Monday, 27 February 2017

आक्रमण के हथियार बदल चुके हैं- भाग-१४

हथियार बदल चुके हैं- भाग 14

   ''कोई व्यक्ति अपने विकास की उच्चतम अवस्था में केवल अपनी  माँतृभाषा के माध्यम से ही पहुँच सकता है,।
                                   'महात्मा गांधी,

मेरा एक दोस्त है।व्यापारी हैं।कभी अजब-गजब का बड़ा शौक था।तीन कुत्ते पाल रखी थी।उन कुत्तो में विचित्र विशेषताये थी।मित्र महोदय ने उन कुत्तो के अंदर यह विशिष्टता लाने के लिए कई साल लगाकर तीनो को भौकना छुड़ा दिया और बिल्लियों की तरह 'म्याऊ,करना सिखा दिया।जब भी उन्हें इशारा मिलता वे बोलते "म्याऊं,-म्याऊं,यह देखकर लोग भौचक रह जाते। सुनने के लिए उनके घर मजमा लगा रहता।बहुत सारे बच्चे उन कुत्तो की 'म्याऊं,सुनने के लिए वहां जाते।एकाध सरकस वालों ने प्रदर्शन के लिए मांगा लेकिन उनको गंवारा नही था।पैसे के लिए नही शौक के लिए शुरू किया था।वैसे कुत्तो से बन्दर बहुत डरते हैं।पर उस दिन जाने क्या और कैसे हुआ।कुछ दिनों पहले की बात है।शहर पर बन्दरो का प्रकोप बढ़ा हुआ था।दोस्त के  घर में अचानक कई बन्दरो की टोली आ धमकी।कुत्तो ने भगाना चाहा पर आश्चर्य!उन कुत्तो पर एक साथ कई बन्दरो ने हमला कर दिया।कुत्ते अपना कुत्तत्व भूल चुके थे।बन्दरो ने बुरी तरह नोच खाया।बन्दरो वाला इंफेक्शन हो गया।तीनो बीमार होकर तीन-चार दिन बाद चल बसे।वह बहुत दुःखी थे।बाद में हम दोनो ने इस पर गहन-चिंतन किया।
  प्रकृति हर किसी को विशेष वाक्-शक्ति और उसका स्पेशफिक करेक्टर देती है।दूसरे की वाणी-स्वर अपनाने से मूल की बेसिक कैपिसिटी तो आती नही ऊपर से अपनी गंवा देता है।कुत्तो ने अपनी भौंकने की प्रभावशीलता और संगठित हमला करने की कैपिसिटी तो गंवा दी ऊपर से  बिल्लीयों की पेड़ पर चढ़ने की,फुर्तीलापन,झपट्टा मारने की आदत नही अपना पाये।परिणामत: असमय मौत का शिकार होना पड़ा।"घोड़ा हिन्-हिनाता है,बाघ दहाड़ता है,गाय रंभाती है,कुत्ता भौंकता है,बकरी मिमियाती है, सांप फुसकारता है,हाथी चिग्घाड़ता है,सियार हुँआता है,सबकी अपनी-बोली-वाणी होती है जो दूसरे की नकल करेगा अप्राकृतिक स्थिति को प्राप्त होगा मतलब नियंत्रण खत्म,।
  
वह एक बड़ा सेमिनार था।दिल्ली के फाइव-स्टार होटल में था।सन 2001 में हुये इस शिखर सम्मेलन में सारे देश का प्रतिनिधित्व था देश के नामी गिरामी,टेक्नोलॉजिस्ट,साइंटिस्ट,प्रोफेसर,कुलपति,अपने क्षेत्र के मूर्धन्य विद्वान वहां उपस्थित थे।उनमे कई लोग देश की महत्त्वपूर्ण शोध संस्थानों के प्रमुख हुए और एक तो बाद की सरकार में प्रमुख सलाहकार भूमिका में भी पहुचे।एक से एक वक्ता उस भव्य प्रोग्राम में एक-एक घंटा तक बोल रहे थे।वह विज्ञान पर आयोजित एक बड़ा कार्यक्रम था जिसमें पूरे देश के प्रतिनिधि आए हुए थे।मैं पीछे बैठा लगातार सब को सुन कर के समझने की कोशिश कर रहा था। कुछ देर बाद मैंने यह महसूस किया कि मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा हैअधिकाँश लोगो का ध्यान बाते सुनने में नही है।वहां सभी लोग हिंदीभाषी थे और ज्यादातर वक्ता भी हिंदी भाषी ही थे।