 ई. पू.)   
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गत अंक में अपने पढ़ा की ,किस तरह महाराज पुष्यमित्र शुंग ने शुंग राजवंश की स्थापना की , अब आगे .......

जिस मौर्य साम्राज्य में संपूर्ण उत्तरी और पूर्वी भारत के साथ साथ उत्तर में बलूचिस्तान, दक्षिण में मैसूर तथा दक्षिण-पश्चिम में सौराष्ट्र तक का विस्तृत भूप्रदेश सम्मिलित था। इनका साम्राज्य विस्तार उत्तर में हिंद्कुश तक दक्षिणमें कर्नाटकतक पूर्व में बंगाल तथा पश्चिम में सौराष्ट्र तक था साम्राज्य का सबसे बड़ा अधिकारी सम्राट् स्वयं था उस मौर्य साम्राज्य के वंशजो के अहिंसात्मक नीतियों के कारण सिमट कर सिर्फ कुछ ही प्रदेशो तक सीमित रह गया था । मौर्य साम्राज्य में शासन की सुविधा की दृष्टि से संपूर्ण साम्राज्य को विभिन्न प्रांतों में विभाजित कर दिया गया था। प्रांतों के शासक सम्राट् के प्रति उत्तरदायी होते थे। राज्यपालों की सहायता के लिये एक मंत्रिपरिषद् हुआ करती थी। केंद्रीय तथा प्रांतीय शासन के विभिन्न विभाग थे और सबके सब एक अध्यक्ष के निरीक्षण में कार्य करते थे। साम्राज्य के दूरस्थ प्रदेश सड़कों एवं राजमार्गों द्वारा एक दूसरे से जुड़े हुए थे , लेकिन राजा के अकर्मण्यता से उन प्रान्तों के राजा खुद की विस्वसनीयता नही सिद्ध कर पाए और शक्तिशाली होने पर खुद को स्वतंत्र शासक घोषित कर लिया था , पुष्यमित्र शुंग ने राजा बनने के बाद सबसे पहला काम जो किया वो था इन प्रान्तों का एकीकरण --

पुष्यमित्र शुंग ने प्रान्तों के एकीकरण की जिम्मेदारी अपने पुत्र अग्निमित्र को सौंपी जिनके बारे ने कहा जाता है कि वो शक्ति में गज के समान और युद्ध में सिंह के समान चपल कामदेव के रूप के समान एक महान योद्धा थे , महान रचियता कालिदास ने उनके अपनी रचना मालविकामित्रम का नायक भी बनाया है । पिता से आज्ञा लेकर ये महान योद्धा निकलता है अपने विजय अभियान पर ये कहना सर्वथा उचित होगा कि महाराज पुष्यमित्र शुंग के वंश का यह कुलदीपक उनके ही समान पराक्रमी था । अग्निमित्र प्रान्तों को जीतते जा रहे थे और जीतते जीतते अपनी सेना लेकर ये विदर्भ पहुँचते है नर्मदा के किनारे अपनी सेना का पड़ाव डालते है ............

