Saturday 4 March 2017

सांप्रदायिक आतंकवाद को भडकाने वाली सस्ती पत्रकारिता

जवाबदेही का प्रश्न  : कुछ मीडिया चैनलों की सांप्रदायिक आतंकवाद को भडकाने वाली सस्ती पत्रकारिता
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Ref : प्राइम टाइम : क्या मीडिया में ऐसा राष्ट्रवाद दिखना चाहिए?
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कुछ दो कौड़ी के पत्रकार अपने कार्यक्रम मे तीन-चार चिंदी चोर किस्म के पत्रकार बैठा कर जो उसकी अपनी स्वयं की धूर्त दलीलो को सराहते हुये केवल उसका ही पक्ष  बढ़ाते हैं, दूसरो पर एक पक्षीय होने का दोष लगा देता है, इस कला में इसकी मास्टरी है

R K को R S की विदेशी स्काच का देशी जूठन ही कहा जा सकता है, जिसमें बिहार मे प्रतिबंध लगा हुआ है, फ़िर भी इस बेअदब की पुरानी लत है कि उतरती नही है, अपने मालिक प्रणय रॉय का भ्रष्टाचार एवं भाई का सच्चरित्र व्यापार, उसकी पत्रकारिता के दायरे से हमेशा बाहर ही रहे, कश्मीरी पंडितो का सांप्रदायिक निष्कासन उसकी निरपेक्ष आंखे कभी देखा ही नहीं पायी

इस तरह के सस्ते बजारू पत्रकार, पत्रकारिता जगत को कलंकित करते है, और परस्पर हिंदू-मुस्लिम सद्भाव को चोट पहुंचाते है, इस तरह के पत्रकार वे लोग हैं जो की इस्लाम को आधुनिक बनने ही नही देते है, उलट इस्लाम के घटको मे हाल ही मे बढ चुकी सांप्रदायिकता को और भी भडका देते हैं. मजहबी सांप्रदायिकता को अपना आधार और ढाल बनाकर हत्याओ को अंजाम देते हैं, पत्थर बाजी करवाते हैं जो कि दिन के उजाले की तरह से साफ़ है

रवीश कुमार कल्पना करता है कि भारत एक आराजक भू भाग है जिसकी न कोई संप्रभुता है, और न सार्वभैमिकता और न ही इतिहास इसलिये जो कोई भी भारत को तोडने के लिये सांप्रदायिकता या आतंकवाद जैसे तरीको का सहारा लेता है, दूसरे भारतीयों की हत्या करता है, वह हत्यारा अपने मानव अधिकारो को अपने तरीके से व्यक्त करता है, जिसका सम्मान होना चाहिये।

इस जैसे बीमार बाजारू इंसान के लिये हत्या करने वाले अपराधी और मारे गये निरपराध भारतीय मे अंतर का अस्तित्व नहीं है, एक का अधिकार है हत्या करना और दुसरे की विवशता है मारा जाना ताकि हत्यारे के हक की पूर्ति हो सके।

कश्मीर मे हत्या करने वाले आतंकवादी अपना मजहब इस्लाम को मानते है, इससे उनके तीन फ़ायदे है -

१) विश्व भर मे फ़ैले हुये इस्लामिक आतंकवाद के नेटवर्क से हथियार आसानी से मिल जाता है

२) इस्लाम के नाम पर हत्या करने और इस्लाम के नाम पर ही नफ़रत फ़ैलाने से, क्च्ची सोच के आम मुसलमान को बहकाना आसान हो जाता है, यह बहका हुआअ आम मुसलमानो का तबका ही कश्मीर मे पत्थरबाजी करता है

३) अरब और इस तरह मे मुल्क जो कि धर्म निरपेक्षता पर यकीन नही रखते है, वहां से धन इकट्ठा करना आसान हो जाता है।

कश्मीर मे इस्लामिक आतंकवादी सांप्रदायिक आधार पर, पाकिस्तान के इशारे पर हिंसा करते हैं, इस बाजारी रवीश के ही NDTV चैनल मे नगमा अपने कार्यक्रमो मे पाकिस्तान की संलिप्तता पर कार्यक्रम करती है, जिसे यह सस्ता पत्रकार देख नही पाता है.

क्या भारत में सांप्रदायिकता को अलग अलग भू भागो इस्लामिक कट्टरता के अनुसार परिभाषित किया जाएगा, क्या संविधान में इसी तरह की भावना निहित है, इस तरह के पत्रकार कभी समझ नहीं पाते हैं, यदि पूछो तो इनका चेहरा सफ़ेद पड़ जाता है

जिन जिन इलाको में इस्लामिक साम्प्रदायिकता ने अधिकार कर लिया है उन्हें छोड़ कर अन्य स्थलों में निरपेक्षता की वकालत करते हुए  उन लोगो को, जो भारत की संप्रुभता एव सार्वभौमिकता को साप्रदायिक आधार पर तोडना चाहते है, को लगातार अपने तरीके से बढावा देना रविश कुमार जैसो का प्रमुख काम रहता है यदि इसकी नीयत बदनीयत न होती तो यह अपने एक पक्षीय कार्यक्रमो मे दूसरे पक्ष यथा विस्थापित कश्मीरी पंडितो के प्रतिनिधि या अन्य सामाजिक कार्यकर्ता या फ़िर सुरक्षा बलो के प्रतिनिध को भी शामिल कर लेता, जो इस बाजारू ने अक्सर नहीं किया.

रवीश कुमार यह भूल जाता है कि सेना तथा अन्य सुरक्षाबल जो कश्मीर मे तैनात हैंं, वे कश्मीर के सभी नागरिको की सुरक्षा के लिये बराबरी से प्रतिबद्ध हैं, सन २०१४ मे आयी भयंकर बाढ मे सेना के लोगो ने लोगो की जान हिंदू, मुसलमान या आतंकवाद का इतिहास देखकर नही बचाई थी, बल्कि मानवीय आधार पर संविधान की भावना के अनुसार और राष्ट्र की जनता के प्रति उत्तरदायित्व के अनुरूप बचाई थी, किंतु जो धुर्तता में आकंठ लिप्त हो, जो मुस्लिम सांप्रदायिकता का मीडिया मे चेहरा बनकर कार्य करता हो, उसे पत्रकारिता के मूल्यो और विश्वसनीयता से कोई वास्ता कैसे हो सकता है।

साफ़ है कि कि इस पत्रकार के मंसूबे देश को सांप्रदायिक आधार पर बाट्ने वाले है, पत्रकारिता मे कोई प्रभावी संस्था तो है नही जो इस किस्म के पत्रकार को दंडित कर सके या फ़िर उसे टी वी जगत से निकलवा सके, इसलिये इस किस्म के लोग निरंकुश हो जाते हैं और इनकी सप्लाई इस धंधे मे जारी रहती है.