परन्तु सबकी बोलने वाली भाषा अंग्रेजी थी।सभी अंग्रेजी में बोल रहे थे,लंबे लंबे सेंटेंसेस,लच्छेदार बनाकर।तमाम तरह के रिसर्च उनकी बातों से झलक रहा था। मैंने ध्यान दिया कि कोई भी सुन नहीं रहा है।सबका ध्यान बोलने पर लगा हुआ है या फिर खाने पर,कई तो अपना प्रश्न अंग्रेजी में करके इम्प्रेशन जमाने में लगे हुए थे।कुछ तो इधर-उधर की फालतू बाते भी कर रहे थे। किसी का फोकस उधर नहीं दिख रहा था। मैंने और गहराई से ध्यान दिया तो देखा कि यह भाषा की समस्या थी लेकिन इंप्रेशन में सब अंग्रेजी में ही बोल रहे थे।प्रस्तुतकर्ता और प्रश्न करने वाले, किसी के भाषण पूरे नहीं सुने गए।ना आयोजक सुन रहे थे ना वक्ता और ना ही प्रतिनिधि।घनघोर आश्चर्य था कि उस सभा में सभी हिंदी के सुनने-समझने वाले,हिंदी बोलने वाले, हिंदी में ही 24 घंटा रहने वाले और भाषण अंग्रेजी में??विकास की भाषा अंग्रेजी मानकर ज्ञान बघारने वाले ज्यादा है न।फिक्स प्रोसीजर फॉलो कर लिया गया।कार्यक्रम अपने समापन के कगार पर था।आखिरी सत्र में प्रोफ़ेसर दुर्ग सिंह चौहान सर आए।वह उस समय टेक्क्निक्ल यूनिवर्सिटी के कुलपति थे,विदेशों में रहे हैं,नासा में रहे हैं अमेरिका में लम्बे समय रहे हैं।उनके पास अमेरिका में संघकार्य का प्रभार रहा है।मैं ने उनके लम्बे-लम्बे लेक्चर अंग्रेजी में सुने है।परंतु उन्होंने उस दिन हिंदी में पूरा विषय रखा।मुझे याद है मैं उनकी बहुत सारी लाइनें रट गया।मैं ने बाद में उनसे पूछा कि आप हिंदी में क्यों बोल रहे थे।उनका वह वाक्य आज भी मेरे कानों में गूंजता है '"मुझे वास्तव में ही लोगों को कुछ बताना था।,, उस दिन उनकी हर बात पर, हर उस लाइन पर तालियां बजी।खूब तालियां मुझे यह समझा रही थी कि अपनी भाषा में चीजे ज्यादा समझ में आती हैं।मैं महसूस कर रहा था कि उनकी बातें,ज्ञान,सूचनाये सब लोग समझ रहे हैं।मैं नहीं जानता वह कितने बड़े वैज्ञानिक हैं, लेकिन वैज्ञानिकों के उस सम्मेलन में एक ही आदमी की बातें मुझे समझ में आई जो हिंदी में कही गई थी। क्योंकि वह मेरी मातृभाषा है।मैं नहीं समझता कि मेरी अंग्रेजी कमजोर है।
  बाद में इस बात को मैंने बहुत गहराई में उतर करके समझा-सोचा और विश्लेषण किया तो ध्यान में आया कि इस तरह के बहुत से सेमिनार,वर्कशाप,सिंपोजियम,समिट देशभर में हर माह आयोजित होते रहते हैं।पर इनमें से एक भी कुछ ख़ास नया नहीं दे जाते।वह केवल प्रोसीजर पूरी करते हैं,वह केवल अपना खाना-पूरी करते हैं।मोटा मेमोरेंडम छापते है और खूब खर्चा-चर्चा करते हैं। फिर खत्म हो जाते हैं।बिना-समझे और कुछ मिले।देश की जनता के पैसे से होने वाले इन आयोजनों से क्या मिलता है?इंडस्ट्री को ट्रांसफर हुई किसी टेक्नालाजी के बारे में कोई विभाग नही जानता।हाँ ये अंग्रेजी भाषा के विकास में जरूर योगदान देती है।वक्ताओं के इम्प्रेशन झाड़ने के दौरान हर बार कुछ नए 'वर्ड,सुनने-सीखने को मिल जाते हैं।कई बार तो हिंदी-दिवस पर पर आयोजित सम्मेलन में हिंदी की  आवश्यकता पर मैं ने लंबे भाषण अंग्रेजी में सुने है।ये है दिल्ली मेरी जान!
