Monday, 27 February 2017

आक्रमण के हथियार बदल गए हैं-भाग-१९

हथियार बदल गये है-19 

  
   आरपी सिंह जी कई जगह डायरेक्टर रहे।कई संस्थानों के प्रधान के रूप में उन्होंने बहुत काम किया है।नामी-गिरामी आदमी थे।दोनों बेटे विदेश में बस गए।उन्हे मातृभूमि से बड़ा प्यार ठहरा।रिटायर होकर वह भारत-वर्ष के किसी शहर में बस गये।मैं यहां बनारस का नाम नही लेना चाहता।2008 में वह सपरिवार किसी सेमीनार में चेन्नई गए थे।वहां से रामेश्वरम निकल गए।हालांकि हवाई यात्रा थी फिर भी लौटते-लौटाते हफ्ता भर लग गया।लौटकर घर पहुंचे तो देखा घर का सारा सामान गायब।झाड़ू लग गया था।सोफा तक उठा ले गए थे।हकबकाये थाने पहुचे एफआईआर दर्ज कराने के लिए। नेताओं और बड़े अधिकारियों का सहारा लिया तब जाकर उनका केस पुलिस ने दर्ज किया।चोर को तो खैर पकड़ा भी नहीं जाना था, पकड़ा भी नहीं गया।बाद में उन्होंने अपने सारे सामान फिर से खरीदे और अब तो इस दुनिया से ही विदा हो गए हैं।आप कभी किसी थाने मे प्राथमिकी यानी एफआईआर दर्ज करवाने गए है?100 नंबर हमारे देश मे पुलिस का काल फोन नंबर है।

   भारत का इंटेरनेशनल आईएसडी कोड +91 है,यानी फोन डालने करने से पहले +91 लगाना होता है।हॉलीवुड फिल्मो में आपने देखा ही होगा 911 अमेरिकन पुलिस का डायल नम्बर है। मेरा एक दोस्त अमेरिका गया।वह वहाँ से अपनी मम्मी को काल कर रहा था।अचानक उसने देखा 3 मिनट बाद उसे तीनों ही पुलिस घेरे हुये थी।किसी तरह 50 डालर पेनाल्टी जमा करके बचे।हुआ यह था।नये गये हुए भारतीयों का सबका अमेरिकन पुलिस के डायल नम्बर से जरूर पड़ता है। यह नंबर कन्फ्यूज कर देता है।इंडिया के +91 डायल करने के चक्कर मे 1 एक बार ज्यादा दब गया।तुरंत काट भी दी।,इस बीच पुलिस ने लोकेशन ढूंढ ली,वे एक्सपर्ट होते हैं।कौन संकट मे है।कहा है।साथ मे फार-पुलिस भी एक मिनट बाद हाजिर।आगे की कहानी फिक्स सी है।फिल्मों मे भी आपने उनके यहा ऐसे सीन देखे होंगे।की पुलिस आते ही आई-कार्ड मांगती है।जैसे ही आप कार्ड देते है क्लिक के साथ आप का पूरा सिजरा उनके सामने हाजिर हो जाता है।नाम,पापा-मम्मी,भाई,पढाई,उपलब्धिया,कमाई,रिश्तेदार,यात्राए,चोरी-चकारी सब एक क्लिक पर हाजिर।आप यहा एफआईआर के लिए परेशान होते घूमते है।कभी सोचा है पिछले सत्तर-साल मे यह एक ही जगह क्यो नही इकट्ठा हो पाता।अगर धोखे से किसी रजिस्टर पर आपके बारे मे कुछ गलत चढ़ गया तो आपकी चट्टी घिस जाती है।मैं ने तो ऐसे किस्से भी सुने है कि कई रिश्तेदार पुश्तैनी जमीन अपने नाम चढ़वा लेते है फलाने को मरा दिखा कर और उस बिचारे की जिंदगी खुद को जिंदा साबित करने मे चली जाती है।

