Thursday, 23 March 2017

धर्म की व्याख्या में संदर्भ

"उस दिन कुरुक्षेत्र में वीर अर्जुन भी सत्ता की प्राप्ति के लिए अपने स्वजनों पर अस्त्र नहीं उठाना चाहते थे पर वो कृष्ण ही थे जिन्होनें अपने तर्कों के द्वारा अर्जुन को यह समझाया की कर्तव्य का  पथ  ही व्यक्ति के धर्म का मार्ग होता है।

स्वधर्म ही व्यक्ति के प्रारब्ध का मार्ग  है, ऐसे में, व्यक्ति के लिए धर्म के उचित बोध के लिए  'स्व' का उचित ज्ञान  होना आवश्यक है। 

जिसकी समझ जितनी विस्तृत उसके परिवार की परिधि भी उतनी ही विशाल होती है, ऐसे में, कर्त्तव्य के उचित बोध के लिए न केवल व्यक्ति के विवेक की परिधि का विस्तार बल्कि बुद्धि की परिपक्वता भी निर्णायक होती है।   

ऐसे तो भरत भी श्री राम के भाई थे और भीम भी दुर्योधन के भाई,  जहाँ भरत ने श्री राम के लिए चौदह वर्षों तक त्याग और तपस्या  की वहीँ भीम ने अकेले ही धर्मयुद्ध में अपने सौ भाइयों को मृत्यु के घाट उत्तर दिया, पर वो परिस्थितियों का सन्दर्भ ही था जिसने संबंधों के व्यव्हार को न्यायोचित ठहराया और कर्त्तव्य  को धर्म के रूप में  परिभाषित किया।

धर्म की व्याख्या केवल परिस्थितियों के सन्दर्भ में की जा सकती है और यही उचित भी होगा। चूँकि समय के साथ साथ परिस्थितियां भी परिवर्तनशील है, इसलिए,  मान्यताओं के आधार पर धर्म को परिभाषित करना पाखंड को प्रेरित करना ही कहलायेगा।   

अपने और अपने परिवार के पेट के लिए तो कुत्ता भी जीता है, वास्तविक अर्थों में मनुष्य कहलाने के योग्य वही है जिसके परिवार की समझ, स्व की परिधि और प्रयास का विषय विस्तृत व् व्यापक हो।

इस धरती पर हमारे पहले जो कुछ भी था वह हमारे बाद भी रहेगा, जीवन काल के रूप में हमारे पास प्रयास का अवसर सीमित है, ऐसे में, अगर हमारे प्रयास का विषय ही हमें एक परिधि में सीमित कर दे तो जीवन का व्यर्थ होना स्वाभाविक है। 

हिन्दू जीवन शैली ने समय के विभिन्न सन्दर्भ में जीवन द्वारा प्रस्तुत आदर्श के विविध  उदाहरणों को आराध्य माना है पर आज हम उन उदाहरणों का अनुसरण करने के बदले उनकी आराधना कर ही अपने आप को  धार्मिक सिद्ध करने में लगे हैं, जिसके परिणामस्वरूप, धर्म सैद्धान्तिक, ईश्वर साम्प्रदायिक और पूजा पद्धति पाखंड का पर्याय बन गयी है। 

इसलिए न केवल धर्म की शुद्धि बल्कि एक राष्ट्र के रूप में भारत को उसकी वास्तविकता के बोध के लिए भी  भारत का हिन्दुराष्ट्र बनना आज आवश्यक है।  

इसमें कोई समस्या भी नहीं होनी चाहिए, ऐसा इसलिए क्योंकि भले ही भारत ने विश्व के सभी धर्मों को आश्रय दिया है पर आज भारत में प्रचलित व् स्वीकृत  उन सभी धर्मों के धर्मावलंबी मूलतः भारतीय ही हैं, ऐसे में, प्रयास की दिशा यदि सही हो तो धर्मों की विविधता के बीच  घर्षण का कोई कारन ही नहीं; पर इसके लिए धर्म की समझ स्पष्ट होनी आवश्यक है।

धर्म कोई उपदेश, पाखण्ड या औपचारिकता मात्र नहीं बल्कि एक जीवन शैली है जिसके लिए सत्य, न्याय और नीति सर्वोपरि है; धर्म का निर्धारण अतीत की मान्यताएं  नहीं बल्कि परिस्थितियों  के सन्दर्भ द्वारा किया जाना ही उचित होगा ;

ऐसे में, क्या आपको नहीं लगता की अपने  समझ के स्तर से धर्म को परिभाषित करने के बजाये आज धर्म के वास्तविक स्तर तक व्यक्तिगत समझ का विकास ही समय की आवश्यकता  है ?”

Source:
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=442810066060906&substory_index=0&id=436564770018769

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