हे हे हे हे ।

   अपने यहां अंग्रेजी के कुछ स्थापित लेखक हैं।प्रायः वामपंथी है।भारत में खूब पढ़े जाते हैं। चेतन भगत उनमें से एक नाम है।के.आर नारायणन,अरुंधति राय इत्यादि बहुत सारे है,नाम में क्या रखा है।मैंने उनके बारे में पता किया,वे इंग्लैण्ड में नही बिकते,बाहर किसी देश में कोई पूछता-देखता भी नही,जो भी थोड़ी-बहुत पूछ है वह यही है।ज्यादातर अनुवाद की किताबें बिकती हैं, मैंने एक पब्लिशर से पूछा बाहर बिकती है कि नहीं??बताया,बाहर के देशों में इन इन जैसे बहुत सारे पड़े हैं,उनकी खुद की मौलिक भाषा है,भाषा-पकड़ प्रवाह उनकी ज्यादा अच्छी होती है, वह लोग बहुत सारे अच्छी किताबे लिखते हैं।काहे को इनको पढ़ेंगे!बाहर के लोग इसे कूड़ा कहते है।उनकी जबरर्दस्त बेस्ट-सेलर किताबो के आगे इनकी क्या बिसात??
उनका कूड़ा यहीं ज्यादा बिकता है। वह भी अंग्रेजी में ज्यादा नही स्थानीय भारतीय भाषाओं में।लेकिन यह साहब लोग लिखते रहे हैं अंग्रेजी में, मालिकों की भाषा में लिखते रहे है।वेटेज ज्यादा मिलता है। इंग्लिश सुनते ही महत्त्वपूर्ण लगने लगता है।उसका बड़ा लाभ है। तब वह भारत में खूब बिकता है।बड़ा नाम हो जाता है।अंग्रेजी के लेखक है अंग्रेजी में लिखते हैं।तब पढ़े-लिखे हिंदुस्तानी माने जाते हैं।गजब है! पहले अंग्रेजी में लिखो फिर ट्रांसलेशन करवाओ।इंप्रेशन बनाओ। यही चल रहा है काफी दिनों से।आपने अंग्रेजी के पत्रकारों का रवैया देखा होगा,बड़ेभाई बनते है।हिंदी के फिल्मों के अभिनेता आपस में बात करते हैं तो अंग्रेजी में बोल बोल कर बात करके दिखाने की कोशिश करते हैं,गिटिर-पिटिर।रोटी हमारे भाषा की खा रहे हैं।दिखावा साहबों की भाषा रहे हैं।ऐसी हजारो छोटी-छोटी चीजे देखेंगे।लिस्टिंग करिए।वे क्या जाहिर करना चाहते हैं।खुद समझिये।उनका complex है।कुंठा की हिंदी बोल देंगे तो पिछड़े लगेंगे, इज्जत चली जाएगी।लोगों के घरों में अखबार आता है।अंग्रेजी दा के घर इंग्लिश वाला पेपर मेज के ऊपर रहेगा,हिंदी का अखबार घर के अंदर चला जाएगा।कितना काम्प्लेक्स भरा पड़ा है! यही समस्या है,यह complex(हीन भावना)ही देश की विकास रोके हुए हैं।हमें इस से लड़ना होगा।यह रोग है इस रोग का इलाज करना होगा।

  वे इंग्लिश में इसलिए बोलते हैं,उनकी गलतिया,कम जानकारी,सतही ज्ञान, छुप जाए।इस अंग्रेजी-पने से थोड़ी सुपिरियारिटी,थोड़ा सामंतीय बोध,भारत से थोड़ा अलग होने का बोध होता है।वे अपने को शासक रूप में महसूसना चाहते है।सामान्य भारतीय को 'कैटल,(भेंड,बकरी-ढोर)महसूस कराना चाहते हैं।आम जन भी वही नकल करते हैं क्योंकि उनका आत्मविश्वास खत्म कर दिया गया है।क्रमश: हिन्दूओ को अंग्रेजी के द्वारा पूरे विश्वास से उनके पितरो के धर्म,अपनी-संस्कृति,भाषा,को हेय समझा दिया गया है।अच्छी इंग्लिश उनको आत्मतुष्टि-या चरम-ज्ञानानुभूति नही बल्कि एक सुपरफीसियल सी आर्टिफीसियल टाइप का अंत:सुख देती है।अपनो-और अपनी से काटने का यह भाव अंग्रेजो फिर कांग्रेसियो ने प्रयास पूर्वक जन्माया है।