   घर की वायरिंग बड़ी कठिन समस्या बन सकती है।उसकी वायरिंग और तारों का पक्का डिजाइन और हिसाब किताब अपने पास मौजूद नही है तो आप रोज तनाव का शिकार होने वाले हैं।थोड़ा सा शार्ट-सर्किट पूरे घर को जला कर राख़ कर सकता है।रवि अग्रवाल साहब मेरे मित्र है।कुछ साल पहले मकान बनाया तो उस वक्त एक इलेक्ट्रीशियन पकड़ लिए।सस्ते के चक्कर में पूरे बिल्डिंग की वायरिंग उसी से करवा डाली।इन्होंने सोचा काम पूरा हुआ।कुछ दिनों बाद एक स्विच खराब।पहले खुद ठीक करने बैठे।हर आदमी छुट्टी के दिन अपने को मैकेनिक और इलेक्ट्रीशियन समझता है न।थोड़ी देर में पूरे घर की बिजली गायब हो गई।कुछ समझ में नही आया तो एक इलेक्ट्रीशियन पकड़ कर लाए,वह भी कुछ न समझा तो दूसरा,फिर तीसरा कोई कुछ नही कर पाया।अंत में पुराने वाले को ढूंढ कर लाये।बड़ी हुज्जत के बाद आया।उसने ठीक तो किया लेकिन थोड़ा और उलझा गया।कुछ दिन बाद फिर खराब।फिर उसे ही बुलाया गया।आये दिन समस्या,कभी फ्यूज गायब,तो कभी पंख,कभी सारे घर की लाइट उड़ी हुई।बार बार उसे ही खोजना पड़े।उसके तमाम नखरे। लखनऊ के सारे इलेक्ट्रीशियन बुला डाले कोई उसकी वायरिंग समझ न पाया।उसने पुराने इलेक्ट्रीशियन में इतना ज्यादा तारों जोड़-जाड रखे थे,झंखाड़ बना रखे थे कि नए वाले आते ही बोले साहब नए सिरे से करूंगा तभी कर पाऊंगा।किसी की मजाल क्या कि रतन लाल के किए हुए काम में थोड़ा भी सुधार कर सके। थोड़ी भी मरम्मत कर सकें।मजबूर होकर उन्ही को खोजना पड़ता,उनका रेट और काइयाँ पन बढ़ता जा रहा था।आखिरकार एक दिन तंग आकर उन्होंने फैसला किया कि पूरे घर की वायरिंग फिर से आर्कीटेक्ट डिजाइन बनवा कर कराई जाए।..और फिर वायरिंग कराई।तब से कह चैन से जी रहे है।कुछ खराब हुआ तो खुद ही या फिर किसी से भी ठीक करवा लेते हैं।आप क्या सोचते हैं वायरिंग छोटी समस्या है??
 
   अब थोड़ा दिमाग लगाएंगे तो माजरा समझ मे आयेगा।कोई भी जन-शुभेच्छु सरकार आजादी के तत्काल बाद, पहले काम के रूप में1947-51 के बीच भारत के सारे नागरिक आंकड़ो को एक ही स्टोर मे लाती।नागरिकता की स्थिति दुरुस्त करती।सभी भारतीयों को अमेरिका,यूरोप की भांति पहचान-पत्र जारी करके अधिकृत करती।पर नही किया।केवल संविधान में एक परिभाषा गढ़ के छोड़ दिया।जन्मा हो,पागल न हो आदि-आदि।कोई ट्रांसपैरेंसी नही।अब सबसे पहले आपको थोड़ी देर तक देश के बँटने के मुद्दे पर विचार करना चाहिए।लगभग दस मिनट।याद करिए दो-राष्ट्र वाद का मुद्दा।जिंन्ना का वह सैद्धान्तिक भाषण  ''हिंदुस्तान मे पाकिस्तान की नीव हजार साल पहले उसी दिन पड़ गई थी जिस दिन पहला हिन्दू मुसलमान बनाया गया।हिन्दू एक राष्ट्र है मुस्लिम एक अलग राष्ट्र।हम मुस्लिमो के लिए अलग पाकिस्तान ले कर रहेंगे,। उन्होने ले लिया।परवर्ती शासको ने नागरिक और नागरिकता के डाटा की स्थितिया क्यो अस्पष्ट रखी। इससे समझने की कोशिश करिए।बँटवारे के बाद एक ही विभाग मे पूरा विवरण रख करके केन्द्रित प्रणाली से नागरिकता की स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए थी।पर हाय रे सेखुलरिज़्म।घुसपैठ,भ्रष्टाचार और आर्थिक लेन-देन साफ तरीके से इकट्ठा करवाके नागरिकता की स्थितिया पूर्ण करनी चाहिए थी जिससे कि सटीक डाटा बटोर कर जन -हितकारी योजनाए और उनके प्रभाव पर काम किया जा सकता।देश की जनता का यह रिकार्ड सकारात्मक उपयोग के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण होता।परंतु जब यही आकडे किसी पराये देश मे मौजूद हो जाए तो यह आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक सुरक्षा की दृष्टि से घातक सिद्ध होता है।परंतु इसे हौच-पौच बनाए रखने मे कुछेक के सीधे-सीधे लाभ थे।कम से कम कुछ नेताओ के साथ व्युरोक्रेसी को तो थे ही।