इस तरह की पत्रकारिता को नियंत्रित करना जरुरी हो गया है, सीमा उल्लंघन करने पर इस किस्म के पत्रकारों के लिये उचित दंड की व्यवस्था भी होनी ही चाहिये

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प्राइम टाइम : क्या मीडिया में ऐसा राष्ट्रवाद दिखना चाहिए?
कभी आपने सोचा है कि न्यूज़ चैनलों पर हर हफ्ते किसी न किसी बहाने ऐसे मुद्दे क्यों लौट आते हैं ?

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मानव का विश्वास जगेगा

मानव का विश्वास जगेगा।

मेरे एक मित्र हैं, बड़े अधिकारी हैं।मैं कभी-कभी उनके पास जाता हूं।बड़े मजाकिया स्वभाव के हैं।एक दिन मजाक-मजाक में बोले बनारसी को पहचानना हो तो क्या करोगे।मैंने कहा 'पता नहीं, मैं तो आवाज से ही पहचान लेता हूं।बगल में खड़ा हो तो सूंघ लेता हूं।वह बोले ऐसे नही।मैं बताता हूं।
"बनारसी की पहचान है उसे लाओ,लस्सी पिलाओ,पूरा खत्म होने के बाद वह गिलास या कुल्हड़ में थोड़ा पानी डालकर उसे धूल के पिएगा तो समझ लो बनारसी है।अगर ऐसा नही करता तो समझो यह बनारसी नहीं।उसको तब-तक तृप्ति नही मिलती जब तक वह थोड़ा पानी डालकर,खंगाल के न पी ले,।मुझे भी ध्यान में आया हां यार यह तो मैं भी करता हूं।

एक दिन प्रभु जी साथ ही थे उनके सामने भी बोल गये।फिर हम कहां चुप रहने वाले।तत्काल बोले 'बनारसी गोरस का,परम ब्रह्म का अपमान नहीं कर सकता।वह थोड़ी सी भी 'अन्नात भवन पर्जन्य,का सम्मान करना जानता है।वह जानता है कि उस दुग्ध कण में परमात्मा का वास है।वह उपभोक्ता,दिखावा संस्कृति से ग्रस्त नही है इसलिए वह उसे ऐसे ही नहीं फेंक देता।यह संस्कार है।वह साहब भौचक,चुप्प,वहाँ से खिसक लिए।

  यह बात केवल बनारसी की नहीं है,यह भारतवर्ष के किसी भी हिस्से में आप देखेंगे।तमिलनाडु से लेकर कश्मीर तक,गुजरात से लेकर बंगाल तक आप किसी पुराने बुजुर्ग आदमी के साथ भोजन करने बैठ जाइए।आप देखेंगे वह अत्र का एक दाना नहीं बर्बाद करते।केले के पत्ते चाट डालते है,थाली पोंछ लेते है।गांव में ऐसा ही होता है।वह परम ब्रह्म के उस प्रसाद का पान करते हैं जिसमे ईश्वर की ऊर्जा होती है।वह आखिरी दाने तक को उपयोग में लेते हैं।प्रथम ग्रास गो (देव) ग्रास,द्वितीय ग्रास कौवा(पितृ) ग्रास,तृतीय ग्रास  कुक्कुर ग्रास, देव यज्ञ करते हैं। पितृयज्ञ करते हैं और ऋषि यज्ञ करते हैं।वह तीनों ऋण चुकाते हैं।यह संस्कारों में है,यही विचारों में है, यही जीवन पद्धति में भी है।
ब्रह्मार्पणं ब्रम्हार्विह ब्रम्हाग्नऊ ब्रम्हणाहुतम।
ब्रम्हेवते न गंतव्यं ब्रह्मकर्म समाधिना।

  हर हिंदू को पता है कि अन्न का प्रत्येक कण, दुग्ध का प्रत्येक कण,परमात्मा का अंश है।उसे बर्बाद नहीं करना।उसे अंतिम पल तक उपयोग करना है।उसे पता है अन्ना भवन पर्जन्या।उसे पता है कि जीव देह से निकलने के बाद सूर्य या चन्द्र ऊर्जा तक जाता है,सूर्य से लौटकर वह रश्मियों के माध्यम से अन्न में बदलता है। अन्न से ही ऊर्जा प्राप्त होती है।वह दूर जाकर मिलती है।वह कर्म नित्य न्यू नयन अन्न उत्पन्न करता है।वह ब्रम्ह से ही उपस्थित होता है और ब्रह्म में ही समा जाता है।अन्य संस्कृतियों की समस्या यह है की वे मानते है सनातन धर्म का अनुयायी परमात्मा को अच्छी जानता-व्यवहार करता है।

यह हर एक पंथ-जाति-समुदाय-कुल के हिंदू-संस्कारों में होता है।वह गाय ही नही पीपल,वट, बेल,आंवला आदि सभी वृक्षो की पूजा करता है क्योंकि उसमें वासुदेव है।वह दूर्वा चढ़ाता है क्योंकि वह शक्ति का अनंत ऊर्जा का परिचायक है।वह हाथी की पूजा करता है क्योंकि गणेश जी विघ्न विनाशक हैं।वह सिंह की पूजा करता है क्योंकि वह देवी की सवारी है।वह कुत्ते की पूजा करता है क्योंकि वह भैरव का वाहन है।वह नदियों,तालाबो,कुओं,की पूजा करता है क्योंकि उसमें वरुण है।वह वायु की पूजा करता है क्योकि वह पञ्च प्राण के रूप में है।इस दुनिया की कोई प्राणवान,मूर्तिमान संज्ञा नही है जिसे वह किसी न किसी रूप में पूजता न हो।वह समस्त जीव-जड़,बनस्पति,प्रकृति के साथ जुड़ कर,आस्था,श्रध्दा के साथ रहता है क्योकि पुनर्जन्म के बाद उसी धरा पर आना है।वैश्वानर,विश्वेदेवा कहकर समस्त कण-कण की पूजा करता है पूजा करता है।यही शक्ति उसमे निरन्तर सकारात्मकता का प्रवाह खोल देती है।यही सकारात्मकता युगों से आक्रान्ताओ से उसकी रक्षा कर रही है।

अब मैं उन अधिकारी मित्र के ऊपर आता हूं।उनकी सोच, संस्कार ऐसे कहां से आ गए कि दूध या लस्सी की दही धुल के पीते हैं यह खराब चीज है।यह बड़ी पिछड़ी सी बात है, बड़े कुंठा वाली बात है।खिल्ली उड़ाते हैं।केवल उनके ही नही आज के सभी खाते-पीते घरों में ऐसे कुविचार-कुसंस्कार भर गए है।खाने में जब तक थोड़ा छोड़ नही देंगे तब तक समृध्द कहां दिखती है।बोतल का पानी खरीद कर थोड़ा पीकर वहीं छोड़ देते है।आधे गिलास में पानी जूठा छोड़कर वरुण देव का अपमान करके चले आते हैं।ऐसी हजारो छोटी-छोटी दिखावे वाली चीजे इधर के सौ साल में डेवलप हो गयी है।

