आजाद् लोकतांत्रिक देश में कार्मिको की सोच बदल जानी चाहिए थी।अब अधिकारियों,कर्मचारियों,पुलिसिंग में मालिकाना भाव समाप्त होना चाहिए था।उसमे अब जनता ही मालिक का भाव बन जाना चाहिए था।किंतु परवर्ती शासको ने उस सामंती मानसिकता को संरक्षण दिया।उन्होंने गुलामी की मानसिकता को स्थायित्व रूप प्रदान की। लगातार भर्ती किया और वही ट्रेनिंग दी जो अंग्रेज व्यवस्था में डाल गए थे।फलस्वरूप आज भी पुलिसिंग और सरकारी कर्मचारी/अफसर अपने को नौकर न मानकर जनता को ही नौकर सा बर्ताव करते है।
गुलामी काल में प्रशासन की सोच और समझ यह होती है कि किस तरह जनता को नियंत्रण,दासता में रखा जाए। वही सोच कर्मचारी और पुलिसिंग की भी बन जाती है।लभभग ऐसी ही सोच न्याय व्यवस्था की भी तैयार जाती है।सामान्य-ज को कितना कुछ डरा कर रखा जाये।जनता को नियंत्रित करके,उस को सरकार से डरा कर रखने की प्रवृत्ति निचले स्तर तक के कर्मचारी में आ जाती है। वह हर तरह से जनता को डराता है, धमकाता है, सताता है, और उससे मैक्सिमम खींच लेने की चाह रखता है। मूलत: प्रशासन भी यही करता है।लेकिन लोकतंत्र संपूर्ण जनता के विकास के लिए है,संपूर्ण मशीनरी जनता की नौकर है। नौकर, जिससे पूरा काम लेना है।जनता अपना प्रतिनिधि चुनती है,बहुमत के प्रतिनिधियों की सरकार बनती है। सरकार उस नौकरों की मशीनरी से काम लेता है।देश आजाद हो गया लेकिन मशीनरी की सोच वही पुरानी की पुरानी रह गई। क्योंकि जो नया नेतृत्व आया उसने अपनी सोच नहीं बदली थी।उसने पुराना प्रशिक्षण जारी रखा या फिर ट्रेनिंग ही नही होने दी।इस सरकारी मशीनरी का उपयोग जनता को मैक्सिमम शोषित करना,उसका मैक्सिमम दोहन,उसका मैक्सिमम लाभ उठाना हो गया।कहते हैं भ्रष्टाचार की जड़ ऊपर से आती है।प्रशासनिक मशीनरी ने अपने नये नेतृत्व को और प्रतिनिधियों को,सरकार को जैसा देखा वही स्वरूप अपना लिया।चूंकि प्रशासनिक मशीनरी का प्रशिक्षण भी ऐसा ही हुआ था इसलिए उसने अपनी आदतें,प्रवृत्तियाँ,आचरण बदलने के बजाय नये वाले नेतृत्व को ही अपने में पचाना शुरु कर दिया।इन 70 सालों में जो भी सरकार बनी जनता ने नई शासन व्यवस्था चुन कर भेजी तो इस पुराने व्यवस्था ने सुगठित गिरोह की भांति उसे अपने अनुरूप ढाल लिया।
अंग्रेजो के समय की यह पुरानी सडी-गली मशीनरी इतनी बड़ी और ऑर्गेनाइजड है कि वह सिंडिकेट के रूप में काम करने लगी है।कागजो,नियमो,फाइलों का जाल इतना उलझा दिया गया है कि जन-सामान्य का छोटा से छोटा काम पहाड़ कर दिया।चुनी हुई सरकारो के नुमाइंदो को वे वाग्जाल के सहारे कानूनों का हवाला देकर डराते है काम न बनने पर लालच देते है या बड़ा चुग्गा फेंकते है,और कुछ न बना तो उसके स्वभावगत कमियों/कमजोरियो मे से ही कुछ ढूंढ निकालते है,अंत में ‘मुर्गा, फंस/बन ही जाता है।वे मेनुपूलेशन/आर्टिपूलेशन के माहिर होते है।वे हर चीज के लिए पहले से ही पेशबन्दी करके रखते है।नई सरकारे भी इसी तरह उलझाई जाती है।हजारो कानून,जियो,नियम आदि बनाए ही इसलिए गए है कि क्न्फ़्युज्न हमेशा बना रहे।खुद उनही नियमो मे दूसरे नियमो की काट मौजूद है।यही हर बार हुआ।उसने हर नई सरकार को अपने स्वरूप में डाल लिया।नई आई हुई सरकार,जनता की चुनी हुई सरकार,नए स्वरूप के जरूरत की सरकार हर बार चुनी जरूर जाती थी पर मशीनरी इतनी शक्तिशाली है कि वह सरकारों को अपने हिसाब से डाल लेती है।यह दुर्भाग्य है इन 70 सालों में कोई भी सरकार ऐसी नहीं आ सकी जो उस मशीनरी को दुरुस्त कर सके।अपने हिसाब से चला सके,।वे उन्हें कन्फ्यूज करने में माहिर होते है।दुनिया में भारत एकमात्र ऐसी मशीनरी है।जहां मशीनरी सारी विचारधाराओं को अपने अनुरूप ढाल लेती है।यह अंग्रेजों की डिजाइन थी और इस डिजाइन के पीछे बहुत गहरी साजिश थी।इस साजिश को तोड़ पाना एक दो व्यक्तियों के बस का नहीं था। पुरानी बनी हुई मशीनरी निचले स्तर तक इस ढंग से बनी हुई है कि हर चुनी हुई सरकारे इसके जद में आ जाती है।शुरुआत में अपने ढंग से चलती है और बाद में इस मशीनरी के लिए चलने लगती है।सरकार किसी की भी बने शासन मशीनरी का ही रह जाता है।वाह रे अंग्रेज।
स्थानीय सरकारों का भी यही हाल है,प्रादेशिक सरकारों का भी यही हाल है और केंद्रीय सरकारे भी ऐसी ही है।केंद्रीय प्रतिनिधि भी जल्द ही उनके अनुरूप ढल जाया करते हैं।लोभ,भय,लालच,अहंकार स्वार्थपरता अंत में उन जनप्रतिनिधियों को लपेट लेती है।जनता फिर वहीं की वहीं खड़ी रह जाती है।इन 70 सालों में किसी भी सरकार ने इस मशीनरी में व्यापक बदलाव,व्यवस्था-गत फेरबदल,विकासात्मक गुणात्मक परिवर्तन करने की कोशिश नहीं की।वह उसी पुरानी मशीनरी में कुछ घटा-बढ़ा कर काम चलाने का प्रयास करते हैं और मशीनरी उनका काम लगा देती है।
