-- #विश्वगुरु_भारत_से_विकासशील_भारत_का_सफर --
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इतिहास में भारतीय इस्पात की श्रेष्ठता के अनेक उल्लेख मिलते हैं। अरब और फारस में लोग भारतीय इस्पात की तलवार के लिए लालायित रहते थे। अंग्रेजों ने सर्वाधिक कार्बन युक्त इस्पात को बुट्ज नाम दिया। प्रसिद्ध धातु वैज्ञानिक तथा बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रो. अनंतरमन ने इस्पात बनाने की सम्पूर्ण विधि बताई है। कच्चे लोहे, लकड़ी तथा कार्बन को मिट्टी की प्यालियों में 1535 c' ताप पर गर्म कर धीरे-धीरे 24 घण्टे में ठण्डा करने पर उच्च कार्बन युक्त इस्पात प्राप्त होता है। इस इस्पात से बनी तलवार इतनी तेज तथा मजबूत होती है कि रेशम को भी सफाई से काट देती है।
#18वीं सदी में यूरोपीय धातु विज्ञानियों ने भारतीय कार्बन इस्पात बनाने का प्रयत्न किया, परन्तु असफल रहे। माइकेल फैराडे ने भी प्रयत्न किया, पर असफल रहा। कुछ ने बनाया तो उसमें वह गुणवत्ता नहीं थी।
#प्रथम रिपोर्ट सितम्बर, 1715को डा. बेंजामिन हायन ने एक रिपोर्ट ईस्ट इण्डिया कम्पनी को भेजी --
#रामनाथ पेठ (तत्कालीन मद्रास प्रान्त में बसा) एक सुन्दर गांव है। यहां आस-पास खदानें हैं तथा 40 इस्पात की भट्टियां हैं। इन भट्टियों में इस्पात निर्माण के बाद उसकी कीमत 2 Rs.. मन पड़ती है। अत: कम्पनी को इस दिशा में सोचना चाहिए।
#दूसरी रिपोर्ट मेजर जेम्स फ्रैंकलिन की है जिसमें वह सेंट्रल इंडिया में इस्पात निर्माण के बारे में लिखता है। इसमें वह जबलपुर, पन्ना, सागर आदि स्थानों की लौह खदानों का वर्णन करता है तथा इस्पात बनाने की प्रक्रिया के बारे में वह कहता है चारकोल सारे हिन्दुस्तान में लोहा बनाने के काम में प्रयुक्त होता है। जिसमें वो भट्टी का उल्लेख करता है, उसका निर्माण किया गया है। उसमें सभी भाग बराबर औसत 19-20 हाथ (हाथ-लम्बाई मापने की प्राचीन इकाई, लगभग 18 इंच इसका माप था) के थे। और 16 छोटी हाथ के थे। वह इस फर्नेस को बनाने की विधि का वर्णन करता है। फर्नेस बनाने पर उसके आकार को वह नापता है तो पूरी भट्टी में वह पाता है कि एक ही प्रकार की नाप है। लम्बाई सवा 4 भाग तो चौड़ाई 3 भाग होगी और मोटाई डेढ़ भाग। आगे वह लिखता है (1) गुडारिया (2) पचर (3) गरेरी तथा (4) अकरिया-ये उपांग इसमें लगाए जाते हैं। बाद में जब भट्टी पूरी तरह सूख जाती है तो उसे काम में लाया जाता है। भट्टी के बाद धोंकनी उसका मुंह बनाने की विधि, उसके बाद भट्टी से जो कच्चा लोहा निकलेगा उसे शुद्ध करने की रिफायनरी का वर्णन करता है। फिर उससे इस्पात बनाने की प्रक्रिया तथा मात्रा का निरीक्षण उसने 30 अप्रैल, 1827 से लेकर 6 जून, 1827 तक किया। इस बीच 4 फरनेस से 2235 मन इस्पात बना और इसकी विशेषता गुणवत्ता तथा विभिन्न तापमान एवं परिस्थिति में श्रेष्ठता की वह मुक्तकंठ से प्रशंसा करता है। उस समय एक मन की कीमत पौने बारह आना थी। (सवा 31 मन बराबर 1 इंग्लिश टन)
।।
मेजर जेम्स फ्रैंकलिन सागरमिंट के कप्तान प्रेसग्रेव का हवाला देते हुए कहता है कि भारत का सरिया (लोहा) श्रेष्ठ स्तर का है। उस स्वीडन के लोहे को भी वह मात देता है जो यूरोप में उस समय सर्वश्रेष्ठ माना जाता था।
