Saturday 11 March 2017

जानिए, कहां से हुई थी होली की शुरुआत

*जानिए, कहां से हुई थी होली की शुरुआत*

झांसी: होली का त्यौहार आते ही पूरा देश रंग और गुलाल की मस्ती में सराबोर हो जाता है लेकिन शायद बहुत कम लोग ही जानते होंगे कि पूरी दुनिया को रंगीन करने वाले इस पर्व की शुरुआत झासी जिले से हुई थी।

उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में इस जिले का एरच कस्बा त्रेतायुग में गवाह रहा है हिरणाकश्यप की हैवानियत का, भक्त प्रह्लाद की भक्ति का, होलिका के दहन और नरसिंह के अवतार का। होली यानि रंगों के पर्व का प्रारंभ होलिका दहन से माना जाता है। शास्त्रों और पुराणों के मुताबिक वर्तमान में झासी जिले का एरच कस्बा त्रेतायुग में एरिकच्छ के नाम से प्रसिद्ध था।

यह एरिकच्छ दैत्याराज हिरणाकश्यप की राजधानी थी। हिरणाकश्यप को यह वरदान प्राप्त था कि वह न तो दिन में मरेगा और न ही रात में तथा न तो उसे इंसान मार पायेगा और न ही जानवर। इसी वरदान को प्राप्त करने के बाद खुद को अमर समझने वाला हिरणाकश्यप निरंकुश हो गया लेकिन इस राक्षसराज के घर जन्म हुआ प्रहलाद का।

भक्त प्रहलाद की भगवद भक्ति से परेशान हिरणाकश्यप ने उसे मरवाने के कई प्रयास किए फिर भी प्रहलाद बच गया आखिरकार हिरणाकश्यप ने प्रहलाद को डिकोली पर्वत से नीचे फिकवा दिया। डिकोली पर्वत और जिस स्थान पर प्रहलाद गिरा वह आज भी मौजूद है।

आखिरकार हिरणाकश्यप की बहिन होलिका ने प्रहलाद को मारने की ठानी। होलिका के पास एक ऐसी चुनरी थी जिसे पहनने पर वह आग के बीच बैठ सकती थी जिसको ओढ़कर आग का कोई असर नहीं पढ़ता था। होलिका वही चुनरी ओढ़ प्रहलाद को गोद में लेकर आग में बैठ गई लेकिन भगवान की माया का असर यह हुआ कि हवा चली और चुनरी होलिका के ऊपर से उडकर प्रहलाद पर आ गई इस तरह प्रहलाद फिर बच गया और होलिका जल गई।

इसके तुंरत बाद विष्णु भगवान ने नरसिंह के रूप में अवतार लिया और गौधुली बेला में अपने नाखूनों से मंदिर की दहलीज पर हिरणाकश्यप का वध कर दिया। हिरणाकश्यप के वध के बाद एरिकच्छ की जनता ने एक दूसरे को खुशी में गुलाल डालना शुरू कर दिया और यहीं से होली की शुरुआत हो गई।

होली के इस महापर्व कई कथानकों के सैकड़ों प्रमाण हैं लेकिन बुंदेलखंड के इस एरच कस्बे में मोजूद है डिकोली पर्वत तो प्रहलाद को फेंके जाने की कथा बयां करता ही है। बेतवा नदी का शीतल जल भी प्रहलाद दुय को हर पल स्पर्श कर खुद को धन्य समझता है होलिका के दहन का स्थान हिरणाकश्यप के किले के खंडहर और कस्बे में सैकड़ों साल पुराना नरसिंह मंदिर सभी घटनाओं की पुष्टि करते हैं।

इसके साथ ही यहा खुदाई में मिली है प्रहलाद को गोद में बिठाए होलिका की अदभुत मूॢत हजारों साल पुरानी यह मूॢत शायद इस कस्बे की गाथा बयां करने के लिए ही निकली है। प्रसिद्ध साहित्यकार हरगोविंद कुशवाहा के मुताबिक हिरणाकश्यप तैंतालीस लाख वर्ष पूर्व एरिकच्छ में राज्य करता था। बुंदेलखंड का सबसे पुराना नगर एरच ही है। श्रीमद भागवत के दूसरे सप्तम स्कन्ध के दूसरे से नौवें और झांसी के गजेटियर में पेज संख्या तीन सौ उन्तालीस में भी होली की शुरुआत से जुड़े प्रमाण दिए गए है।