विदर्भ राज्य की स्थापना अभी कुछ ही दिनों पूर्व हुई थी। इसी कारण विदर्भ राज्य #नव_सरोपण_शिथिलस्तरू (जो सघः स्थापित) है। विदर्भ शासक इस समय यज्ञसेन था। जो पूर्व मौर्य सम्राट् वृहद्रथ के मंत्री का सम्बन्धी था। विदर्भराज ने अग्निमित्र की अधीनता को स्वीकार नहीं किया। दूसरी ओर कुमार माधवसेन यद्यपि यज्ञसेन का सम्बन्धी (चचेरा भाई) था, परन्तु अग्निमित्र ने उसे (माधवसेन) अपनी ओर मिला लिया। जब माधवसेन गुप्त रूप से अग्निमित्र से मिलने जा रहा था, यज्ञसेन के सीमारक्षकों ने उसे बन्दी बना लिया। अग्निमित्र इससे अत्यन्त क्रुद्ध हो गया। उसने यज्ञसेन के पास यह सन्देश भेजा कि वह माधवसेन को मुक्त कर दे। किन्तु यज्ञसेन ने माधवसेन को इस शर्त पर छोड़ने का आश्वासन दिया कि शुंगों के बन्दीगृह के बन्दी पूर्व मौर्य सचिव तथा उनके साले का मुक्त करते है तो ही कुमार माधवसेन को मुक्त किया जाएगा। इससे अग्निमित्र और क्रुद्ध हो गए और उन्होंने अपने सेनापति वीरसेन जो उनके मित्र भी थे से आक्रमण करने का आदेश दे दिया  । अत: विदर्भ पर शुंगों का आक्रमण हुआ। युद्ध में यज्ञसेन आत्म समर्पण करने के लिए बाध्य हुआ। माधवसेन मुक्त कर दिया गया। विदर्भ राज्य को दोनों चचेरे भाइयों के बीच बाँट दिया गया। वर्धा नदी को उनके राज्य की सीमा निर्धारित किया गया।वर्धा नदी कि एक तरफ माधवसेन और दूसरी तरफ यज्ञसेन को राजा बनाया जाता है दोनो अग्निमित्र के आधीन शासन करना शुरू करते है । विदर्भ विजय से अग्निमित्र शुंग की प्रतिष्ठा में अच्छी अभिवृद्धि हुई। एक दिन अग्निमित्र विदर्भ जाते है वहाँ राजा माधवसेन के महल में एक चित्रकार द्वारा बनाये राजा माधवसेन की बहन मालविका का चित्र देखते है और उससे उन्हें प्रेम हो जाता है , विदर्भ युद्ध के कारण  मालविका अपनी बुआ कौशिकी के साथ अज्ञातवास में रह रही थी वो भी अग्निमित्र के राजमहल में ही , अग्निमित्र की पहली पत्नी महारानी धारिणी  मालविका को संगीत- नृत्य सिखाने हेतु नाट्यचार्य गणदास को नियुक्त करती हैं। धारिणी प्रयत्‍‌न करती है कि राजा मालविका के रूप- सौन्दर्य पर मुग्ध न हो जाएं। इसलिए वह उसे छिपा लेती हैं। लेकिन बाद में परिस्थिति ऐसी बनती है कि मालविका को अपना वास्तविक परिचय देना पड़ता है और मालविका और अग्निमित्र एक दूसरे से विवाह कर लेते है , कालिदास रचित मालविकाग्निमित्र में भी इसका एक सजीव चित्रण किया गया है ।

#अग्निमित्र_और_अश्वमेध_यज्ञ -
अपनी सफलताओं के उपलक्ष्य में महाराज पुष्यमित्र शुंग ने अश्वमेघ यज्ञ करने का निश्चय किया। पुष्यमित्र शुंग द्वारा अश्वमेघ यज्ञ किए जाने की पुष्टि अभिलेखिक और साहित्यिक दोनों साक्ष्यों द्वारा होती है। पतंजलि ने पुष्यमित्र शुंग के अवश्मेघ यज्ञ का उल्लेख करते हुए लिखा है- इह पुष्य मित्तम् याजयाम: इसी प्रकार मालविकाग्निमित्रम् में कहा गया है कि, यज्ञभूमि से सेनापति पुष्यमित्र स्नेहालिंगन के पश्चात् विदिशा-स्थित कुमार अग्निमित्र को कहते है कि - पुत्र मैंने राजसूय यज्ञ की दीक्षा लेकर नियम के अनुसार यज्ञ का अश्व बंधन से मुक्त कर दिया। सिन्धु नदी के दक्षिण तट पर विचरते हुए उस अश्व को यवनों ने पकड़ लिया है । यदि अश्व मुक्त न हुआ तो ये राजसुय यज्ञ पूर्ण नही माना जायेगा जाओ उस यज्ञ अश्व को मुक्त कराओ , पिता से आज्ञा लेकर अग्निमित्र उस यज्ञ अश्व को मुक्त करवाने के लिए निकलते है और इसकी जिम्मेदारी अपने पुत्र राजकुमार
वसुमित्त को देते है , वशुमित्र और  पारदेश्वर मिथ्रदात जिसने पार्थियन राजवंश की नींव रखी से एक अतिभयानक युद्ध हुआ जिसमें मिथ्रदात की हार हुई
वीर वसुमित्त ने शत्रुओं को परास्त कर यज्ञअश्व छुड़ा लिया। पौराणिक साक्ष्यों में पुष्यमित्र का कथन है कि जैसे पौत्र अंशुमान के द्वारा वापस लाए हुए अश्व से राजा सगर ने, वैसे में भी अपने पौत्र द्वारा रक्षा किए हुए अश्व से यज्ञ किया। अयोध्या के अभिलेख कहते है कि पुष्यमित्र शुंग ने एक नहीं दो अश्वमेघ यज्ञ किए थे। इस अभिलेख में कहा गया है- कोसलाधियेन द्विरश्वमेघ याजिनः सनापते: पुष्यमित्रस्य इस प्रकार पुष्यमित्र द्वारा अश्वमेघ यज्ञ किया जाना ऐतिहासिक दृष्टि से तर्कसंगत है। डॉ. वि-सेण्ट स्मिथ ने इस प्रसंग में कहा है- पुष्यमित्र का स्मरणीय अश्वमेघ यज्ञ ब्राह्मण धर्म के उस पुनरुत्थान की ओर संकेत करता है जो पाँच शताब्दियों के बाद समुद्रगुप्त और उसके वंशजों के समय में हुआ।

