Saturday, 25 March 2017

विश्व विजेता हिन्दू सम्राट ललितादित्य, (राज्यकाल 431-467 ई)

©Copyright हिन्दू शेरनी मनीषा सिंह
जय श्री राम गुरुजनों को प्रणाम करते हुए एक नया इतिहास की खोज निकाल के लायी हूँ उसिपर लिखी हूँ
मनीषा सिंह की कलम से-:
मैंने इससे पूर्व भी ललितादित्य जिन्हें मुक्तापिड़ के नाम से भी जाने जाते हैं कश्मीर शासक महाराज उदयादित्य के पुत्र थे महाराज ललितादित्य छत्तीस वर्ष तक शासन किया एवं पांचवी सताब्दी के कश्मीर के सबसे शक्तिशाली राजपूत सम्राट थे । इनके बारे में पोस्ट की थी परन्तु वोह लेख शोधपूर्ण ना होने की वजह से हटा दिया गया एवं , इतिहासविदुर इतिहास के महाग्यता पंडित कोटा वेंकटचेलाम जी द्वारा लिखित किताब Chronology of Kashmir Reconstructed, नीलमत पुराण एक प्राचीन ग्रन्थ (६ठी से ८वीं शताब्दी का) है जिसमें कश्मीर के इतिहास, भूगोल, धर्म एवं लोकगाथाओं के बारे में बहुत सारी जानकारी है एवं कल्हण राजतरंगिणी इन सभी पुस्तकों से शोधपूर्ण अनुसंधान से पुनर्लेखन कर के आपलोगों के समक्ष रख रही हूँ ।

कई भाई एवं मात्री-पितृ समान गुरुजन सवाल करते हैं मैं इतिहास पे रूचि क्यों रखती हूँ और ऐसे ऐसे इतिहास कहा से लिख के लाती हूँ । मेरा उत्तर हैं बचपन से मेरे दिमाग में एक बात बहुत बड़ा प्रश्न छोड़ दिया मैं बचपन में छठी कक्षा में एक बहुत भद्दा इतिहास पढ़ी थी विद्यालय में पूरा किताब इतिहास का जिसे हिस्ट्री एंड सिविक्स (history and civics) कहते हैं यह किताब करीब 100 पन्ने का था पुरे पन्ने में अकबर , औरंगजेब की इतिहास लिखे थे बस जो की औरंगजेब अकबर का नाम आया तो इनके साथ शिवाजी महाराज एवं महाराणा प्रताप जी का भी नाम आगया मैं उन्हें अध्यन करने की कोशिसे की परन्तु मैं तब छोटी थी ख़ास पैसे नहीं मिलते थे घर से तो मैं अपने सहेली के घर जाती थी उसके पास कंप्यूटर था वहा से मैंने शिवाजी महाराज के बारे में उस वक़्त तात्या निकली थी और उसे रोज एक घंटा उस सहेली के घर जाकर कॉपी में लिखा करती थी कंप्यूटर से देखकर उस समय छठी कक्षा में एहसास हुआ हम आजाद नहीं गुलाम हैं क्योंकि इतिहास में लुटेरा आक्रमणकारियों को भारतवर्ष का नायक बना दिया मेरे पास आज भी वह नोटबुक हैं मेरा मन कभी नहीं स्वीकारा की हम भारतवासियों पर कोई 1200 साल राज कर सकता हैं और यह प्रश्नचिन्ह जो बचपन से था इसी ने मुझे खोजकर्ता बना दिया इतिहास का और कुछ भी हो जाये परन्तु मैं यह कदापि ना मानी थी ना मानूंगी की हमारे भारतवर्ष को कोई गुलाम बना सकता हैं !!
वास्तव में आज गुलाम हैं बहुराष्ट्रीय कंपनी , इतिहास में आक्रमणकारियों को नायक सिद्ध कर युवाओ को अँधेरे में धकेल दिया , गौ माता के खून से भारत को अपवित्र करना , किसान एवं जवानों का मरना , अंग्रेजो की कानून , अंग्रेजो की शिक्षा व्यवस्था अंग्रेजो की व्यव्स्था वास्तव में अब हम घुलाम हैं जो गोर अंग्रेज़ नहीं कर पाए वह यह काले अंग्रेज़ ७० साल से कर रहे हैं ।
भारत की इतिहास की पुस्तकों में ऐसा पढाया जाता है कि वहां से लेकर वहां तक उस मुगल, तुगलक, खिलजी या किसी मुस्लिम राजा का साम्राज्य था, ये सब उन इतिहासकारों द्वारा लिखा गया है जो सलीमशाही जूतियाँ चाट चाट कर अपनी जीभ को ही कालीन बना चुके हैं… इतनी जूतियाँ चाटी हैं इन्होने कि चाट चाट कर विदेशियों का इतिहास चमका डाला है l
राजपूत कर्कोटक नागवंशी दिग्विजयी सम्राट ललितादित्य मुक्तापीढ़ जिनके काल में भारत रूस तक फ़ैल गया था !!
विजीयते पुण्यबलैर्बर्यत्तु न शस्त्रिणम
परलोकात ततो भीतिर्यस्मिन् निवसतां परम्।।
वहां (कश्मीर) पर शस्त्रों से नहीं केवल पुण्य बल द्वारा ही विजय प्राप्त की जा सकती है। वहां के निवासी केवल परलोक से भयभीत होते हैं न कि शस्त्रधारियों से। - (कल्हणकृत राजतरंगिणी, प्रथम तरंग, श्लोक 39)
इतिहासकार कल्हण ने मां भारती के शीर्ष कश्मीर की गौरवमयी क्षात्र परंपरा और अजेयशक्ति पर गर्व किया है। विश्व में मस्तक ऊंचा करके चार हजार वर्षों तक स्वाभिमानपूर्वक स्वतंत्रता का भोग कश्मीर ने अपने बाहुबल पर किया है। इस धरती के शूरवीरों ने कभी विदेशी आक्रमणकारियों और उनके शस्त्रों के सम्मुख मस्तक नहीं झुकाए थे। इस पुण्य धरती के रणघोष सारे संसार ने सुने हैं। यहां के विश्वविजेता सेनानायकों के युद्धाभिमानों का लोहा समस्त विश्व ने माना है।
रणबांकुरों की भूमि अनेक शताब्दियों तक इस वीरभूमि के रणबांकुरों ने विदेशों से आने वाली घोर रक्तपिपासु एवं अजेय कहलाने वाली जातियों और कबीलों के जबरदस्त हमलों को अपनी तलवारों की नोक पर रोका है। इस भूमि पर जहां अध्यात्म के ऊंचे शिखरों का निर्माण हुआ, वहीं इसके पुत्रों ने वीरभोग्या वसुंधरा जैसे क्षात्रभाव को अपने जीवन का आवश्यक अंग भी बनाया। संस्कृत के अनेक प्राचीन ग्रंथों में कश्मीर के इस वैभव के दर्शन किए जा सकते हैं।
सम्राट ललितादित्य हमारे लिए एक ऐसा ही नाम है जो सिकंदर से अधिक महान और पराक्रमी शासक था।
ललितादित्य अथवा मुक्तापीड (राज्यकाल 431-467 ई) कश्मीर के कर्कोटक नागवंशी वंश के हिन्दू सम्राट थे जिन्हें भारतवर्ष का Alexander कहा जाता है, । उनके काल में कश्मीर का विस्तार मध्य एशिया से लेकर  रूस,पीकिंग तक पहुंच गया । उन्होने यवन आक्रान्ताओं को सफलतापूर्वक दबाया तथा चीनी सेनाओं को भी पीछे धकेला।
कश्मीर के इतिहास के उज्ज्वल पृष्ठों पर ‘कर्कोटक वंश’ का 600वर्ष का राज्यकाल स्वर्णिम अक्षरों में वर्णित है २५२ – ८५२ (252-852 A.D) ।
इस वंश के राजाओं ने हमलावरों को अपनी तलवार की नोक पर कई वर्षों तक रोके रखा था। कर्कोटक वंश की माताएं अपने बच्चों को रामायण और महाभारत की कथाएं सुनाकर राष्ट्रवाद की प्रचंड आग से उद्भासित करती थीं। यज्ञोपवीत धारण के साथ शस्त्र धारण के समारोह भी होते थे, जिनमें माताएं अपने पुत्रों के मस्तक पर खून का तिलक लगाकर मातृभूमि और धर्म की रक्षा की सौगंध दिलाती थीं ।