किसने भर दिया ऐसे विचार।यह आधुनिक कहे जाने वाले पढ़े-लिखे आदमी करते है इतनी अदना सी बात समझ में नही आई।उन सब को पता है दुनियाँ में तो छोड़िए भारत में ही 5 करोड़ लोग ऐसे हैं पूर्ण-पुष्टाहार नही मिल पाता।सारी दुनियां में एक बड़ी संख्या को भरपेट भोजन नही मिलता।एक बड़े हिस्से को साफ़ पानी पीने को नही मिलता लेकिन हम अपने घरों में बर्बाद करते है।अधिकाँश घरों में बासी खाँना फेंक दिया जाता है।वे उसे किसी जानवर तक को नही डालते।आज देश के ऐसे कई होटलों में या किसी विवाह में चले जाइए,बहुत सारे बड़े लोगो के घरों में अन्न का बर्बाद होना आदत में आ गया है।बड़ी मात्रा में खाना फेकना गौरव का विषय है।फेक देने पर अब शर्म भी नहीं आती, कोई संकोच नहीं होता है कि हम गलत कर रहे हैं।ऐसे विचार-संस्कार किसने भरे है??

  यह 10 वीं शताब्दी से सामी संस्कृतियों के साथ भारत में आया।खुद भर हींक खाओ और बचा बर्बाद कर दो,सब नष्ट कर दो।जितना भोग सको,भोगो। परमात्मा का डर नहीं है क्योकि उसने ही तो यह बख्शा है।उसी की तो देन है यह,उसकी देन क्यों नकारोगे,इसलिए बचा फेंक दो।उनके लिए उसमें परमात्मा तो है नहीं।वह तो कहीं ऊपर बैठा हुआ है जो बाद में जन्नत भेजेगा।परमात्मा,ईश्वर,परम् चेतना उस सर्वशक्तिमान,सद, चित,आनन्द के लिए 'ऊपर-वाला,शब्द ही दसवीं शताब्दी में इस्लाम के साथ भारत आया।उससे पहले के किसी भी पुस्तक,विचार,सम्प्रदाय में ईश्वर के लिए ऊपर वाला शब्द न पाएंगे।उनके अनुसार वह कही ऊपर बैठा हुआ है जो कयामत की रात(डे आफ जजमेंट) को आएगा।फिर केवल ईमान,लाने वालो या फिर ईशू की भेंड़ो को स्वर्ग भेजेगा।दोनों सामी सम्प्रदायो ने अपने को भेजने पर बल दिया है।फिर तब तक सब कुछ खाना-पीना-मौज-मस्ती और क्या।इसी लिए तो बख्शी गई है न यह दुनियां।इस भाव ने भारत में रईस,अमीर, अय्याश,बादशाह नामक एक भयावह भोगी आइडियल चीज खड़ी कर दी।इस्लाम अपने साथ इर्द गिर्द अधिकाधिक संपत्तियां,खाने-पीने की वस्तुओं,अमीरी दिखावे का भाव,जबर्दस्ती का प्रदर्शन लेकर आया।इसने समाज में भोजन का,खान-पान की सामग्री का अपमान करना शुरू किया।यहां तो एक ऐसा लुटा-पिटा समाज भी खड़ा हो गया जिसके पास भरपेट खाने को भी नहीं था।वह अपना पेट भरने को लालायित था और एक दूसरा समाज राजसी ठाट बाट से रह रहा था।फेंक रहा था इसने जड़े जमा ली।

वह सामी संस्कृति तो पूर्णतया मेटेरियलिस्टिक है।चेतनता के प्रति इमोशन,भावनाएं तो उसी समय खत्म कर दी जाती हैं।जब कोई एक छोटा प्यारा कोमल सा बच्चा घर में साल दो साल पाला,सालो उसे गोद में खिलाते रहे,दुलारा,पुचकार,उसके साथ खेलना भावनात्मक रूप में जुड़े और एक दिन उसे धीरे धीरे,रेतते हुए उसे जबह किया।केवल मार ही नही दिया बल्कि खा भी गये।मन और भावनाये तो खुद-ब-खुद कठोर हो जाएंगी, निष्ठुर हो जाएंगी।यह भाव उसे परम्-आद्यात्म को महसूस ही नही करने देगा।वह उनके दिमाग, मन को मैटीरियल में कैद करके रख देता है।चेतना की उड़ान ही नही भरने देता।नितांत भौतिकवादी है जो परमात्मा को भी एक उस सामने दिखने वाली चर्म-चक्षु से उपभोग करने वाली चीज समझती है।एक जाने कैसी जन्नत की कल्पना किए बैठे हैं वहां भी यहीं इस भौतिक जगत की चीजें ही मिलेंगी।वे चेतना जगत,अनुभूतियों के अनंत विस्तार तक कल्पना भी नही कर पाए।मैं(अहं) का अनन्त में विलीनीकरण उनकी समझ से ही परे की बात थी।ऊपर से सोच यह कि इस जगत में एक बार ही आया है।इस देह के बाद उसे फिर नहीं आना है।एक सम्प्रदाय का अनुकरण करके सब कुछ मिल जाना है। दीने-इलाही पर ईमान लाने मात्र से पाप-कर्मो से भी छुटकारा मिल जाएगा।इस एक लाइन ने और गर्त में डाल दिया।जिस जगह पर फिर नहीं आना है उसके लिए जिम्मेदारी का भाव कहां से आएगा।जब पुनर्जन्म ही नहीं होना है।मृत्यु के बाद कयामत तक गड़े इन्तजार करना है  तो फिर इस धरा, प्रकृति की रक्षा की बात कहां से आएगी। वह तो सब ज्यादा से ज्यादा भोग लेना चाहेगा।ऊपर भी उसे यही सब मिलेगा जो यहां है।72 हूरें,शहद की नदियां,बढ़िया शराब की नदियां, तमाम तरह के भौतिक सुख उसे मिलेंगे इसी कल्पना में खोया हुआ धरती की प्रकृति नष्ट कर डालना चाहता है।उसे बड़े-बड़े बम फोड़ने से क्या फरक पड़ जाएगा,जब वहां रिजर्वेशन है।इसे ही वह आध्यात्मिकता समझता है।इसी को आध्यात्मिकता चरम समझता है।जब लक्ष्य ही भोग है तो इस सुंदर धरती की सुरक्षा क्यों करेगा।इस धरती,पर्यावरण आदि के चीजों के अनंतकाल की कल्पना वह क्यों करेगा?