ऐसा भी नहीं है कि वह समझते नहीं हैं नई आई सरकारे बाकायदा ट्रांसफर,पोस्टिंग, डिमोशन,प्रमोशन,सस्पेंसन आदि शक्तियों का बखूबी इस्तेमाल करते हैं।यानी उन्हें पता होता है।लेकिन इसका इस्तेमाल वह जनहितकारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर ना करके अपनी संतुष्टि अथवा स्वार्थपरता के लिए करते हैं। उनके दूरदर्शी उपाय,दूरदर्शी योजनाएं,जनहितकारी कार्मिक योजनाएं नहीं बनती।सरकार का 70% से अधिक पैसा कार्मिक सिस्टम पर खर्च होता है। उनका दुरुपयोग इस स्तर पर होता है कि उसमें अपने लाभ कहां तक उठाए जा सकें यही चिंतन का,सोच का,योजनाओं का,विकास का आधार बन चुका है।
मशीनरी पर स्थाई नियंत्रक कौन है,मशीनरी व्यवहारिक रूप में किसके प्रति जिम्मेवार है, मशीनरी किसके पूर्ण नियंत्रण में है,यह बड़ा रोचक है।जब आप गहराई से अध्ययन करते है तो रोचकता और सामने आती है।उसका डर नीचे तक के मशीनरी पर व्याप्त है।राज्य सेवाओं से लेकर चपरासी तक में उसका स्थाई भय व्याप्त रहता है।वह भी बिना की जिम्मेदारी के।इसको समझना बहुत कठिन नहीं है।सर्वोच्च सेवाओ वाला आईएएस इस पर पूर्णतया का काबिज है।दरअसल 5 साल के बाद होने वाले चुनाव से चुन करके आने वाली सरकारी यह बात नहीं जानती कि अगले 35-40 सालों तक लगातार जॉब करने वाला नियंत्रण रखने वाला आईएएस पूरे सिस्टम को कंट्रोल करता है। फ़ाइलें जॉब करती हैं।पूरी निचली मशीनरी को यह पता है कि यह नेता तो चला जाएगा, सरकार तो चली जाएगी,5 साल बाद ना जाने किसकी सरकार बनेगी, लेकिन यह साहब लंबे समय तक रहने वाले है।इनका सिंडिकेट है इनका एक अपना एसोसिएशन है,खुद के मामले में यह गिरोह की तरह काम करता है। यह खुद के लोगों को ही सुनते हैं।बाकी मशीनरी में किसी का प्रभाव नहीं होता। स्पेशली नेता का।जजो,पत्रकारों की तो सुन भी लेते है नेता को घुमा देते है।स्थाई नियंत्रण होता है न।अब चूकी स्थाई प्रभाव इनका है इसलिए इनका ही आदेश चलता है।मंत्रालय संभालने वाला सदन के अंदर जिम्मेदार व्यक्ति,अमूमन अपने कार्यों को ठीक से नहीं जानता। चुनकर के आने के बाद उसको सत्ता को लेकर उसका कोई प्रशिक्षण नहीं किया जाता।आज तक की किसी सरकार ने नही कराई।यह मान लिया जाता है कि अंगूठे-छाप जी को सब पता होगा।ना ही मशीनरी को चलाने का कोई सटीक प्रशिक्षण प्रणाली है।तो साहब जैसा चाहते हो वैसा घुमा देते हैं,वैसा समझा देते हैं। अब जैसा समझा देते हैं वैसा ही आदेश हो जाता है।वहीं नीचे तक प्रभावी होता है। मतलब की निचली मशीनरी यह बात जानती है कि 5 साल बाद भी इनसे ही सामना करना है।इनके पास ही इतना ही पावर बना रहना है। इनके पास नहीं रहा तो इनके किसी भाई के पास रहेगा।एसोसिएशन के मेंबर के पास रहेगा।फिर वह एक गिरोह जैसा काम करते हैं। अपने उस सत्ता को बरकरार रखने के लिए। उनके हाथ से कुछ भी निकलने नहीं पाता। कोई दूसरा थोड़ा भी नहीं हथिया सकता है। उसका दुष्परिणाम यह होता है कि काबिलियत,सतर्कता,परिश्रम,जानकारी,
अनुभव और दूरदर्शी सोच रखने वाला व्यक्ति समाप्त हो जाता है। उसका हतोत्साहन हो जाता है।उभरने ही नहीं देते ऐसे किसी भी प्रतिभा को।सिस्टम में पनपने ही नहीं देते। अगर आ भी गया तो नहीं चल पाएगा।अगले 35 साल तक जिसका नियंत्रण रहने वाला है वह कहीं ना कहीं उसे मार ही देता है।समाप्त ही कर देता है, उसका गला घोट देता है।कीमत हमेशा डेमोक्रेसी चुकाती है,अपना लोकतंत्र चुकाता है।उसका विकास नहीं होने पाता है।हर बार सरकार में नए आए हुए लोग भ्रष्ट हो जाते हैं और खुद उसकी सजा भी पाते है।उनके सामने उनका राजनीतिक करियर बिल्कुल पूर्णतया नष्ट हो जाता है।यह तेज बुद्धि का यह आदमी जो एक इम्तिहान निकाल कर आया है, मुस्कुरा रहा होता है।साहब बना बैठा आम जन के पैसे से काफी की चुस्कियां ले रहा होता है।साहब की इच्छा ही कानून के रूप में चलने लगती है क्योंकि 5 साल बाद का नियंत्रण भी साहब के ही पास है 5 साल पहले का नियंत्रण भी साहब के ही पास है इसलिए इस एकमात्र परीक्षा निकालने वाले हो पूर्ण नियंत्रण प्राप्त हो जाता है भारतीय लोकतंत्र कोई नेता नहीं चला रहा कोई चुनी हुई सरकार नहीं चला रही भारतीय लोकतंत्र चला रही है एक परीक्षा पास किए हुए लोगों की कम्युनिटी अब अलग बात है कि उसकी निष्ठाएं किसके पास है उसकी सोच कैसी है उसकी समझ कैसी है लेकिन सच्चाई यही है