मेरे एक मित्र हैं उनकी शिकायत है कि उनको अंग्रेजी नहीं आता इसलिए वे अयोग्य है। मैंने उनको बताया फ्रांसीसियों-जर्मनों-जापानियों-चीनियो-दुनियां के अधिकाँश लोगो को अंग्रेजी नही आती।वे योग्य बने हुए हैं।उनका प्रशासन,एजुकेशन,कार्य-व्यवहार सब सही चल रहा है।अंग्रेजो को भी तो हिंदी नहीं आती। जर्मनीयन को जर्मन आती है।फ्रांसीसियों को फ्रेंच आती है।स्पेनियों को स्पेनिश आती है।चीनियों को मंदारिन।सभी विकसित देश अपनी भाषा के साथ खुश है।विकास कर रहे हैं।उनको बिलकुल नही लगता कि फलानी भाषा के साथ ही हम विकसित हो सकते हैं।लेकिन हम हिंदुस्तानी अंग्रेजी नही आती तो पिछड़े है,अयोग्य है नाकाबिल है।
फ्रैंच दुनियां की सबसे मीठी और साहित्यिक भाषा कही जाती है।विकसित आधुनिक देशो के नागरिको का शौक होता है कि वे फ्रैंच सीखे।वह फैशन माना जाता है।खुद इंग्लैण्ड के लोग दो-चार फ्रैंच शब्द बोल कर अपने को फैशनेबुल और इलीट क्लास दर्शाते हैं।इतना सब होने के बाद भी दुनिया में फ्रांस के अलावा किसी देश के नागरिको की भाषा फ्रेंच नही हो पाई।फ्रैंच अंग्रेजी की तरह 9 लाख करोड़ डॉलर की कारोबारी भाषा नही बन सकी है।अंग्रेजी ने 150 साल पहले ऐसा डिजाइन किया कि वह अपने डोमिनियन स्टेट को अंग्रेजी से भर दे।वह इकोनामी डिजाइन था।जिसने जेहनी तौर पर हमें गुलाम बनाकर हमसे वसूलना जारी रखा है।ये सब भाषा और धर्म सब इकोनामी-ड्रॉइवेन हैं।अगर भारत मजबूत होता है-सनातन मजबूत होता है तो सब हिंदी मे ही होने लगेगा।इसीलिये चीन, जापान, यूरोप का हर देश, रूस सब की अपनी भाषा है,और वे सारे काम अपनी भाषा में करते हैं। भारत वासी मजबूर है दूसरे की भाषा बोलने मे गर्व महसूस करने के लिए।वैसे हिंदी और हिन्दू धर्म को साबित करने की जरुरत नहीं पड़ती अगर कुछ पिछलग्गू-एजेंट न होते तो। देश गुलाम हुआ सब कुछ लूट लिया गया,सब फिर वापस पा लेते अगर बड़ी मात्रा में उनके काले रंग वाले एजेंट और अंग्रेजी न छोड़ गए होते तो। हमने धर्म को नहीं टूटने दिया,ये बड़ी उपलब्धि है,70 साल मे भारत के लोग विश्व पटल पर  आ सकते थे।इन दो-तीन साल में आ भी गये।  विश्व को पता चल चुका है भारत सपेरो-जादूगरों का देश नहीं है।ये एक बड़ी उपलब्धि है।खुद समझिये कैसे तनिक सा दिमाग लगाने से दिखना शुरू हो जाएगा।
भाषा न आना कोई समस्या नही है।यह कोई कमी नहीं है।किसी को किसी अन्य देश की भाषा नही आती और रोज-रोज का सामना नही होता तो यह कोई अयोग्यता नहीं है।यह दिमागी कमजोरी की निशानी नही है।जब किसी देश में होंगे वहां की भाषा तो खुद् ब खुद आ जाती है।उस देश,काल,परिस्थिति की कोई भी भाषा हो आदमी उसे रोजमर्रा उपयोग करते-करते सीख ही लेता है।इसका आई-क्यू से क्या लेना-देना लेकिन लाखो बच्चे इसे काम्प्लेक्स के तौर पर जीते है।दिमाग में बैठा दिया गया है कि काबिलियत की पहचान है।हम उसको योग्यता के तौर पर पेश करते हैं।अंग्रेजी नाना योग्यता का प्रमाण हो गया है,सभ्यता का प्रमाण हो गया है।फिर यह हमे मानसिक रुप से कमजोर करता है।हीन महसूस कराता है। हर एक हिंदुस्तानी को यह मानसिक रूप से पीछे छोड़ देता है।अंग्रेजी इस स्तर पर व्याप्त है की भारत में ही दूसरे को नीचा दिखाने के काम आता है।
