जौहर - क्यूं हुआ आवश्यक?
देश में आज भी बहुत सी जनता ऐसी है जो कि प्रश्न उठाती है कि जौहर जैसी प्रथा आखिर थी ही क्यूँ? ये वो लोग हैं जो 'हिन्दू-मुस्लिम भाई भाई' में विशवास रखते हैं, ये वो लोग हैं जिन्होंने काश्मीरी पंडितों की आपबीती को सुनने-पढने की जहमत नहीं उठाई! और न प-बंगाल की हिन्दू बहनों पर हो रहे अत्याचारों को जानने का प्रयत्न किया, न यह जाना की निर्भय के बलात्कारी कौन थे, न ये पहचाना की बुलन्दशहर के बलात्कारी कौन थे? अगर जानते तो प्रश्न न करते! जानते तो आज भी जौहर की प्रथा को सर नवाने के लिए तैयार होते!
हर मुसलमान आक्रमणकारी था एक बलात्कारी नरपिशाच
सनातन संस्कृति में सभ्य नियम थे, युद्ध तब भी होते थे किंतु नारियों की अस्मिता पर कोई आंच नहीं आती थी| किले तोड़े जाते थे, राजकोष भी लुटे जाते थे, किंतु माँ-बहनें सबकी माँ-बहनें थीं| उनकी और बुरी दृष्टि से देखना एक जघन्य पाप ही माना गया| इस कारण जब पहली बार यवनों या तुर्कों ने आक्रमण किया तो भारतीय समझ नहीं पाए की एक युद्ध हार जाने का अर्थ न केवल राज्य गंवा देना होगा, बल्कि अपनी स्त्रियों की, छोटी छोटी कन्यायों की इज्जत गंवा देना भी होगा| एक बार का अनुभव पर्याप्त रहा, जब देखा कि एक बार नहीं सहस्रों बार बलात्कार किया जाता था,
एक ही नारी को पूरी पूरी सेना के सहस्रों सिपाही बारी बारी से या फिर मिल कर लूटते थे| वो जितना रोती चिल्लाती उनका आनन्द उतना बढ़ जाता| महारानी संयोजिता तक को नहीं बख्शा जिन पिशाचों ने, वो साधारण स्त्रियों को क्या बख्शते?
जौहर : मर्यादा की रक्षा का महायज्ञ
यह सब जान कर राजपूतों ने अपने किलों के अंदर जौहर कुण्ड बनवाये, जिसमें एक साथ कई सहस्र नारियों के अग्नि-प्रवेश का प्रबंध रहता था| यह कोई अत्याचार नहीं थे उन पर, यह उनको अत्याचार से बचाने का मार्ग था| वर्षों तक नरपिशाचों के हाथों नोचे जाने, खरोंचे जाने से बचने का एक विकल्प था| एक क्षण में मृत्यु! गौरवपूर्ण मृत्यु! अपनी सखियों के हाथ में हाथ थामे एक सामूहिक मृत्यु! माँ भवानी का नाम गुंजाते हुए ईश्वर की गोद में एक स्वैच्छिक समर्पण! अपनी मर्यादा की रक्षा के लिए एक महायज्ञ! रग रग में दौड़ते शौर्य की परीक्षा! स्त्री की ज्वलंत आत्मशक्ति का उत्सव!