इससे कश्मीरियों की दिग्विजयी मनोवृत्ति का परिचय मिलता है। चीन , अरब, मिस्र, मैसिडोनिया देशों तक जाकर अपनी तलवार के जौहर दिखाने की दृढ़ इच्छा और चीन जैसे देशों के साथ सैन्य संधि जैसी कूटनीतिज्ञता का आभास भी दृष्टिगोचर होता है। उन्होने आक्रान्ताओं को सफलतापूर्वक दबाया तथा चीन सैनिकों को भी पीछे धकेला।
साहस और पराक्रम की प्रतिमूर्ति सम्राट ललितादित्य मुक्तापीढ़ का नाम कश्मीर के इतिहास में सर्वोच्च स्थान पर है। उनके छत्तीस वर्ष का राज्य उनके सफल सैनिक अभियानों, स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः पर आधारित जीवन प्रणाली, अद्भुत कला कौशल और विश्व विजेता बनने की चाह से पहचाना जाता है। लगातार बिना थके युद्धों में व्यस्त रहना और रणक्षेत्र में अपने अनूठे सैन्य कौशल से विजय प्राप्त करना उसके स्वभाव का साक्षात्कार है।
उनका राज्य पूर्व में बंगाल तक, दक्षिण में कोंकण तक पश्चिम में तुर्किस्तान और उत्तर-पूर्व में चीन और रूस,पीकिंग तक फैला था। उन्होने अनेक भव्य भवनों का निर्माण किया। मार्तंड सूर्य मंदिर का निर्माण मध्यकालीन युग के दौरान हुआ था जो सूर्य भगवान को समर्पित है। कर्कोटक नागवंशी राजपूत  राजा ललितादित्य ने इस मंदिर का निर्माण एक छोटे से शहर अनंतनाग के पास एक पठार के ऊपर किया था।
ललितादित्य ने दक्षिण की महत्वपूर्ण विजयों के पश्चात अपना ध्यान उत्तर की तरफ लगाया जिससे उनका साम्राज्य काराकोरम पर्वत शृंखला के सूदूरवर्ती कोने तक जा पहुँचा।
साहस और पराक्रम की प्रतिमूर्ति सम्राट ललितादित्य मुक्तापीड का नाम कश्मीर के इतिहास में सर्वोच्च स्थान पर है। उसका छत्तीस वर्ष का राज्य उसके सफल सैनिक अभियानों, उसके अद्भुत कला-कौशल-प्रेम और विश्व विजेता बनने की उसकी चाह से पहचाना जाता है। लगातार बिना थके युद्धों में व्यस्त रहना और रणक्षेत्र में अपने अनूठे सैन्य कौशल से विजय प्राप्त करना उसके स्वभाव का साक्षात्कार है। ललितादित्य ने रूस,पीकिंग को भी जीता और 12 वर्ष के पश्चात् कश्मीर लौटा।
कश्मीर उस समय सबसे शक्तिशाली राज्य था। उत्तर में तिब्बत से लेकर द्वारिका और उड़ीसा के सागर तट और दक्षिण तक, पूर्व में बंगाल, पश्चिम में विदिशा और मध्य एशिया तक कश्मीर का राज्य फैला हुआ था जिसकी राजधानी प्रकरसेन नगर थी। ललितादित्य की सेना की पदचाप अरण्यक (ईरान) और रूस,पीकिंग तक पहुंच गई थी । २८ से अधिक हिन्दू सम्राटो ने विश्व विजय किये पर वहा के लोगों की प्राचीन संस्कृति को नष्ठ नहीं किये ना उनके धर्म इत्यादि को नष्ठ नहीं किया जितने भी विश्व विजय सम्राट हुए उन सभी ने विश्व विजय किया एवं वहा के प्रजा को एक अच्छी जीवन प्रदान किया शिक्षित , आरोग्य एवं विकाशील बनया वनिर्ज्य व्यवसाय के लिए विश्व विजय करते थे एवं जिस राष्ट्र को विजय करते थे वहा व्यवसाय एवं प्रजाओ के उन्नति के लिए कार्य करते थे वही इस्लाम जब जब हिन्दू राष्ट्र पर आक्रमण किया लूट , बलात्कार , मंदिर मठो को ध्वस्त किया एवं नागरिको पर अत्याचार किया । सम्राट ललितादित्य अथवा मुक्तापिड़ द्वारा छोटे बड़े सभी युद्ध मिलाकर 350 से अधिक युद्ध लड़ने का लिपि दर्ज हैं जिसमे से कुछ ख़ास युद्ध आपके समक्ष रखूंगी ।
(राज्यकाल 431-467 ई)

१) सन 436 (ईस्वी) में चीन ने आक्रमण किया था हरिवर्ष पर (उत्तरी तिब्बत तथा दक्षिणी चीन का समीपवर्ती भूखंड जान पड़ता था) ज्हाव चेंग (Zhaocheng) राजवंश के राजा फेंग होंग बहुत ही क्रूर एवं कपटी राजा था अपने साम्राज्य विस्तार के लिए अपने ही प्रजाओं को मौत के घाट उतार देता था एवं उसका नज़र भारतवर्ष के धन सम्पदा पर था इसलिए सेना लेकर आक्रमण किया था भारतवर्ष पर सम्राट ललितादित्य ने परास्त कर मृत्युलोक पहुँचा दिया एवं चीन राज्य की राजधानी चांग आन , लुओयांग , बीजिंग , पूर्वी चीन सागर क्षेत्र का दूसरा सब से बड़ा आर्थिक केंद्र था जो पूरी तरह से सम्राट ललितादित्य कर्कोटक ने अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर भगवा परचम लहराया था सम्राट ललितादित्य ने चीन में कई हरी मंदिर बनवाए थे चीन इस विषय का उल्लेख विस्तारित तांग, खंड की किताब एवं चीनी इतिहास की रूपरेखा बो-यांग द्वारा लिखा गया हैं।
चीन के अन्य राज्यों के राजा ने सम्राट ललितादित्य मुक्तापीड के साथ सैनिक संधि किया जिसमे चीनी राजा ने आत्मसमर्पण करते हुये यह संधि किया जब जब भारत पर आक्रमण होगा चीन सम्राट सैनिक भेज कर सहायता करेगा एवं उनके साम्राज्य में अन्य चीनी राजा कभी दखल नहीं देंगे चीन के अन्य राज्य जो ललितादित्य के साम्राज्य सूचि में सम्मिलित किया गया हैं उन राज्यों में व्यापर करने की अनुमति माँगा था जिसके बदले चीन कर (tax) देंगे सम्राट ललितादित्य को यह सब उस संधि में लिखा था एवं इसका प्रमाण चीन के एक राज्य वंश ‘ता-आंग’ के सरकारी उल्लेखों में मिलता है। Reference-: The Sixteen Kingdoms Author-: Zheng Yin