गजब है!किसने-कैसे किया सोचिये।

   मैं आंकड़ो,गहन सूचनाओं,ढेर सारी किताबो और इतिहास में नही जाऊँगा(उस-पर हिंदी दिवस पर खूब मिलेगा) पर जान लीजिये हिंदी-संस्कृत के अलावा देश की सभी भाषाओं को पूरी चतुराई से समाप्त करने की साजिश की गई थी,उनकी संख्या घट रही है।इन 150 सालो में अंग्रेजो और कांग्रेसियो ने आपके दिमाग पर एक अप्लीकेशन इंस्टाल कर दिया है।अंग्रेजी भाषा का अप्लीकेशन आपके दिमाग का मेन-मोड बन चुका है।इससे आप केवल अँग्रेजी के ही शिकार नही बनते।केवल एक स्पेशफिक मानसिकता में ही नही जकड़ उठते बल्कि अपने पुराने-चीजों,अपने ही देशी भाई-बहिन आपको बाहरी महसूस होने लगती है।एक भाषा अपना लेने मात्र से पुरखो की धरोहर,उनकी शानदार विरासतें,जीवन-पद्दति सब कुछ पोंगा-पिछड़ा-दकियानूस लगने लगता है।बस आप नाम के सनातनी बचते हैं,शेष सब ईसाइयत का मकड़ जाल होता है।इसाई-मिशनरियों ने शुरुआती दौर में इसे स्थापित किया।अंग्रेज तो करेंगे ही।परन्तु 1947 के बाद यह इतना कैसे फ़ैल गया??
  आजादी के बाद गवर्नमेंट मशीनरी की भाषा में महात्मा-गांधी के हथियार 'स्वदेशी, को दरकिनार करने के लिए इंग्लिश को प्रमुखता देकर 'नेहरुआना कल्चर,को प्रोत्साहित किया गया।इसी से वंश की स्थापना भी सम्भव थी।शिक्षा-प्रशासन-लोक-व्यवहार में इंग्लिश को बढ़ावा देना शुरू कर दिया गया।अंग्रेजी बोलने वाले लोग रोल-मॉडल माने जाने लगे।उन्हें प्रमुख स्थानों पर पोस्ट किया जाने लगा।सत्ता के कंगूरे पर बैठा कौआ भी इम्पोर्टेन्ट लगता है।
अर्थ-शास्त्र का मान्य सिद्धांत है'जॉब-मार्केट, मालिको की भाषा के इर्द-गिर्द पनपता ही है और मालिकानों के हित सत्ता-प्रतिस्ठानो में निहित होते हैं,,।वाणिज्य और कारोबार में अंग्रेजी की प्रधानता खड़ी ही इसलिए हुई क्योकि 'तत्कालीन सरकारो,का रुझान यही दिख रहा था।अंग्रेजी को न्यायपालिका की भाषा बनाकर उसे मुख्य भाषा में बदल दिया गया।इसके पीछे कौन सी सोच काम कर रही थी समझना ज्यादा मुश्किल नही है।
यह सही है कि अंग्रेजी का कारोबारी दायरा बहुत बड़ा है।दुनियां के 87 देशों के पूर्व-शासक होने की वजह से इंग्लिश बोंलने वालो की संख्या बहुत बडी है।यह बाकायदा बनाई गई है।भारत में असहज होते हुए भी यह आत्मसात करा दी गई है।अकादमिक गतिविधियों और मीडियाटिक वार,मनोरंजन के माध्यम से ऐसा करने में उन्होंने कामयाबी पाई है।आज के अधिकतर,साइंस,इंजीनियरिंग,मेडिकल,की किताबे,इंस्ट्रूमेंटेशन,इंटरटेनमेंट,कम्प्यूटर लैंग्वेज,आई-टी,साफ्टवेयर,अंतरराष्ट्रीय संपर्क का भाषाई आधार अंग्रेजी है।