   केवल मौलिक आंकड़े ही देख लीजिये,नागरिक रिकार्ड के।यूरोपियन देशो और अमेरिका मे एक क्लिक पर आपको एक व्यक्ति के बारे मे सम्पूर्ण सूचनाए ततत्काल मिल जाती है।किन्तु हमारे देश मे इसके लिए पिछले साल तक 45 अलग-अलग विभाग थे।आधार कार्ड योजना के सहारे एक डाटा-बेस बनाने की कोशीश जरूर हूई थी।पर भारतीय-संविधान मे इतने फ़चर है की किसी न किसी ऐक्ट से हर क्रिएटिव कार्य रोका जा सकता है।जनगणना विभाग,मतगणना विभाग,राजस्व विभाग,बैंकिंग,गैस-पेट्रोलियम,ट्रांसपोट-विभाग,शिक्षा,पुलिसिंग,नगर-निगम,ग्राम-पंचायत सब अलग-अलग अपने आंकड़ अपने पास इकट्ठा करते है।ऊपर से पासपोर्ट डिपार्टमेंट लाद दिया।सांख्यिकी,इन्कम-टैक्स,कोर्ट मे भी कुछ डाटा इकट्ठा होता है।लेकिन की क्लियर-कट इसका जबाब-देह जिम्मेदार कोई भी नही है।प्रति-वर्ष सारे खर्चे जोड़ लिए जाये तो केंद्र और प्रदेश सभी विभागो का मिलाकर 80 हजार करोड का खर्च सालाना टैक्स-पेयर्स पर पड़ता है,केवल डाटा कलेक्शन पर।अगर सब एक ही विंडो से कर दिया गया होता तो सुविधा-सुरक्षा के साथ व्यवस्थित भारत भी खड़ा हो जाता।शुरुआती लागत के बाद वह भी मात्र 6 हजार करोड़ सालाना के खर्च पर सिमट जाता यानी कुल बचत 72 हजार करोड़ सालाना हो जाती।विशेषज्ञयो का माने तो 145 मर्जो का एक जबरदस्त इलाज है।पर इससे वे खरबो-खरब  रुपए बाहर कैसे ले जा पाते?करोड़ो घुसपैठिए कैसे कैसे बुला पाते?जनता को बेवकूफ कैसे बना पाते?चलो विदेशी-शासक थे अंग्रेज़। उनको इस तरह की मूलभूत-ढांचे और आंकड़े की जरूरत नही थी।परंतु परवर्ती शासको ने यह क्यो किया? शोध और गहन जांच का मुद्दा है।कोई अनपढ़ भी नही मानेगा कि इस मौलिक आवश्यकता पर उनका ध्यान न गया हो।मैं सौ प्रतिशत दावे से ऐसा कह सकता हूँ उन्होने जानबूझ कर यह किया।बहुत सारे विभाग बनाकर आंकड़ो और नागरिक सूचनाओ को उलझा देना उसका उद्देश्य हो सकता है।