अंतिम अभिषेक : साका
राजपूत वीरों के लिए मातृभूमि और धर्म की रक्षा ही धर्म की परिभाषा थी, इसी से उनका जीवन था| वे न केवल वीर योद्धा हुआ करते थे, उनकी ईश्वर में अप्पर श्रद्धा भी थी. भगवान् शिव और माँ भवानी की भक्ति उनकी रगों में दौडती थी| उसी निष्ठां के बल पर वे अपनी जान पर खेल जाते थे| एक एक सैनिक सौ सौ से भिड जाता था| किंतु फिर भी ऐसे अवसर आते थे कि उनकी यह भक्ति. यह कर्तव्यनिष्ठां, यह वीरता, शत्रु की सेना के विस्तार के सामने कम पड़ जाती थी| जिस समय यह स्पष्ट हो जाता था कि अब पराजय निश्चित है, कि आज का युद्ध अंतिम युद्ध होगा, तो उनके नरेश के नेतृत्व में राजपूत वीर 'साका' करते थे| यह एक ऐसी परम्परा थी जिसको सुन कर रौंगटे खड़े हो जाते हैं| केसरिया बाने पहन लेते थे वे, और मुंह में तुलसी का पत्ता, और होठों पर जय एकलिंग का नारा! उनकी स्त्रियाँ अंतिम आरती, अंतिम अभिषेक, अंतिम आलिंगन करके उन्हें विदा करती थीं, जानती थीं कि अब मुलाक़ात नहीं होगी, किंतु किसी की आँख में आंसू नहीं, बल्कि गर्व से सर ऊँचा!
कौन लेता था जौहर का निर्णय?
यदि 'साका' करने का निर्णय महाराजा का होता था, तो 'जौहर' का निर्णय महारानियाँ लिया करती थीं| जब पुरुष सारे निकल गए अंतिम युद्ध के लिए तत्पर हो कर, तो स्त्रियाँ अपनी अंतिम यात्रा पर निकल पड़ती थीं, महारानी के पीछे पीछे! इसी कारण आवश्यक था इसी सशक्त चरित्र की स्त्री का महारानी होना जो कि भोग-विलास को नहीं बल्कि धर्म की रक्षा को जीवन का लक्ष्य मानती हो| और इसी दृढ़ता का परिचय दिया चित्तौड़ की महारानी पद्मिनी ने! किसी विदेशी यवन के हरम की शोभा बन जाने से बेहतर उन्होंने अपने सखियों के साथ पवित्र अग्नि को अपनी देह अर्पित करना श्रिष्ट समझा| ऐसी स्त्रियों का स्थान किसी मन्दिर की देवी से कम नहीं, अवश्य ही उनकी आत्माएं उसी श्वास से निकली होंगी, जिससे कि महाकालिका देवी की! रणचण्डिका सी प्रशस्त अपने कर्तव्य को निभाने में! ऐसी नारियों के समक्ष हम उनकी संतानें सदा नतमस्तक रही हैं और रहेंगी!
कौन कहता है कि जौहर एक अमानवीय प्रथा थी?
ज़ोहर न करवा कर उन्हें इस्लामिक पिशाचों के आगे नोचने, खरोचने के लिए अकेला छोड़ दिया जाता? छाती पीटने वाले बहुत आनन्द उठाते हैं कि हिन्दू समाज में यह एक बुराई थी।जब समूचा राज्य ही पुरुष विहीन हो रहा हो तो क्या उस राज्य की महिलाओं को मुसलमान पैशाचिकों के आगे लूटने के लिए छोड़ दिया जाये? कुछ जन यह भी कहते हैं की अग्नि-स्नान की बजाए उन्हें भी युद्ध में उतरना चाहिए था, तो भाई उसका उत्तर यह है कि युद्ध के मैदान में मृत्यु निश्चित नहीं, यदि शत्रु ठान ले कि आपको मारना नहीं, बंदी बनाना है तो ऐसे में स्त्रियों के मान की रक्षा कैसे हो पाती?
समाज-सुधारक या अल्प-बुद्धि कठपुतले?