पर यह कब्जावादी नीति से जन्मा है।लेकिन शासन,न्याय,वर्क-शाप,सेमिनार,प्राथमिक-शाला सहज मनोरंजन,आपसी सम्पर्क,सीखने,व् एकदूसरे से भावनात्मक अंतर्देशीय सम्पर्क के लिए दूसरे की भाषा अपनाना निहायत ही हास्यास्पद है।वह केवल इम्प्रेसन मारने के लिए है।वह कही न कही आप के 'स्वत्त्व,पर आक्रमण जैसा है।धीरे-धीरे आप वह खोने लगते है जो पितरो की दी हुई है।इसके माध्यम से वह सोच में घुसते हैं।अपना सब कुछ खोने लगते है।वेश-भूषा,पहनावा,खानपान,और पूजा-पद्दति तक।यह गिटिर-पिटिर अपने साथ।पहले अपने देशी लोगो को हेय समझाता है,फिर आपको अंदर तक बताता है आप तो इनसे अलग है,कुछ ही दिन बाद अधनंगा पन।अपने बाप के कपड़े  और नाम पिछड़ा लगाने लगता है,फिर पिज्जा-सालसा के साथ आपको हनुमान जी,और अपने संतजनो में आस्था घटाती चली जाती है।
एक आदमी का सम्पूर्ण विकास उसकी अपनी भाषा में ही होता है।एक बच्चा दूसरे की भाषा में क्या समझेगा-सोचेगा,आगे बढ़ेगा??
पर हम अंग्रेजी में पढा-बढ़ा कर उसका क्रिएशन,विकास मार देते हैं।इन सत्तर सालो में एक भी आविष्कार क्यों नही किया?
एक भी नोबुल-प्राइज लायक काम नही,एक भी मौलिक रचना नही हुई है।ज्ञान-विज्ञान-मेडिकल-तकनालाजी का एक भी शोध-रिसर्च नही हुआ।
आप खुद को धोखा देने के लिए कुछ न कुछ गिनाने में लग जाएंगे।जो दो-चार दिख रहे वह वैश्विक प्रतिस्पर्धा नही नौकरियों में।फिल्मों ,साहित्य,ब्लाक के हम घर-बग्घा की तरह है।जहाँ तुलना दुसरो से हुई हम गायब।ध्यान से देखिये अगर कही टॉप पर कोई हो गया होगा तो धोखे या या अन्य कारण से।ईमानदारी से सोचियेगा की हम 125 करोड़ लोग अपने अनुपात का 2 प्रतिशत भी आविष्कार नही दे सके?नये प्रयोग?थीसिस??ओलम्पिक?दूसरे विज्ञान-धर्मी उपलब्धता??
टॉप हंड्रेड थिंग्स वर्ल्ड-लीडरशिप में एक भी हिँन्दू नाम नही है..ग्लोबल सब्जेक्टिव लीडरशिप की छानबीन कर लीजिए।100 फील्ड्स में टॉप नाम आप खुद चुनिये और हमे भी बताइये।एक ही बात दिखेगी हमने केवल आई-टीप्रोफेशनल दिए हैं।उसमे भी नियंता-निर्माता नही नौकरी करने वाले दिए हैं।नौकर बनाये है हमने।लेकिन टॉप थाट-लीडर्स नही दिए।
क्यों?
  पैसे वाला रोना मत रोइयेगा...शुरूआती दौर में किसी के पास नही होता।न जुकरवर्ग के पास,न ही विल गेट्स के पास फेसबुक,माइक्रोसाफ्ट 2-6 हजार डॉलर से शुरू हुये थे।दुनिया के सारे बड़े काम इसी तरह के इनोवेशन से शुरू हुए थे।क्योकि चिंतन-मनन-आविष्कार-आइडिया- इनोवेशन-ध्यान-एकाग्रता-फोकसनेस अपनी भाषा में आता है।कोई भी क्रियेशन हमेशा वह शक्ति ही करती है वैज्ञानिक तो माध्यम बनते है।परम्-चेतना हमेशा देव-वाणी में संवाद कायम करती है।वह मातृभाषा होती है।दूसरों की भाषा नाट्कीयता तो पैदा करेगी ज्ञान न देगी।परमात्मा नाटकीयता और झूठ नही झेलता न कुछ भेजता है।
संस्कृत और मातृभाषाओं का यही डर था कि वह लीड कर सकती थी।वह नेतृत्व कर सकती रही,वे क्यों चाहने लगे?