सम्राट ललितादित्य का यूरोप विजय अभियान-:

1) सन 439 (ईस्वी) में लड़ें गये सबसे लम्बा युद्ध था जिसे “Battle Of Caucasus” कॉकस या कौकसस जो की स्पेन का राजधानी थी प्राचीनकाल में जहाँ सम्राट ललितादित्य ने थियोडोरिक प्रथम को परास्त कर ललितादित्य ने कॉकस या कौकसस , स्पेन, दमास्कस पर भगवा परचम लहराया था । इस तरह से सम्राट ललितादित्य कर्कोटक ने लगातार 18 युद्ध  लड़े  थे  बाल्टी साम्राज्य,  थियोडोसियाँ साम्राज्य, के साथ । सम्राट ललितादित्य से युद्ध में परास्त होने के बाद यवनों ने सम्राट ललितादित्य के साथ संधि कर स्पेन साम्राज्य अरब , सीसिली (sicily),मेसोपोटामिया, ग्रेटर अर्मेनिआ, कैरौअन (Kairouan) (वर्तमान में इसे तुनिशिया देश के नाम से जाने जाते हैं ) तुर्क , कजाखस्तान , मोरक्को , अफ्रीका , पर्शिया एवं अनेक देश सामिल थे ये 72 प्रतिशत यवन साम्राज्य का भूभाग एवं पूरी अरब सागर , तिग्रिस , नील नदी पर सम्राट ललितादित्य ने भगवा ध्वज लहराया था –
Reference-: Historia Gothorum Page 89 Author-: Jordanes

2) सन 452 (ईस्वी) पूर्वी यूरोप विजय करने निकले थे रणक्षेत्र में अपने अनूठे सैन्य कौशल से विजय  प्राप्त किया  बाईज़न्टाइन साम्राज्य के राजा व्हॅलेंटिनियन तृतीय के साथ युद्ध की व्याखान मिलता हैं इन्हें हराकर सम्राट ललितादित्य ने क़ुस्तुंतुनिया, रूस पर कब्ज़ा किया आठवी सदी तक क़ुस्तुंतुनिया (कोंस्तान्तिनोपाल) राजधानी था यूरोप का । इसके उपरांत डुक पोलिश राजा को परास्त कर पोलिश (पोलैंड) विजय कर भगवा झंडा लहरा था । सम्राट ललितादित्य ने रूस के साथ साथ बॉस्निया के अधीन अन्य यूरोपी देशो को अपने विजय अभियान में सम्मिलित कर साम्राज्य को यूरोप तक फैलाया था एवं इसके उपरांत सम्राट ललितादित्य मुक्तापिड़ ने पश्चिम और दक्षिण में क्रोएशिया पूर्व में सर्बिया और दक्षिण में मोंटेनेग्रो उत्तरपूर्वी यूरोप अल्बानिया उत्तर में कोसोवो पूर्व में भूतपूर्व यूगोस्लाविया और दक्षिण में यूनान तक सफलतापूर्वक सैन्य अभियान कर विश्व विजयता की उपाधि हासिल कर लिया था ।

ललितादित्य विश्व विजयी होकर लगभग 12 वर्ष के पश्चात् कश्मीर लौटा एवं तीन साल बाद अंतिम सांस लिया कश्मीर में ।
अंततः इनके शौर्य और पराक्रम को भूलने का नतीजा हुआ कश्मीर में आज एक भी कश्मीरी हिन्दू कश्मीर में नहीं रह पाए अगर कश्मीरी हिन्दू अपने पूर्वज को एक बार के लिए पढ़ लिए आज यह दुर्दशा नहीं होता कश्मीरी पंडितो का होकर रहता कश्मीर ।

इन्होंने भारतवर्ष में घुसने का प्रयास करने वाले हमलावरों को भी खदेड़ा था भारत से और इतिहासकार आरसी मजूमदार के अनुसार ललितादित्य की सेना की पदचाप अरबो का पीछा करती हुई अरण्यक (ईरान) तक पहुंच गई थी।

कश्मीर के इस नागवंशी राजपूत कर्कोटक शाखा (टाक) महान राजा के बारे में अधिकांश लोगो को जानकारी ही नही है ।
न्यूज़ चैनलो पर डिबेट में पीडीपी के प्रवक्ता फ़िरदौस टाक जब घाटी में इस्लामिक विचारधारा का बचाव करते हैं और दबे शब्दों में आतंकी घटनाओ का भी समर्थन करते हैं तो उन्हें शायद अपने यशस्वी पूर्वज ललितादित्य मुक्तपीड की कीर्ति का तनिक भी भान न होगा !!!!!!

संदर्भ-:
1) राजतरंगिणी कल्हण के अलावा जिन किताबो से सहायता लिया हैं

2) पंडित कोटा वेंकटचेलाम जी द्वारा लिखित किताब Chronology of Kashmir Reconstructed,
3) नीलमत पुराण
4) Historia Gothorum Page 89 Author-: Jordanes
5) The Sixteen Kingdoms Author-: Zheng Yin

साभार https://m.facebook.com/photo.php?fbid=1805662463088928&id=100009355754237&set=a.1415367162118462.1073741828.100009355754237

इस अज्ञानता के चक्र में से बाहर निकलिए

,कब्र मे मुर्दे को खाने वाले कीड़े भी कुछ सालो मे नष्ट हो जाते हैं। परन्तु हिन्दू उनपर सिर रगड़ते हैं।

पूर्वी उत्तर प्रदेश में एक शहर है,बहराइच ।बहराइच में हिन्दू समाज का मुख्य पूजा स्थल है गाजी बाबा की मजार। मूर्ख हिंदू लाखों रूपये हर वर्ष इस पीर पर चढाते है। इतिहास का जानकार हर व्यक्ति जानता है,कि महमूद गजनवी के उत्तरी भारत को १७ बार लूटने व बर्बाद करने के कुछ समय बाद उसका भांजा सलार गाजी भारत को दारूल इस्लाम बनाने के उद्देश्य से भारत पर चढ़ आया । वह पंजाब ,सिंध, आज के उत्तर प्रदेश को रोंद्ता हुआ बहराइच तक जा पंहुचा। रास्ते में उसने लाखों हिन्दुओं का कत्लेआम कराया, लाखों हिंदू औरतों के बलात्कार हुए, हजारों मन्दिर तोड़ डाले।

