Saturday 22 April 2017

यह है 32 हजार वर्ष पुरानी भगवान नरसिंह की मुर्ति – जर्मनी में है

#साभार

यह है 32 हजार वर्ष पुरानी भगवान नरसिंह की मुर्ति – जर्मनी के संग्रहालय में है
BY SHIVAM SHARMA BHARTIYA · APRIL 22, 2016

मानव इतिहास में बहुत सी खोजे हुई हैं, भारत में 5000 वर्ष पुरानी हरप्पा सभ्यता हो या फिर वह इजिप्ट के पिरामिड़ क्यों ना हो। हमारा हिन्दु धर्म जिसे पहले मात्र 12000 हजार वर्ष पुराना माना जाता है, इस खोज से अब इतिहासकारों और वैज्ञानिकों को जरूर समझना चाहिए कि वास्तव में हिन्दू धर्म कितना प्राचीन है।

इन्ही में से एक दक्षिण जर्मनी में एक बहुत ही दुर्लभ खोज हुई थी, जिसने पुरे विश्व के वैज्ञानिकों को हैरान कर दिया था। उन्हें जो मिला था वह किसी “लाइन-मैन” या नरसिंह भगवान की प्रतिमा जैसा प्रतीत हो रहा था। तस्वीर में आप देख सकते हैं।।

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उस दुर्लभ खोज ने जो कि एक 32 हजार वर्ष पुरानी मुर्ति थी उसने पुरी दुनिया के वैज्ञानिकों को हैरत में डाल दिया था।

यह बात है सन 1930-35 के करीब की जब जर्मनी के इतिहासकार वहां की बहुत पुरानी जगहों की खुदाई कर रहे थे, तब उन्हें वहां पर बहुत सी चीजें मिली थी। पहले तो उन्हें उस जगह पर पक्षियों ,घोडों, कछुए, और कुछ शेरों के अवशेष मिले, बाद में गहन खोज करने पर उन्हें नरसिंह भगवान की एक दुर्लभ प्रतिमा मिली। यह स्वाभिक था कि जिस जगह पर सिवाए जनवरों के अवशेषों के अलावा कुछ नहीं है वहां पर इस तरह की दुर्लभ मुर्ति मिलना बहुत चमत्कारिक था। इस खोज नो उस समय सबको हैरान में डाल दिया था।

इस मुर्ति को 1939 में  Stadel-Höhle im Hohlenstein  ((Stadel cave in Hohlenstein Mountain) नाम की गुफा में खोजा गया था।  

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सन 1939 में जर्मनी और पुरे विश्व में दुसरा विश्व युद्ध छिड़ गया जिस कारण इस मुर्ति से पुरी दुनिया का ध्यान हट गया था। फिर बाद में सन 1998 में मुर्ति के सभी टुकड़ो को जोडकर उसे नया रूप दिया जो एक दम भगवान विष्णु के नरसिंह अवतार की तरह लग रही थी।

भगवान विष्णु ने एक हिरण्यकश्यपु राक्षस को मारने के लिए नरसिंह का रूप धारण किया था। नरसिंह रूप का अर्थ होता है – आधा शेर और आधा मनुष्य। वेदो और शास्त्रों में इस घटना का पुरा वर्णन मिलता है।

यह खोज वास्तव में बहुत अद्भुत है, लेकिन इतिहासकरों और खोजकर्ता इस बात को अभी तक समझ नहीं पा रहे हैं कि क्या है वास्तव में भगवान नरसिंहदेव की प्रतिमा है और यदि है तो वह आज जर्मनी में क्यों मिली है। साधारणत: भगवान विष्णु के मंदिर एशिया में है और मुर्ति का युरोप में मिलना सभी को हैरानी में डाल देता है।

Courtesy: https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=449941645346854&id=100009930676208

ये शुतुरमुर्ग प्रजाति कब सुधरेगी?