मूलतः सोच का अंतर है।लस्सी के अंतिम कण भी धुल कर पीते हैं।यह राष्ट्र रक्षा करता है,यह हिंदू संस्कृति की ही रक्षा नही करता है पुरे पर्यावरण और धरती के लिए आवश्यक है।त्येन त्यक्तेन भुंजीथा,यानी त्याग पूर्वक उपभोग करो,क्योकि "ईशावास्यमिदम सर्वम जगत्येंन जगत्याम जगत,।उस परमात्मा का वास इस जगत के एक-एक कण में है।अन्न-जल का सम्मान करिए,जीवो पर दया करिये,पर्यावरण-प्रकृति को बचाइए यही हिंदुत्व है।इसे जगाइये यही मानवत्व का विश्वास जगायेगा।

हिन्दू जगे तो विश्व जगेगा मानव का विश्वास जगेगा।

साभार
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Friday 3 March 2017

ऋग्वेद के 'गांव' और 'मौञ्जा' तथा भारत राष्ट्र का निर्माण

ऋग्वेद के 'गांव' और 'मौञ्जा' तथा भारत राष्ट्र का निर्माण
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भारत गांवों से मिलकर बनता है, प्रश्न है ये गांव कैसे, कब और किसने बनाये होंगे, JNU के कम पढे लिखे प्राध्यापक कैसे जान पायेंगे गांवो की संस्कृति के बारे मे. भारत के गांव बने है, जब कृषि प्रारंभ हो गयी थी, गायों को पाला जाने लगा था, और वैदिक संस्कृति का विकास होने लगा था,

गंगा और सोन नदी के मध्यवर्ती क्षेत्र में मिलने वाले पुरातात्विक साक्ष्य के आधार पर कहा जा सकता है कि आजमगढ, प्रतापगढ, बनारस, इलाहाबद से लेकर समीपवर्ती मध्यप्रदेश के सीधी क्षेत्र मे ८४०० ईसा पूर्व तक बस्तियां बसने लगी थी और लोग कृषि करने लगे थे, सीधी जो कि घना आदिवासी क्षेत्र है, मे ही देवी पूजा का विश्व में सबसे प्राचीन पुरातात्विक साक्ष्य मिला है उसे भी ७००० ईसा पूर्व से लेकर ८००० ईसा पूर्व के मध्य का पाया गया है.

इसी मातृ देवी की अर्चना ऋग्वेद के वाक सूक्त (१०.१२५) मे की गयी है और तब से ( ७००० ईसा पुर्व - ८००० ईसा पूर्व) आज तक मा के रूप मे देवी पूजा भारत मे चलती रही है, ऋग्वेद मे यही देवी स्वयं को राष्ट्र की शक्ति एवं राष्ट्र भाषा के रूप मे व्यक्त  करती है.

अ॒हं राष्ट्री॑ सं॒गम॑नी॒ वसू॑नां चिकि॒तुषी॑ प्रथ॒मा य॒ज्ञिया॑नाम् ।
तां मा॑ दे॒वा व्य॑दधुः पुरु॒त्रा भूरि॑स्थात्रां॒ भूर्या॑वे॒शय॑न्तीम् ॥ (ऋग्वेद, १०.१२५.३)

भोजपुरी और बिहारी बोलियो मे जो महाप्राण या महाघोष वर्ण है (ट, ठ, ड, ण इत्यादि) , वे ही वेदो मे हैं, जबकि ये वर्ण यूराल पर्वत या तुर्की या सीरिया की भाषाओ मे नही मिलते है , साफ़ है वैदिक संस्कृति के निर्माता, मूलतः भारत के किसान हैं.

जो लोग भारत के दूर दराज के गांवों से आकर दिल्ली में रहते है, वे जानते है गांवों के समूह (cluster) को 'मौञ्जा' कहा जाता है, और यह लोक परंपरा ऋग्वेद के समय से भारत मे चली आ रही है. और इसी ऋग्वेदकालीन शुद्ध भारतीय संस्कृति के बारे मे, जे एन यू के जाहिल ( वितंडा वादी) प्राध्यापक कुछ नही जानते.

पहले गाय और गांव को देखते है, नीचे दिये हुये मंत्र मे ग्रामीण भारत की एक झांकी दी हुई है,

ऋषि वार्ष्टिहव्य का भाव यह है कि जिस तरह गायें ( चारागाह इत्यादि से ) चल कर गांव को प्राप्त करती है (आती है), युद्ध को जाने वाला योद्धा अश्व या घोडे को प्राप्त करता है, बछडे को मन से पिलाने वाली गाय का दूध और पत्नी को उसका प्रिय पति, उसी प्रकार सविता इस विश्व को धारण करते हैं या प्राप्त होते है.

गाव॑ इव॒ ग्रामं॒ यूयु॑धिरि॒वाश्वा॑न्वा॒श्रेव॑ व॒त्सं सु॒मना॒ दुहा॑ना ,
पति॑रिव जा॒याम॒भि नो॒ न्ये॑तु ध॒र्ता दि॒वः स॑वि॒ता वि॒श्ववा॑रः (ऋग्वेद १.१४९.४)

gāva iva grāmaṁ yūyudhir ivāśvān vāśreva vatsaṁ sumanā duhānā,
patir iva jāyām abhi no ny etu dhartā divaḥ savitā viśvavāraḥ

अब 'मौञ्जा' को देखते हैं,

राजकपूर की फ़िल्मो मे परदेशी या फ़िर परदेश से लौटने वाला किसान अक्सर 'मौञ्जा' कहते हुये,अपना पता बताता हुआ पाया जाता है, राजकपूर भले ही न जानते हों कि शब्द का स्त्रोत ऋग्वेद है, लेकिन वे गांव और किसान का संबंध अवश्य ही जानते थे.

ऋग्वेद के समय मे जब फ़ैली हुई 'मूञ्ज' घास गाव की पह्चान बनाती थी तब 'मौञ्जा' शब्द का निर्माण हुआ , जिसे ऋषि 'अगस्त्य मैत्रावरुणि' ने ऋग्वेद के एक के दुसरे मंत्र मे प्रयुक्त किया है.गांव और मौजा भारतीय सभ्यता, संस्कृति की मूल ईकाई है, और जैसा कि हम देखते हैं, ऋग्वेद की संस्कृत के मूल शब्दों से गांव और मौजा इत्यादि निकलते हैं तथा इनसे कोई इतर कोई अन्य शब्द भारत की अपनी आम भाषा या बोलियों मे नही है, तो इससे सिद्ध होता है कि वेदिक संस्कृति के निर्माता इन्ही 'गांव' और 'मौञ्जा' मे बसने वाले हमारे पूर्वज ही थे.