इसके साथ ही इस नगरी में अब भी खुदाई में हजारो साल पुरानी ईंटों का निकलना साफ तौर पर इसकी ऐतिहासिकता साबित करता है। जब इस नगरी ने पूरी दुनिया को रंगों का त्यौहार दिया हो तो यहा के लोग भला होली खेलने में पीछे क्यों रहे।

लोकगीतों की फागों से रंग और गुलाल का दौर फागुन महीने से शुरू होकर रंगपंचमी तक चलता है। ठेठ बुन्देली अंदाज में लोग अपने साजो और सामान के साथ फाग गाते हैं। इसी के साथ महसूस करते हैं उस गर्व को जो पूरी दुनिया को रंगों का त्यौहार देने वाले इस कस्बे के निवासियों में होना लाजमी है।

जिस तरह दुनिया के लोग ये नहीं जानते कि होली की शुरुआत झांसी से हुई उसी तरह दर्शकों को ये जानकर हैरानी होगी कि आज भी बुंदेलखंड में होली जलने के तीसरे दिन यानी दोज पर खेली जाती है क्योंकि हिरणाकश्यप के वध के बाद अगले दिन एरिकच्छ के लोगों ने राजा की मृत्यु का शोक मनाया और एकदूसरे पर होली की राख डालने लगे।

बाद में भगवान विष्णु ने दैत्यों और देवताओं के  बीच सुलह कराई। समझौते के बाद सभी लोग एकदूसरे पर रंग-गुलाल डालने लगे इसीलिए बुंदेलखंड में होली के अगले दिन कीचड की होली खेली जाती है और रंगों की होली दोज के दिन खेली जाती है।

*छ्न्‍िनमस्ता देवी मंदिर ग्राम डिकौली एरच जिला झांसी उत्तर प्रदेश भारत*

यह स्थान सतयुग में राजा हिरण्यकश्यप की राजधानी क्षेत्र हुआ करता था। भक्त प्रह्लाद और होलिका दहन के पश्चात भगवान नृसिंह का अवतार इसी स्थान पर माना जाता है। कहा जाता है कि भगवान विष्णु के इस अत्यंत भंयकर स्वरूप को मां महालक्ष्‍मी भी सहन नहीं कर सकीं थीं इसलिये मां ने पीठ फेर ली थी। इस मंदिर में मां के विग्रह के स्थान पर एक प्रस्तर को उनकी पीठ मान कर पूजा जाता है। श्री अक्षरा देवी सिद्धनगर और मां रक्तदंता देवी सिद्धनगर के साथ देवी छ्न्‍िनमस्ता को शक्ति त्रिकोण का अंग माना जाता है। यह स्थान कभी तंत्र साधना का भी बड़ा केन्द्र रहा है। यह मदिर ह्जारो साल पुराना है जिस पर अज्ञात भाषा बर्णित है ।

साभार: https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1650591081904488&id=100008608351394

Friday 10 March 2017

जौहर - क्यूं हुआ आवश्यक?

जौहर - क्यूं हुआ आवश्यक?

देश में आज भी बहुत सी जनता ऐसी है जो कि प्रश्न उठाती है कि जौहर जैसी प्रथा आखिर थी ही क्यूँ? ये वो लोग हैं जो 'हिन्दू-मुस्लिम भाई भाई' में विशवास रखते हैं, ये वो लोग हैं जिन्होंने काश्मीरी पंडितों की आपबीती को सुनने-पढने की जहमत नहीं उठाई! और न प-बंगाल की हिन्दू बहनों पर हो रहे अत्याचारों को जानने का प्रयत्न किया, न यह जाना की निर्भय के बलात्कारी कौन थे, न ये पहचाना की बुलन्दशहर के बलात्कारी कौन थे? अगर जानते तो प्रश्न न करते! जानते तो आज भी जौहर की प्रथा को सर नवाने के लिए तैयार होते!