ये शुतुरमुर्ग प्रजाति कब सुधरेगी?
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मुझे हिन्दू धर्म के अंदर के कई मत-पंथ और धर्मगुरु इसलिये बर्दाश्त नहीं होते क्योंकि उनके अंदर सर्व-धर्म समानता का मूढ़ भाव होता है, जिसे वो अपने मानने वालों में फैलाते रहतें हैं. ऐसे ही टीवी पर एक आते हैं 'सरश्री'. एक दिन उन्हें सुन रहा था, वो कह रहे थे कि जिस तरह ईश्वर का एक नाम हिन्दुओं में 'अमर' है उसी तरह इस्लाम में अकबर है, अकबर माने.....अ+कबर यानि जिसकी कोई कबर (कब्र) नहीं है. अकबर अरबी भाषा का शब्द है और उसमें ये मूर्ख आदमी हिंदी व्याकरण के नियम फिट कर उसका मनमाना अर्थ लगाकर सर्वधर्म समभाव की मूढ़ता का परिचय दे रहा था.
ऐसे ही धर्मगुरुओं ने ये बीमारी हिन्दू समाज में और इस देश में फैलाई हुई है. दो-तीन पहले एक हिंदू मित्र ने अपनी वाल पर कुछ प्रश्न और उसके ऐसे ही बेतुके जबाब देते हुए हिन्दुओं की शुतुरमुर्गी भावना का प्रदर्शन किया था जो महफ़िल लूटने के लिये कुछ भी बोल और लिख सकता है. पहला सवाल "अजान अरबी में ही क्यूं ?" का जबाब देते हुए लिखतें हैं, श्रीकृष्ण बृज के रहने बाले थे लेकिन उपदेश संस्कृत में दिया क्यूंकि तत्कालीन शिक्षा और पढाई देववाणी संस्कृत में ही थी.
अब इनको बताये कि गीता धर्मोपदेश थी जबकि अज़ान एक पुकार है जो ये बताती है कि आपकी इबादत का वक़्त हो गया है. इसके लिये भाषा की कोई बाध्यता नहीं है. अज़ान की प्रथा अरब से शुरू हुई तो वहां अरबी में दी गई, तुर्की वाले तो अज़ान अपनी भाषा में देतें हैं. ये बात अगर ये कुरान के सन्दर्भ में कहतें तो मानी जा सकती थी पर अज़ान और गीता की तुलना हास्यास्पद है.
इनका दूसरा प्रश्न भी इसी से सम्बद्ध है, वो पूछते हैं, भारत में अजान का हिंदी अनुवाद क्यूं नहीं बोला जाता ? इसपर स्वयं ही जबाब देते हुए कहतें हैं, वेदों के मंत्र हों, गीता के श्लोक हों या तुलसी की चौपाई हों या गायत्री मंत्र, संसार के किसी कोने में बोली जाये अपने मूल रूप में ही उच्चारित की जायेंगी अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो जायेगा.
यहाँ भी उनका ऐसा लिखना उनके उस समझ के नतीजे में है जिसके आधार पर उन्होंने एक पुकार (अज़ान) और गीता-वेद इत्यादि को एक माना है.
इनका तीसरा प्रश्न है, जिहाद क्या है ? ये स्वयं ही इसका उत्तर देतें हैं, कहतें हैं, ये धर्म की लडाई है विधर्मियों के खिलाफ, जिस प्रकार श्री कृष्ण ने पांडवों को धर्म पर चलने वाला और कौरवों को अधर्मी बता कर अर्जुन से उन्हें खत्म करने की बात कही, उसी प्रकार नबी सल्ल ने अपने ही परिवार के उन कुरैशों को जो समाज में अनाचार फैला रहे थे, विधर्मी करार दिया और उनके खिलाफ जंग की.