   आपकी सरकार के पास तो आपकी सारी इन्फारमेशन जो कि होनी चाहिए थी नही है।परंतु कोई है जो आप पर नजर रखे है,आपकी हरेक छोटी-छोटी गतिविधियो की भी,यहाँ तक कि खान-पान भी।सेटेलाइट से भी अन्य छोटे उपकरणो से भी।इसके दो पहलू हैं ध्यान से पढिए।आपकी सरकार के पास आपकी पूरी सूचना होना आपको अधिकार देता है किन्तु किसी बाहरी व्यक्ति,कंपनी या सरकार के पास समस्त गतिविधियो का पता होना आपको,खतरे मे रखता है,बाजार मे फेंक देता है।उपभोक्तावादी नेटवर्क मे बिलो सकता है,आपके राष्ट्रीय खाते की घटोत्तरी करता है,आपके समस्त विचारो-संस्कारो के समापन का कारण हो सकता है।नई दुनियाँ आपके प्राचीन गौरव की कीमत पड़ खड़ी हो जाती है।उनका उद्देश्य होता है आप पर नियंत्रण।नेट और सेटेलाइट के जमाने मे कुछ भी असंभव नही है।
 
  अक्तूबर 2008 मे हालीवुड से रिलीज़ हुई जान ग्लेन की फिल्म ईगल-आई,उनके लिए जबर्द्स्त-जबर्दस्त मूवी है जो फास्ट,थ्रिल,पसंद करते है।जिनके मन मे स्वतंत्रता-वाद को लेकर कोई संदेह नही है और व्यक्तिगत स्वतंत्रता मे जो गवर्नमेंट मशीनरी की दखलंदाज़ी के  खिलाफ है।इसी तरह नेट का इस्तेमाल आपके ही नही दुनियाँ के हर आदमी के ब्रेन को कंट्रोल कर सकता है इस पर ओलम्पस हैज फालेन फिल्म आई थी जिसने पिछले साल धमाल मचा दिया था।इंटरनेट और सोशल-इन्फैर्मेशान साइट और गवर्नमेंट मशीनरी को लेकर डाइ-हार्ट-4 भी बनी थी जो मुझे पसंद है।लंदन फालेन,व्हाइट हाउस डाउन,सेफ हाउस,पार्कर,ब्रोकेन सिटी,आफ्टर अर्थ,ब्लिट्ज, टू गन्स,सेफ, डाइ हार्ड-4, अ गुड डे टू डाई-हार्ड,एस्केप प्लान,रेड-2,स्निच,नवंबर मैंन जैसी फिल्मे इसी विषय पर बनी है।आप देखेंगे तो पूरा मजा भी आयेगा और सारी दुनिया को एक जाल-ट्रेप को समझने का नजरिया भी पनपेगा।