हर मुसलमान आक्रमणकारी था एक बलात्कारी नरपिशाच

सनातन संस्कृति में सभ्य नियम थे, युद्ध तब भी होते थे किंतु नारियों की अस्मिता पर कोई आंच नहीं आती थी| किले तोड़े जाते थे, राजकोष भी लुटे जाते थे, किंतु माँ-बहनें सबकी माँ-बहनें थीं| उनकी और बुरी दृष्टि से देखना एक  जघन्य पाप ही माना गया| इस कारण जब पहली बार यवनों या तुर्कों ने आक्रमण किया तो भारतीय समझ नहीं पाए की एक युद्ध हार जाने का अर्थ न केवल राज्य गंवा देना होगा, बल्कि अपनी स्त्रियों की, छोटी छोटी कन्यायों की इज्जत गंवा देना भी होगा| एक बार का अनुभव पर्याप्त रहा, जब देखा कि एक बार नहीं सहस्रों बार बलात्कार किया जाता था,
एक ही नारी को पूरी पूरी सेना के सहस्रों सिपाही बारी बारी से या फिर मिल कर लूटते थे| वो जितना रोती चिल्लाती उनका आनन्द उतना बढ़ जाता| महारानी संयोजिता तक को नहीं बख्शा जिन पिशाचों ने, वो साधारण स्त्रियों को क्या बख्शते?

जौहर : मर्यादा की रक्षा का महायज्ञ

यह सब जान कर राजपूतों ने अपने किलों के अंदर जौहर कुण्ड बनवाये, जिसमें एक साथ कई सहस्र नारियों के अग्नि-प्रवेश का प्रबंध रहता था| यह कोई अत्याचार नहीं थे उन पर, यह उनको अत्याचार से बचाने का मार्ग था| वर्षों तक नरपिशाचों के हाथों नोचे जाने, खरोंचे जाने से बचने का एक विकल्प था| एक क्षण में मृत्यु! गौरवपूर्ण मृत्यु! अपनी सखियों के हाथ में हाथ थामे एक सामूहिक मृत्यु! माँ भवानी का नाम गुंजाते हुए ईश्वर की गोद में एक स्वैच्छिक समर्पण! अपनी मर्यादा की रक्षा के लिए एक महायज्ञ! रग रग में दौड़ते शौर्य की परीक्षा! स्त्री की ज्वलंत आत्मशक्ति का उत्सव!

अंतिम अभिषेक : साका

राजपूत वीरों के लिए मातृभूमि और धर्म की रक्षा ही धर्म की परिभाषा थी, इसी से उनका जीवन था| वे न केवल वीर योद्धा हुआ करते थे, उनकी ईश्वर में अप्पर श्रद्धा भी थी. भगवान् शिव और माँ भवानी की भक्ति उनकी रगों में दौडती थी| उसी निष्ठां के बल पर वे अपनी जान पर खेल जाते थे| एक एक सैनिक सौ सौ से भिड जाता था| किंतु फिर भी ऐसे अवसर आते थे कि उनकी यह भक्ति. यह कर्तव्यनिष्ठां, यह वीरता, शत्रु की सेना के विस्तार के सामने कम पड़ जाती थी| जिस समय यह स्पष्ट हो जाता था कि अब पराजय निश्चित है, कि आज का युद्ध अंतिम युद्ध होगा, तो उनके नरेश के नेतृत्व में राजपूत वीर 'साका' करते थे| यह एक ऐसी परम्परा थी जिसको सुन कर रौंगटे खड़े हो जाते हैं| केसरिया बाने पहन लेते थे वे, और मुंह में तुलसी का पत्ता, और होठों पर जय एकलिंग का नारा! उनकी स्त्रियाँ अंतिम आरती, अंतिम अभिषेक, अंतिम आलिंगन करके उन्हें विदा करती थीं, जानती थीं कि अब मुलाक़ात नहीं होगी,  किंतु किसी की आँख में आंसू नहीं, बल्कि गर्व से सर ऊँचा!

कौन लेता था जौहर का निर्णय?

यदि 'साका' करने का निर्णय महाराजा का होता था, तो 'जौहर' का निर्णय महारानियाँ लिया करती थीं| जब पुरुष सारे निकल गए अंतिम युद्ध के लिए तत्पर हो कर, तो स्त्रियाँ अपनी अंतिम यात्रा पर निकल पड़ती थीं, महारानी के पीछे पीछे! इसी कारण आवश्यक था इसी सशक्त चरित्र की स्त्री का महारानी होना जो कि भोग-विलास को नहीं बल्कि धर्म की रक्षा को जीवन का लक्ष्य मानती हो| और इसी दृढ़ता का परिचय दिया चित्तौड़ की महारानी पद्मिनी ने! किसी विदेशी यवन के हरम की शोभा बन जाने से बेहतर उन्होंने अपने सखियों के साथ पवित्र अग्नि को अपनी देह अर्पित करना श्रिष्ट समझा| ऐसी स्त्रियों का स्थान किसी मन्दिर की देवी से कम नहीं, अवश्य ही उनकी आत्माएं उसी श्वास से निकली होंगी, जिससे कि महाकालिका देवी की! रणचण्डिका सी प्रशस्त अपने कर्तव्य को निभाने में! ऐसी नारियों के समक्ष हम उनकी संतानें सदा नतमस्तक रही हैं और रहेंगी!