भाई मेरे, अरब की तारीख उठा के देख लें, कुरैश या अरब ने ऐसा कोई भी अनाचार नहीं किया था जिसके चलते उन्हें विधर्मी ठहराया जा सके. आज दुनिया जिस सर्वधर्म समभाव की बात करती है वो अरबों का ही विशिष्ट गुण था, उनके अपने आराधनालय में दुनिया के मुख्तलिफ मजहबों के आदर्श मूर्ति, चित्र या प्रतीक रूप में सम्मान पाते थे और वो अरब उनका एहतेराम करते थे. इस्लाम से पूर्व उन्होंने कभी किसी देश की सीमा का अतिक्रमण नहीं किया, किसी पर हमला नहीं किया, दुनिया उनके व्यापारिक कौशल की दीवानी थी, अरबों के मेहमाननवाजी की चर्चा पूरी दुनिया में मशहूर थी और आपने अपनी अज्ञानता में उन्हें अनाचार फैलाने वाला लिख दिया. जहाँ तक आपके ये लिखने का प्रश्न है कि जिहाद धर्म की लडाई है विधर्मियों के खिलाफ तो ये भी आपकी अज्ञानता का सबूत है क्योंकि अरबी में धर्म-युद्ध के लिये प्रयुक्त शब्द है हर्बू-मुकद्दसा न कि जिहाद.
इनका चौथा प्रश्न था, चौथा प्रश्न : अल्लाह सबसे बडा क्यूं ? जबाब में ये कहतें हैं, "यही बात नबी सल्ल से हजार बारह सौ साल पहले गीता में भी कही गयी कि मैं ही परमब्रम्ह हूं/ सारी श्रृष्टि मेरी ही बनायी हुई है. सारा ब्रह्माण्ड मुझमें ही समाया हुआ है. देवी देवताओं के चक्कर में पडने बाले मूर्ख हैं.जो हूं सो मैं ही हूं, दूसरा कोई नहीं. नबी सल्ल ने तो उनकी ओर आपका ध्यान आकर्षित किया है बस।
भाई गीता पढ़ लें पहले, जो शब्द आपने कृष्ण के मुंह में जबरन ठूंसे हैं वैसा प्रभु ने गीता में कहीं भी नहीं कहा, बल्कि उन्होंने तो ये कहा कि कोई भी किसी की भी उपासना करे, किसी भी रीति से करे अंततः मुझ तक ही पहुँचता है, जबकि ला इलाहा इल्ललाह में ये भाव नहीं है. अगर ये भाव होता तो इस्लाम पूर्व के अरब भी तो यही कहते थे बस बाद में जोड़ देते थे कि जिनको तू इलाह बनाये. पर उनकी ये तब्दीली बर्दाश्त नहीं की गई.
कुछ भी लिख दोगे तो कैसे चलेगा?
इनका पांचवां प्रश्न : काफिर कौन है ? जबाब देतें हैं, वो सभी लोग जो सर्वशक्तिमान ईश्वर की राह से भटक कर अंधविश्वास के गर्त में चले गये हैं. बुतपरस्ती की आड़ में मासूम लोगों को लूट रहे हैं. काफिर वो जो कुफ्र करे. अधर्म की राह पर चले.
काफिर की परिभाषा समझाते हुए आपने जो चार बिंदु लिखे हैं इस्लाम के किसी भी मान्य ग्रन्थ से इनमें से सिर्फ एक कि काफिर वो जो कुफ्र करे को छोड़कर बाकी बातें काफ़िर की परिभाषा से निकाल कर दिखा दें तो मान लूँगा.
अपना मूढ़-मति और जड़ हो चुका समाज जब जागृत होने की कोशिश करता है तो ऐसी पोस्टें उसकी राह में बाधा बन जातें हैं.
सही और तार्किक तथ्य के साथ आओगे तो सम्मान है, तुमसे सीखेंगें भी पर महफ़िल लूटने के लिये ज्ञान का बलात्कार करोगे तो ये नहीं चलने देंगे.
~ #अभिजीत_सिंहजी
Courtesy: Agyeya Atman https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=449500872057598&id=100009930676208

