Tuesday, 7 March 2017

महाराज दाहिर का शासन और भारत में इस्लाम का आगमन

# सिंध पर मुसलमानो का कब्ज़ा, भारत में इस्लाम का आगमन

कलियुग में ईसवी शताब्दी प्रारम्भ होने के छह सौ वर्ष के बाद के इतिहास पर नजर डालते हैं तो सिंधु देश पर राजपूत वंश के राजा राय साहसी का राज्य था, जिन्होंने अपने पिता राजा राय साहरस की ईरान के राजा शाह नीमरोज के साथ युद्ध में मृत्यु के बाद 624 ई. में सिंधी कलेंडर के स्थापना की थी। राजा राय साहसी की मृत्यु लम्बी बीमारी के बाद हुई। राय साहसी का कोई उत्तराधिकारी नहीं था। अत: उन्होंने अपने प्रधानमंत्री, कश्मीरी ब्राह्मण चच को अपना राज्य सौंपा । राजदरबारियों एवं रानी सोहन्दी की इच्छा पर राजा चच ने रानी सोहन्दी से विवाह किया। राजा दाहिर चच के पुत्र थे। राजा चच ने राज्य संभालते ही सिंध के लोहाणा, गुर्जर ओर जाटों को पदच्युत करके उन्हें राज्यसभा से निलंबित कर दिया था। राजा चच की मृत्यु के बाद उनका शासन उनके भाई चन्दर ने संभाला, जो कि उनके राजकाल में प्रधानमंत्री थे। राजा चन्दर ने ब्राह्मण समाज का होने के बाद बौद्ध धर्म स्वीकार किया ओर बौद्ध धर्म को राजधर्म घोषित किया। राजा चन्दर ने सात वर्शो तक सिंध पर राज्य किया।

बागडोर संभालते समय ही महाराजा दाहिर को कई प्रकार के विरोधों का सामना करना पड़ा। अपने पिता द्वारा पदच्युत किए गए गुर्जर, जाट और लोहाणा समाज शासन से नाराज थे तो ब्राह्मण समाज बौद्ध धर्म को राजधर्म घोषित करने के कारण नाराज थे। राजा दाहिर ने सभी समाजों को अपने साथ लेकर चलने का संकल्प लिया। महाराजा दाहिर ने सिंध का राजधर्म सनातन हिन्दू धर्म को घोषित कर ब्राह्मण समाज की नाराजगी दूर कर दूरदर्शिता का परिचय दिया। साथ ही संदेश दिया कि देश में बौद्ध मत के मानने वालों को अपने विहार व मन्दिर बनाने की पूर्ण छूट होगी। इस निर्णय से उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि वे सभी को अपने साथ लेकर चलने में विश्वास करते हैं।

सिंध का समुद्री मार्ग पूरे विश्व के साथ व्यापार करने के लिए खुला हुआ था। सिंध के व्यापारी उस काल में भी समुद्र मार्ग से व्यापार करने दूर देशों तक जाया करते थे और इराक-ईरान से आने वाले जहाज सिंध के देवल बन्दर होते हुए अन्य देशों की तरफ जाते थे। ईरानी लोगों ने सिंध की खुशहाली का अनुमान व्यापारियों की स्थिति और आने वाले माल अस्बाब से लगा लिया था। हालांकि जब कभी वे व्यापारियों से उनके देश के बारे में जानकारी लेते तो उन्हें यहीं जवाब मिलता कि पानी बहुत खारा है, जमीन पथरीली है, फल अच्छे नहीं होते ओर आदमी विश्वास योग्य नहीं है। इस कारण उनकी इच्छा देश पर आक्रमण करने की नहीं होती, किन्तु मन ही मन वे सिंध से ईष्र्या अवश्य करते है ।

महाराजा दाहिर अपना शासन राजधानी अलोर से चलाते थे और देवल बन्दरगााह पर प्रशासन की दृष्टि से अलग सूबेदार नियुक्त किया हुआ था। एक बार एक अरबी जहाज देवल बन्दरगाह पर विश्राम के लिए आकर रुका। जहाज में सवार व्यापारियों के सुरक्षा कर्मियों ने देवल के शहर पर बिना कारण हमला कर दिया और शहर से कुछ बच्चों ओर औरतों को जहाज में कैद कर लिया। जब इसका समाचार सूबेदार को मिला तो उसने अपने रक्षकों सहित जहाज पर आक्रमण कर अपहृत औरतों ओर बच्चों को बंधनमुक्त कराया। अरब जान बचा कर अपना जहाज लेकर भाग छूटे।