कौन कहता है कि जौहर एक अमानवीय प्रथा थी?
ज़ोहर न करवा कर उन्हें इस्लामिक पिशाचों के आगे नोचने, खरोचने के लिए अकेला छोड़ दिया जाता? छाती पीटने वाले बहुत आनन्द उठाते हैं कि हिन्दू समाज में यह एक बुराई थी।जब समूचा राज्य ही पुरुष विहीन हो रहा हो तो क्या उस राज्य की महिलाओं को मुसलमान पैशाचिकों के आगे  लूटने के लिए छोड़ दिया जाये? कुछ जन यह भी कहते हैं की अग्नि-स्नान की बजाए उन्हें भी युद्ध में उतरना चाहिए था, तो भाई उसका उत्तर यह है कि युद्ध के मैदान में मृत्यु निश्चित नहीं, यदि शत्रु ठान ले कि आपको मारना नहीं, बंदी बनाना है तो ऐसे में स्त्रियों के मान की रक्षा कैसे हो पाती?

समाज-सुधारक या अल्प-बुद्धि कठपुतले?

राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर और समकालीन तथाकथित स्वयंभू 'नन्द' नामधारी छद्म भगवाधारियों द्वारा समाज सुधार की एक क्रांति सी चलाई गई। ये सब अपने आपको बहुत बड़ा समाज सुधारक समझते थे परंतु इनमे कभी इतनी बुद्धि कभी नही आई कि ये समझ पाते कि ये कम्बख्त स्वयं समाज सुधार रहे हैं या किसी और के इशारों के अनुसार समाज सुधार रहे हैं। वर्तमान के इतिहासकारों की कलम में भी इतना पुरुषार्थ नही स्थापित हो पाया कि वह इस सत्य को अपनी कलम से लिख सकें| इन सब सुपारी इतिहासकारों ने इतिहास के साथ अन्याय किया है।

मुसलामानों के उपरांत अंग्रेज भी थे बलात्कारी

ज़ोहर और सती प्रथा जैसे विषय इस्लामिक काल से पूर्व स्वैछिक होता था किसी पर जबर्दस्ती थोपा नही जाता था, परन्तु इस्लामिक काल में वासना, धर्मान्तरण और लूट के अंतर्गत जिहाद की जो नरसंहारी और पैशाचिक लहर चली उससे बचने हेतु सती प्रथा और ज़ोहर जैसे विषयों में बढोत्तरी आई। और उनके बाद जो अंग्रेजो का शासन रहा दौ सौ वर्षों तक उसमें भी ऐसी ही खौफ्नाम घटनायों का उल्लेख मिलता है, कि कैसे अंग्रेज अधिकारी किसी भी स्त्री या कन्या को उठा ले जाने में अपना अधिकार समझते थे, कैसे कई स्थानों पर स्त्रियों को नग्न करके घुमाया जाता था, कैसे उनकी नुमायश कर उनमें से चुन चुन कर हिन्दू बहनों को अंग्रेज अफसरों के कोठों पर पहुँचाया जाता था! ऐसे में जिन की रक्षा करने वाले पति का देहांत हो जाता था, वे स्त्रियाँ सती हो जाना श्रेयकर समझा करती थीं| किंतु इन प्रथा से नुक्सान होता था अंग्रेजों का, इसलिए उन्होंने समाज सुधारकों के नाम पर इन कठपुतलों को ला खड़ा किया|