श॒रास॒: कुश॑रासो द॒र्भास॑: सै॒र्या उ॒त, मौ॒ञ्जा अ॒दृष्टा॑ वैरि॒णाः सर्वे॑ सा॒कं न्य॑लिप्सत (ऋग्वेद १.१९१.०३)
śarāsaḥ kuśarāso darbhāsaḥ sairyā uta, mauñjā adṛṣṭā vairiṇāḥ sarve sākaṁ ny alipsata

सीरिया, तुर्की या यूराल पर्वत से आये हुये तथाकथित विदेशी आर्य नही थे, वे यहा के, इसी राष्ट्र की मिट्टी में जन्म लिये हुये भारत की संस्कृति के निर्माता हैं, नही तो ऋग्वेद के गाव और 'मौञ्जा' से मिलकर, आज का भारत न बनता. अफ़्रीका, चीन या फ़िर किसी अलग भाषा एवं संस्कृति के अनुरूप 'गांव' इत्यादि बनते, जैसा है नहीं.

ऋग्वेद के ही एक और मंत्र मे ऋषि 'अगस्त्य मैत्रावरुणि' ने अगली पीढी के विद्वानों को सीख दी गयी है -

"विद्वान वे हैं, जो बहते हुई नदियो के जल और उसके तट, दोनो को सूक्ष्मता से देखते है", अर्थात एकपक्षीय दृष्टि नही रखते हैं.

स वि॒द्वाँ उ॒भयं॑ चष्टे अ॒न्तर्बृह॒स्पति॒स्तर॒ आप॑श्च॒ गृध्र॑: (ऋग्वेद, १.१९०.०२)
sa vidvām̐ ubhayaṁ caṣṭe antar bṛhaspatis tara āpaś ca gṛdhra

स्पष्ट है, राष्ट्र की भावना भी इसी मिट्टी की सुगंध से निकली और चारों तरफ़ से फ़ैली, वैदिक युग मे ही भारत राष्ट्र बन चुका था, वामपंथ न कि राष्ट्रवाद विदेशी विचारधारा है वामपंथ धोखा देकर शोषण करता है, तिब्बत मे चीन जो करता है, वो दुनिया देखती रहती है, लेकिन मुह बंद रखती है

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संघ की रूढिवादिता एवं एवं इसमे शामिल दूसरी पीढी के लोगो की राजनैतिक क्लाबाजी की प्रवृत्ति की वजह से उसके लोगो में राष्ट्र के प्रति समर्पण एवं दायित्वबोध का अभाव है, आज संघ समर्थक लोग हर महत्वपूर्ण संस्थानों मे जमे बैठे है, लेकिन कांग्रेस द्वारा पैदा की गयी समस्याओ को सुलझाने के बजाय वे मौज करने मे लगे हैं, राष्ट्रवाद एवं देशभक्ति का युद्ध आम जनता लड रही है, जिन पर इस लडाई का दायित्व है वे ३५०० करोड उपभोग कर चुके हैं एवं ३ पृष्ठ का लेख तक न लिख सके

साभार https://m.facebook.com/groups/241741922903017?view=permalink&id=249017815508761

असल हथियारो के गिरोह

असल हथियारो के गिरोह।

february 28, 2017 by पवन त्रिपाठी, posted in 'साहेब,

आप के खून मे चार कंपोज़ीशन होते है।आरबीसी,डब्ल्यूबीसी,प्लाज्मा,प्लेटलेट्स,उसमे एक भी घटा या बढ़ा तो आप बीमार है।2014 के दिसंबर मे 28 दिसंबर की रात एएलएल से पीड़ित मेरे भाई की की टीएलसी घट गयी।यह ब्लड कैंसर के मरीजों के साथ अक्सर होता रहता है।उसे तत्काल निपोजिन इंजेक्शन देना होता है।जिससे इलाज़ जारी रह सके।हम परेशान।पूरी रात लखनऊ शहर में ‘निपोजिन,खोजते रहे।नही मिली।यह दवाई कुछ ही कम्पनियां बना पाती हैं।वही बेचती भी है।बाद में दुसरे नाम से वह दवा कई गुने की रेट से मिली 4 सौ 25 रूपये की दवा पूरे 5 हजार की!इस तरह की कई दवाईयां है जो हजारो की हैं और नित्य मरीजो को लेनी होती हैं।जैसा की सभी के साथ होता है खुद पर समस्याएं आयीं तब इस विषय पर गहन खोजबीन में जुटा।उस रात सिस्टम के माध्यम से लूट,खसोट,अमानवीयता और कमीनेपन के अदभुत तथ्य सामने आये।कई बार दवा शार्ट करके मनमाफिक मूल्य वसूला जाता है।सारी जीवन रक्षक दवाईयां 3 सौ से 7 सौ गुने दर पर बाजार में मुश्किल से ही मिलती है।और भी हजारो तरीके।

बहुत सारे दोस्तों से बात करके देश के लगभग सभी शहरों में यही हाल पता चला।इसपर शोध करना वाकई मेहनत,रिस्क और दृष्टि होने का काम था।इसमें क़ानून और सरकार नाम की चीज़ बहुत निचले स्तर पर जा चुकी है।बिकुल ड्रकुला वाले हद तक वे पैसा निकालने के लिए आपका खून पीते है।दवा-कंपनिया बाजार में माल (दवा) कौन सा दे रही है यह जानने वाला कोई नही।दवा असली है की नकली है इसका कोई खबर लेने वाला भी नही।कौन -2 कंपनी किस तरह की दवा सप्लाई कर रही ये जानने वाला भी कोई नही है।किसी भी जिले के सीएमओ और ड्रग इस्पेक्टर मे आपस में तालमेल नही दिखा।डाक्टर,एम्आर,प्राइवेट हास्पिटल,दवा कम्पनियां,पैथालाजिकल सेंटर, आपस में मिलकर दुःख पीड़ित असहाय मरीज को लूटने में लगे हैं सरकार भी उसमे बराबर की भागीदार है।एक उदाहरण कैडिला नाम की एक दवा की कंपनी है जो खून का श्राव रोकने की दवा बनाती है।दवा का नाम है कैस्पर-सी! यह दवा बीते दो माह से बाजार में सप्लाई बंद है!हो सकता है कंपनी को नुकसान हो रहा है।लेकिन दवा की सप्लाई या उत्पादन बंद करने से पहले कंपनी को सरकार को इसकी सूचना देनी चाहिए थी।बहरहाल कंपनी ने यह कम नही किया. अब सवाल है खुदरा दवा विक्रेताओं का उनको दवा मिल नही रही है ज़रूरत मंदों को दें क्या? वो यहाँ वहाँ का रास्ता बता रहे हैं।लगभग दो महीने से जब विक्रेताओं को दवा नही मिल रही तो वो शिकायत किससे करें।कैस्पर – सी 2 महीने से बाजार से गायब है. और सरकार मरीज लाचार!ड्रग कंट्रोलर की भी कोई जिम्मेदारी होती है क्या?मैं रोज ही इस तरह की समस्याये देख रहा। जब खुद जूझ रहा हूँ,तब इस तरह के पीड़ितों पर ध्यान जाता है।क्या रोग-दुःख से पीड़ित कमजोरों,असहाय के श्राप का डर खत्म हो गया?