राह में उसे एक भी ऐसा हिन्दू वीर नही मिला जो उसका मान मर्दन कर सके। इस्लाम की जेहाद की आंधी को रोक सके। परंतु बहराइच के राजा सुहेल देव पासी ने उसको थामने का बीडा उठाया । वे अपनी सेना के साथ सलार गाजी के हत्याकांड को रोकने के लिए जा पहुंचे। महाराजा व हिन्दू वीरों ने सलार गाजी व उसकी दानवी सेना को मूली गाजर की तरह काट डाला । सलार गाजी मारा गया। उसकी भागती सेना के एक एक हत्यारे को काट डाला गया। हिंदू ह्रदय राजा सुहेल देव पासी ने अपने धर्म का पालन करते हुए, सलार गाजी को इस्लाम के अनुसार कब्र में दफ़न करा दिया।

कुछ समय पश्चात् तुगलक वंश के आने पर फीरोज तुगलक ने सलारगाजी को इस्लाम का सच्चा संत सिपाही घोषित करते हुए उसकी मजार बनवा दी। आज उसी हिन्दुओं के हत्यारे, हिंदू औरतों के बलातकारी ,मूर्ती भंजन दानव को हिंदू समाज एक देवता की तरह पूजता है। सलार गाजी हिन्दुओं का गाजी बाबा हो गया है सलार गाजी हिन्दुओं का भगवान बनकर हिन्दू समाज का पूजनीय हो गया है। अब गाजी की मजार पूजने वाले ,ऐसे हिन्दुओं को मूर्ख न कहे तो क्या कहें ।

ख्वाजा गरीब नवाज़, अमीर खुसरो, निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर
जाकर मन्नत मांगने वाले सनातन धर्मी (हिन्दू) लोगो के लिए विशेष :--

पूरे देश में स्थान स्थान पर बनी कब्रों,मजारों या दरगाहों पर हर वीरवार को जाकर शीश झुकाने व मन्नत करने वालों से कुछ प्रश्न :-

1.क्या एक कब्र जिसमे मुर्दे की लाश मिट्टी में बदल चुकी है वो किसी की मनोकामना पूरी कर सकती हैं?
2. ज्यादातर कब्र या मजार उन मुसलमानों की हैं जो हमारे पूर्वजो से लड़ते हुए मारे गए
थे, उनकी कब्रों पर जाकर मन्नत मांगना क्या उन वीर पूर्वजो का अपमान नहीं हैं जिन्होंने अपने प्राण धर्म की रक्षा करते हुए बलि वेदी पर समर्पित कर दियें थे?
3. क्या हिन्दुओ के राम, कृष्ण अथवा ३३ प्रकार देवी देवता शक्तिहीन हो चुकें हैं जो मुसलमानों की कब्रों पर सर पटकने के लिए जाना आवश्यक हैं?
4. जब गीता में श्री कृष्ण जी महाराज ने कहाँ हैं की कर्म करने से ही सफलता प्राप्त होती हैं तो मजारों में दुआ मांगने से क्या हासिल होगा?

"यान्ति देवव्रता देवान्
पितृन्यान्ति पितृव्रताः
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति
मद्याजिनोऽपिमाम्"

श्री मद भगवत गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि भूत प्रेत, मुर्दा, पितृ (खुला या दफ़नाया हुआ अर्थात् कब्र,मजार अथवा समाधि) को सकामभाव से पूजने वाले स्वयं मरने के बाद भूत- प्रेत व पितृ की योनी में ही विचरण करते हैं व उसे ही प्राप्त करते हैं l

5. भला किसी मुस्लिम देश में वीर शिवाजी, महाराणा प्रताप, हरी सिंह नलवा आदि वीरो की स्मृति में कोई स्मारक आदि बनाकर उन्हें पूजा जाता हैं तो भला हमारे ही देश पर आक्रमण करनेवालो की कब्र पर हम क्यों शीश झुकाते हैं?

6. क्या संसार में इससे बड़ी मूर्खता का प्रमाण आपको मिल सकता हैं?

7. हिन्दू कौनसी ऐसी अध्यात्मिक प्रगति मुसलमानों की कब्रों की पूजा कर प्राप्त कर रहे हैं जो वेदों- उपनिषदों में कहीं नहीं गयीं हैं?

8. कब्र, मजार पूजा को हिन्दू मुस्लिम सेकुलरता की निशानी बताना हिन्दुओ को अँधेरे में रखना नहीं तो क्या हैं ?

आशा हैं इस लेख को पढ़ कर आपकी बुद्धि में कुछ प्रकाश हुआ होगा l अगर आप  राजा श्री राम और श्री कृष्ण जी महाराज की संतान हैं तो तत्काल इस मुर्खता पूर्ण अंधविश्वास को छोड़ दे और अन्य हिन्दुओ को भी इस बारे में बता कर उनका अंधविश्वास दूर करे| अपने धर्म को जानिए l इस अज्ञानता के चक्र में से बाहर निकलिए ।
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संघ और हिन्दू परिभाषा

संघ और हिन्दू परिभाषा

श्री गोलवलकर जी द्वारा गोडसे को आर.एस.एस. का स्वंयसेवक होने से नकारने व नेहरु तथा कांग्रेस के आगे क्षमा याचना की मुद्रा में झुकने और उनकी घोर चापलूसी के बावजूद नेहरु और उनकी कांग्रेस ने न तो गुरूजी को बक्शा और न ही आर.एस.एस. को| उन्होंने गोलवलकर जी को दिनाँक १-२-१९४८ को गिरफ्तार करने के साथ-साथ कम्युनिस्टों और मुसलमानों की खुशनूदी लेने के लिए संघ को प्रतिबंधित तक कर दिया|(सन्दर्भ- “गोडसे की आवाज सुनो” पृष्ठ ५१-५२ लेखक श्री जगदीश बल्लभ गोस्वामी) इसके फलस्वरूप गोलवलकर जी ने दिनाँक ६-२-१९४८ को आर.एस.एस. को विसर्जित करने का आदेश प्रसारित किया, तदुपरांत दिसम्बर १९४८ को संघ का सत्याग्रह प्रारम्भ हुआ, सरकार से प्रतिबन्ध समाप्त करने के वाद-संवाद चलते रहे| इस क्रिया के परिणाम स्वरुप संघ का नया संविधान बना कर स्वीकार किया गया जिसमें हिंदू राष्ट्र का कोई उल्लेख नहीं किया गया| इसके उपरांत ही दिनाँक १२-७-१९४९ को सरकार द्वारा संघ से प्रतिबन्ध समाप्त करने की घोषणा की गई और गोलवलकर जी जेल से रिहा हुए|(संदर्भ- “हिंदू अस्मिता” पृष्ठ ८-९ दिनाँक १५-१०-२००८)