भांड इतिहासकारों और फिल्मकारों से प्रश्न

अंत में रोमिला थापड़ जैसी सुपारीदार औरतें जो अपने आपको बहुत स्वाभिमानी समझती हैं क्या वह अपने आपको एक बार पैशाचिक रूप से लुटवाने के लिए तैयार होकर इस सत्य को शारीरिक  रूप से अनुभव कर सकती थीं? क्या यह क्षमता संसार की किसी भी स्त्री में है? जो भंसाली खिलजी को प्रेम-पुजारी बताने निकला है क्या उसे स्वीकार होगा कि उसके घर की किसी स्त्री या कन्या को सहस्रों पिशाचों के हाथों नोचने के लिए फेंक दिया जाए? क्या ऐसे में वः उन ोबलात्कारियों को प्रेम-पुजारी कह पायेगा? सुशांत राजपूत अपने नाम के आगे राजपूत हटा कर बड़ा वीर बन रहा है, क्या उसे ज्ञात है कि यदि उसके पूर्वजों ने अपनी संस्कृति के लिए इतने बलिदान न दिए होते तो शायद उसके बाप-दादों को किसी हरम में पैदा हो कर लौंडेबाजी के लिए बेच दिया गया होता? लाड प्यार से पली हुई बेटियों को कोई नोचे खरोंचे, आखिर किस समाज में ऐसा सोचकर आनन्द हुआ जाता होगा? सुपारीदार इतिहासकार औरतें स्वैछिक देह व्यापार करने का अनुभव ले चुकी होंगी परन्तु पैशाचिकता से भरपूर ताहर्ररुष वाले खेल का अनुभव लेने की शक्ति उनमे भी नही होगी? जरा सोचिये, कि स्वेच्छा से अग्नि का आलिंगन कोई नारी क्यूँ स्वीकार करेगी जब तक कि उसका विकल्प अत्यंत भयंकर न हो??

जय माँ भवानी! जय राजपूताना! जय हिन्दू संस्कृति!

साभार:

https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=253171088465007&id=100013163531113

महान_राजपूत_योद्धा

#महान_राजपूत_योद्धा

🔘 1. बप्पा रावल- अरबो, तुर्को को कई हराया ओर हिन्दू धरम रक्षक की उपाधि धारण की

🔘 2. भीम देव सोलंकी द्वितीय - मोहम्मद गौरी को 1178 मे हराया और 2 साल तक जेल मे बंधी बनाये रखा

🔘 3. पृथ्वीराज चौहान - गौरी को 16 बार हराया और और गोरी बार बार कुरान की कसम खा कर छूट जाता ...17वी बार पृथ्वीराज चौहान हारे

🔘 4. हम्मीरदेव (रणथम्बोर) - खिलजी को 1296 मे अल्लाउदीन ख़िलजी के 20000 की सेना में से 8000 की सेना को काटा और अंत में सभी 3000 राजपूत बलिदान हुए राजपूतनियो ने जोहर कर के इज्जत बचायी ..हिनदुओ की ताकत का लोहा मनवाया

🔘 5. कान्हड देव सोनिगरा – 1308 जालोर मे अलाउदिन खिलजी से युद्ध किया और सोमनाथ गुजरात से लूटा शिवलिगं वापिस राजपूतो के कब्जे में लिया और युद्ध के दौरान गुप्त रूप से विश्वनीय राजपूतो , चरणो और पुरोहितो द्वारा गुजरात भेजवाया तथा विधि विधान सहित सोमनाथ में स्थापित करवाया

🔘 6. राणा सागां- बाबर को भिख दी और धोका मिला ओर युद्ध . राणा सांगा के शरीर पर छोटे-बड़े 80 घाव थे, युद्धों में घायल होने के कारण उनके एक हाथ नही था एक पैर नही था, एक आँख नहीं थी उन्होंने अपने जीवन-काल में 100 से भी अधिक युद्ध लड़े थे.

🔘 7. राणा कुम्भा - अपनी जिदगीँ मे 17 युदध लडे एक भी नही हारे

🔘 8. जयमाल मेड़तिया- ने एक ही झटके में हाथी का सिर काट डाला था। चित्तोड़ में अकबर से हुए युद्ध में जयमाल राठौड़ पैर जख्मी होने कि वजह से कल्ला जी के कंधे पर बैठ कर युद्ध लड़े थे, ये देखकर सभी युद्ध-रत साथियों को चतुर्भुज भगवान की याद आयी थी, जंग में दोनों के सिर  काटने के बाद भी धड़ लड़ते रहे और 8000 राजपूतो की फौज ने 48000 दुश्मन को मार गिराया ! अंत में अकबर ने उनकी वीरता से प्रभावित हो कर जयमाल मेड़तिया और पत्ता जी की मुर्तिया आगरा के किलें में लगवायी थी.