इस्लामिक काल में तो कर्मचारी केवल रियासत और शरीयत के प्रति जिम्मेदार होता था।इसलिए यहां उसपर विचार करने की जरूरत नही है।जैसे-जैसे न्याय,दीवानी,रेल,डाक,कानून,विद्यालयी,स्वास्थ्य,पुलिसिंग,प्रशासन,आदि-आदि संस्थाओं का विकास होता गया कार्मिको और अफसरों की मांग बढ़ती गई।उसी में से लोक-कार्मिक की व्यवस्था भी निकली।इनका विकास पूर्णतया अंग्रेजो के समय में ही प्रारम्भ हुआ।किंतु यह सोच का अंतर था।अंग्रेजी सोच भारत की जनता पर कन्ट्रोलिंग एलीमेन्ट्स विकसित कर रही थी।1833 ईस्वी के चार्टर एक्ट की धारा 87 के अनुसार लोक सेवाओं में रंग, जाति, धर्म ,के भेद के बिना योग्यता को स्थान दिया जाएगा। लेकिन यह महज दिखावटी बनाया गया था।उस एक्ट से कंपनी के अधिकारियों,इंग्लैंड के अन्य प्रतिष्ठित और सम्मानित अधिकारियों ,पादरियों के पुत्रों को ही नियुक्त किया गया।1855 में प्रतियोगिता परीक्षाएं प्रारंभ हुई।1858 के अधिनियम के अनुसार भारत सचिव को सेवाओं में भर्ती का अधिकार प्राप्त हुआ। उन्होंने उसमें आयु सीमाओ को 23 वर्ष से घटाकर के 19 वर्ष और निम्नतम आयु को 17 वर्ष कर दिया।उन्होंने उसमें भारतीयों का प्रवेश घटाते-घटाते अंग्रेज अभ्यर्थियों को ज्यादा महत्व देना शुरू किया।यानी भर्ती ही नही की।1833 के चार्टर एक्ट के पश्चात विभिन्न विधि-संस्थाओं के संकलन की ओर ध्यान दिया गया।यह अनुभव किया गया कि भारतीय वकील भाषा और विधि ज्ञान में अंग्रेज जजों से बहुत आगे हैं।अंग्रेजो के कमतर ज्ञान के कारण न्यायालयों में भ्रष्टाचार वगैरह भी शुरू हुआ है।तब कई बार यह तर्क अधिकारियों को समक्ष रखा गया कि न्यायिक सेवाओं को प्रशासनिक सेवाओं से अलग कर दिया जाए।बंगाल और उत्तर पश्चिमी प्रांत में अंग्रेज न्यायाधीशों की कमतर योग्यताओं की वजह से एक नया एक्ट बनाया गया और न्यायिक सेवाओं को अलग कर दिया गया।
उन्नीसवीं सदी में दो प्रकार के सेवाएं थी कोविण्टेड और को अन-कोविन्टेड।कोविन्टेड सेवाओ में कर्मचारियों को अनुबंध पर हस्ताक्षर करने होते थे कि वह निष्ठा और ईमानदारी के साथ अंग्रेज राज के सेवा कार्य करेंगे। इस सेवा के लिए इंग्लैंड में ही चयन होता था।आरंभ में इसमें केवल अंग्रेज होते थे।अंकोविन्टेड सेवाओं की भर्ती भारत में ही की जाती थी। जो निम्नतर पदो, नीचे, के पदों के लिए होती थी।इस सेवा में 90% पद ऐसे होते थे जिसका वार्षिक वेतन 305 रूपये से कम होता था। उस में उन्नति के अवसर और क्रमबध्य वेतन श्रृंखला के अवसर बहुत कम होते थे।1870 में एक्ट के द्वारा तीसरी प्रकार की सेवाओं की स्थापना की गई। जिसे स्टेट्यूटरी सिविल सर्विस कहा जाता है। इस सेवा से संबंधित नियम 1879 इसवी में पास किए गए।इसके अनुसार इसमें केवल भारतवासी ही भर्ती किए जाते थे। इस भर्ती संख्या में कोविण्टेड सेवाओं की संख्या का 1/6 निर्धारित की गई। इस सर्विस में नियुक्ति योग्यता की अपेक्षा सामाजिक प्रतिष्ठा,अच्छे कुल,जाति के आधार पर की जाती थी।यह सर्विस भी अनकोविटिड के समान ही थी।विभिन्न प्रांतों में इन दोनों सेवाओं की भर्ती के लिए ना तो समान योग्यता आधारित थी, और ना भर्ती करने के समान पद्धति।इसलिए इन सेवाओं के संबंध में 1886 में सर चार्ल्स एचीशन की अध्यक्षता में एक लोक सेवा आयोग की नियुक्ति की गई इसका उद्देश्य भारतीयों की अधिक मात्रा में नियुक्ति के लिए सुझाव देना था।1891 में स्टेट्यूटेरी सिविल सर्विसेज को समाप्त कर दिया गया। प्रांतीय सेवाओं में भर्ती के लिए विभिन्न प्रांतों में अलग-अलग नियम बनाए गए।किंतु इंडियन सिविल सर्विस और प्रांतीय सिविल सर्विस में मौलिक अंतर बना रहा।आईसीएस के लोगों को निर्णय लेने का अधिकार था और उन्नति नहीं मिलती थी।लेकिन वेतन ₹300 मासिक वेतन ही होती थी और 500 से अधिक वेतन वाली सेवाओं में भारतीयों के लिए 16 प्रतिशत से अधिक स्थान नहीं होते थे।अर्थात ऊपर की सेवाओं में उनको कम नियुक्त किया जाता था। 1893 में आईसीएस अफसरों की मांग बढ़ती गई उसके बाद भी स्थान नहीं बढाए गए। 1912 में इंग्लैंड में भारतीय लोक सेवाओं के लिए इसलिंगटन की अध्यक्षता में ‘रायल कमीशन, नियुक्त किया गया।लेकिन जब तक इसकी रिपोर्ट प्रकाशित होती जनवरी 1917 ईस्वी में भारत सचिव की घोषणा के पश्चात पूर्व प्रचलित नीति को ही समाप्त कर दिया गया।कुल मिलाकर अंग्रेज यहां राजभक्त सामन्त चाहते थे जो यहां की जनता को कैटल क्लास समझता रहे।1926 मे संघ लोक सेवा आयोग बनाया गया जो आज की घड़ी तक भारत के केंद्रीय प्रशासनिक अधिकारी चुनता है।यह अलग बात है 1935 मे उससे सबन्धित कुछ नियमावली और जोड़ दे गई जिसमे समा-समय पर सरकार ने बाबुओ के लिहाज से ही अमेंडमेंट किए।भारत के संविधान ने भी जो कहा है देखिये!UPSC–The agency’s charter is granted by the Constitution of India. Articles 315 to 323 of Part XIV of the constitution, titled as Services Under the Union and the States, provide for a Public Service Commission for the Union and for each state. The examination conducted for Civil Servents has a success rate of 0.1%–0.3%.