यह बात केवल दवा-दुकानों तक ही सीमित नही है।वह लूट व्यवस्था का रूप ले चुका है।जब आप पेट्रोल पंप पर तेल भरवा रहे होते हैं।आपको पता होता है की आप माप से कम तेल पा रहे है।फिर भी आप कुछ नही कर सकते।इसके लिए पूरा-पूरा एक विभाग है,जिसके जिम्मे आपके टैक्स के पैसे से तंख्वाह लेकर कम-तोल रोकने के रक्खा गया है।वह अपना काम नही करता बल्कि अपना हिस्सा लेकर चुपचाप आपको कम तेल खरीदने देता है,सीधे शब्दो मे कहिए वह आपके पैसे से दुतरफा लूटने के लिए है।यह केवल सौ मिलीलीटर का मामला नही है।यह लाखो लोगो से हजारो करोड रुपए मे बदल जाता है।यह केवल पेट्रोल तक सीमित नही है।वह समोसा,मिठाई खा रहे होते है,दूध खरीद रहे होते है आपको पक्की तौर पर मालूम होता है,नकली है,मिलावटी है आप क्या कर लेते है आपने इसके लिए टैक्स दिया ही है एक फूड-इंस्पेक्टर रखने के लिए,वह अपना काम किसलिए करता है।तनख़्वाह के अलावा एक बड़ी रकम उसे इकट्ठा करना होता है।आप उस मिलावट की कीमत दुतरफा चुका रहे है।सड़क के जाम किसकी वजह से लगे होते है कभी ध्यान दीजिएगा।ओवरलोडेड वाहन कौन चेक करता है,घटिया-पुराने पब्लिक-वैहिकल्स को कौन सवारिया ढुलवाता है,कौन 7 सीटर परमिशन के बावजूद उन वाहनो मे भूसे की तरह 14-15 सवारिया ठुसवाता है।यह केवल एक विभाग का मामला नही है।पूरे सिस्टम का मामला है।प्रशासन,बिजली-पानी और घर के अंदर की बातो को तो छोड़ ही दीजिये जैसे ही बाहर निकलते है।यह प्रदूषित हवा रोकने के लिए भी एक विभाग मौजूद है।वह क्या करता है खुद सर्च करिए।कहीं भी सावधानी से नजर दौड़एंगे आपको मोटी-मोटी रकमे दौड़टी-तैरती नजर आएंगी।तेल,दाना-पानी,बिजली,टैक्स,सुरक्षा,शिक्षा,दीक्षा,जमीन,सड्क,आसमान,पुलिसिंग,न्याय,हवा,पानी जहां तक नजर दौड़ाएंगे सब तरफ से सरकारी मशीनरी मौजूद है,उसका नियंत्रण है पर वह उसे नियंत्रण का बेजा लाभ उठा रही है।बड़े बाबू से बच पाना मुश्किल है।बड़े बाबू की निष्ठाएं व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षा और घनघोर आर्थिक स्वार्थ में निहित है।

ऊपर तक पहुँचते-पहुँचते यह छोटी-छोटी राशिया कई हजार करोड़ की मुद्रा पर पहुँच जाता है।यह इतना बड़ा आंकड़ा है कि साधारण व्यक्ति उसकी कल्पना भी नही कर सकता है।उस भ्रष्टाचार/कदाचार से एक बड़ी अवैध मशीनरी भी डेवलप हो रही होती है।उसने इन सत्तर सालो मे अपनी गहरी जड़े जमा ली है।इन सालो मे पली-बढ़ी अवैध मशीनरी खुद मे ही एक ताकत बन चुकी है।ऊपर जाकर यह लाबिस्ट के रूप मे विकसित हो गया है।पोलिटकल साइंस का एक गज़ब सा सिद्धांत है पैसा अंत मे राजनीतिक नियंत्रण हासिल कर ही लेता है।प्रजातांत्रिक भारत की बेसिक समस्या का यह है कि मशीनरी का सेल्फ नियंत्रण है।चूकी मशीनरी की आदते,आचरण,कार्यव्यवहार स्वयंभू बनाई जा चुकी है इसलिए कोई भी पवित्र-ईमानदार-सोच वाली सरकार इसको कंट्रोल न कर सकेगी।जैसे ही उन्हे प्रतिकूलता दिखेगी वे या तो निष्क्रिय हो जाएँगे,और कुछ दिनो बाद उस सरकार के नुमाइन्दो मे ही चारित्रिक बदलाव करने की कोशिश करेंगे,उन्हे भ्रष्ट या फिर सुविधाभोगी मे बदल देंगे या फिर असन्तोष का जनमत तैयार करने मे लग जाएंगे।

असल मे लंबे समय की लोकतान्त्रिक वेश की राजशाही ने एक हथियार के तौर पर इस लाल फ़ीताशाही का विकास किया जिससे की कभी भी ‘बहुमत खोने की कंडीशण्ड,मे इस मशीनरी का इस्तेमाल कर सके।यानी राजवंश के अलावा कोई भी सरकार आएगी तो विपक्ष का आटोमेटिक रोल इस वर्ग के हाथ मे होगा।मतलब साफ है उनकी सत्ता कभी नही जाती।दिल्ली-मुंबई और सभी प्रदशों की राजधानियों में तरह-तरह की ताकतवर लाबियां सक्रिय है।इनमे पत्रकार,राजनीतिक,उद्योगपतियों,कानूनचियों,के साथ साथ अपराधियों का मिलाजुला सिंडिकेट गत 70 सालो में विकसित हो गया है।साहित्यकारी,मीडिया,लेखक,सिनेमा,कलाकारिता और एजूकेशन तो जनमत निर्माण के साधन मात्र हैं।जिनकी खाएंगे उनकी गाएंगे।गिरोह के अनुसार ही नीतियाँ बनती-बिगडती हैं।अमूमन वे कामर्शियल आवश्यकताओ पर मोनोपोली बनाने मे कामयाब रहे है।अधिकतर कारोबारों पर 2014 के जून तक उनके एकाधिकार थे।वे व्युरोक्रेसी और राजनीतिक पकड़ के दम पर वाणिज्यिक-पालिसियों अपने हितो के लिहाज से बनवा लेते थे।कुछ कामन छोडकर व्यक्ति सत्ता के अनुसार जुड़ते,बनते,घटते,बढ़ते रहते हैं।उन कामन नामो पर गौर कीजिये।सारी बात समझ मे आ जाएगी।उनका एक स्वाभाविक नेटवर्क भी देश भर में स्थापित हो गया है।सरकार किसी की भी बने सत्ता इन लाबीस्टो के पास ही रहती है।पैसा कमाने वालों को पता है बड़ी रकम कैसे कंट्रोल की जाती है।वह पार्टियों एवं संगठनों पर सहज ही पकड़ बना लेते हैं।जैसे ही नई सत्ता बनती है समीकरण के अनुसार नये लोग भर्ती हो जाते हैं या पकड लिए जाते है।कई नौकरशाहों वकीलों,जजों,पत्रकारों,राजनीतिकों, आदि की चार पीढियों की आय के अनुसार सम्पत्ति पता कर लीजिये सब कुछ पता लग जाएगा।स्रोत और लाबी की ताकत पता लग जायेगी।कोई लाख भरमाये पर सच्चाई यही है।