   वेस्टर्न व्यवस्थाओ की हम लाख बुराई करे किन्तु उनके लेखक इस-पर पूरी तरह ईमानदार होते है।शोषल मीडिया के खतरो और अमेरिकन मोनो-पोली पर खुद अमेरिका-यूरोप मे 2 हजार से अधिक पुस्तके पब्लिश हो चुकी है।एक से एक जर्नल,एक से एक शोध,एक से एक दार्शनिक विवेचन छ्प कर बेस्ट-सेलर बन रहे है।उनके इंस्टीट्यूट भी इस पर खूब अध्ययेन करवा रहे है।ये सब तो बड़ी बाते है मीडिया जैसे बोर-विषयो पर उनके नावेल आपको किसी सस्पेंस-थ्रिलर फिल्मों से भी ज्यादा गज़ब रोचकता से बेस्ट-सेलर हुये है।1996 मे ने जेफरी आर्चर का लिखा उपन्यास द फोर्ट एस्टेट पढ़ा था।वह मुझे राजीव श्राफ जी कही से खोज कर गिफ्ट दिया था।गजब की रोचकता से भरे मीडियाई काइयाँ-पन पर लिखा यह नवेल अंतिम पन्ने तक बांधे रहेगा।उसमे टाइम्स और स्टार(डेली-मिरर एंड सन)घराने के बिजनेस -संघर्ष को समाचारो की भाषा मे लिखा गया है।राबर्ट मैक्स-वेल और रूपर्ड-मर्डोक की यह लड़ाई पर आधारित है।जो विशुद्ध व्यापारिक-हितो की रणनीतिया जाहिर करता है।पर उपन्यास कही न कही सेकंड वर्ड-वार के बारे मे संकेत देता रहता है।कैसे करोड़ो लोगो को मरवा देती है,इस उपन्यास मे सेंसेसन स्टाइल मे लिखा है।1930 से 40 के मध्य मे हुई कई घटनाओ को सिलसिलेवार न्यूजी-सेंस से पेश किया है।इन दोनों के व्यापारिक संघर्ष कैसे सेकंड-वार मे बदल जाते है यह पढ़ना आपको विचित्र लगेगा। 2तीय विश्वयुद्द के 4 करोड़ लोगो के मारे जाने और दुनिया के बड़े हिस्से के बर्बादी से दोनों व्यापारिक मीडिया घराने एम्पायर के रूप मे उभरे।बाद मे इलेक्ट्रानिक-मीडिया का युग आने के बाद ही थोड़ा सा दरक सका है।खैर अखबार वाले क्या नही करा सकते।अब तो हर हाथ मे सोशल मीडिया है।
    सिडनी सेल्डन का बेस्ट लेड प्लानस,लैरी कालिन्स का 'फिफ़्फ़्थ हार्स-मेन,फैड्रिक फोर्सिथ का 'वेटेरन भी इसी तरह लिखी गई है जो आखिरी पन्ने तक बिजनेस दांव-पेंच मे उलझाकर दिमाग की सारी कस-बल निकाल देंगी।सब बेस्ट सेलर रही है।हिन्दी मे भी ज्ञान-पीठ अवार्ड-प्राप्त कम्युनिष्ट कूड़ा 'खबरे,नाम का उपन्यास हमने पढ़ा है।जिसे कामरेड सुभाष मुखोपाध्याय ने लिखा है।वह बरेली और आस-पास नक्सल-भड़काने की कोशिश मे लिखा गया क्म्युनिस्टी पैतरे जैसा लिखा गया है।बेचारी 5 सौ का आंकड़ा नही पार कर पाई वह भी लाइब्रेरी खरीद के सहारे।इसको पढ़ने के बाद मैं ने पत्रकारिता-विषय पर हिन्दी उपन्यासों को पढ़ना छोड़ दिया था।खैर!जाने दीजिये।सोशल मीडिया विषय पर उनके यहाँ धड़ा-धड़ पुस्तके आ रही है।द न्यू मीडिया मोनोपोली कुछ साल पहले यूरोप-अमेरिका मे बेस्टसेलर रही।बेन बग्डिकन की लिखी यह पुस्तक आपको एक नई दुनिया की साजिशों से परिचय कराती है,हालाकी झगड़े तो दिखाती है पर कुछ मुख्य टारगेट खूबसूरती से गायब भी  कर देती है।अमेज़न पर फ्री मे मिल जाएगी। इंस्टीट्यूट आफ नेटवर्क और शोशल मीडिया मोनोपोली अपर उनके यहा खूब शोध हो रहे है।अपनी प्राइवेसी को लेकर वे अच्छी तरह सचेत-सजग है।पर हमारी मुफ्तखोरी की आदत हमे आर्थिक-गुलामी की तरफ धकेल रही है।मत भूलिए की ईस्ट इंडिया कंपनी व्यापारी रूप मे आई थी।