🔘 9. मानसिहं तोमर- महाराजा मान सिंह तोमर ने ही ग्वालियर किले का पुनरूद्धार कराया और 1510 में सिकंदर लोदी और इब्राहीमलोदी को धूल चटाई

🔘 10. रानी दुर्गावती- चंदेल राजवंश में जन्मी रानी दुर्गावती राजपूत राजा कीरत राय की बेटी थी। गोंडवाना की महारानी दुर्गावती ने अकबर की गुलामी करने के बजाय उससे युद्ध लड़ा 24 जून 1564 को युद्ध में रानी दुर्गावती ने गंभीर रूप से घायल होने के बाद अपने आपको मुगलों के हाथों अपमान से बचाने के लिए खंजर घोंपकर आत्महत्या कर ली।

🔘 11. महाराणा प्रताप - इनके बारे में तो सभी जानते ही होंगे ... महाराणा प्रताप के भाले का वजन 80 किलो था और कवच का वजन 80 किलो था और कवच, भाला, ढाल, और हाथ मे तलवार का वजन मिलाये तो 207 किलो था.

🔘 12. जय सिंह जी - जयपुर महाराजा ने जय सिंह जी ने अपनी सूझबुज से छत्रपति शिवजी को औरंगज़ेब की कैद से निकलवाया बाद में औरंगजेब ने जयसिंह पर शक करके उनकी हत्या विष देकर करवा डाली

🔘 13. छत्रपति शिवाजी - मेवाड़ सिसोदिया वंशज छत्रपति शिवाजी ने औरंगज़ेब को हराया तुर्को और मुगलो को कई बार हराया

🔘 14. रायमलोत कल्ला जी का धड़ शीश कटने के बाद लड़ता- लड़ता घोड़े पर पत्नी रानी के पास पहुंच गया था तब रानी ने गंगाजल के छींटे डाले तब धड़ शांत हुआ उसके बाद रानी पति कि चिता पर बैठकर सती हो गयी थी.

🔘 15. सलूम्बर के नवविवाहित रावत रतन सिंह चुण्डावत जी ने युद्ध जाते समय मोह-वश अपनी पत्नी हाड़ा रानी की कोई निशानी मांगी तो रानी ने सोचा ठाकुर युद्ध में मेरे मोह के कारण नही लड़ेंगे तब रानी ने निशानी के तौर
पैर अपना सर काट के दे दिया था, अपनी पत्नी का कटा शीश गले में लटका औरंगजेब की सेना के साथ भयंकर युद्ध किया और वीरता पूर्वक लड़ते हुए अपनी मातृ भूमि के लिए शहीद हो गये थे.

🔘 16. औरंगज़ेब के नायक तहव्वर खान से गायो को बचाने के लिए पुष्कर में युद्ध हुआ उस युद्ध में 700 मेड़तिया राजपूत वीरगति प्राप्त हुए और 1700 मुग़ल मरे गए पर एक भी गाय कटने न दी उनकी याद में पुष्कर में गौ घाट बना हुआ है

🔘 17. एक राजपूत वीर जुंझार जो मुगलो से लड़ते वक्त शीश कटने के बाद भी घंटो लड़ते रहे आज उनका सिर बाड़मेर में है, जहा छोटा मंदिर हैं और धड़ पाकिस्तान में है.

🔘 18. जोधपुर के यशवंत सिंह के 12 साल के पुत्र पृथ्वी सिंह ने हाथो से औरंगजेब के खूंखार भूखे जंगली शेर का जबड़ा फाड़ डाला था.

🔘 19. करौली के जादोन राजा अपने सिंहासन पर बैठते वक़्त अपने दोनो हाथ जिन्दा शेरो पर रखते थे.