ढेरो सूचनाएं,तर्क शक्ति,विश्लेषण क्षमता,बौध्दिक परिलब्धता,अच्छे मार्क्स सिस्टम का आधार नही बन सकते।सिस्टम,व्यवस्था,प्रशासनिक मशीनरी का आधार सोच,आचरण,संस्कार,कार्य-कुशलता,अनुभव,समर्पण,प्रतिबध्दता और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति गहरी आस्था हो सकती है।इस चयन प्रणाली के दौरान ख्याल रखना चाहिए था कि समय के साथ इस तरह की प्रतिभाएं नितांत व्यक्तिवादी होती चली जाती है।उनकी महत्वाकाँक्षा लोकतंत्र के लिए बहुत घातक होने लगती है।उसका अर्थ है वह अपनी आर्थिक-भौतिक सुरक्षा खोजता है।उसी में से भ्रष्टाचार पनपता है।उस उम्र तक पहुँचते-पहुँचते उनकी जड़े गहरे चली जाती है।सम्पर्क होते-होते उनकी सम्पर्क के नेता भी निर्णायक पोजिशन में आ चुके होते है। इन सम्पर्को के परिणाम से नीतियां बुरी तरह प्रभावित होती है।इसका उपाय मशीनरी की डिजाइन में है।जब् वह अनुभव की पराकाष्ठा पर होता है।उनको निर्णयो में शामिल करने की जरूरत होती है।लेकिन उनका आचरण व्यैयक्तिक में बदल चुका होता है।ऐसे में उनका उपयोग ट्रेनिंग सेंटर में करना उचित होता है।उनके अनुभवों,काबिलियत का इस्तेमाल सिस्टम की खूबी के तौर पर हो सकता है।पर ऐसा नही होता।
व्यवस्था को उद्यमी,साहसी,बुद्दि,पराक्रम,धैर्यवान,कुशल निर्णय-क्षमता से भरे युवक चाहिए थे।जो देश को बदल डालते।परंतु उसने अपने प्रतिस्पर्धा-पद्धति से क्या छाटा?लोकतन्त्र के मालिक?
उस पद्धति से छँटे कर्मी जहां भी जाते है वह मालिक सा आचरण करते है।देखने मे आया है उनकी आस्था कही भी नही होती।सिवाय पर्सनल-महत्वाकांक्षा के।अंग्रेज़ो से व्यवस्था उधार लेकर बाद की सरकार ने भी बहुत सारे चयन आयोग बनाए है।प्रशासनिक सेवाओ के लिए संघ लोक सेवा आयोग और,प्रादेशिक लोक सेवा आयोग बनाए गए है।अन्य भर्ती आयोग/समितिया भी काम करती है।एसएससी,बीएसआरबी,और प्रदेश लेबिल पर भी कई चयन-समितिया अपने-अपने पाठ्यक्रमो और चयन-प्रक्रियाओ के हिसाब से भरतिया करती है।उनकी प्रश्नावलियों पर गौर फरमाए।प्रश्न-पात्रो के डिजाइनर किस जरूरत और मांग के आधार पर पेपर डिजाइन करते है?मैंने गत तीस साल के लाजिक,समझ,और निर्णय-क्षमता के मापक-प्रश्न-पत्रो का अध्ययन किया तो मुझे नही लगा की यह आवश्यकताओ,पदो,बौद्धिक-क्षमता की प्रतिस्पर्धा थी।उन्हे बस नए लड़के चुनने थे और कुछ घुटे-घुटाए वामपंथी प्रोफेसरो से पेपर तैयार करवा लिए जाते थे।यह प्राय:जेएनयू या उनसे जुड़े प्रोफेसर थे,जिन्हे सीधे ऊपरी स्तर से नामित किया जाता था।गोपनीय-मदो से पूर्व-निर्धारित रकमे देकर।उन्होने वामी-सेकुलर पैरा-मीटर वाले रुझान चेक किए।इतिहास,भूगोल,सामान्य-ज्ञान,बौद्धिक-परिलब्धता सभी पेपरो/प्रश्नों की डिजाइन ऐसी होती थी की आपकी समझ की जगह आपकी सोच बाहर आ जाए।रुझान टेस्ट मानक ए मे आए हुये जबाब वामी-कांग्रेसी रुझान बता रही थी।रुझान बी-क्न्फ़्युज के अंतर्गत था,सी-डी राष्ट्र-वादी रुझान जाहिर करता था जिसे वे दक्षिणपंथी कहकर किसी न किसी बहाने बाहर कर देते थे।बहुत स्पष्ट समझिए वह नंबरो/स्कोर का गेम न होकर जड़ो मे घुसने का गेम होता था।बाद मे साक्षात्कार मे व्यक्तित्व-परीक्षण,वे राजवंश के प्रति निष्ठा चेक कर लेते थे।वही भाँपने के लिए ही तो उनको विशेषज्ञ बनाया गया होता था।रोमिला थापर,विपिन चन्द्रा।डीएन झा,डीडी कोशम्बी ऐसे नही सफलता की गारंटी हो गए थे।यह अलग बात है की पीढ़िया संस्कारो की वजह से नकली रुझान जाहिर करने मे लग गई।तैयारी क्या चीज थी?वही रुझान जाहिर करने का अभ्यास और क्या।युवाओ ने दिमाग मे वही सूचनाए भरनी शुरू कर दी जो हुक्मरान चाहते थे।वे दिन-दिन भर इसका अभ्यास कोचिंग सस्न्थाओ के सहारे करते थे।खासा भुगतान करके।वर्ना इससे क्या फरक पड़ता है की चे-ग्वुएरा को फांसी किसने और कहाँ दी।यह तैयारी उन्हे कभी योग्य-कुशल-अंत:व्यक्तित्व संपन्नता न देकर एक रट्टू तोते मे बदल डालती है।
Upsc के अध्यक्षों की सूची पर नजर दौड़ाइए।अब इनमे से कुछ के विचारधारा बारे मे व्यक्तिगत जाननकारिया इकट्ठी करना ज्यादा कठिन नही है।
सर रॉस बार्कर (अक्टूबर 1926-अगस्त 1932)
सर डेविड petrie (अगस्त 1932-1936)
सर आयर पर्दे (1937-1942)
सर एफ robertson robertson (1942-1947)
एच. के कृपलानी (अप्रैल 1947-जनवरी 1949)
आर एन बनर्जी (जनवरी 1949-मई 1955)
N. गोविंदराजन (मई 1955-1955 दिसम्बर 1955)
वी एस hejmadi (दिसम्बर 1955-दिसंबर 1961)
बी. एन. झा (दिसम्बर 1961-फरवरी 1967)
K. R. Damle (April 1967- March 1971)
R.c.s. सरकार (मई 1971-फरवरी 1973)
ए आर किदवई (फरवरी 1973-फरवरी 1979)
एम एल shahare (फरवरी 1979-फरवरी 1985)
एच. के. एल. एल. caapor (फरवरी 1985-मार्च 1990)
जे. पी. गुप्ता (मार्च 1990-जून 1992)
आर एम bathew (kharbuli) (सितंबर 1992-अगस्त 1996)