#अग्निमित्र_का_शासन -
अग्निमित्र (149-141 ई. पू.) शुंग वंश के दूसरा सम्राट बने। वह शुंग वंश के संस्थापक सेनापति पुष्यमित्र शुंग के पुत्र थे। पुष्यमित्र के पश्चात् 149 ई. पू. में अग्निमित्र शुंग राजसिंहासन पर बैठे। पुष्यमित्र के राजत्वकाल में ही वह विदिशा का 'गोप्ता' बनाये गये थे (गोप्ता - उपराजा) और  आधुनिक समय में विदिशा को भिलसा कहा जाता है। ऐतिहासिक तथ्य अग्निमित्र के विषय में जो कुछ ऐतिहासिक तथ्य सामने आये हैं, उनका आधार पुराण तथा कालीदास की सुप्रसिद्ध रचना 'मालविकाग्निमित्र' और उत्तरी पंचाल (रुहेलखंड) तथा उत्तर कौशल आदि से प्राप्त मुद्राएँ हैं। सम्राट अग्निमित्र साहित्यप्रेमी एवं कलाविलासी थे। उन्होंने अपने समय में अधिक से अधिक ललित कलाओं को प्रश्रय दिया

#अग्निमित्र_के_साक्ष्य -

#पुरातात्विक_उल्लेख -

#मुद्राएं - जिन मुद्राओं में अग्निमित्र का उल्लेख हुआ है, वे प्रारम्भ में केवल उत्तरी पंचाल में पाई गई थीं। जिससे रैप्सन और कनिंघम आदि विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला था कि, वे मुद्राएँ शुंग कालीन किसी सामन्त नरेश की होंगी, परन्तु उत्तर कौशल में भी काफ़ी मात्रा में इन मुद्राओं की प्राप्ति ने यह सिद्ध कर दिया है कि, ये मुद्राएँ वस्तुत: अग्निमित्र की ही हैं।

#अयोध्या_अभिलेख –
इस अभिलेख को पुष्यमित्र शुंग के उत्तराधिकारी धनदेव ने लिखवाया था। इसमें पुष्यमित्र शुंग द्वारा कराये गये दो अश्वमेध यज्ञ की चर्चा है।

#बेसनगर_का_अभिलेख –
यह यवन राजदूत हेलियोडोरस का है जो गरुड़-स्तंभ के ऊपर खुदा हुआ है। इससे भागवत धर्म की लोकप्रियता सूचित होती है।

#भरहुत_का_लेख –
इससे भी शुंगकाल के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

#साहित्यिक -

#भातविकाग्निमित्रम में विदर्भ युद्ध का उल्लेख जिसमे ब्राम्हण राजा द्वारा विदर्भ शासकों का शासित होना उल्लेखित है ।
एक प्रमाण हमें पतंजलि के #महाभाष्य एवं #गार्गी_संहिता के द्वारा भी मिलता है। उदाहरण के लिए पंतजलि महाभाष्य में लिखा है अस्णाद यवनः साकेत (अर्थात् यूनानियों ने साकेत को घेरा) तथा अस्णाद यवनों माध्यमिकां (अर्थात् यूनानियों ने माध्यमिका घेरी)। इस तथ्य की पुष्टि गागीं संहिता द्वारा भी होती है। गागीं संहिता में लिखा है कि- दुष्ट विक्रान्त यवनों ने मथुरा, पंचाल देश (गंगा का दो आबा) और साकेत को जीत लिया है और वे कुसुमध्वज पाटलिपुत्र जा पहुँचेगे। इसमे अश्वमेध यज्ञ करने से लेकर युद्ध करने आदि का वर्णन मिलता है ।