   कभी आपने सोचा है यह फेसबुक,ट्विटर,लिंक्डइन,गूगल,व्हाट्सएप्स सोशल मीडिया,समस्त इन्टरनेट-जगत का नियंता,मालिक कौन है?उनकी अपनी पहचान,संस्कृति,रुचिया,सोच क्या है?वे खुद मे क्या है?हेड क्वार्टर कहा है,कौन चला रहा है?कभी आपने सोचा है।नही न!आपको याद होगा की पिछ्ले साल जनवरी मे फेसबुक ने देश के सारे नागरिकों के लिए मुफ्त इन्टरनेट की सुविधाओ का आफ़र दिया था।किन्तु सरकार ने मना कर दिया था।कई और कंपनियो ने यह आफर भारत को दिया था।कई अफ्रीकन व लैटिन अमेरिकन देशो मे वह फ्री-सुविधाए देते भी है।अब वहा के हालात पता करके आइये जरा।आपको थोड़ी मेहनत करनी होगी, नेट पर ही सर्च मारिए।

  वह इतनी सेवाए किस लिए आपको मुफ्त मे उपलब्ध कराये जा रहे है।कामर्शियल,कारोबारी,आर्थिक लाभ तो है ही विज्ञापन,आप विज्ञापन और बाजार के जाल मे तो है ही,इसके बारे  मे तो पढ़ा ही होगा।मैनेजमेंट और ई-कामर्स बुकों मे यह तो पढ़ा ही दिया जाता है।इसके अंत: लाभ,छिपे एजेंड जानेगे तो दिमाग हिल जाएगा।यह जानना जरूरी है।यह हथियार नही एक जाल है।जिसमे आप एक एक कीड़े से ज्यादा कुछ नही।ज्यादा से ज्यादा आप छटपटायेंगे और वह आपको लपेटता जाएगा।जब यह रचना पहली बार हुई थी तो किसी ने सोचा भी नही था की इसका अंत कहा होगा।आज उनके एक की-बोर्ड पर सारे संसार की हरेक व्यक्ति की सोच,समझ,कामनाए,क्ल्पनाए,उनके संपर्क,व्यक्तिगत,क्षमाताए,खानपान,परिस्थितिया तक उपस्थित है।सारे डाटा,सभी आंकड़े,सारी सूचनाए,समस्त योजनाए उनके पास मौजूद है।केवल जमीन ही नही,वहाँ के परिवेश पर भी उनकी जबर्दस्त पकड़ बन चुकी है।इतनी सूचनाए किसी बाहरी के पास होना बहुत खतरनाक है।आज वह अपने प्रोडक्ट जैसे चाहे बेच सकते है।क्योकि हमारे टेस्ट(अभिरुचिया) और खरीदने की क्षमता के बारे मे इक्जैक्ट जानकारी तो रखते ही है।मोबाइल कैमरो के माध्यम से दैनिक गतिविधियो की सूचना भी उनके डाटा बैंक मे इकट्ठी हो रही है।यह छीजे हमारी खुद की सरकार तक के पास नही है लेकिन एक शक्तिमान देश के पास इकट्ठा है।आप इसे हल्के मे  ले रहे है।

   परम्परागत मीडिया,(नाटक,डुगडुगी आदि)प्रिंट मीडिया (पत्रिकाएं पत्रक अखबार आदि),इलेक्ट्रानिक मीडिया से होते हुए अब बात शोशल मीडिया तक आकर पहुंच गयी।इलेक्ट्रानिक और प्रिंट पर तो भी स्थानिक पकड़ होती थी मेल,और गूगल तक भी एक लोकल नियंत्रण स्थापित रहता था।अब आरकुट(जो नही रही) फेसबुक,लिंक्डइन,ट्विटर,व्हातसेप्स,मैसेंजर जैसे 80 नेटवर्क इस समय दुनियां भर पर नियंत्रण कर रहे है।प्रायः सभी के मुख्यालय अमेरिका अथवा पश्चिमी देशों में है।मैं यहॉ हैकिंग,ट्रैपिंग, फिशिंग की बात नही कर रहा न ही धोखाघड़ी की बात कर रहा।यहां से अब आपको ऐसे मैसेज, झूठे काल्पनिक,अफवाह फैलाने वाले मैसेज, पूरी तरह से कंफ्यूज करने वाले गैर-जिम्मेदारी भरी सूचनाये भी मिलती है जो समाज के प्रति घोर अविश्वास पैदा करने के लिए किया जा रहा है।हमारे बच्चे ट्रैप में आ रहे है।यह सबसे आधुनिक और सशक्त हथियार के रूप में सामने है।