एस. जे. एस. एस. chhatwal (अगस्त 1996-सितंबर 1996)
जे एम कुरेशी (सितंबर 1996-1998 दिसम्बर)
Lt. जनरल. सुरिंदर नाथ (दिसंबर 1998-जून 2002)
पी. सी. (जून 2002-सितंबर 2003)
माता प्रसाद (सितंबर 2003-जनवरी 2005)
एस आर हाशिम (जनवरी 2005-2006-2006)
डी. पी. अग्रवाल (अगस्त 2008-अगस्त 2014)
Rajni Razdan[4]
दीपक गुप्ता को नवंबर में नए upsc के अध्यक्ष के रूप में चुना गया । रजनी राज़दान के कार्यकाल के बाद 2014 के कार्यकाल में
अलका सिरोही (सितंबर 21, 2016-जनवरी 3, 2017)
डेविड आर. Syiemlieh (जनवरी 4, 2017 तक)।
क्रमवार एक-एक नाम अलग-अलग उनके बारे मे पता लगाए।मजेदार ततथ्य निकलेंगे।उन्होने कुछ किताबे भी लिखी है।उनके सोच और दिमागी शक्ति की स्थिति भी इससे पता लग सकेगी। यह एक टास्क है जो आपको बहुत सारी स्थितियो से अवगत करा देगा।ऐसे बहुत सारे डिपार्टमेंट,लोग और क्रिया-कलाप भरे पड़े है।उन्होने किसे और क्यो चयन करना है यह इसकी एक प्रक्रिया बनाई वे कौन थे यह जानना बहुत जरूरी है।
प्रशासनिक चयन की दृष्टि से मनोविज्ञान की चार अवस्थाएं होती हैं।वैकल्पिक प्रश्नों के द्वारा किसी भी व्यक्ति से अंदर से उसके मौलिक व्यक्तित्व को समझा जा सकता है। 1- व्यक्ति लोकतांत्रिक है 2-व्यक्ति कम्युनिष्ट तानाशाही से भरा है,3-सामंतीय तानाशाही से भरा है,4-व्यक्ति भ्रमित है।प्रश्नों के डिजाइन ज्यादा कठिन नही है।बेसिकली कर्मचारियों के प्रशिक्षण का और सेलेक्शन का आधार लोकतंत्र को लेकर उनकी समझ होनी चाहिए थी। उनकी सोच पर ज्यादा जोर देना चाहिए था।मनोवैज्ञानिक प्रश्नों के द्वारा लोकतंत्र,जनता और राष्ट्र के बारे में उनके अंदर की सोच को निकाल कर देखना चाहिए था।केवल यही नहीं चयन के उपरांत उनके प्रशिक्षण का साथ अधिकाँश हिस्सा,पाठ्यक्रम,अभ्यास,इम्तिहान के द्वारा उनको यह समझाने में लगना चाहिए कि तुम्हारा मालिक,तुम्हारा बॉस भारत की जनता है,उसके प्रति ही तुम्हारी जिम्मेदारियां है। लोकतंत्र की मूल-भूत अवधारणाएं दिमाग में चारो तरफ से ढकेल देना चाहिए।
वैकल्पिक प्रश्नावली,चयन आयोगो के नीति नियंता कहते हैं कि’इससे व्यक्तित्व का निचोड़ निकाल लेंगे।जबकी उनका खुद का ही व्यक्तित्व अंतराष्ट्रीय पैरामीटर पर कमजोर साबित है।इन प्रश्नो से केवल यह तय हो सकता है कमरे में बैठे भदेस सावन जी और सरना की उन्ही बातों को याद कर रहे।आज सत्तर साल बाद भी उसमें नया क्या है।बस कुछ तरीके बदले है,,बाकी सब वही।अब उसमें प्री,मेन्स और इंटरव्यू होते हैं।चयन के बाद ट्रेनिंग क्या होती है,साहब बनने की।चयन के लिए अधिकतर हिस्सा बहु-वैकल्पिक होता है।उसके लिए देश भर मे हज़ारों-हज़ार कोचिंग एजेंसिया हैं जो तैयारी करवाती हैं।यह अरबों खरबों का व्यवसाय है।देश के तमाम शहरो मे तैयारी के सेंटर है।कभी कानपुर-कोटा-बंगलोर-भोपाल-पुणे-इलाहाबाद की जगह अब दिल्ली ने ले लिया है।इधर इंजीनियरिंग वाले ज़्यादे चयनित होते है।पहले तकनीक सीखते है,विशेषज्ञ कहलाते हैं फिर छोड़ कर बाबू बनते है।कंसट्रेशन और क्या।माल का ध्यान करो मालामाल होगे। अभ्यर्थी ने खूब अभ्यास किया है “इस पैटर्न का।जम कर चार महीने अभ्यास के बाद पैटर्न सेट कर लेंगे।वह सारी गुणवत्ता आप मे आ जाएगी जो मनोविज्ञान के सो-काल्ड प्रोफ़ेसरो के अनुसार सर्वोच्च सेवाओ के लिए होनी चाहिए,गुड।एक हिरण,बैल,बकरा,खरगोश,लोमड़ी,बंदर और ईल,गौरैया,कबूतरों में से आप्शनएबिल क्विश्चनो के सहारे बाघ,शेर,बाज और मगर-मच्छ तलाशा जाता है,हमें इन चयन आयोंगो की दाद देनी चाहिए उनमें से शेर निकाल भी लेते हैं।सारी दुनियाँ हँसती है मैं क्यों न हँसू??शेर,बाज,मगर एक्जाम देने भी क्यों आएगा?अगर आया भी तो प्रतिस्पर्धियों को देखकर शिकार की कामना न जाग जाएगी? वेरी-गुड!बहु-वैकल्पिक प्रश्न देश का भविश्य तय करते हैं।वह आपका मनोविज्ञान और प्रतिभा,छांट लेते है।रीजनिंग प्रश्नों पर आपका ध्यान तो गया ही होगा।उनको ध्यान से देखिये।प्रशासन और लोकतंत्र से उसका कोई सम्बन्ध नही होता।उनके मनोवैज्ञानिक पहलू का अध्ययन करने पर कोई सम्बन्ध नही मिलता।इसे वे केवल बौद्धिक दिखावे के तौर पर लगाते है।
तभी तो सत्तर सालों में ये हाल हो गया।इनको किसी सार्वजनिक उद्यम में बैठा दो न बंद हो जाए तो कहना,इन सत्तर सालों में “ये,चयनित कोई भी एक काम सफलता से कर सकें हो तो(बाबूगीरी के अलावा) एक उदाहरण दिया जाए।हा!हा!हा!हा!हा!हिरण,बैल,बकरा,खरगोश,लोमड़ी,बंदर और ईल,गौरैया,कबूतरों का सिंडिकेट बहुत ताकतवर है,शेर से भी ज़्यादा,पूरा जंगल,नदी,पहाड़,धरती,आसमान,देवता उसके काबू में हैं।अपने हाथ से कुछ ना निकलने देगा,कुछ भी न बदलने देगा।समर्पण,प्रतिबद्धता तो एक्जाम पास करने के साथ ही खत्म हो जाता है।उसी के साथ सब कुछ उनके अधिकार में बदल जाता है।यह एक्जाम लोकतंत्र के मशीनरी की चाभी के रूप में है।वे वह की पा लेते है मरते दम तक जिसपर नियंत्रण बना रहता है।प्रायः रिटायर होने के बाद भी।