राजा की स्वेच्छाचारिता और निरंकुश शासन के विरुद्ध धर्म गुरुओं के आंदोलन

राष्ट्रधर्म के पालन करने में जब शासनतंत्र निष्फल हूआ तब व्यास पीठ ने आंदोलन किये और पुन: राष्ट्रधर्म की स्थापना की । राजा की स्वेच्छाचारिता और निरंकुश शासन के विरुद्ध धर्म गुरुओं का आंदोलन हुए। इस का प्रारम्भ देवर्षि भगवान् नारद ने किया और इस परम्परा में समर्थ गुरुरामदास जी अंतिम हैं । आदि सत्ययुग में जब हिरण्यकश्यप के निरंकुश शासन और आर्यों परअत्याचार किये उस समय देवर्षि नारद ने हिरण्यकश्यप के विरुद्ध उसी के पुत्र प्रह्लार्द को निमित्त बना कर आंदोलन किया और पुन: राष्ट्रधर्म की स्थापना की । जब राजा वेन के स्वेच्छाचारी और निरंकुश शासन से आर्य संस्कृति प्रभावित हुई तब वालखिल्यादि ऋषियों ने जिसमेंभार्गव शुक्राचार्य प्रमुख थ। सम्राट वेन के विरुद्ध उसी के पुत्र वैन्यू पृथु को निमित्त बना कर आंदोलन किया और राष्ट्रधर्म की स्थापना की । जब शक यवनों पल्लवों दर्द काम्बोज किम्पिरियन कुषाण हूण हैहय शशविन्दु तालजन्घ आदि क्षत्रिय निरंकुश हो कर आर्य संस्कृति को नष्ट करने लगे तब महर्षि और्व ने सगर को निमित्त बना कर इन समस्त जातियों शक यवन दर्द काम्बोज पल्लव कुषाण हूण किम्पिरियन हैहय शशविन्दु तालजन्घ को सीखा रहित कर के आनार्य जातियों में परिणित कर दिया और पुन: राष्ट्रधर्म की स्थापना की । जब हैयह क्षत्रिय निरंकुश हो कर अनार्य कर्म कर के वैदिक संस्कृति को नष्ट कर ने लगे तब भगवान् भार्गव परशुराम ने हैयह अर्जुन के विरुद्ध उसी के पुत्र जयध्वज को निमित्त बना कर हैयहो का संहार कर के पुन: राष्ट्र धर्म की स्थापना की जब रावण ने बल के अभिमान में आ कर समूची मानव जाती को कष्ट दिये तब भगवान् वशिष्ठ ने विश्वामित्र जी को साथ लेकर भगवान् श्री राम को निमित्त बना कर रावण के विरुद्ध आंदोलन किया और राष्ट्रधर्म की स्थापना की और जो उपदेश श्री राम को दिया वह योग वशिष्ठ में संकलित है । जब धरती मनुष्य राजा रूपी असुरों से त्रस्त हो गयीं निरंकुश राजा धृतराष्ट्र के विरुद्ध भगवान् वेदव्यास ने धृतराष्ट्र के ही अनुजात्मज युधिष्ठिर को निमित्त बना कर आंदोलन किया और पुन:धर्म की स्थापना की । कलियुग के हजार वर्ष व्यतीत होने पर जब समूची पृथ्वी पर नये नये धर्म विकसित हो गये और आर्य संस्कृति को नष्ट करने लगे तब कश्यप ऋषि के पुत्र कण्व ने मिश्र देश (आधुनिक अफ्रीका अरब ईराक तुर्क आदि )जा कर धर्म का प्रचार किया और आर्यपृथु को निमित्त बना कर आंदोलन किया और राष्ट्रधर्म की स्थापना की । जब असुरों ने वेदों का गलत अर्थ कर के अपनी हिंसा को वेदप्रतिपादित कर के हर घर में हिंसा कर ने लगे तब भगवान् बुद्ध ने बिम्बिसार को निमित्त बना कर असुरों के विरुद्ध आंदोलन किया और पुन: राष्ट्रधर्म की स्थापना की । जब नन्दों के स्वेच्चाचारी और निरंकुश शासन से राष्ट्र संस्कृति जर्जर हो रही थी तब महर्षि चाणक्य ने चंद्रगुप्त मौर्य को निमित्त बना कर नन्दों के विरुद्ध आंदोलन किया और राष्ट्रधर्म की स्थापना की । जब यवनों के आक्रमणों से और मोर्यो के निष्कृय और अहिंसात्मक शासन से राष्ट्रसंकट में था धर्म पर झन्झावतों की अति हो रही थी तब स्वयं े पुष्यमित्र ने अपने आप को निमित्त बना कर आंदोलन किया और राष्ट्रधर्म की स्थापना की । जब बौद्धों के अत्याचार और उच्छृंखल प्रवृत्ति के कारण राष्ट्रकमजोर हो गया और असुरों के आक्रमण होने लगे तब वशिष्ठ मुनि ने असुरों के विरुद्ध चार राजपुतो को निमित्त बना कर आंदोलन किया और राष्ट्रधर्म की स्थापना की । अनेक पंथ अनेक सम्प्रदाय अपनी मौलिकता खो कर सिर्फ आडम्बर बन कर रह गये और वैदिक संस्कृति लुप्त हो गयीं तब भगवान् आद्य शंकराचार्य जी ने राजा सुधन्वा के विरुद्ध स्वयं सुधन्वा को निमित्त बना कर आंदोलन किया और पुन: वैदिक धर्म की स्थापना की । जब शक पल्लव हूण जातियाँ भारत पर निरन्तर आक्रमण कर रहीं थीं और आर्य संस्कृति नष्ट हो रही थी तब भगवान् रेणुकाचार्य ने विक्रमादित्य को निमित्त बना कर आंदोलन किया और राष्ट्रधर्म की पुन: स्थापना की । जब अरबों के आक्रमणों से आर्य संस्कृति नष्ट होने लगी तब ऋषि हरितराशि ने अपने शिष्य वप्पा रावल को निमित्त बना कर अरबों के विरुद्ध आंदोलन किया और आर्य संस्कृति की रक्षा की । जब तुर्कों के अत्याचारों से पीड़ित सम्पूर्ण भारत वर्ष में आर्य धर्म विलुप्ति के कगार पर पहुँच गया तब आचार्य माधव ने हरीहर बुक्का नाम के भाईयो को निमित्त बना कर तुर्कों के विरुद्ध आंदोलन किया और दक्षिण में पुन राष्ट्रधर्म की स्थापना विजयनगर के रूप में की । जब मुग़लों के अत्याचारों से हिंदू धर्म अंतिम सांसे ले रहा था तब समर्थगुरु रामदास जी ने शिवाजी महाराज को निमित्त बना कर मुग़लों के विरुद्ध आंदोलन किया और राष्ट्रधर्म की स्थापना की ।