#तीसरी रिपोर्ट कैप्टन डे. कैम्पबेल की है जो 1842 की है। इसमें दक्षिण भारत में लोहे के निर्माण का वर्णन है। ये सब रिपोर्ट कहती हैं कि उस समय देश में हजारों छोटी-छोटी इस्पात निर्माण की भट्टियां थीं। एक भट्टी में 9 लोगों को रोजगार मिलता था तथा उत्कृष्ट प्रकार का सस्ता लोहा बनता था। वैसा दुनिया में अन्य किसी देश में संभव नहीं था। कैम्पबेल ने रेलगाड़ी में लगाने के लिए बार आयरन की खोज करते समय बार-बार कहा, यहां का (भारत का) बार आरयन उत्कृष्ट है, सस्ता है। इंग्लैण्ड का बढ़िया लोहा भी भारत के घटिया लोहे का मुकाबला नहीं कर सकता।
अब आते है इंग्लैंड के लोहे के विषय मे तो आज डॉ त्रिभुवन सिंह जी की एक पोस्ट पर एक क्रम में उन्होंने एक पोस्ट का संदर्भ दिया जिससे पता लगा कि इंग्लैंड में लोहा कभी बना ही नही उन्होंने इसे तथ्यों और तर्को से सिद्ध भी किया है -
उनकी पोस्ट का कुछ अंश - ⬇
#आश्चर्य_की_बात है कि गूगल कह रहा है कि इंगलैंड में 1860 तक लोहा और स्टील बनाना बहुत मंहगा प्रयोजन था।
गूगल - History of Manufacturing of Iron in Britain नही दिखला रहा है।
और 12 और 13 जुलाई 1800 AD में डॉ फ्रंसिस हैमिलटन बुचनान दक्षिण भारत के रोमा-गिरि और mugadi/ Mughery में एक साधारण से गांव में लोहा और स्टील बनाने की विधि विस्तार से पूँछकर नोट बना रहा होता है।
और लोहा पिघलाने वाले भट्ठी और फोर्ज का कागज पर चित्र बनाकर इंग्लैंड ले जाता है। पिक संख्या 2,3 ,4 उसकी ही है
लेकिन ऑब्जेक्शन सिर्फ एक ही है कि वह इन सारे एक्सपर्ट्स को या तो लेबर लिखता है या सर्वेंट, जबकि अगले 50 वर्षो के बाद भी उसके देश मे यह मैन्युफैक्चरिंग की कोई स्थापित तकनीक न विकसित हो पाई, इसलिए बहुत महंगी थी।
#विशेष --
उस समय 90 हजार लोग इन भट्टियों में काम करते थे। अंग्रेजों ने 1874 में बंगाल आयरन कंपनी की स्थापना कर बड़े पैमाने पर उत्पादन चालू किया। परिणामस्वरूप धीरे-धीरे गांव-गांव में बनने वाले इस्पात की खपत कम होती गई और उन्नीसवीं सदी के अन्त तक स्वदेशी इस्पात बनना लगभग बंद हो गया। अंग्रेजों ने बड़े कारखाने लगाकर स्वदेशी प्रौद्योगिकी की कमर तोड़ दी। इसका दु:खद पक्ष यह है कि भारतीय धातु प्रौद्योगिकी लगभग लुप्त हो गई। आज झारखंड के कुछ वनवासी परिवारों में इस तकनीक के नमूने मात्र रह गए हैं।
भारत करोड़ो रुपए कार्बन स्टील(इस्पात) बनाने में खर्च करता है लेकिन गुणवत्ता के मामले में वो अभी भी उस प्राचीन विस्मृत तकनीक के आस पास भी नही है आज भी यदि झारखण्ड के लोगो से वो तकनीकी लेकर उसका औद्योगिकरण कर लिया जाए तो सस्ता और बेहद मजबूत कार्बन स्टील बनाया जा सकता है जो पूरे विश्व मे प्रसिद्ध होगा जिसका कोई विकल्प नही होगा ।।
#सोर्स --
India Was the First to Smelt Zinc by Distillation Process (By D.P. Agrawal & Lalit Tiwari)
Zinc Production in Ancient India (by J.S. Kharakwal)
Kumaon Iron Works, the British and Traditional Technology (By D.P. Agrawal and Pankaj Goyal)
Survival of Traditional Indian Iron Technology (By Pankaj Goyal)
Copper Technology in the Central Himalayas Goes Back to 2000BC (By D.P. Agrawal & Lalit Tiwari)
#चित्र -- 1st पिक - 17वीं- 18वीं शताब्दी की भारतीय कटार और उसकी म्यान।
पिक संख्या 2,3 ,4 डॉ फ्रंसिस हैमिलटन बुचनान की नोट बुक का अंश ।
साभार: अजेष्ठ त्रिपाठी, https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=467799167019827&id=100013692425716