आपको पता है।15 साल पहले की पढ़ी-लिखी युवा पीढ़ी क्या करती थी?वह तैयारी करती थी।लगभग 5 करोड़ नौजवान दस-लाख सालाना निकलने वाले नौकरियों के स्थान के लिए प्रतियोगिताओ की तैयारी करते है।ढाई करोड़ तो अकेले एससी के लिए करते है।अगर इसमे से 15 लाख भी चुन लिए गए तो भी बचे हुये 4 करोड 95-लाख को खाली बैठना है।कुल नौकरियों के सीमित स्थान के होने के बावजूद हमारे देश के चार-करोड़ युवा बजाय जीवन के वास्तविक गुण विकसित करने के “तैयारी,, के नाम पर वह ऐसी चीजे रटने,पढ़ने,मगने में लगे रहते है जो उनके बाकी के जीवन में कभी काम नही आने वाला। 17 से 35 साल की उम्र तक वह जो भी पढ़ते थे इतिहास,भाषा,जनरल-नालेज,आदि-आदि उनकी व्यक्तिगत जिंदगी मे उसका कोई उपयोग नही था।”सरकारें जानबूझ कर युवाओ की 17- से 35 साल के इनर्जी-पीरियड जान-बूझ कर नष्ट कर देती है।वैसे प्रतिभाए किसी का मुंहताज नही होती।वे नौकरी नही कर सकती।पर प्रशाननिक नौकरी को इतना बड़ा बना दिया गया,इतना हीरोइक इमेज मे ढाल-दिखा दिया गया की युवाओ का जीवन-उद्देश्य ही वही बन बैठा।1947 से सन 2000 ई तक का युवाओ के सामने आदर्श-जाब के रुप मे सरकारी-नौकरी उसमे भी आइएएस का इतना गहरा चार्म पैदा हो गया की उन्होने उसकी कीमत के रुप मे अपने जवानी के कीमती साल गंवा दिये।विकसित देश अपने युवाओं की उर्जा और रचनात्मकता के इस पीरियड का उपयोग कर ही विकसित होते हैं।उनके सिलेबस पर नजर डालें वे जीवन-उपयोगी और व्यावहारिक चींजे अपनी पीढ़ियो मे डालते है।उनके लिए इस ऊर्जाकाल की बरबादी का अर्थ है देश का बर्बाद हो जाना।सफल देश क्रीम एज-पीरियड का समय बर्बाद नही होने देते।उम्र के उस काल को वह ऊर्जा-काल कहते है।यानी 18-35 साल की युवा शक्ति को विकास के काम में लगाते है।उत्साह एव उर्जा से लबालब भरे,पवित्र धारनायुक्त यह पीरियड उनसे सकारात्मक,रचनात्मक,निर्माणक काम करवाने की उम्र होती है।दुनिया के सफल देश ऐसा ही करते हैं।वे उन्हे छोटे-छोटे व्यावहारिक कामो का अभ्यास कराते है,नागरिक शास्त्र और इतिहास का अभ्यास कराते है।जीवन की तमाम उपयोगी छोटी-बड़ी जानकारी के सहारे खुद आत्मनिरभरता और स्वावलंबी स्वभाव विकसित कराते है।भारत के अलावा दुनिया मे कोई भी दूसरा उदाहरण मौजूद नही है जिसमे पूरा युवाकाल-ऊर्जाकाल उन बातो पर जीवन खपाता हो,सीखता हो जिसका बाकी के जीवन मे कभी उपयोग न आने वाला हो।गज़ब।परंतु जवानी के पूरे सत्रह साल नित्य-15-18 की राष्ट्र ऊर्जा फालतू ही बरबाद की जाती रही है।इतनी सारी पढ़ाई और अभ्यास का जीवन मे कोई उपयोग न आने वाला था।
साउथ कोरिया और जर्मनी तो 15 साल के बाद टाप-ब्रेन चुन कर प्राइमरी शिक्षक बनाते है।कुछ दिनो बाद उनही मे से प्रशासन मे भेजते है।अनुभवी प्रशासक को ही बाद मे उच्च शिक्षा मे डालते है।ग्रेट-ब्रिटेन और फ्रांस ने उसमे और अधिक अमेंडमेट कर लिए हैं।खुद आपके यहाँ भी सेना मे इसी उम्र के देश-रक्षक छाँटे जाते है।आज एनडीए-सीडीएस के लड़के ज्यादा अनुशासित और आचरण-सम्पन्न दिखते है।उनके अनुभवो और काबिलियत के आधार पर धीरे-धीरे ऊपर बढ़ाया जाता है।आई-आईटी,इंजीनियरिंग और हैवी ब्रेन-क्लास उसी मे से सेलेक्ट किया जाता है।लेकिन सरकारें इस पर निर्णय नही करना चाहती है,जरा भी सोचती नही है।,उन्हे अपना उल्लू सीधा करने लायक सिस्टम चाहिए।यह कमउम्र पवित्र आदमी उनके भ्रष्टाचार,कार्य-प्रणाली,स्वार्थ-परता,जाहिलियत, कमीने-पन,पर प्रश्न खड़ा करेगा।इसलिए अंग्रेज़ो की चयन-प्रणाली मजबूत किए जा रहें हैं।यह चयन-प्रणाली दुनिया भर में अमान्य हो चुकी है,खुद उनके मालिकान इंग्लैड मे भी।
चाइना जहा से इस तरह की चयन प्रक्रिया पहली बार शुरू हुई थी,उनका अनुभव खराब रहा।हालाकी अब वे एक पार्टी से लेते है।उस पार्टी के प्रति वफादारी ही उनका मानक होता है।विकसित देश अपने यहाँ स्कोरिंग सिस्टम लागू किए हुये है।सामान्य पैरामीटर पर सीधे ले-लेते हैं।वह भी 18-23 की उम्र मे।एक प्रशिक्षण करवा के सीधे काम मे।अब स्कोर इकट्ठा करो।नही तो पाँच साल बाद अग्रीमेंट पूरा ही जाता है।कुछ देश लोक-चुनाव-व्यवस्था से लेते हैं,जिसकी सरकार बनी वह अपने लोगो को लाता है।सीधे तौर पर जबाबदेही होती है।यहा तो एक इम्तिहान निकाला और फिर जीवन् में कभी कोई जबाब देही नही।परीक्षाओं से क्या छाटते हैं।वह अपने आयोगों,सेमिनारों,वर्कशापो में लाख साबित करते फिरे कि यह पैटर्न सर्वश्रेष्ठ प्रशासक चयन के लिए है पर उन्हे खुद पता है की उनके अन्य सामाजिक शोध-पत्रों की तरह ये बातें भी एक झूठ और आत्म-तुष्टि से ज़्यादा कुछ नही हैं।
तैयारी करने वालों की इतनी बडी संख्या कहाँ चली जाती है?