यह तो सनातन प्रवाह को स्थापित कर देता।प्राचीन चेतना को स्थापित कर देता।उनके हाथ से दुनियां भर में फैला उनका कारोबार निकल जाता,लीडरशिप निकल जाती।यह कारण था।

   आप जरा एक मशहूर अंग्रेज़ पत्रकार मार्क टुली का विचार भी पढ़ लीजिये, 2014 के सितंबर के एक अङ्ग्रेज़ी अखबार मे छपा था।मार्क-टुली 30 साल से हिंदुस्तान मे है।हिंदी पर वरिष्ठ पत्रकार मार्क टली के विचार :
'' दिल्ली में ,जहां मैं रहता हूं उसके आस-पास अंग्रेजी पुस्तकों की तो कई दर्जनों दुकानें हैं , हिंदी की एक भी नहीं । हकीकत यह है की दिल्ली में मुश्किल से ही हिंदी पुस्तकों की कोई दुकान मिलेगी । टाइम्स आफ इंडिया समूह के समाचार पत्र नवभारत टाइम्स की प्रसार संख्या कहीं ज्यादा होने के बावजूद भी विज्ञापन दरें अंग्रेजी अखबारों के मुकाबले अत्यंत कम है । इन तथ्यों के उल्लेख का एक विशेष कारण है । हिंदी दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली पांच भाषाओं में से एक है । जबकि भारत में बमुश्किल पांच प्रतिशत लोग अंग्रेजी समझते हैं ।
'' कुछ लोगों का मानना है यह प्रतिशत दो से ज्यादा नहीं है । नब्बे करोड़ की आबादी वाले देश में दो प्रतिशत जानने वालों की संख्या १८ लाख होती है और अंग्रेजी प्रकाशकों के लिए यही बहुत है । यही दो प्रतिशत बाकी भाषा – भाषियों पर प्रभुत्व जमाए हुए है । हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं पर अंग्रेजी के इस दबदबे का कारण गुलाम मानसिकता तो है ही , उससे भी ज्यादा भारतीय विचार को लगातार दबाना और चंद कुलीनों के आधिपत्य को बरकरार रखना है ।
'' इंग्लैण्ड में मुझसे अक्सर संदेह भरी नज़रों से यह सवाल पूछा जाता है की तुम क्यों भारतीयों को अंग्रेजी के इस वरदान से वंचित करना चाहते हो जो इस समय विज्ञान , कम्प्युटर ,प्रकाशन और व्यापार की अंतर्राष्ट्रीय भाषा बन चुकी है ? तुम क्यों दंभी -देहाती (स्नाब – नेटिव )बनाते जा रहे हो ? मुझे बार – बार बताया जाता है की भारत में संपर्क भाषा के रूप में अंग्रेजी क्यों जरूरी है, गोया यह कोई शाश्वत सत्य हो । इन तर्कों के अलावा जो बात मुझे अखरती है वह है भारतीय भाषाओं के ऊपर अंग्रेजी का विराजमान होना । क्योंकि मेरा यकीन है की बिना भारतीय भाषाओं के भारतीय संस्कृति ज़िंदा नहीं रह सकती ।
'' कोढ़ में खाज का काम अंग्रेजी पढ़ाने का ढंग भी है । पुराना पारंपरिक अंग्रेज़ी साहित्य अभी भी पढ़ाया जाता है । मेरे भारतीय मित्र मुझे अपने शेक्सपियर के ज्ञान से खुद शर्मिन्दा कर देते हैं । अंग्रेजी लेखकों के बारे में उनका ज्ञान मुझसे कई गुना ज्यादा है । एन . कृष्णस्वामी और टी . श्रीरामन ने इस बाबत ठीक ही लिखा है जो अंग्रेज़ी जानते हैं उन्हें भारतीय साहित्य की जानकारी नहीं है और जो भारतीय साहित्य के पंडित हैं वे अपनी बात अंग्रेज़ी में नहीं कह सकते । जब तक हम इस दूरी को समाप्त नहीं करते ,अंग्रेजी ज्ञान जड़विहीन ही रहेगा । यदि अंग्रेजी पढ़ानी ही है तो उसे भारत समेत विश्व के बाकी साहित्य के साथ जोड़िये न की ब्रिटिश संस्कृति के इकहरे द्वीप से ।''