Courtesy: Manisha Singh

 

श्रीराम जन्मभूमि विवाद को राजनीतिक दांव-पेंच का अखाड़ा कब तक बनाकर रखा जाएगा?

श्री राम जन्मभूमि को तोड़कर कर आक्रांता बाबर द्वारा बनाए गये ढांचे को ढहाना कोई राष्ट्रीय अपराध नहीं अपितु राष्ट्रीय स्वाभिमान का जागरण था। इस आन्दोलन के नायकों पर 16 साल के अन्तराल के बाद जब उक्त स्थान को हाई कोर्ट के द्वारा भी श्रीराम लला का जन्म स्थान भी मान लिया गया है सीबीआई द्वारा आपराधिक केस चलाने की मांग करना हिन्दू भावनाओं को आहत करनेवाला है।
लखनऊ कोर्ट ने 16 साल पहले तकनीकी आधार पर इन नेताओं से आपराधिक साजिश के आरोपों को हटा लिया था। सीबीआई ने अशोक जी सिंहल, आचार्य गिरिराज किशोर जी, आडवाणी जी और जोशी जी सहित 19 लोगों के खिलाफ आपराधिक साजिश रचने [आइपीसी धारा 120बी] का मुकदमा चलाने की मांग की थी। हाई कोर्ट ने सीबीआइ की याचिका खारिज कर दी थी और आरोपी नेताओं को आपराधिक साजिश के आरोप से मुक्त करने के निचली अदालत के फैसले को सही ठहराया ।
16 साल बाद सीबीआई को इसके राष्ट्रीय अपराध होने का बोध कैसे हो गया? सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान जब सीबीआइ की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता पीपी राव ने कहा था कि यह मामला बहुत महत्वपूर्ण है। आरोपियों ने राष्ट्रीय अपराध (नेशनल क्राइम ) किया है। इस पर मामले की सुनवाई कर रही पीठ ने गहरी आपत्ति जताई। कोर्ट ने कहा कि वह नेशनल क्राइम जैसे शब्द का प्रयोग न करें। अभी अदालत को मामले पर निर्णय लेना है। जब तक अदालत इस बारे में फैसला नहीं करती, वह इस तरह के शब्दों का प्रयोग न करें। कोर्ट ने यह भी कहा कि सीबीआइ मामले को बहुत महत्वपूर्ण बता रही है तो क्या वह ये बता सकती है कि उसे हाई कोर्ट के आदेश के खिलाफ अपील दाखिल करने में इतनी देर क्यों हुई। कोर्ट रिकार्ड का अनुवाद दाखिल करने में विलंब क्यों हुआ।
आज यह प्रश्न खड़ा होता है कि सरकार की संस्थाओं को राम जन्मभूमि का ढहाना राष्ट्रीय अपराध तो दिखता है, परन्तु सरकार को इस विवाद का राष्ट्रीय महत्व दिखाई नहीं देता । संसद में कानून बनाने की बात तो दूर दिन- प्रतिदिन की सुनवाई के लिए भी सरकार द्वारा पहल क्यों नहीं की जा रही है ? श्रीराम जन्मभूमि विवाद को राजनीतिक दांव-पेंच का अखाड़ा कब तक बनाकर रखा जाएगा?
यह प्रश्न बार-बार पूछा जाएगा कि16 साल बाद सीबीआई को इसे राष्ट्रीय अपराध बताते हुए सर्वोच्च न्यायालय जाने की सुध अभी क्यों आई?