मैं ने कई विद्यमित्रों के साथ इन लाबिस्टो का अध्ययन किया है।यह एक जोखिम भरा लेकिन एडवंचरस काम रहा।सालाना नियंत्रण इतनी बड़ी रकम पर है कि आँखे चुधिया जाएँ।इन आंकड़ो का वार्षिक बजट या अनुदान से कोई मात्रात्मक सम्बन्ध नही है।किन्तु यह ध्यान देंने योग्य महत्वपूर्ण तथ्य हैं।वामी,सामी,कामियों के अलावा भी देश की एक स्वार्थी शत्रु कौम है जान लीजिए।1-पेट्रोल लाबी,2-सेना-सप्लाय लाबी,3-दवा लाबी,4-खाद्य लाबी,5-रेल लाबी,6-उद्योग नीति निर्धारण लाबी,7-विदेश व्यापार नीती लाबी,8-कृषि लाबी,9-इधर के 15 वर्षो में एक नई लाबी भी पनपी है शिक्षा लाबी,10-टेली उद्योग यानी आईटी लाबी,खनिज लाबी,12-टैक्स कारोबार-भारत में टैक्स चोरी करवाना सबसे बड़े कारोबार के रूप में स्थापित है।बैकिंग लाबी को हमने जान बूझ कर छोड़ दिया है।क्योंकी वह अंतहीन है।उसकी मारक क्षमता कहां तक है इसका अंदाजा सरकार ही लगा सकती है।अन्य छोटे-मोटे गिरोह बाजो को हमने देखने की भी जरूरत नही समझी है वह तो हर साल बनते बिगड़ते रहते हैं।प्रत्येक लाबी के कुछ अघोषित नियम है।उन नियमों पर काम करने की जरूरत है। यदि नियम समझ में आ गये तो जल्द ही आप भी लाभ में होंगे।राज्यों मे तो एक सशक्त ट्रांसफर-पोस्टिंग लाबी भी मौजूद होती है।आप चाहे तो स्टेट लेबिल भी इन लाबियो की सूची बना सकते है।यह कुछ फिक्स से लोग होते है,व्युरोक्रेट,बाबुओ के सहारे इनको काम कराने मे महारत होता है।

कभी आपने सोचा है की देश के कार्पोरेट-कारोबारी-आर्थिक-अपराधी भगोड़े होते वे लन्दन जाकर ही क्यो रुकते है?उन्हे वहाँ से हम ला नही पाते।लिस्ट बनाए 1947 से आज तक की 5 सौ से अधिक की सूची है।खैर छोड़िए यह आप खुद करिएगा।कुछ साल पहले माल्या ने गांधी-नेहरू से जुड़े कुछ अत्यंत गोपनीय पत्र और दस्तावेज ब्रिटेन में नीलामी में खरीदे थे।आज तक वह बाहर नही आया…किसी ने वे पत्र अभी तक नही पढ़े।मामला इतना छोटा भी नहीं है।इसके बाद एक मोटा लोन दिया गया।टीपू की तलवार खरीद तो “अगाही,यानी इमेज-बिल्डिंग गेम थी।राष्ट्रवादी उनसे पार नही पा सकते।70 साल का अनुभव है।इतने सालो से ऐसे सैकड़ो अमीर तैयार किए गए थे।इस सबके माहिर हैं,।उन धूर्तों से नये-नये सत्ताधरी कुछ सीख ही नही पा रहे।संभव है कुछ लोग सीख भी गए हो।कम्युनिष्ट हमेशा मालदारो का ही खाते/गाते है।फिर माहौल बनाने में लग जाते हैं।आख़िर वह माल-मौज बंद होने का कुछ असर पड़ेगा की नही?वे एक इंच काम न करने देंगे।विकास की कीमत उनके मालिको को चुकानी पड़ती
है न! मालिकों को,जिनके टुकड़े पर इतने दिन से पल रहे थे।मालिको का दर्द देखा भी नही जाता।फिर वे लिखेंगे,बोलेंगे,प्रचार करेंगे और जान लड़ा देंगे।तुम्हे बेदखल करने के लिए…आख़िर मौज-मौस्ती और माले-मुफ़्त का मामला है भाई।इसके सत्ता में रहने से बड़ा ख़तरा रहता है।लोग पढ़-लिख लेते हैं,संचार का उपयोग करते हैं सोशल मीडिया का उपयोग करने लगते हैं और “इनकी मोनोपोली, टूटने लगती है।एनजीओ,पुरश्कार,विदेशयात्रा,पालिसी बनवा कर धंधे पर कब्जा,दलाली…और काम करवाने का कमीशन।कहाँ हो रहा विकास जब हिस्सवे नही मिल रहा!
  गहराई से पढिए,मूलतया इस दुनियाँ को कम्यूनिज़्म विचारधारा इंग्लैंड के चतुर-सुजान शासको-विचारको ने पैदा करके दिया है पूरी सोची समझी मंशा के साथ उसे अपने सारे कालोनियों में स्थापित किया है।यह 82 डोमिनियन देशो के आजादी के पीछे का बेस-गेम था।मूल खिलाड़ी तो एंजेल्स मियां थे यह एक बड़े सचिव के बेटे थे,मार्क्स का नाम तो एक मुखौटे के तौर पर स्थापित किया गया था।बिलकुल नेहरू के लेखन की भांति।खुद ही समझिए।

