सेखुलरिज्म एक आत्मघाती संस्कार।
''सेक्युलरवाद के कारण दुनिया के कई देश और उनकी संस्कृति मिट गयी, कई देश और मिटेंगे ,अयान हिरसी अली ने यह कहकर दुनिया भर में नई बहस को छेड़ दिया है।इस दुनिया में अधिकतर लोगों को सच्चाई पसंद नहीं आयी और इसी कारण सच कहने वालो के दुश्मन अधिक होते है, और ऐसे ही लोगों में सोमालिया मूल की अयान हिरसी अली भी हैं।सोमालिया में सच बोलने की हिम्मत की तो कट्टरपंथी इनकी जान के पीछे पड़ गए। ये तो किस्मत अच्छी रही की ये बच गयी और यूरोप तथा अमरीका में शरण मिली।अयान हिरसी अली हमेशा से ही सच बोलती आयी है जो देश और वहां का समाज सेकुलरिज्म में अँधा हो जाता है, उस देश और उस समाज का नाश हो जाता है और इतिहास में ऐसे कई उदाहरण है।अयान हिरसी अली जैसे लोग सच को समझते है, पर अधिकतर लोग सेक्युलर बने रहना कहते है वो सच से डरते है।सीरिया कभी ईसाई बहुल देश हुआ करता था, ईरान का असली नाम तो पर्शिया था जहाँ पारसी लोग रहा करते थे, पाकिस्तान में 100% हिन्दू थे, अफगानिस्तान में भी हिन्दू फिर बौद्ध थे पर ये तमाम देश अब इस्लामिक बन चुके है, इनके नाम तक बदल दिए गए है इराक का असली नाम तो मेसोपोटामिया था।अयान हिरसी अली ने बताया की, ये तमाम इलाके और यहाँ के लोग इतने सेक्युलर थे, की सेक्युलरवाद के कारण उनका समाज और देश हमेशा के लिए मिट गए।अयान हिरसी अली ये भी कहती है की, जो देश आज सेक्युलरवाद निभा रहे है, भविष्य में वो भी सीरिया, पाकिस्तान, अफगानिस्तान ही बनेंगे।दुनियाँ की हजारो प्राचीन संस्कृतियां और पूजा पद्दतियों को संगठित मजहबो द्वारा नष्ट किया जा रहा है।हजारो कबीलों की विविधता इस्लाम या ईसाइयत के संगठित आक्रमणों ने लील लिया।जिस गति और प्लानिंग से यह फैल रहा है जल्द ही या तो इस्लाम या क्रिश्चियन में दुनिया बची रहेगी।
यूरोपियनों की एक ख़ासियात होती है वे देश की सुरक्ष को लेकर पूरे इमानदार होते है।जीवन शैली में कभी ही अल-तकिया नही करते।हिन्दुस्तानी नेताओं की तरह वे विचारों को लाकर न खुद को धोखा देते हैं न अपने देश को। जब फ्रांस के राष्ट्रपति के पद पर एक दक्षिणपंथ का विरोध करने वाला नियुक्त हुआ था तो कईयों ने तो इसको फ़्रांस के धर्मनिरपेक्षता की जीत बताया था।सेकुलरिज्म के नाम पर उसने वोट भी माँगा था।पर उसकी आड़ मे इस्लामिक आतंकियों ने फ़्रांस को बार बार लहू लुहान कर दिया मैकरोन को विचार बदलना पडा।
फ्रांस जो कभी दुनिया में पर्यटन के लिए सबसे अच्छा देश माना जाता था वह अचानक ही क्रूर इस्लामिक आतंकियों के निशाने पर आ गया था।खूबसूरत देश की तस्वीर ऐसी बिगड़ी की टूरिस्टों ने वहां जाने से ही लोग परहेज करना शुरू कर दिए।धर्मनिरपेक्षता के ढांचे ने फ्रांस को ही ध्वस्त करना शुरू कर दिया।सालो पहले वाम-पंथी माहौल में वहां लिबरंडूओं का प्रकोप बढ़ गया था,जिससे मुस्लिमो शरणार्थियो की कई खेप धीरे-धीरे वहां आने दी गई थी।जल्दी ही 'हम पांच हमारे तीस,की रणनीति ने वहां अमल किया और केवल चालीस साल में ही जनसख्या भी ४० गुना बढ़ गई।अब वे वहां 11.5 प्रतिशत हो गये।जैसे ही ७ प्रतिशत लांघे. फिर लव जेहाद,शरई शासन की मांग,सड़क पर नमाज का प्रदर्शन ...और जगह-जगह विस्स्फोट।जैसा की हर जगह होता हैं।कमोबेश नीदरलैंड भी इसी तरह की समस्या से ग्रस्त है।उसने यूएनओ को लिखित दे दिया है मुस्लिम शरणार्थियो की बस्तियां आतंकी स्थलों में तब्दील हो चुकी हैं जिन्हें सम्भालना उसके बूते का नही।सयुक्त राष्ट्र संघ उसे सैनिक मदद दे जिससे वह समस्याओं से निजात पा सके।