राजा राममोहन राय, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर और समकालीन तथाकथित स्वयंभू 'नन्द' नामधारी छद्म भगवाधारियों द्वारा समाज सुधार की एक क्रांति सी चलाई गई। ये सब अपने आपको बहुत बड़ा समाज सुधारक समझते थे परंतु इनमे कभी इतनी बुद्धि कभी नही आई कि ये समझ पाते कि ये कम्बख्त स्वयं समाज सुधार रहे हैं या किसी और के इशारों के अनुसार समाज सुधार रहे हैं। वर्तमान के इतिहासकारों की कलम में भी इतना पुरुषार्थ नही स्थापित हो पाया कि वह इस सत्य को अपनी कलम से लिख सकें| इन सब सुपारी इतिहासकारों ने इतिहास के साथ अन्याय किया है।
मुसलामानों के उपरांत अंग्रेज भी थे बलात्कारी
ज़ोहर और सती प्रथा जैसे विषय इस्लामिक काल से पूर्व स्वैछिक होता था किसी पर जबर्दस्ती थोपा नही जाता था, परन्तु इस्लामिक काल में वासना, धर्मान्तरण और लूट के अंतर्गत जिहाद की जो नरसंहारी और पैशाचिक लहर चली उससे बचने हेतु सती प्रथा और ज़ोहर जैसे विषयों में बढोत्तरी आई। और उनके बाद जो अंग्रेजो का शासन रहा दौ सौ वर्षों तक उसमें भी ऐसी ही खौफ्नाम घटनायों का उल्लेख मिलता है, कि कैसे अंग्रेज अधिकारी किसी भी स्त्री या कन्या को उठा ले जाने में अपना अधिकार समझते थे, कैसे कई स्थानों पर स्त्रियों को नग्न करके घुमाया जाता था, कैसे उनकी नुमायश कर उनमें से चुन चुन कर हिन्दू बहनों को अंग्रेज अफसरों के कोठों पर पहुँचाया जाता था! ऐसे में जिन की रक्षा करने वाले पति का देहांत हो जाता था, वे स्त्रियाँ सती हो जाना श्रेयकर समझा करती थीं| किंतु इन प्रथा से नुक्सान होता था अंग्रेजों का, इसलिए उन्होंने समाज सुधारकों के नाम पर इन कठपुतलों को ला खड़ा किया|
भांड इतिहासकारों और फिल्मकारों से प्रश्न
अंत में रोमिला थापड़ जैसी सुपारीदार औरतें जो अपने आपको बहुत स्वाभिमानी समझती हैं क्या वह अपने आपको एक बार पैशाचिक रूप से लुटवाने के लिए तैयार होकर इस सत्य को शारीरिक रूप से अनुभव कर सकती थीं? क्या यह क्षमता संसार की किसी भी स्त्री में है? जो भंसाली खिलजी को प्रेम-पुजारी बताने निकला है क्या उसे स्वीकार होगा कि उसके घर की किसी स्त्री या कन्या को सहस्रों पिशाचों के हाथों नोचने के लिए फेंक दिया जाए? क्या ऐसे में वः उन ोबलात्कारियों को प्रेम-पुजारी कह पायेगा? सुशांत राजपूत अपने नाम के आगे राजपूत हटा कर बड़ा वीर बन रहा है, क्या उसे ज्ञात है कि यदि उसके पूर्वजों ने अपनी संस्कृति के लिए इतने बलिदान न दिए होते तो शायद उसके बाप-दादों को किसी हरम में पैदा हो कर लौंडेबाजी के लिए बेच दिया गया होता? लाड प्यार से पली हुई बेटियों को कोई नोचे खरोंचे, आखिर किस समाज में ऐसा सोचकर आनन्द हुआ जाता होगा? सुपारीदार इतिहासकार औरतें स्वैछिक देह व्यापार करने का अनुभव ले चुकी होंगी परन्तु पैशाचिकता से भरपूर ताहर्ररुष वाले खेल का अनुभव लेने की शक्ति उनमे भी नही होगी? जरा सोचिये, कि स्वेच्छा से अग्नि का आलिंगन कोई नारी क्यूँ स्वीकार करेगी जब तक कि उसका विकल्प अत्यंत भयंकर न हो??
जय माँ भवानी! जय राजपूताना! जय हिन्दू संस्कृति!
साभार:
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=253171088465007&id=100013163531113
No comments:
Post a Comment
Note: only a member of this blog may post a comment.