प्रतिबन्ध समाप्त होने के पश्चात गुरूजी का देश के विभिन्न स्थानों पर प्रवास(दौरा/भ्रमण) आरंभ हुआ| अब उनके भाषण व उसकी भाषा बदले-बदले थे| वह कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहते थे न ही ऐसी बात कहना चाहते थे जो नेहरु सरकार या कांग्रेस को पसंद न हो| वह डॉ. हेडगेवार जी द्वारा बताये गये संघ उदेश्यों से भी धीरे-धीरे विमुख होकर, संघ के पूर्व स्थापित सिद्धांतों को चतुराई से नकारने व बदलने लगे| दिनाँक ७ सितम्बर को कलकत्ता में समाचार पत्र के प्रतिनिधियों के समुख उनका भाषण व उसके उपरांत प्रश्नोत्तर हुए| जिसमे उनसे पूछा गया – प्रश्न था संघ की सदस्यता के लिए किस बात की आवश्यकता है? उत्तर में श्री गोलवलकर जी ने कहा की – “वह पूर्ण अवस्था प्राप्त हिंदू हो”| एक अन्य प्रश्न – हिन्दुस्तान हिंदुओं का यह नारा क्या संघ का नहीं है? इस प्रश्न के उत्तर में गोलवलकर जी ने कहा “संसार में हिंदुओं के लिए हिन्दुस्थान को छोड कर अन्य कौन सा देश है| क्या यह सत्य नहीं है? परन्तु हिन्दुस्थान केवल हिंदुओं का ही देश है ऐसा कहने वाले दूसरे लोग हैं|” (निश्चय ही गोलवलकर जी का यह कथन हिंदू सभाइयों के लिए ही कहा गया था|) {संदर्भ – श्री गुरूजी समग्र दर्शन खंड ४३ पृष्ठ ८,४४,९४,९५}

अब देखिये कहाँ तो भारत विभाजन से पहले डॉ. हेडगेवार ने कहा था कि “हिन्दुस्थान देश केवल हिंदुओं का है अन्य समुदाय यहाँ खुशी से व सुरक्षित रह सकते हैं, हमें इसमें कोई आपत्ति नहीं”| लेकिन खंडित भारत में भी द्वितीय सरसंघचालक गोलवलकर जी फरमाते हैं “हिन्दुस्थान केवल हिंदुओं का ही है ऐसा कहने वाले दूसरे लोग हैं- हम नहीं”| उनका आशय हिंदू सभाइयों से था| यहाँ संघ कि विचारधारा में आया अंतर स्पष्ट दिखाई देता है|

श्री गोलवलकर जी १९७१ में कैंसर रोग से पीड़ित हुए| दो साल बीमारी से जूझने के बाद सन् १९७३ में उनका निधन हो गया| इसके बाद श्री बालासाहेब देवरस ने सरसंघचालक का पद संभाला| दिनाँक २६-६-७५ को भारत के इतिहास में एक और काला पृष्ठ जुड़ा| तात्कालिक प्रधानमंत्री “इंदिरा गाँधी द्वारा अपनी सत्ता बनाये रखने के लिए देश में आपातकाल की घोषणा की गई|”दिनाँक ४-७-७५को आर.एस.एस. पर दूसरी बार प्रतिबन्ध लगाया गया| इसी आपातकाल के दौरान श्री देवरस सरसंघचालक- पूरे १९ महीने तक बन्दीग्रह में रखे गये| इस बंदिकाल में श्री देवरस जी का कई समाजवादी खेमे के नेताओं, जमाते इस्लामी के नेताओं, व दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम बुखारी आदि से तालमेल बना और उनके उनसे काफ़ी मधुर संबंध हो गये| इन सब लोगों की विचारधारा का बालासाहेब पर प्रभाव पड़ा हो तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं| इसी क्रम में दिनाँक २६-५-१९८१ को ग्वालियर में भारत के ‘मध्य प्रान्त’ के संघ शिक्षा वर्ग के अपने बौद्धिक में बालासाहेब देवरस ने अपने विचार इस प्रकार व्यक्त किये “यहाँ जो मुसलमान, क्रिश्चियन हैं वह एथेनिक ग्रुप में नहीं आते हैं| यहाँ का मुसलमान और क्रिश्चियन, यहाँ का पुराना हिंदू ही है| उनका और हमारा खून एक ही है| हमारे पूर्वज एक हैं, बाप-दादा एक हैं- दो चार पीढ़ी पहले उसने उपासना पद्धति में परिवर्तन किया होगा| उन्होंने यह भी कहा कि धर्म बदलने से राष्ट्रीयता नहीं बदलती|”

अभी हाल ही में एक प्रसिद्ध दार्शनिक एवं विचारक डॉ. नित्यानंद का इसी प्रसंग में एक गंभीर व मार्मिक लेख शुद्धि समाचार (फरवरी २०१२) में प्रकाशित हुआ है जिसके कुछ अंश इस प्रकार हैं-

“वास्तव में देश की रक्षा और उसकी सर्वांगणीय उन्नति उन्हीं के आधार पर हो सकती है, जिसकी अपने देश के प्रति निष्ठा हो अर्थात जिनकी देशभक्ति प्रत्येक परस्थिति में स्थिर व एकनिष्ठ हो| ऐसे व्यक्ति इस देश में संपूर्ण समाज की द्रष्टि से केवल हिंदू ही है| वास्तव में हिंदू की परिभाषा यही है कि“जो भारत को मातृभूमि तथा पुण्यभूमि मानता है वही हिंदू है”| डॉ. नित्यानंद आगे लिखते है कि- किसी भी क्षेत्र कि हिंदू बहुलता ही उस क्षेत्र कि अखंडता व सुरक्षा की गारंटी है| यदि कोई क्षेत्र हिंदू बहुल नहीं रहता तो वह भारत से अलग हो जाता है या अलग होने के लिए प्रयास करता है| जो क्षेत्र आज पकिस्तान के रूप में विद्यमान है, उसके अलग होने का एकमात्र कारण यही है की वह क्षेत्र हिंदू बाहुल्य नहीं रहा था| कश्मीर घाटी की समस्या भी इसीलिए जटिल है क्योंकि वहां हिंदू अल्प संख्या में है और मुस्लिम बहुसंख्यक हो चुका है | मिजोरम, नागालैंड और मेघालय की समस्या भी इसीलिए जटिल होती जा रही है क्योंकि वहां ईसाई बहुसंख्य हो गये हैं जो स्वतंत्र ईसाई राज्य के निर्माण का प्रयास कर रहे हैं| इसमे विदेशी व देसी पादरियों की महत्वपूर्ण भूमिका है जिन्हें अमेरिका व पोप से नैतिक व आर्थिक सहायता भी प्राप्त होती है| जहाँ भी हिंदुत्व का लोप होना शुरू होता है उस क्षेत्र का भारत से भावनात्मक नाता भी टूटना शुरू हो जाता है और विघटन वादी मानसिकता को प्रोत्साहन मिलने लगता है|

श्री देवरस जी अपने जोश में यह भूल गये कि जब हमारे पूर्वज एक थे, खून एक था तो सन् १९४७ में देश विभाजन के लिए मुसलमानों ने इतना बावेला क्यों मचाया था| नोआखाली, मोपला व अन्य स्थानों पर डायरेक्ट एक्शन व विभाजन के समय जब लाखों लोगों की हत्या हुई थी क्या उस समय खून का रंग व पूर्वज एक नहीं रहे थे? क्या देवरस जी – महाराणा प्रताप, शिवाजी, वीर छत्रसाल एवं गुरु गोविन्द सिंह जी के देश की स्वतंत्रता व स्वराज्य स्थापना हेतु किये गये संघर्ष को वह उनके आपसी जमीन-जायदाद के बटबारे की क्षुद्र लड़ाई बताने का प्रयास तो नहीं कर रहे थे| ऐसा लगता है जैसे देवरस जी किन्हीं अन्य कारणों से उस समय पिछले- एक हज़ार साल के देश के इतिहास को भुलाने या झुठलाने का प्रयास कर रहे थे|