   मैं वैश्विक स्तर की बात नही करूंगा,ग्लोबलाइज़ेशन,उदारीकरण की कमियों के बहुत सारे लिक्खाड़ पड़े हुये है।इस्लाम का नुकसान कम होना है क्योकि वे संगठित संप्रदाय है। उनके खुद के शुक्रवारीय नेटवर्क है। इस तरह की मोनोपोली सेइसाइयत का तो वैसे भी कोई नुकसान कभी नही होता।इसलिए केवल सनातन और भारत-राष्ट्र के संदर्भ मे बात कर रहा हूँ।कई करोड़ फर्जी प्रोफाइल सोशल मीडिया पर मौजूद हैं। तरह-तरह की धोखाघड़ी के अलावा वे हिंदू नामो के सहारे आपके दिमाग में गलत और अफवाही सूचनाये डालते है।उन हिन्दू नामो के सहारे वे धर्म के प्रतीको को अपमानित,हलका करते हैं।अमूमन लव जेहाद का लाभ लेने का सहज तरीका।जातीय वैमनस्वता बढाना भी उनके उद्देश्यों में शामिल है।तरह-तरह से बरगलाने वाले धोखा देने वाले मैसेजेस आपको इन इन माध्यमों में प्राप्त होते हैं।भारत में ही लगभग 70 करोड़ लोग आज मोबाइल लिए हुए सूचनाओं से जुड़ा हुए है।सूचना की गति और पुष्टि पर नियंत्रण लगभग असंभव है।एक छोटी सी अज्ञात-झूठी सूचना भारत को हिंसा की आग में झोक सकती है।वह कितने खतरनाक होगी उसकी कैपेसिटी कितनी घातक होगी इसका अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल है।इधर के सालो में यह एक लत की तरह सामने आया है।एलएसडी,मारिजुआना जैसा नशा जो किसी भी तरह छुड़ाए नही छूटता।इसको आप ऐसे समझ सकते हैं कि वह आपके अवचेतन में छोटे-छोटे पार्टिकल्स डालते हैं और यह पार्टिकल्स आपके अंदर चेन खड़ी करती हैं।फिर आटोमेटिक समाज के अंदर चेन खड़ी हो जाती हैं।समाज का विभाजन और पोलराइजेसन दोनों ही इससे आसान है।इस माध्यम के जरिये पूरी दुनिया का एक बड़ा हिस्सा उनके एक क्लिक पर डिपेंड करता है। अभी तो वह मार्केटिंग और बाजारू वस्तुओं के   लिए ही सिस्टम का उपयोग कर रहे है।राजनीतिक मत और जनमत बनाने में नहीं लग रहे हैं ।लेकिन कुछ सालों बाद जब उनको स्थानीय सरकारों से असुविधाएं होंगी,तब उन्हें जनमत की जरूरत महसूस होगी तो वह अपने इस सशक्त हथियार का उपयोग करेंगे।आप जान भी नहीं पाएंगे कि एक छोटी सी सूचना ने आप में एक बहुत बड़ा विभाजन खड़ा कर दिया।पहले वामी-सामी-कामी जो काम देश मे शिक्षा,फिल्मे,मीडिया,लेखन,साहित्य,कला आदि पर कब्जा करके/मोनोपोली बनाकर आपके दिमाग के साथ कर/खेल रहे थे,भविष्य मे मे मुख्यालयों मे बैठे मालिकान करेंगे।आपके यहां के राजनीतिक दल उनके हाथों का खिलौना बन जाएंगे।दुनिया के बहुत बड़े-बड़े विचारक-विशेषज्ञ सूचना क्रांति पर लिख-पढ़ रहे हैं,विश्लेषण कर रहे हैं, और इसके प्रति घनघोर चेतावनी पूर्ण लेख भी प्रकाशित कर रहे है।आपको पढ़ना हो तो इसी नेट पर सूचना क्रांति से रिलेटेड बहुत सारे मैटर पड़े हैं।इसकी भयावहता का संदेश दे रहे हैं। मुझे लगता है की सोशल मीडिया के सभी प्लेटफार्म पर सजगता से भाग लेना चाहिए।उनके दूसरे पहलुओं पर भी हरदम नज़र रखना चाहिए।