16वी सदी में स्पेन वार के बाद मुसलमानों को यूरोप से निकाल दिया गया और लगभग पूरी तरह से यूरोप में प्रतिबंधित कर दिया गया था।यह काफी सालो तक चला।उन्नीसवीं सदी में जब वामपंथ, सेकुलरिज्म का नाटक शुरू हुआ तो इस्लाम का प्रवेश फिर शुरू हुआ।मुसलमान फिर से यूरोप में जाने लगे।यह 1950 का आंकड़ा है 1950 से 2014 के आंकड़े के बीच का अंतर देखिए।1950 में मुसलमान 2.3 परसेंट थे इंग्लैंड में।आज वह 22.56 प्रतिशत हो चुके हैं।इंग्लैंड के एम्स्टर्डम में एक परसेंट थे आज वह 14 परसेंट हैं।एंटवर्क में वह दो पर्सेंट थे आज वह 16.9 परसेंट है। बेल्जियम में एक परसेंट से बढ़कर के 16.9 परसेंट हो चुके हैं। बार्सिलोना में जहां कभी मुस्लिमो पर रोक थी वह 0.103 से बढ़कर के साथ 6.5 परसेंट हो चुके हैं।बर्लिन में जहां 0.708 परसेंट थे वह 9.1 परसेंट हो चुके हैं।बरमिंघम में जहां 1.3 परसेंट थे आज वह 14.3 परसेंट हो चुके हैं।ब्रेडफोर्ड में जहां वह 1.7 परसेंट थे आज वह 15% पार कर चुके हैं।ब्रसेल्स में जहां वह 2.1 परसेंट थे आज वह 70% पार कर चुके हैं। ब्रसेल्स में 1 प्रतिशत से अब वह 30% की संख्या में रह रहे हैं।कोलोन(जर्मनी) में 1 प्रतिशत से बढ़कर 12% हो चुके हैं।कोपेनहेगन में वह 0 1% से बढ़कर के 10% हो चुके हैं।डबलिन में 0.57 से बढ़कर 11 प्रतिशत हो चुके हैं। फ्रेंकपूर्त में 0.03 परसेंट से बढ़कर के 11.87 हो चुके हैं। लिसेस्टर में वह 1.3 से बढ़कर के 18.6 प्रतिशत। लंदन में 0.84 सबसे बढ़कर वह 12.45 हो चुके हैं।माल्मो में 1.6 परसेंट से बढ़कर के 20% हो चुके हैं। मेनचेस्टर में 1.25 से बढ़कर 15.87 हो चुके हैं.मरसेआईल में से 1% से बढ़कर 25% हो चुके हैं। मिलान में 1.3 से बढ़कर 6% हो चुके हैं। पेरिस में वह 1.3 से बढ़कर 10 से 15% हैं एरिया में हो गए हैं।रोटरडम में वह 0.1 से बढ़कर 13.3 प्रस्तुत हो गए हैं।रॉबिएक्स में से 20% पार हो गए हैं।हेग में वह 0.976 थे 14.2 प्रतिशत हो चुके हैं,वियना में जहां 0.125 थे आज 8 पसे 12.57 हो चुके हैं।जहां भी उन्होंने १० प्रतिशत पार किया हैं वहां उत्पात शुरू चुका है।सभी युरोपियन राष्ट्रों का मानना है सेकुलरिज्म की खोल के कारण हुआ है।स्थानीय समाज को वामपंथी लिबर्लिज्म ने 'लांग-टाइम स्ट्रेटिजिक अटैक,को इग्नोर करने की आदत दाल दी है।फिलहाल वे अब सजग है।
फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुल मैक्रोन ने अपने २०० देशो में फैले राजदूतों की एक सभा में उन्हें सीधे-सीधे निर्देशित किया की वे इस्लामिक आतंक से सतर्क रहें।यह अब दुनिया भर को चपेट में लेती जा रही है।हमें अब फ्रांस को बचाने के लिए कड़े कदम उठाने होंगे।अब हमें इन क्रूर आतंकियों से भिड़ना होगा।प्रसिद्ध संचार एजेंसी time. com के अनुसार फ्रांस के राष्ट्रपति का ये संदेश ना सिर्फ फ़्रांस की सेना , पुलिस और उनके अधिकारयों के लिए था अपितु उन्होंने सीधे सीधे अपनी जनता को भी यह संदेश खुलेआम दिया। समाज में बढ़ रहे इस आतंक रुपी कैंसर के बारे में .