शुरुआत मे आईएएएस फिर पीसीएस,उम्र निकलती जाती है अंत मे किसी भी नौकरी के लिए जद्दोजहद शूरु हो जाती है।मनोविज्ञान सोचिये जरा कि यह क्या बना देती है।ई उमर निकलने के साथ कौन सी मानसिकता खड़ी होती जाती है।शोधार्थियों को इस तरह के समूह मनोविज्ञान पर काम करना चाहिए।
यह तैयारी तो उन बेचारों को कही का नही छोड़ती है,किसी काम लायक नही बचते।तैयारी के समय महत्वाकांक्षी सपने एक अलग तरह का संस्कार दे जाते हैं।जीवन पर्यंत सामान्य नही बनने देता।,इस देश को स्पेशल नही बहुत साधारण लोगों की जरूरत है।उमर निकलने के बाद स्तर मेंटेन करने वाले तीन-चार कार्य ही बचते हैं।उसमें भी सफलता की गुंजाइश कम रह जाती है।वकालत,पत्रकारिता,ठेकेदारी और राजनीति,बिजनेस भी एक ऐसी विकल्प हो सकता है किंतु उसके लिए पैसा चाहिये।पत्रकारिता एक समय-खाऊँ एवं सस्ता काम है।ले देकर वकालत ही थोड़ी-बहुत इज्जत बचाता है।दोनों ही जब इतने समय खाऊ है की तैयारी के समय वाली महत्वाकांक्षा कभी तृप्त ही नही हो पाती।इन सारे व्यवसायो मे दुखी-कुंठित मन घुस कर कैसा लोकतन्त्र बना रहा होगा खुद सोचिए।
अंग्रेज इस देश मे अपना एक शुभ-चिंतक वर्ग चाहता था,जमीनदार और बाबू उसी योजना का हिस्सा थे।वर्तमान सरकार भी उसी तरह एक ‘फल, का लालच देकर युवा-वर्ग को उलझाए है।उनकी खामियों पर नज़र डालने वाला शक्तिशाली युवा-वर्ग न खड़ा हो जाए।सरकारों का शिक्षा-व्यय इसी लिए बहुत कम होता है,इसी लिए स्कूल-कालेज खोलने पर भी तमाम तरह के प्रतिबन्ध है,परमिशन तथा इंसेपेक्टरों का जाल है।सोवियत माडल के पीछे एक ही उद्देश्य है कैसे “राजतन्त्रात्मक लोकशाही,की स्थापना जारी रखी जा सके।कभी आपने ध्यान दिया है की अधिकारियों और नेताओ के लड़को का सेलेक्शन खुद ब खुद हो जाता रहा है।आप 1947 से 90 की सेलेक्सन लिस्ट देखे जरा।जितने भी बड़े नेता ध्यान आ रहे हों दृष्टि दौड़ा ले उनके अधिकांश रिश्तेदार बड़े-साहब दिखेंगे।उनके रिश्तेदारों के लिए मेडिकल,इंजीनियरिंग,आईएएस,पीसीएस सब आसान था।उनका कैरियर रिकार्ड पता करो तो डबल ज़ीरो रहा होता है।फिर भी मुझे लगता है,फेयर होता है।क्योंकि बहुत-सारे पढ़ने वाले,तैयारी करने वाले भी इनके माध्यम से चुने जाते हैं।मूल-उद्देश्य सामान्य जन के लिए एक शैफ्टीवाल्व तैयार करना है।आख़िर शाही पार्टी की स्थापना इसी उद्देश्य से की गयी थी।इस पैतरे को क्यों न जारी रखती।
अब भी बड़ी संख्या उसी भंवर-जाल मे उलही हुई है।जरा उस लीडरशिप की गैर-ज़िम्मेदारी की हद तो देखिये कुछ साल पहले तक इसके लिए कोई सोचने वाला भी न था।कितने भी एक्सपरटायज ढंग से क्यों न छाँटा जाए।,मानवीय स्वाभाव-वश महत्वाकांक्षा से भरपूर एक स्वार्थी-जमात खड़ी हो जाती है जो अपनी बुद्धि-बल से और जन-सम्प्रभुता के बिखराव की वजह से व्यवस्था पर पूर्ण-रूपेण काबिज हो जाती है।यह लोग पूरी सत्ता के निर्णायक तत्व बन जातें है।प्रतिस्पर्धा मे ज़्यादा नंबर लाने वाला कोई ज़रूरी नही क़ि देश के लिए फ़ायदे-मंद हो।सेलेक्शन की यह प्रक्रिया देश के साथ धोखा है।35 साल का सबसे महत्वपूर्ण स्टेटस एक परीक्षा से निर्धारित हो जाता है।एक एग्जाम के नाते पूरी डेमोक्रेसी का क्ब्जेदार हो जाता है।सम्पूर्ण सत्ता का मालिक।बाकी चुनाव-आदि तो पाँच साल के जिम्मेदारियो के साथ आता है।कार्यकाल पूरा होते ही फिर जाओ जबाब दो।वह तो कहो महान नरसिंह राव जी लिबरलाइजेशन-ग्लोबलाइजेशन लेकर आ गए नही।नही तो प्रतिभा तो कुड़े मे ही जाती थी।ई।सन 2000 के बाद स्थितिया थोड़ी सुधरी है।बहुत सारे अन्य कार्य भी उन नौजवानो के लिये उपलब्ध हो गए जिससे प्रतिभा का थोड़ा-बहुत तो उपयोग होने लगा।
नौकरशाही एक कठिन समस्या के रूप मे है।आप जब इतिहास को क्रम से लिपिबद्ध ढंग विश्लेषण करते है तो ध्यान मे आता है प्रशासनिक नेटवर्क ही गुलामी के एक प्रतीक रूप मे मौजूद है उनकी आड़ते और स्वभाव भी। ट्रोजन घोड़े की रणनीति का एक भाग के रूप में लगाया गया था। माउंटबेटन की पत्नी भी युद्ध और रणनीति के रूप में हनी-ट्रेप (Vishkanya) था।उंसने इतिहास और कई लाख लोगो के जीवन पर असर छोड़ा। बहुत संक्षिप्त में नौकरशाही, उनके व्यवहार, दांव और प्रदर्शन की समस्या का अध्ययन किया जाए तो यही कहा जाएगा की आजादी के बाद उसमे तत्काल बड़े परिवर्तन हो जाने चाहिए थे।