गलतफहमी न रखे।वंश और लाबियो का कुछ न बिगडेगा।उसकी “जड़े, हमारी आप की कल्पनाओं से कई हजार गुना ज्यादा गहरी हैं।पांच सौ से अधिक “कारपोरल घरानों,, का सारा पैसा इसी में से निकला हैं।यानी अभी भी देश का 76 प्रतिशत पैसा कट्रोल करते थे।नोटबंदी के बाद वह घटकर 66 प्रतिशत पर आया है।माल्या, ललित मोदी,चड्ढा,बोफोर्स,दलाली,हिंदुजा,पाठक,धरन,बेदी,क्वाट्रोच्ची(हजारो नाम है) कभी इण्डिया में थे ही नही।
कनग्रेसियन मनोवृत्ति उनको वकालत,पत्रकारिता,छोटे बिजनेस,अफ़सरी आदि का पेशा छोड़वा के पहले कमीशन,दलाली और रिश्वत आदि लूट का पैसा सम्भालने के लिए तमाम-देशो-विदेशो मे में रखवा/बसा दिए गए थे।सन 55 से ही दुनिया के अधिकाँश देशो में वंश का पैसा सम्भालने वाले वफादार बसाए गये हैं।उन्ही में चड्ढ़ा इत्यादि फैमिली भी थी।यह लोग बस्ती जैसे छोटे जिले से जाकर यूरोप में बसाए गये थे।बहुत सारे देशों में देशी-विदेशी ‘डागी,(टामी,)”फैमिलिया,, दुनिया भर में बंश का कारोबार सम्भालती हैं।वे “आर्थिक हितों के समूह,, रूप में काम करती हैं।पुनर्स्थापना के लिए सब कुछ करेंगी।सब कुछ का स्पष्ट मतलब है ‘सब कुछ,.जिसमे राष्ट्र-वादियो का पूरी तरह “जीनोसाइट,(समूल नाश) भी आता है।पैसा यानी असली ताकत…!!अउर का???
आपको एक बात पता है वंशवादी पार्टी की सदस्यता कब से नहीं हुई है???तो पता करिये बाप।

इन 70 सालों में जब अन्य संगठन “कार्यकर्ता निर्माण, और राष्ट्रवादी तैयार करने के लिए जान खपा रहे थे तब ‘वंश,पूरी स्थायित्व की रणनीति के साथ शिक्षा,सिनेमा,मीडिया,साहित्य,एनजीओ,बड़े कारपोरल और ओपिनियन मेकर वर्ग तैयार कर रहा था।यही उनके कार्यकर्ता है।आर्थिक -हितो की नाभि-नाल आपस मे जुड़े हुये है।उन्होंने लिमिटेड रखा।काहें को ज्यादा लोगों से सत्ता में हिस्सा बंटाना!!!ज्यादा लोग यानी कंट्रोल कम और जिम्मेदारी ज्यादा।फिर का पता कौन पगला जाए!इन वर्षों में उन्होंने राष्ट्र और समाज का “बेसिक वैचारिक अधिष्ठान,ही कन्फ्यूज कर दिया है।बहुत ताकत है उसके पास।सारी दुनिया में यह ताकत फैली है।देश का “स्वारथी शक्तिशाली समाजऔर उनकी ताकत का सारा स्रोत ‘वंश,के बने रहने में ही है।उनका सारा हित मूर्ख-वंश के सत्ता में बने रहने में ही है।लोकतंत्र की मूर्खताओ का लाभ उठाना इस वर्ग को अच्छी तरह आता है।कई देशों का आर्थिक लाभ इसी में है कि वंश सत्ता में रहे।

जब मोदी या अन्य कोई देशभक्त उनके धनागम के स्रोतो पर अटैक करता है तो वे मिल कर मुकाबला करते हैं मीडियेटिक वार करके.समाज में गलत-फहमिया पैदा करके,आपसी संघर्ष कराके वंश को फिर से स्थापित करते है।उन्हें येन-केन प्रकारेण ‘वंश,सत्ता में चाहिए।इसका “मतलब,खून के कतरे-कतरे से समझिये।
वे आतंकवाद से लेकर 35-50 हजार करोड़ जलवा सकते है#जाट आन्दोलन।हिन्दू रक्षक सिखों को दुश्मन बना सकते है।तमिल आन्दोलन खडा करके सबको मरवा भी सकते हैं।वे कोई अकेले नहीं है।हजारों लाख करोड़ की धनराशियाँ विभिन्न देशो में रखी हुई है।इसका सबूत है।पिछले सरकार ने तीन बिलियन डॉलर यानी कि रुपये 200966850000.00 अमेरिका में एक बैक खाते में डाले थे जिसका कोई दावेदार नहीं था|उन कंपनियों को भी भुगतान कर दिया गया था जिन्होंने न तो कभी कोई पूर्ति (Supply) किया और न ही उत्तर दिया | ये सारे पैसे रक्षा मंत्री मनोहर परिक्कर के अगुवाई में अमेरिका में पकड़ा गया है|रक्षा मंत्रालय ने अब इन पैसों को उपयोग करके बहुत सारा विदेशी मुद्रा बचा लिया है| प्रश्न यह है कि क्या इन पैसों को जानबूझकर फर्जी खाते (Forgotten Account) में डाल दिया गया क्या ? जिससे इन पैसों को किसी विशेष समय पर हस्तांतरण (Transfer) करके कोई हड़प लेना चाहता था?

नोटबंदी से उनके रीढ़ पर वार हुआ है अब वे एक मापन पर आ गये है।परंतु इतनी बड़ी सरकारी मशीनरी का क्या कर लेंगे?फिलहाल तो कई मिडिया घरानों,कारपोरलो,पत्रकारों,नेताओं का सब कुछ दांव पर है।इन्होने हरेक चीज,प्रत्येक धंधे को अपने अनुसार पालिसी/नीतिया बनवा कर खरबों का मुनाफा कमाया है वह भी घर बैठे।अब छटपटा रहे,घिघिया रहे क्योकि सारी मोदी सारी नीतिया जनता और राष्ट्रहित को ध्यान में रख कर बना रहे और उस पर सावधानी से नियंत्रण भी रखे हैं।उनका खून गुजराती है जो पैसे का फ्लो पहचानत़ा है दिल,दिमाग संस्कार से स्वयमसेवक हैं जिसे भारतमाता को परमवैभव पर ले जाना है।अब द्ल्लाली करके हथियार नही खरीदवा पाते।अब कंपनियों के नाम पर कौड़ियों के मोल जमीने भी नही कब्जा पाते।न ही फ्री-फंड के कोयले खनिज के सौदे का हिस्सा मिल पाता है। ऊपर से फर्जी एनजीओ का धंधा भी बंद कर दिया है।सरकारी पैसे से गैर सरकारी तरह का मौज भी वह बीएनडी कर चुका है।ठेके,कोटे,ट्रांसफर सब गया।मोदी से पाला पड़ा है और उससे कोई लिंक भी नही मिल रहा।एक दिन लाबिस्ट भी लाइन पर हो ही जायेंगे।जड़ साफ़ हो रहा है कमीनेपन का पेड़ सूखेगा ही।यह एक बिजनेस था जो सालों में स्टैब्लिश हुआ था अब समापन पर है।

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