    सबसे खतरनाक पहलू पर नजर दौड़ाइये।जैसे ही आप नई एंड्रायड मोबाईल,मे आप कोई अप्लीकेशन लोड करते है,वह क्या मांगता है?कभी ध्यान नही दिया न।वह आपके कान्टैक्ट बुक,वीडियो,फोटो,मैसेज,वर्ड-फाइलस और तमाम फीचर मे इंट्री के लिए परमीशन मांगता है।स्पेशिली आपके निजी चीजों का।क्यो?कभी एग्रीमेंट और शर्तो पर गौर फरमाया है,वे आखिर आपकी यह निजी चीजें लेकर क्या करेंगे? सारी छोटी-छोटी बाते आपकी सोच और अभिरुचिया कह रही होती है।कोई भी अध्ययनकर्ता आपकी पूरी प्रोफाइल इन्हे देखकर तैयार कर सकता है।आप बन जाते हैं एक डाटा।वहाँ मुख्यालय मे हजारो रिसर्चर आपकी हर चीज खंगाल कर आपके बारे मे सटीक-व्योरा तैयार करके मार्केट प्रोडक्ट्स तक निर्धारित कर रहे होते है।इसी आधार पर आपको विज्ञापन और प्रोडक्ट्स भी मिल रहे होते है।उपभोक्ता-वादी खतरा क्या होता है,इसपर मैं विस्तार से नही बताना चाहता किन्तु जहां भी बहुराष्ट्रिय कंपनियो का जाल बन चुका है उन बर्बाद देशो की अर्थ-व्यवस्था के बारे मे खुद पता करे/देखे।केवल वही नही उन्ही सूचनाओ और आंकड़ो के आधार पर पेंटागन मे बैठी एक बड़ी टीम सामरिक क्षमताओ का भी आंकलन कर रही होती है,वे उसकी फाइल मे डूबी होते है।मिशनरियों को भी उनसे सूचनाए मिल रही हो इससे इंकार नही किया जा सकता।

  पूरे विश्व का कारोबारी आंकड़ा उनके फ़ेवर मे इस-लिए बच रहता है क्योकि मार्केट सूचना उद्योग के माध्यम से उनके हाथो मे है।जबकि उत्पादन उनके हाथ से निकल चुका है।आविष्कार और तकनीक में भी वे तेजी से पिछड़ रहे हैं।उनके हाथ में पेटेंट ही बस बचे हैं।फिर भी उन्होने भविष्य पर कब्जा कर रखा है।वे तमाम देशो मे एजेंट तैयार करते है,स्थानीय आक्रोश को बढ़ावा देकर राजनीतिक परिवर्तन कराते है,विरोधी संस्कृतियो को खत्म करते है, सूचना क्रांति एक खतरनाक हथियार के तौर पर आपके खिलाफ इस्तेमाल हो सकती है।वे जेहन का शिकार करते है फिर सोच-बदलते है,फिर आपकी संस्कृति रहन-सहन जीने का तरीका बदलते है फिर आपको ।प्रोजेक्ट पूरा होते-होते आपका नाम भी तुलसी की जगह ट्वयलसी माइग्रा हो जाता है।बचने के उपाय खोजिये।थिंक ग्लोबली बट ऐक्ट लोकली।

 

(आगे पढिए-हथियार बदल गए है-20प्रस्तावना)

साभार https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=10154941970986768&id=705621767

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