उन दिनों ईरान में धर्मगुरू खलीफा का शासन था। हजाज उनका मंत्री था। खलीफा के पूर्वजों ने सिंध फतह करने के मंसूबे बनाए थे, लेकिन अब तक उन्हें कोई सफलता नहीं मिली थी। अरब व्यपारी ने खलीफा के सामने उपस्थित होकर सिंध में हुई घटना को लूटपाट की घटना बताकर सहानुभूति प्राप्त करनी चाही। खलीफा स्वयं सिंध पर आक्रमण करने का बहाना ढूंढ़ रहा था। उसे ऐसे ही अवसर की तलाश थी। खलीफा ने हजाज को सिंध पर आक्रमण का आदेश दिया। हजाज धर्म गुरू के आदेश की पालना करने को मजबूर था। उसे अब्दुल्ला नामक व्यक्ति के नेतृत्व में अरबी सैनिकों का दल सिंध विजय करने के लिए रवाना किया।

जब देवल के सूबेदार ने अरब जहाज पर सवार व्यापारियों के कारनामे का समाचार महाराजा दाहिर को भेजा तो वे तुरन्त समझ गए कि इसी बहाने अरब सेना सिंध पर आक्रमण अवश्य करेगी। उन्होंने अपनी सेना को तैयार रहने का आदेश दिया। दरबार में उपस्थित राजकुमार जयशाह के नेतृत्व में सेना की एक टुकड़ी देवल बन्दरगाह पर पहुंच गई। अनुमान के मुताबिक अरबी सेना ने देवल के बन्दरगाह पर आक्रमण किया। सिंधी वीरों की सेना ने अरबी सैनिकों के युद्ध भूमि में छक्के छुड़ा दिए। अरब उलटे पांव लौटे। युद्ध में अरब सेनापति अब्दुल्ला को जान से हाथ धोना पड़ा। नेतृत्वहीन सेना को उलटे लौटने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं था। सिंधी वीर राजकुमार जयशाह मातृभूमि की जयजयकार करता हुआ महल की ओर लौटा। रास्ते में सिंधी वीरों की आरती उतार कर स्वागत किया गया।

खलीफा अपनी हार से तिलमिला उठा और हजाज को काटो तो खून नहीं। दोनों ने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि उनकी सेना की ऐसी गति हो सकती है। खलीफ ने खुदा को याद करते हुए कहा कि क्या इस भूमि पर ऐसा कोई वीर नहीं जो महाराजा दाहिर का सिर ओर छत्र लाकर मेरे कदमों में डाल सके। हजाज के दरबार में उपस्थित दरबारियों में से एक नवयुवक मौहम्मद बिन कासिम ने इस काम का बीड़ा उठाया और खुदा को हाजिर नाजिर मान कर कसम खाई कि वह दाहिर को अवश्य परास्त करेगा। दरबार में उपस्थित एक दरबारी ने महाराज दाहिर के शरणागत गए एक अरब सरदार अलाफी की याद दिलाते हुए उससे धर्म के नाम पर मदद की मांग की। तजवीज पेश की, जिसे स्वीकार कर एक गुप्तचर सिंध देश को रवाना किया गया। दस हजार सैनिकों का एक दल ऊंट, घोड़ों के साथ सिंध पर आक्रमण करने के लिए भेजा गया। सिंध पर ईस्वी सन् 638 से 711 ई. तक के 74 वर्षों के काल में नौ खलीफाओं ने 15 बार आक्रमण किया। पन्द्रहवें आक्रमण का नेतृत्व मौहम्मद बिन कासिम ने किया। सुसज्जित और दस हजार सैनिकों की सेना के साथ हमले का समाचार जब सिंध में पहुंचा तो महाराजा दाहिर ने भी अपनी सेना को तैयार रहने का हुक्म दिया। पदच्युत किए गए गुर्जर, जाट और लोहाणों को पुन: सामाजिक अधिकार देते हुए सेना में सम्मिलित किया गया। महाराजा दाहिर की दोनों पुत्रियों राजकुमारी परमाल और सूर्यकुमारी ने सिंध के गांव-गांव में घूम कर सिंधी शूरवीरों को सेना में भर्ती होने ओर मातृभूमि की रक्षा करने के लिए सर्वस्व अर्पण करने का आह्वान किया। कई नवयुवक सेना में भर्ती किए गए ।।