महाकवि कालिदास रचित #मालविकाग्निमित्रम् से भी साक्ष्य प्राप्त होता है। साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यवनों का यह आक्रमण उस समय हुआ होगा जब पुष्यमित्र शुंग वृद्ध हो चला था और उसका पौत्त वसुमित्र सेना का नायकत्व करने में सक्षम था। यवनों के साथ वसुमित्र के संघर्ष का सजीव चित्रण मालविकाग्निमित्रम् में हुआ है। यह युद्ध उस समय का है जबकि पुष्यमित्र शुंग के अश्वमेध के अश्व को यवन-सरदार ने पकड़ लिया था। इस कारण यवनों और शुंग सेनाओं में युद्ध हुआ। शुंग सेनाओं का नेतृत्व वसुमित्र ने किया।

#विशेष -
पुष्पमित्र की मृत्यु ई॰ पूर्व 151 में हुई उसके पश्चात उसका पुत्र अग्निमित्र साम्राज्य का अधिकारी हुआ महाकवि कालिदास ने “मालविकाग्निमित्र” नाटक में अग्निमित्र और मालविका की प्रेम कथा वर्णन किया है । सामान्यत: कालिदास को गुप्त कालीन माना जाता है, परन्तु यह नाटक उन्होंने एक प्रत्यक्षदर्शी की भाँति लिखा है, जिससे कुछ विद्वानों का मत है कि यह कवि शुंगकाल में थे । इससे ज्ञात होता है कि अग्निमित्र कुशल शासक था और संगीत , नृत्य, नाट्यादि कलाओं का प्रेमी और ज्ञाता भी था । अग्निमित्र के बाद पुराणों में क्रमश: वसुज्येष्ठ, वसुमित्र, आर्द्वक, पुलिंदक, घोषवसु, वज्रमित्र, भागवत तथा देवभूति नामक राजाओं का वर्णन मिलता है ।शुंगवशीय शासक वैदिक धर्म को मानते थे,फिर भी शुंग शासन-काल में बौद्ध धर्म की काफ़ी उन्नति हुई । बोधगया मंदिर की वेदिका का निर्माण भी इनके शासन-काल में ही हुआ । अहिच्छत्रा के राजा इन्द्रमित्र तथा मथुरा के शासक ब्रह्ममित्र और उसकी रानी नागदेवी ,इन सब के नाम बोधगया की वेदिका में उत्कीर्ण है । इससे ज्ञात होता है कि सुदूर पंचाल और शूरसेन जनपद में इस काल में बौद्ध धर्म के प्रति कोई द्वेष नही था ,ई. बी. हवल ने अपनी पुस्तक आर्यन रूल इन इंडिया (Aryan Rule in India) में लिखा है की शुंगो ने बौद्धों का दमन इसलिए किया कि उनके संघ राजनैतिक बलि के केन्द्र बन गए थे, इसलिए नहीं कि वे एक ऐसे धर्म को मानते थे जिसमें वह विश्वास नहीं करता था। इस तर्क का समर्थन डब्ल्यूडब्ल्यू. टार्न के प्रसिद्ध ग्रन्थ द ग्रीक्स बँक्ट्रिया एण्ड इण्डिया में भी मिलता है। टार्न ने भी इस तथ्य का समर्थन किया है कि पश्चिमोत्तर सीमा में बौद्ध यूनानियों की भारत विरोधी गतिविधियों में सहायता करते थे। इस प्रकार शुंगों पर बौद्ध धर्म विरोधी होने के तर्क युक्ति संगत नहीं है।

शुंग राजवंश ने सैकड़ो सालो तक भारत पर राज किया। सम्राट पुष्यमित्र ने उनका साम्राज्य पंजाब तक विस्तारित।
तो इनके पुत्र सम्राट अग्निमित्र शुंग ने अपना साम्राज्य तिब्बत तक फैलाया और तिब्बत भारत का अंग बन गया। वही उनके पुत्र महापराक्रमी वशुमित्र (जिनके बारे में अगके कई पोस्ट में लिखूंगा) विजय रथ भगाते चीन तक ले गये। वहां चीन के सम्राट ने अपनी बेटी की शादी वशुमित्र से करके सन्धि की। उनके वंशज आज भी चीन में “शुंग” surname ही लिखते हैं .......
#क्रमशः

Courtesy: अजेष्ठ त्रिपाठी, https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=435628060236938&id=100013692425716

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