गोलवलकर जी के देहवसान के बाद जब श्री बालासाहेब देवरस सरसंघचालक बने तो उन्होंने भी गोलवलकर की तरह वीर सावरकर और डॉ. हेडगेवार द्वारा प्रतिपादित हिंदू- हिंदुत्व- एवं हिंदू राष्ट्र कि परिभाषा को लगभग अस्वीकार ही किया| १८ अप्रैल १९७७ को कानपुर में आयोजित एक पत्रकार वार्ता में देवरस जी ने कहा “हिंदुत्व कि परिभाषा अमुलाग्र बदल चुकी है, और हिंदुत्व के सिद्धांत में महत्वपूर्ण परिवर्तन आ चुका है|” एक बौद्धिक में उन्होंने अपने सम्बोधन में कहा- “उपासना पद्धिति में परिवर्तन से राष्ट्रीयता नहीं बदलती, इसलिए हिंदू के इस व्यापक अर्थ में यहाँ का मुसलमान व ईसाई भी आता है| हिंदू शब्द व हिंदू राष्ट्र की हमारी इतनी व्यापक कल्पना है| इस प्रकार उनके द्वारा मुसलमानों को मोहम्मद पंथी हिंदू व ईसाइयों को ख्रिस्तिनी हिंदू कहकर संबोधित किया गया|”

अब देखें कि हिंदू, हिंदुत्व व हिंदू राष्ट्र कि जो परिभाषा डॉ. हेडगेवार ने अंगीकार की थी उसको उनके उतराधिकारी गुरूजी व देवरस जी ने किस प्रकार परिवर्तित ही नहीं किया बल्कि पूर्णताः नकार भी दिया| ऐसे में जब पेड़ की जड़ ही कट जाए तो उस पेड़ से हरियाली व फल की आशा कैसे की जा सकती है| यही मूल वजह है पुराने स्वंयसेवकों का संघ के बदलते सिद्धांतों के कारण निराश होने का| इस प्रकार हिंदू समाज को जो आशायें संघ से बंधी थी, वह टूट गईं और संघ द्वारा हिंदू समाज के जीवन को जो दिशा दी जानी चाहिए थी , उसमे वह पूरी तरह असफल रहा| ऐसी स्वीकृति संघ के कई निष्ठावान कार्यकर्त्ता भी समय-समय पर करते रहे हैं|

१.बीसवीं सदी के आरंभ में ही वीर सावरकर ने अंग्रेजों की सेलुलर जेल में बंदी जीवन व्यतीत करते हुए, गहन चिंतन-मनन के उपरांत विशुद्ध हिंदुत्व की परिभाषा प्रतिपादित की | २. उसके लगभग ३० वर्ष उपरांत ( गाँधी हत्या के पश्चात व संघ पर प्रतिबंध लगने के बाद जेल में बंदी जीवन काल में) गोलवलकर जी जो आर.एस.एस. के द्वितीय सरसंघचालक बने थे को यह नया ज्ञान प्राप्त हुआ की हिन्दुस्थान केवल हिंदुओं का ही नहीं है| ३. इसी क्रम में तृतीय सरसंघचालक बालासाहेब देवरस जी को, देश में लगी एमरजेंसी के दौरान जेल में बंदी जीवन व्यतीत करते हुए यह ज्ञान प्राप्त हुआ कि “मुसलमानों एवं क्रिस्तिनिओं की रगों में भी मूलतः हिंदू रक्त होने से, इन सभी को व्यापक रूप में हिंदू ही माना जाएगा”| अतः उन्होंने मुसलमानों के लिए भी संघ और संघ के अनुशांगिक संगठनों के द्वार खोल दिए| (संदर्भ- हिंदू अस्मिता १५-२-२००८)

सन १९७७-७८ की बात है- एक मुस्लिम पत्रकार और विद्वान श्री मुज्ज़फर हुसैन की मार्फ़त नागपुर संघ कार्यालय में ही “संघ-मुस्लिम संवाद” का आयोजन किया गया| जब नमाज का समय हुआ और मुस्लिम नेता नमाज के लिए संघ कार्यालय से बाहर जाने लगे तो देवरस जी ने उनसे पूछा कि क्या वे संघ कार्यालय में नमाज नहीं पढ़ सकते? इस पर मुस्लिम नेता बोले – क्यों नहीं| तब वहां उनके वज़ू की व्यवस्था कराई गई और नमाज में शामिल होने के बुलावे के रूप में अज़ान की आवाज़ें भी संघ कार्यालय प्रांगण में गूंज उठीं|(हिंदू अस्मिता इंदौर दि.१६-२-९६ पृष्ठ २) परन्तु इस हिंदू-मुस्लिम संवाद का कोई नतीजा नहीं निकला|
श्री देवरस जी के बाद डॉ. राजिंदर सिंह उर्फ रज्जू भइय्या मार्च १९९४ में चौथे सरसंघचालक बने | वह अधिकतर समय अस्वस्थ ही रहे | ज्यादा गतिशील नहीं रहने के कारण उनकी संघ के बारे में गतिविधियों का विवरण संघ साहित्य में बहुत कम मिलता है| उनके सरसंघचालक कार्यकाल में सुदर्शन जी, जो सर कार्यवाह थे, ही उनके दायित्व को भी निभाते रहे| रज्जू भइय्या के कुछ लेख जरूर संघ की पत्र-पत्रिकाओं में यदा कदा छपते रहे| उनका लेख जो पांचजन्य में २८ जुलाई से ११ अगस्त ९६ तक के अंकों में “हिंदुत्व, सम्प्रदायिकता और सेकुलर राजनीति” शीर्षक के अंतर्गत छपे, इसमें रज्जू भइय्या लिखते हैं कि “रिलिज़न अथवा मज़हब अपने प्रवर्तक के विचारों की अभिव्यक्ति पर निर्भर रहने के कारण वह(उनके अनुयायी) उन विचारों से परे नहीं जा सकते, इस कारण वह उन विचारों का अनुचर ही होता है| ऐसे अनुचर- मज़हब के अनुयायी, विशाल ह्रदय नहीं हो सकते| अपने पैगम्बर के निजी विचारों से बंधे होने के कारण उनमे मजहबी संकीर्णता का होना स्वाभाविक है| उनके लिए पैगम्बरी ही अंतिम सत्य होता है| भले ही वह धर्म कि कसौटी पर खरा न भी उतरता हो| इसलिए उनमें अपने आप को ही सर्वोपरि मानने का हठ होता है| यदि कोई उनके पैगम्बर की कही बात पर ईमान न लाए तो ऐसे व्यक्ति अथवा जन समुदाय के प्रति आक्रामक हो उठते हैं और वे उसे अपने मजहबी मार्ग पर लाने के लिए छल- बल का प्रयोग करने में भी कोई संकोच नहीं करते| उनका यह कृत्य निसंदेह धर्म के विरुद्ध है| भारतीय पंथ इस प्रकार के धर्म विरोधी कृत्य को निंदनीय मानते हैं”| आगे वह लिखते हैं कि “सनातन धर्म कि व्यापकता और ईसाइयत व इस्लाम कि संकीर्णता में कोई मेल नहीं है|” (संदर्भ-हिंदू अस्मिता पृष्ठ ७ दिनाँक १६-९-९६) उन्होंने १९९७ में केनिया व सन् १९९८ में जापान का दौरा किया और संघ की विचारधारा को वहां की कई सभाओं में व्यक्त किया|