फ़्रांस के राष्ट्रपति ने अपनी विदेश नीति में भी बदलाव का एलान किया। जिसमे पहले उन्होंने अपनी धर्मनिरपेक्षता के चलते काफी शिथिल नियम रखे थे। इतना ही नहीं उन्होंने इस आतंक के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ से फ़ौरन ही एक नया दल बनाने की मांग की है। फ्रांस पिछले कुछ समय से आतंक के वार झेलने में सबसे अग्रणी रहा है।उसने अभी-अभी नीस जैसा आतंकी हमला भी झेला है जिसमे ट्रक को मौत का सामान बना दिया गया था।मासूमो , बच्चों बुजुर्गों सबको कुचल दिया गया था। फ़्रांस के राष्ट्रपति के इस बदले स्वरूप का यूरोपियन समाज स्वागत कर रहा है।
भारत में तो समस्याए बहुत ही ज्यादा है उस्ससे अलग हटकर अब ज़रा एक फैक्ट और देखिये।
भारत पर कर्ज- केन्द्र सरकार- 47 लाख करोड़ रुपए,
राज्य सरकारों पर- 65 लाख करोड़ रुपए।
भारत में चर्च की परिसंपत्तियों की क़ीमत लगभग 52 लाख करोड़ रुपए है, क्या राष्ट्रीय हित में इसका राष्ट्रीयकरण नहीं किया जाना चाहिए...?
जॉर्ज बुश जब भारत आते हैं तो चर्च को 20 करोड़ डॉलर का दान देते हैं। अब सवाल यह है कि यह पैसा भारत सरकार को क्यों नहीं दिया गया...? क्या चर्च भारत की सरकार चलाता है...? आखिर आदिवासियों और दलितों के कल्याण के लिए चर्च पर ही भरोसा क्यों..?
ज़ाहिर है, ये सारी जमीनें और पैसे भारत में लोगों को ज्यादा से ज्यादा धर्मांतरित करने में इस्तेमाल किए जाते हैं। अब समय आ गया है कि इनका राष्ट्रीयकरण कर देना चाहिए।इसी तरह मुस्लिम वक्फ़ बोर्ड के पास पूरे भारत में 4 लाख 90 हजार रजिस्टर्ड वक्फ़ संपत्तियां हैं।इन संपतियां का भी राष्ट्रीयकरण क्यों नही की जानी चाहिए?ये सभी संपत्तियां लगभग छह लाख एकड़ में फैली हुई हैं। इतनी संपत्तियों के बाद भी इन्हें माइनॉरिटी (अल्पसंख्यक) का दर्जा क्यों दिया गया है...?क्या 35 करोड़ की आबादी के बावजूद किसी धर्म विशेष के अनुयायियों को अल्पसंख्यक माना जा सकता है...?जिस तरह भारत सरकार सनातन धर्म के मंदिरों का अधिग्रहण करती है उसी तरह चर्च और मुस्लिम वक्फ़ बोर्ड की परिसंपत्तियों का अधिग्रहण क्यों नहीं किया जाता...?
अगर तिरूपति बालाजी, काशी विश्वनाथ, द्वारिका, सोमनाथ, वैष्णो देवी, उज्जैन के महाकालेश्वर और राज राजेश्वर जैसे मंदिरों को सरकार अपने अधीन कर सकती है तो हाजी अली दरगाह, ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती, शेख बख़्तियार काकी और हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाहों को क्यों छोड़ा गया है...?
हर त्याग की अपेक्षा सिर्फ़ सनातन धर्म के अनुयायियों से ही क्यों की जाती है..? जब दरगाहों से आया पैसा, सिर्फ़ और सिर्फ़ मुस्लिम उम्मा पर ही ख़र्च किया जाता है तो सनातन धर्म के मंदिरों से आया पैसा सरकार दूसरे मज़हबों के लोगों पर क्यों ख़र्च करती है...? इस पैसे को सिर्फ़ इंडो-वैदिक धर्मों (सनातन, बौद्ध, जैन और सिक्ख) के अनुयायियों पर ही क्यों न ख़र्च किया जाए...?
साभार: पवन त्रिपाठी, https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=10155623161486768&id=705621767