🔘 20. हल्दी घाटी की लड़ाई में मेवाड़ से 20000 राजपूत सैनिक थे और अकबर की और से 85000 सैनिक थे फिर भी अकबर की मुगल सेना पर हिंदू भारी पड़े

🔘 21. राजस्थान पाली में आउवा के ठाकुर खुशाल सिंह 1857 में अजमेर जा कर अंग्रेज अफसर का सर काट कर ले आये थे और उसका सर अपने किले के बाहर लटकाया था तब से आज दिन तक उनकी याद में मेला लगता है

🔘 22. जौहर : युद्ध के बाद अनिष्ट परिणाम और होने वाले अत्याचारों व व्यभिचारों से बचने और अपनी पवित्रता कायम रखने हेतु महिलाएं अपने कुल देवी-देवताओं की पूजा कर,तुलसी के साथ गंगाजल का पानकर जलती चिताओं में प्रवेश कर अपने सूरमाओं को निर्भय करती थी कि नारी समाज की पवित्रता अब अग्नि के ताप से तपित होकर कुंदन बन गई है और राजपूतनिया जिंदा अपने इज्जत कि खातिर आग में कूद कर आपने सतीत्व कि रक्षा करती थी | पुरूष इससे चिंता मुक्त हो जाते थे कि युद्ध परिणाम का अनिष्ट अब उनके स्वजनों को ग्रसित नही कर सकेगा | महिलाओं का यह आत्मघाती कृत्य जौहर के नाम से विख्यात हुआ| सबसे ज्यादा जौहर और शाके चित्तोड़ के दुर्ग में हुए | शाका : महिलाओं को अपनी आंखों के आगे जौहर की ज्वाला में कूदते देख पुरूष कसुम्बा पान कर,केशरिया वस्त्र धारण कर दुश्मन सेना पर आत्मघाती हमला कर इस निश्चय के साथ रणक्षेत्र में उतर पड़ते थे कि या तो विजयी होकर लोटेंगे अन्यथा विजय की कामना हृदय में लिए अन्तिम दम तक शौर्यपूर्ण युद्ध करते हुए दुश्मन सेना का ज्यादा से ज्यादा नाश करते हुए रणभूमि में चिरनिंद्रा में शयन करेंगे | पुरुषों का यह आत्मघाती कदम शाका के नाम से विख्यात हुआ
""जौहर के बाद राजपूत पुरुष जौहर कि राख का तिलक कर के सफ़ेद कुर्ते पजमे में और केसरिया फेटा ,केसरिया साफा या खाकी साफा और नारियल कमर पर बांध कर तब तक लड़के जब तक उन्हें वीरगति न मिले ये एक आत्मघाती कदम होता। ....."""|

卐 जैसलमेर के जौहर में 24,000 राजपूतानियों ने इज्जत कि खातिर अल्लाउदीन खिलजी के हरम जाने की बजाय आग में कूद कर अपने सतीत्व के रक्षा कि ..

卐 1303 चित्तोड़ के दुर्ग में सबसे पहला जौहर चित्तोड़ की महारानी पद्मिनी के नेतृत्व में 16000 हजार राजपूत रमणियों ने अगस्त 1303 में किया था |

卐 चित्तोड़ के दुर्ग में दूसरे जौहर चित्तोड़ की महारानी कर्मवती के नेतृत्व में 8,000 हजार राजपूत रमणियों ने 1535 AD में किया था |

卐 चित्तोड़ के दुर्ग में तीसरा जौहर अकबर से हुए युद्ध के समय 11,000 हजार राजपूत नारियो ने 1567 AD में किया था |

卐 ग्वालियर व राइसिन का जोहर ये जोहर तोमर सहिवाहन पुरबिया के वक़्त हुआ ये राणा सांगा के रिशतेदार थे और खानवा युद्ध में हर के बाद ये जोहर हुआ

卐 ये जोहर अजमेर में हुआ पृथ्वीराज चौहान कि शहाबुद्दीन मुहम्मद गोरी से ताराइन की दूसरी लड़ाई में हार के बाद हुआ इसमें रानी संयोगिता ने महल उपस्थित सभी महिलाओं के साथ जौहर किया ) जालोर का जौहर ,बारमेर का जोहर आदि
""". इतिहास गवाज है हम राजपूतो की हर लड़ाई में दुश्मन सेना तिगुनी चौगनी होती थी राजस्थान मालवा और सौराष्ट्र में मुगलो ने एक भी हमला राजपूतो पर तिगुनी और चौगनी फ़ौज से कम के बिना नही नही किया पर युद्ध के अंतः में दुश्मन आधे से ऊपर मारे जाते थे ""

卐卐 तलवार से कडके बिजली, लहु से लाल हो धरती, प्रभु ऐसा वर दो मोहि, विजय मिले या वीरगति ॥ 卐卐

|| जय भवानी ||

साभार: https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=253035228478593&id=100013163531113

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