प्रो. राजिंदर सिंह (रज्जू भइय्या) के उपरोक्त व्यक्तव्य जो पांचजन्य में दिनाँक २८-७-९६ से ११-८-९६ के अंक में छपा से यह स्पष्ट होता है की वह डॉ. हेडगेवार के विचारों के ज्यादा निकट थे न की गोलवलकर जी या देवरस के, पर कह नहीं सकते कि वह क्यों संघ को दोबारा डॉ. हेडगेवार की नीतियों के मुताबिक ढाल पाने में सफल नहीं हो सके| हो सकता है कि सुदर्शन जी, जो सह कार्यवाह होते हुए भी रज्जू भइय्या के खराब स्वास्थ के कारण संघ के सभी कार्य देख रहे थे, उनके सामने डॉ. राजिंदर सिंह जी की चली न हो- यह भी हो सकता है अस्वस्थ होने के कारण वह अपनी नीतियां व विचारधारा को लागू न करवा पाए हों| जो भी हो उनके समय में भी संघ गोलवलकर जी व देवरस जी के विचारों के अनुरूप ही चलता रहा|

मार्च २००२ में श्री के एस सुदर्शन जी संघ के पांचवे सरसंघचालक बने| वह पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के दर्शन के अधिक निकट थे व हिंदू के स्थान पर भारतीय शब्द को अधिक सुगम व स्वीकार्य समझते प्रतीत हुए| वह हिंदुत्व व हिंदू राष्ट्र की अवधारणा से प्रायः अनभिज्ञ ही दिखाई दिए बल्कि कहना चाहिए की वह गाँधी दर्शन के अधिक निकट प्रतीत हुए| गाँधी जी के अनुरूप ही सुदर्शन जी भी मुस्लिम सहयोग के सदैव आकांक्षी बने रहे| जिस प्रकार गांधीजी स्वतंत्रता प्राप्ति को मुस्लिम समुदाय के सहयोग के बिना संभव नहीं समझते थे| मुसलमानों का सहयोग प्राप्त करने के लिए उन्होंने(गांधीजी) खिलाफत आन्दोलन से लेकर मृत्यु पर्यंत जिन्नाह व अन्य मुस्लिम नेताओं के आगे पूर्ण समर्पण कि हद तक झुकने में भी परहेज़ नहीं किया| इसके लिए वह जिन्नाह के बम्बई स्थित निवास पर कई बार खुशामद करने व मनाने के लिए भी गये| भले ही गांधीजी कि इन नीतियों व समर्पण के कारण राष्ट्र को इसकी कीमत देश विभाजन और लाखों निरपराध हिंदुओं की जान देकर चुकानी पड़ी|

इसी प्रकार सुदर्शन जी भी मुस्लिम समाज के सहयोग को अपने विचारों में परम आवश्यक समझते प्रतीत हुए हैं| इसी दृष्टिकोण के कारण संभवतः वह मुस्लिम पत्रकार मुजफ्फर हुसैन से इतने प्रभावित थे कि उनके कहने पर उन्होंने कई बैठकें मुस्लिम उलेमाओं के साथ कीं और उन्हें रिझाने के हर संभव प्रयास किये| इसी प्रयास में उन्होंने यहाँ तक कह दिया की “वेद और कुरान एक सामान हैं व एक ही शिक्षा देते हैं|” परन्तु उन मुस्लिम उलेमाओं को रिझाने के सुदर्शन जी के सारे प्रयत्न बेकार ही सिद्ध हुए| सुदर्शन जी के अनुरूप देश का मुस्लिम न तो मोहम्मद पंथी हिंदू बनने को तैयार हुआ और न ही इस देश को अपनी माता व पुण्यभूमि मानने को तैयार हुआ|

इस तरह संघ ने शनैः शनैः वीर सावरकर एवं डॉ. हेडगेवार जी के हिंदुत्व और नीतियों को छोड कर गाँधीवादी नीतियों को ही अपना लिया| इतना ही नहीं वह समय समय पर अपने को गाँधीवादी कहलाने में ही सुरक्षित व गौरवांवित समझते रहे|

संघ की नीतियों में बदलाव के कारण:

उपरोक्त सब बातों से इतना तो स्पष्ट होता है कि श्री गोलवलकर जी के समय में संघ का विस्तार तो हुआ परन्तु ये भी सच है कि उन्हीं के समय में और उन्हीं के कारण संघ अपने उद्देश्यों की प्राप्ति तो दूर-उन आदर्शों पर भी नहीं टिका रह पाया, जिनके लिए संघ की स्थापना हुई थी और जिन्हें डॉ. हेडगेवार ने अपने उदबोधनों में बार-बार दोहराया था|
संघ की नीतियों में बदलाव के मुख्यतः ४ कारण लगते हैं-

१. १९३९ में हिंदू महासभा अधिवेशन में, हिंदू महासभा सचिव पद के चुनाव में श्री गोलवलकर की हार हुई| उसके बाद जब वह सन् १९४० में डॉ.हेडगेवार की मृत्यु के बाद गोलवलकर जी संघ के सरसंघचालक बने तब उसके बाद संघ का हिंदू महासभा से असहयोग प्रारम्भ हुआ|

२. वीर सावरकर के व्यक्तित्व और जादू जो उस समय युवकों(खासकर महाराष्ट्र के युवकों ) पर चल रहा था ऐसे में संभवतः गोलवलकर जी को लगा हो।

३. कि यदि यह प्रभाव ऐसे ही बढ़ता गया तो युवकों पर संघ की छाप कम हो जायगी, इसी इर्ष्या के कारण गोलवलकर जी ने वीर सावरकर और हिंदू महासभा का विरोध करना शुरू किया| जैसा संघ के वरिष्ठ नेता श्री गंगाधर इंदुलकर का कहना है|

४. गाँधी वध के बाद सरकारी प्रतिबंधों व संभावित सरकारी कोप के भय से श्री गोलवलकर व उनके उत्तराधिकारीयों ने ‘हिंदुत्व’ को किनारे कर ‘भारतीय’ शब्द को प्राथमिकता दी और संघ द्वारा जितने अनुशांगिक प्रकोष्ट खोले गये उनमें ज्यादातर को भारतीय नाम ही दिया गया| जैसे संस्कार भारती, सेवा भारती, अखिल भारतीय विधार्थी संघ, अखिल भारतीय मजदुर संघ आदि-आदि| इतना ही नहीं हिंदू संस्कृति कि बजाय भारतीय संस्कृति जैसे शब्दों का प्रयोग करने लगे| यहाँ यह उल्लेखनीय व महत्वपूर्ण है कि हिंदू शब्द समाज में जिस ऊर्जा का संचार करता है और इसी से हमारी पहचान का सन्देश विश्व भर में प्रसारित होता है, वह भारतीय शब्द से नहीं होता|