1-संभव हों तो चयन की प्रक्रिया मे आमूल-चूक बदलाव किए जाए।नेता-नौकरशाह-मीडिया-कारपोरेट गठजोड़ समाप्त करने पर जोर देना जरूरी है। अनुभव-वाद,व्यवहार वाद को सिद्धांत मे लिया जाए।आईएएस के सिंडीकेट और वर्चस्व को समाप्त करने की कोशिश की जाए।एनडीए की भांति चयन करने की कोशिश की जाये।उन्ही मे से देश के 100 विभागो के साथ प्राथमिक और मिडिल एजुकेशन को मिक्स करके ट्रांस-फर-पोस्टिंग किया जाए।
2-क्रीम पोस्टिंग की धारणा का दमन किया जाए।काम और कुशलता(hard work,with performence)की धारणा बलवती हों।इसके लिए चयनवाद के बजायविशेषज्ञ-वाद का प्रश्रय होना आवश्यक है।जरूरत पड़ने पर संविधान संशोधन आवश्यक है।
3-पारदर्शी और जबाब देश सिस्टम के लिए डाटा-बेस विभाग-वार बनाया जाए जो लिंक रहने के बजाय एक डिपार्टमेन्ट की ज़िम्मेदारी हों।जिसमे समस्त प्रशासन,कर्म-चारियों और जनता के पैसे से गुजर बसर कर रहे लोगो का पूरा विवरण दर्शाया-प्रदर्शित किया जाए।न्यायपालिक-कार्यपालिका-व्यवस्थापिक सभी का।उनके आय,शैक्षिक,कर्यिक,उपलब्धियों के साथ प्रति माह उनके काम देखे जा सके।देश के नागरिकों को वीएच जानकारी एक क्लिक पर उपलब्ध हों।
4-जनता और नौकारशाही के बीच नौकर-मालिक के रिश्ते स्पष्ट होने चाहिये।सहायता, समर्थन और उनके आंकलन का काम जनता को देना चाहिए।पैरामीटर विशेषज्ञ तैयार करे।वह स्कोर सिस्टम हो भी सकता है या फिर सलाना परीक्षण।किन्तु उसका आधार वही पुराना मठवादी रवैया न हों।
5-प्रबंधकों के लिए सरकार,प्रशासन व्यवहार, सहयोग, मध्यस्थता का एक पैरामीटर(मापक-व्यवस्था हों)। चुने हुये मत्री,जन-प्रतिनिधुयों को स्थाई प्रशिक्षण और कानून तथा उनके नित्य के कार्य का ज्ञान कराना आवश्यक है।इसलिए सभी प्रदेशों और के केंद्र मे मंसूरी ट्रेनिंग सेंटर की भांति स्वायत्त-शासी स्थाई विश्वविद्यालय हों।मंत्रालय संम्भालने से पहले एक माह की ट्रेनिंग आवश्यक हों।उसकी सर्टिफिकेट के बगैर साइनिंग अथारिटी ही न बनने दिया जाये।
6-कार्मिको के अनुशासन, आत्म नियंत्रण,स्व-आचरण कर्तव्य,जिम्मेदारी,चेन, सत्ता की भूख, संबंधित कैरियर मे प्रगति,कुशलता की जवाबदेही और प्रदर्शन परिणामों के लिए सजा का नियंत्रण की संरचना बनानी आवश्यक है।
7- कार्यकाल आधारित प्रदर्शन, स्थायी कार्यकाल के बाहर और अवसर से पार्श्व प्रविष्टियों जो सभी को उनके प्रदर्शन के आधार पर सर्वोच्च स्थान तक जाने के लिए सेवा में प्रवेश के लिए।
8-विशेषज्ञ सेवाओं के लिए सामान्य से प्रदर्शन और परिणामों मे से ट्रेनिंग मे भेजने की व्यवस्था।वहाँ से उनको समस्त सुविधाओ के साथ पाँच साल के कंट्रैक्ट पर ज्वाइन करा लेना चाहिए।
9-प्रवेश प्रक्रिया हरेक उम्र के लिए खुले रखना ठीक होगा,प्रशिक्षण जारी रखना आवशयक है।प्रशिक्षण मशीनरी परिणामदाई ढांचे के रूप मे विकसित हों इसके लिए एक मजबूत प्रणाली बहुत जरूरी है।देश-दुनियाँ भर से ऐसे महत्वपूर्ण और प्रेरणादायक आदर्श व्यक्तित्व उन संस्थानो मे जुड़े तो उसका लाभ सचमुच मे मिलेगा।
10-गुस्सा-प्रबंधन-आत्म प्रबंधन सेंटर-सभी को हर छ: माह मे एक हफ्ते आध्यात्मिक पाठ्यक्रम और आत्मचिंतन केन्द्रो मे जाना आवश्यक हों।उनके सेंटर हर जिले मे विकसित करने का प्रयत्न करना चाहिए।जिसमे बिना हयार्की के ऊंच-नीच और भेदभाव रहित सभी का जाना अनिवार्य हों।यहा भी कोशिश हों कि वह कार्य-प्रणाली का अंग बने न सजा के तौर पर।
साभार: पवन त्रिपाठी
https://pawantripathiblog.wordpress.com/2017/02/22/%e0%a4%b2%e0%a4%be%e0%a4%b2-%e0%a4%ab%e0%a5%80%e0%a4%a4%e0%a4%be%e0%a4%b6%e0%a4%be%e0%a4%b9%e0%a5%80/
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