देवल का सूबेदार बौद्धमत के ज्ञानबुद्ध को नियुक्त किया गया था। जब ज्ञानबुद्ध को अरबी आक्रमण का समाचार महाराज से मिला तो वे उदास हो गए। बौद्धमत हिंसा में विश्वास नहीं करता। धर्म उसे लडऩे की इजाजत नहीं देता और कर्तव्य युद्ध भूमि से विमुख होने की इजाजत नहीं देता। महाराज के दूत को वह युद्ध की तैयारी से मना नहीं कर सकता था। उसे एक युक्ति सूझी। उसने धर्म गुरू का सहारा लिया, जिनसे वार्ता कर युद्ध नहीं करने के निर्णय के तर्क को सुसंगत बनाने का प्रयास किया। किन्तु सन्यासी सागरदत ने उपदेश देते हुए कहा कि बौद्धमत मैत्री, करुणा का उपासक है, जिन कर्मों से मैत्री नष्ट हो, करुणा के स्थान पर अत्याचार घर कर ले, उन्हें कभी भी ठीक नहीं समझा जा सकता। भगवान बुद्ध ने विश्व बन्धुत्व का सन्देश दिया है। अरबियों ने मकरान प्रदेश में बौद्ध मठों का नाश कर दिया है। इसलिए वे यहां आकर भी ऐसा ही विनाश करने वाले हैं, उनके राज्य में हम भी सुरक्षित नहीं रहेंगे। अत: सुख और शान्ति के लिए महाराजा दाहिर का साथ देना ही श्रेयस्कर है। किन्तु ज्ञानबुद्ध की बुद्धि मंद पड़ गई थी और उसने अपने मंत्री मोक्षवासव से समझौता करके खलीफा से सिंध के देवल और अलोर की राजगद्दी के बदले में उन्हें सहायता देने के सन्देश भेजा। शत्रु के खेमे में विश्वासघाती से अरब सरदार फूले नहीं समाए और हजाज ने सकारात्मक संदेश ज्ञानबुद्ध के पास भेजा।

अरब सेना देवल के निकट आने का समाचार मिलते ही, महाराज दाहिर ने अपनी सेना को सुसज्जित होकर कूच करने का आदेश दिया। सिंधी वीरों ने राजकुमार जयशाह के नेतृत्व में युद्धभूमि की ओर प्रस्थान किया। सिंधु देश की जय, महाराज दाहिर की जय, राजकुमार जयशाह की जय के नारे बुलन्द करते हुए सिंधी वीर देवल के तट पर आ पहुंचे। सिंधी वीरों को अपने शौर्य का प्रदर्शन करने के लिए अधिक समय तक इन्तजार नहीं करना पड़ा। अरबी सेना देवल के किले के बाहर ही डेरा डाले हुए थी। दोनों सेनानायक आक्रमण करने के लिए तैयार थे। रणभेरी के बजते ही दोनों ओर से आक्रमण प्रारम्भ हो गया। एक-एक सिंधी वीर दो-दो अरबों पर भारी पडऩे लगा। सूर्यास्त तक अरबी सेना हार के कगार पर खड़ी थी। सूर्यास्त के समय युद्ध विराम हुआ। दोनों सेनाऐं अपने-अपने शिविरों को लौट गई। रात्रि विश्राम का समय था। रात्रि के काले अंधेरे में ज्ञानबुद्ध और मोक्षवासव ने मानवता के मुख पर कालिख पोतने का काम कर दिया और देवल किले के पीछे के द्वार से पूर्व योजना अनुसार अरब सैनिकों का प्रवेश करा सिंधी वीरों पर आक्रमण करा दिया। सिंधी वीर बिस्तर छोड़ शस्त्र संभाले तब तक काफी देर हो चुकी थी। देवल पर दुश्मनों का कब्जा हो गया। राजकुमार जयशाह घायल हो गए। उन्हें मजबूरन देवल का किला छोड़ जंगलों की ओर जाना पड़ा।

अलोर मे बैठे महाराज दाहिर को जब देवल पर दुश्मनों के कब्जे का समाचार मिला तो अलोर के किले की जिम्मेदारी रानी लाडीबाई के कंधों पर डालकर तुरन्त अपनी सेना को तैयार कर युद्ध भूमि की ओर प्रस्थान किया। अपने महाराज को युद्धभूमि में पाकर सिंधी वीरों में नई उर्जा संचारित हुई। युद्ध के मैदान में हा-हाकार मच गया। अरबी सैनिकों के पांव उखडऩे लगे, वे पीछे हटे तो उन्हीं के साथियों ने उन पर हमला बोल दिया। विश्वासघातियों ने यहां भी घात लगाई और पहले ही से बिछाए विस्फोटक में आग लगा दी। रणभूमि में उपस्थित हाथी, घोड़े, ऊंठ बिदक गए। महाराज दाहिर जिस हाथी पर सवार थे, उसके होदे में आग लग गई। हाथी चिंघाड़ता हुआ दौडऩे लगा, जिसे महावत ने सिंधु नदी की ओर मोड़ दिया। नदी के तट पर पहुंचते ही हाथी पानी में कूद पड़ा। महाराज दाहिर ने अपने शस्त्र संभाले और पानी में छलांग दी। महाराज जब तक संभलते तब तक तट को अरब सैनिकों ने घेर लिया और तीरों ओर भालों की वर्षा कर महाराज का शरीर छलनी कर दिया। एक वीर योद्धा ने मातृभूमि की रक्षा में अपने प्राण न्यौछावर कर दिए।