५. गोलवलकर जी की अपरिपक्वता- जिसके कारण वह १९५० तक कहते रहे कि राजनीति तो वैश्या है| हमें इससे दूर रहना है पर जब गाँधी वध के बाद संघ पर प्रतिबन्ध लगा तो हिंदू महासभा के विरोध में डॉ. श्याम प्रसाद मुखर्जी को नागपुर बुला कर एक नये अहिन्दू राजनैतिक दल- जनसंघ की स्थापना करवाई और उसके लिए उन्होंने संघ के बीसियों वरिष्ठ कार्यकर्त्ताओ की सेवाएं डॉ. श्याम प्रसाद मुखर्जी को दी जिससे हिंदू राजनीति में भ्रम व भटकाव कि स्थिती उत्पन्न की| आज संघ की उसी राजनैतिक इकाई भा.ज.पा. की सिद्धांत हीनता(कॉमन सिविल ला.-कश्मीर की धारा ३७० के हटाये जाने व राम जन्मभूमि पर राम मंदिर के निर्माण के मुद्दे से विमुख होने) के कारण स्वंय भा.ज.पा. के साथ-साथ संघ की विश्वसनीयता पर भी संकट छाया हुआ है|

क्या आज आर.एस.एस. प्रमुख व उसके पदाधिकारी यह कह पाने की स्थिती में हैं कि देश का हिंदू सन् १९२५ जब आर.एस.एस. कि स्थापना हुई थी या देश स्वतंत्रता के पश्चात पूर्णरूप से सुरक्षित है? वह अपना जीवन-यापन स्वतंत्र रूप से बिना किसी व्यवधान के कर पाने कि स्थिती में है? क्या लव जिहाद के माध्यम से उनकी महिलाओं का लगातार हरण नहीं हो रहा? क्या हिंदुओं का अब छल-बल व लालच से धर्म-परिवर्तन की प्रक्रिया नहीं चल रही? क्या हिन्दुओं में जातीय वैमनस्य पहले से अधिक नहीं बढ़ा? क्या हिन्दुओं के निजी कानूनों, धर्मस्थलों व हिंदू धर्म स्थानों की संपत्ति पर सरकारी नियंत्रण नहीं है? क्या हिंदू कानूनों के नाम पर हिंदू समाज को नियंत्रित एवं बंधिक नहीं किया जा रहा? क्या हिंदू मंदिरों एवं ट्रस्टों की संपत्ति का हरण सरकार अपने निहित उदेश्यों के लिए नहीं कर रही? क्या छल-बल से धर्म परिवर्तन व परिवार नियोजन कार्यक्रमों के माध्यम से हिंदू समाज की आबादी को षड्यंत्र कारी तरीके से कम नहीं किया जा रहा? क्या यह सत्य नहीं की जो हिंदू स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश में ८८% था वह अब घट कर ८०% पर नहीं आ गया?

स्मरण रहे यह सभी प्रतिबन्ध-नियंत्रण हिंदू समाज पर हैं अन्य वर्ग तो अल्पसंख्यक वाद और अपने एकजुट वोट बैंक के कारण-स्वार्थी राज सत्ता को, अपनी शर्तों पर सौदेबाजी करने के लिए बाध्य कर रहे दिखाई देते हैं| इन्हीं गलत नीतियों के कारण कश्मीर में हिंदू अपने ही देश में पिछले २० सालों से घर-बार छोड़ने को बाध्य हो गये और अब वे जम्मू व दिल्ली में अपने ही देश में शरणार्थी जीवन व्यतीत करने को मजबूर हो गये हैं और कोई भी उनकी सुध लेने वाला नहीं है|

देश की उत्तरी, पूर्वी व पश्चिमी सीमा प्रान्त में जनसंख्या परिवर्तन का भारी षड्यंत्र चल रहा है, हिंदू अल्पसंख्यक हो रहा है| कई जिलों में उनकी जनसंख्या अन्य समुदायों की जनसंख्या से कम हो चुकी है| भारी संख्या में बंगलादेशी घुसपैठिये इन क्षेत्रों में बस चुके हैं| इसके परिणाम – प्रभाव स्वरूप उत्तरी व पूर्वी सीमा क्षेत्रों में एक और विभाजन की पग ध्वनि सुनाई दे रही है|

क्या ऐसी स्थिती में भी संघ के रहनुमा यह कहने का साहस करेंगे कि वह अपने उद्देश्य में सफल हुए? क्या उन्होंने हिन्दुओं को संगठित किया और उन्हें सुरक्षा प्रदान की और क्या आज राष्ट्र पहले से अधिक सुरक्षित है? क्या देशवासियों को नैतिकतावादी व चरित्रवान बनाने की जो बातें संघ करता रहा है उसमें प्रगति हुई है या वह अपने इस उद्देश्य में सफल हुए हैं? जबकि डॉ.हेडगेवार जी प्रायः यह कहा करते थे की अपने कर्मठ व समर्पित कार्यकर्ताओं के दम पर वह एक नहीं तो दूसरी पीढ़ी तक अपनी कल्पना के हिंदू राष्ट्र स्थापना के उद्देश्य को अवश्य प्राप्त कर लेंगे| परन्तु आज पथ से विचलित आर.एस.एस. उनके संकल्प के बारे में क्या कहेगा यह ईश्वर ही जाने|

क्या बंगारू लक्ष्मण का धन उगाही प्रकरण, अडवाणी-जसवंतसिंह का जिन्नाह प्रेम व कर्नाटक के मन्त्रियों का विधानसभा भवन में अश्लील सी.डी. प्रकरणों ने भा.ज.पा. के साथ आर.एस.एस. की साख को नहीं गिराया? कश्मीर के विधायकों का पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार के विरुद्ध वोट करना, येदियूरप्पा के बागी तेवर, उत्तरप्रदेश के कल्याण सिंह जो आर.एस.एस. के पुराने वैचारिक कार्यकर्त्ता रहे हैं का बगावत कर संगठन व पार्टी छोडना, संगठन की चाल-चरित्र और चेहरे पर कालिख नहीं पोतती? क्या पिछले ८५ वर्षों में हम यही समर्पण व चरित्र का निर्माण कर सके हैं?

यही सदविचार-सद्चरित्र व सिद्धांतों से विमुखता ही आज आर.एस.एस. व उसके अधिकाशं अनुशांगिक संगठनों की विश्वसनीयता पर संकट बनकर खड़े हैं| जब तक यह संगठन अपनी इन कमियों को दूर नहीं करेगा और अपने मूल सिद्धांतों के अनुरूप विभिन्न संगठनों पर वैचारिक एवं अनुशासनिक नियन्त्रण नहीं रखेगा तब तक वह फिर से हिंदू समाज में अपनी साख बना पायेगा, इसमें संदेह है| इसके लिए तो मूल हिंदुत्व के सिद्धांतों की ओर लौटना परम आवश्यक है| क्योंकि वह सिद्धांत तो सत्य पर आधारित हैं, अटल है और शाश्वत हैं, जिन्हें सावरकर व डॉ. हेडगेवार ने प्रतिपादित एवं अंगीकार किया था| उनके बिना तो आर.एस.एस.बिना आत्मा के शरीर जैसा अर्थात निष्प्राण ही रहेगा| इसके बिना इस संगठन से किसी प्रकार कि अतिरिक्त आशा रखना बेमानी ही सिद्ध होगा|

साभार:
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