चलो इस बात पर भी विचार कर लेते हैं की अंग्रेजी को कुलीन लोगों तक मात्र सीमित करने के बजाय वाकई सारे देश की संम्पर्क भाषा क्यों न बना दिया जाए ? नंबर एक , मुझे नहीं लगता इसमें सफलता मिल पाएगी (आंशिक रूप से राजनैतिक कारणों से भी ) । दो, इसका मतलब होगा भविष्य की पीढ़ियों के हाथ से उनकी भाषा संस्कृति को जबरन छीनना । निश्चित रूप से भारतीय राष्ट्र की इमारत किसी विदेशी भाषा की नींव पर नहीं खड़ी हो सकती है । भारत , अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया की तरह महज भाषाई समूह नहीं है ।यह उन भाषाओं की सभ्यता है जिसकी जड़ें इतनी गहरी हैं की उन्हें सदियों की औपनिवेशिक गुलामी भी नहीं हिला पाई ।''संपर्क भाषा का प्रश्न निश्चित रूप से अत्यंत कठिन है । यदि हिन्दी के लंबरदारों ने यह आभास नहीं दिया होता की वे सारे देश पर हिन्दी थोपना चाहते हैं तो समस्या सुलझ गई होती । अभी भी देर नहीं हुई है । हिन्दी को अभी भी अपने सहज रूप में बढाने की जरूरत है और साथ ही प्रांतीय भाषाओं को भी , जिससे की यह भ्रम न फैले की अंग्रेजी साम्राज्यवाद की जगह हिन्दी साम्राज्यवाद लाया जा रहा है ।यहाँ सबसे बड़ी बाधा हिन्दी के प्रति तथाकथित कुलीनों की नफरत है । आप बंगाली , तमिल , या गुजराती पर नाज़ कर सकते हैं , पर हिन्दी पर नहीं । क्योंकि कुलीनों को प्यारी अंग्रेजी को सबसे ज्यादा खतरा हिन्दी से है । भारत में अंग्रेजी की मौजूदा स्थिति के बदौलत ही उन्हें इतनी ताकत मिली है और वे इसे इतनी आसानी से नहीं खोना चाहते,,।(मार्क टुली,का यह लेख यहा देना जरूरी था। भले ही लेख लंबा हो गया)

   मैं यह नही कह रहा की अंग्रेजी न सीखिये,खूब सीखिये,दुनियाँ के साथ चलिए ,कई भाषाएँ सीखिये इससे दिमाग तेज होता है।उनकी किताबे भी पढिये।ज्ञान-विज्ञान बढाइये।जहाँ आप सभी की मातृभाषा है वहां अंग्रेजी का रौब झाड़ने की क्या जरूरत?वह एक मानसिकता बन चुकी है।उस मानसिकता को छोड़ दीजिए।अंग्रेजी-वादी सुपिरियारिटी को त्याग दीजिये।वह हमें गुलामी की याद दिलाता है।वह किसी को बड़ा बना देता है,उससे डर, विशिष्टता प्रदान कर देता है।आपके आपस में बोलने मात्र से वह उनके साथ कुत्ते और मालिक की भावना से भर देता है।उन्होंने अंग्रेजी थोप दी।आपका विकास रोक दिया।उन्होंने स्वतंत्रता दी आपको किंतु अग्रेजी से स्वतंत्रता नही दी।अपने भाषाई एजेंट बैठा गये।नेताओ के रूप में,व्यूरोक्रेट के रूप में जिनका काम था उनके हितो की रक्षा करना।वे लगातार इस भाषा से हमारी जड़ो पर प्रहार कर रहे हैं।सनातन काल प्रवाह को रोकने के लिए अंग्रेजी उनका हथियार है बन चुका है।इस हथियार की ताकत ने अपना परफेक्ट,बाहर लाने से हमे टोक-रोक दिया गया है।हमे सेल्फ-हीलिंग देनी होगी स्व-सम्मोहन देकर इस गुलामी से बाहर निकलिए।इस पर आघात को खत्म करिए।हमे खुद हथियार बनना पड़ेगा।

(जल्द ही आगे पढ़िये- भाग 15)

साभार https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=10154922412766768&id=705621767

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