राजा दाहिर को मृत देख सिंध की सेनाओं का मनोबल टूट गया और सारी सेना हतोत्साहित हो गयी तथा लड़ते -लड़ते मरी गयी | छल से प्राप्त विजय के उन्माद में अरब सेनाएं सिंध की राजधानी देवल में प्रवेश कर गयी और उन्होंने सिंध की निर्दोष जनसाधारण का जमकर कत्ले आम किया तथ्यों के अनुसार अरब सेनाओं में लगभग सभी मंदिरों और बोध विहारों को नष्ट कर दिया और बोध मठों के उन सभी हजारों निहत्थे बोधों को गाजर-मुली की तरह काट दिया जिन्होंने उनका साथ दिया था | पूरा का पूरा नगर जला दिया गया सारी सम्पति लूट कर इराक भिजवा दी गयी हजारों महिलाओं का शील भंग किया गया अधिकतर पुरुषों ,बच्चों व् वृद्धों का वध कर दिया गया या बलात धर्मपरिवर्तन करा कर मुसलमान बना दिया हजारों हिन्दू और बोध किशोरों और कन्याओं को गुलाम बनाकर खलीफा के पास हज्जाज (इराक) भेज दिया गया|

महाराज की वीर गति और अरबी सेना के अलोर की ओर बढऩे के समाचार से रानी लाडी सावचेत हो गई। सिंधी वीरांगनाओं ने अरबी सेनाओं का स्वागत अलोर में तीरों ओर भालों की वर्षा के साथ किया। कई वीरांगनाओं ने अपने प्राण मातृभूमि की रक्षार्थ दे दिए। जब अरबी सेना के सामने सिंधी वीरांगनाएं टिक नहीं पाई तो उन्होंने अपने सतीत्व की रक्षा के लिए जौहर किया।

दोनों राजकुमारियां युद्ध क्षेत्र में दोनों ओर के घायल सैनिकों की सेवा में लगी हुई थी, तभी उन्हें दुश्मनों ने पकड़ कर कैद कर लिया। सेनानायक मोहम्मद बिन कासिम ने अपनी जीत की खुशी में दोनों राज कन्याओं को भेंट के रूप में खलीफा के पास भेज दिया। खलीफा दोनों राजकुमारियों की खूबसूरती पर मोहित हो गया और दोनों कन्याओं को अपने जनानखाने में शामिल करने का हुक्म दिया। राजकुमारियों के दिल में बदले की ज्वाला पहले ही धधक रही थी। खलीफा के इस आदेश ने आग में घी का काम किया। राजकुमारी परमाल ने रोते हुए शिकायत की कि हुजूर आपके पास भेजने से पहले आपके सेना नायक ने हमारा शील भंग किया है। यह सुनते ही खलीफा आग बबूला हो गया। खलीफे ने सेनानायक मौहम्मद बिन कासिम को चमड़े के बोरे में कैद कर मांगवाने का आदेश दे दिया।

खलीफा का आदेश लेकर सेना की टुकड़ी सिंध रवाना हुई। अरब सैनिक देवल और अलोर को कब्जे में करने के बाद उत्तर की तरफ बढ़ रहे थे। खलीफा के आदेश ने उनके कदम रोक दिए। मौहम्मद बिन कासिम को चमड़े के बोरे में कैद कर खलीफ के सामने पेश किया गया। हजाज ने मौहम्मद बिन कासिम को कैद करके लाए गए सैनिकों से खलीफा के आदेश पर सेनापति के व्यवहार की दास्तान सुनाने का आदेश दिया । सैनिकों ने बताया कि हुजूर सेनानायक ने घुटने टेक कर हुक्म पर अपना सिर झुका दिया। हमने उनके हाथ पैर और मुह बांध कर बोरे में बन्द कर दिया। रास्ते में ही कहीं इसने अपने प्राण छोड़ दिए। यह वाक्य सुनते ही खलीफा दंग रह गया। उसने गुस्से में दोनों राजकुमारियों से सच बोलने का आदेश दिया। प्रसन्न मुद्रा में खड़ी राजकुमारी सूर्य और परमाल ने कहा कि हमने अपने देश पर आक्रमण करने वाले और हमारे माता-पिता और देशवासियों के कातिल से अपना बदला ले लिया। खलीफा ने दोनों राजकुमारियों का कत्ल करने का आदेश दिया। जब तक अरब सैनिक उन तक पहुंचते, अपने कपड़ों में छुपाए खंजर को निकाला और दोनों बहिनों ने एक दूसरे के पेट में घोंप कर आत्म बलिदान दिया। एक परिवार की अपनी मातृभूमि पर बलिदान की यह गाथा इतिहास के पन्नों में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है। ऐसे बलिदानों से प्रेरित होकर ही सिंधी लेखक ने यह पंक्तियां लिखी हैं-

हीउ मुहिजो वतन मुहिजो वतन मुहिजो वतन,
माखीअ खां मिठिड़ो, मिसरीअ खां मिठिड़ो,
संसार जे सभिनी देशनि खां सुठेरो।
कुर्बान तंहि वतन तां कयां पहिंजो तन बदन,
हीउ मुंहिजो वतन मुहिजों वतन मुहिजो वतन।

इस्लामी सेनाओं का पहला प्रवेश सिन्ध में, १७ वर्षीय मौहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में ७११-१२ ई. में हुआ। प्रारंभिक विजय के पश्चात उसने ईराक के गवर्नर हज्जाज को अपने पत्र में लिखा-‘दाहिर का भतीजा, उसके योद्धा और मुखय-मुखय अधिकारी कत्ल कर दिये गयेहैं। हिन्दुओं को इस्लाम में दीक्षित कर लिया गया है, अन्यथा कत्ल कर दिया गया है। मूर्ति-मंदिरों के स्थान पर मस्जिदें खड़ी कर दी गई हैं। अजान दी जाती है।’ (१)

वहीं मुस्लिम इतिहासकार आगे लिखता है- ‘मौहम्मद बिन कासिम ने रिवाड़ी का दुर्ग विजय कर लिया। वह वहाँ दो-तीन दिन ठहरा। दुर्ग में मौजूद ६००० हिन्दू योद्धा वध कर दिये गये, उनकी पत्नियाँ, बच्चे, नौकर-चाकर सब कैद कर लिये (दास बना लिये गये)। यह संखया लगभग ३० हजार थी। इनमें दाहिर की भानजी समेत ३० अधिकारियों की पुत्रियाँ भी थीं।(२)

विश्वासघात
बहमनाबाद के पतन के विषय में ‘चचनामे’ का मुस्लिम इतिहासकार लिखता है कि बहमनाबाद से मौका बिसाया (बौद्ध) के साथ कुछ लोग आकर मौहम्मद-बिन-कासिम से मिले। मौका ने उससे कहा, ‘यह (बहमनाबाद) दुर्ग देश का सर्वश्रेष्ठ दुर्ग है। यदि तुम्हारा इस पर अधिकार हो जाये तो तुम पूर्ण सिन्ध के शासक बन जाओगे। तुम्हारा भय सब ओर व्याप्त हो जायेगा और लोग दाहिर के वंशजों का साथ छोड़ देंगे। बदले में उन्होंने अपने जीवन और (बौद्ध) मत की सुरक्षा की माँग की।

दाहिर ने उनकी शर्तें मान ली। इकरारनामे के अनुसार जब मुस्लिम सेना ने दुर्ग पर आक्रमण किया तो ये लोग कुछ समय के लिये दिखाने मात्र के वास्ते लड़े और फिर शीघ्र ही दुर्ग का द्वार खुला छोड़कर भाग गये। विश्वासघात द्वारा बहमनाबाद के दुर्ग पर बिना युद्ध किये ही मुस्लिम सेना का कब्जा हो गया।(३)

बहमनाबाद में सभी हिन्दू सैनिकों का वध कर दिया गया। उनके ३० वर्ष की आयु से कम के सभी परिवारीजनों को गुलाम बनाकर बेच दिया गया। दाहिर की दो पुत्रियों को गुलामों के साथ खलीफा को भेंट स्वरूप भेज दिया गया। कहा जाता है कि ६००० लोगों का वध किया गया किन्तु कुछ कहते हैं कि यह संखया १६००० थी। ‘अलविलादरी’ के अनुसार २६०००(४)। मुल्तान में भी ६,००० ६,००० व्यक्ति वध किये गये। उनके सभी रिश्तेदार गुलाम बना लिये गये।(५) अन्ततः सिन्ध् में मुसलमानों ने न बौद्धों को बखशा, न हिन्दुओं को।

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