Courtesy: Hindu Jaagran



“केरल” का तेजी से बढ़ता ईस्लामी तालिबानीकरण।

“केरल” का तेजी से बढ़ता ईस्लामी तालिबानीकरण।
जब वामपंथी कहते हैं कि “धर्म एक अफ़ीम की तरह है…” तो उनका मतलब सिर्फ़ हिन्दू धर्म से होता है, मुसलमानों और ईसाईयों के सम्बन्ध में उनका यह बयान कभी नहीं आता। पश्चिम बंगाल के 22 से 24 जिलों में मुस्लिम आबादी को 50% से ऊपर वे पहले ही पहुँचा चुके हैं, अब नम्बर आया है केरल का। यदि भाजपा हिन्दू हित की कोई बात करे तो वह “साम्प्रदायिक” होती है, लेकिन यदि वामपंथी कोयम्बटूर बम विस्फ़ोटों के आरोपी अब्दुल मदनी से चुनाव गठबन्धन करते हैं तो यह “सेकुलरिज़्म” होता है, कांग्रेस यदि केरल में मुस्लिम लीग को आगे बढ़ाये तो भी यह सेकुलरिज़्म ही है, शिवराज पाटिल आर्चबिशपों के सम्मेलन में जाकर आशीर्वाद लें तो भी वह सेकुलरिज़्म ही होता है… “शर्मनिरपेक्ष” शब्द इन्हीं कारनामों की उपज है। भाजपा-संघ-हिन्दुओं और भारतीय संस्कृति को सतत गरियाने वाले ज़रा केरल की तेजी से खतरनाक होती स्थिति पर एक नज़र डाल लें, और बतायें कि आखिर वे भाजपा-संघ को क्यों कोसते हैं? नीचे video में आप सब देख सकते है कि पोपुलर फ्रन्ट इन्डिया ने अपनी खुद की इस्लामी फौज बना ली है। इनको बस समुद्र के तटव्रती मदरसों से हथयार निकालने की देरी है, 24 घंटे के अन्दर आपको ISIS का रुप केरल में देखने मिल जायेगा।
केरल राज्य की स्थापना सन् 1956 में हुई, उस वक्त हिन्दुओं की जनसंख्या 61% थी। मात्र 50 साल में यह घटकर 55% हो गई है, जबकि दूसरी तरफ़ मुस्लिमों और ईसाईयों की संख्या में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई है। हिन्दुओं की नकारात्मक जनसंख्या वृद्धि दर के पीछे कई प्रकार के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक कारण हैं, लेकिन सच यही है कि केरल का तेजी से तालिबानीकरण/इस्लामीकरण हो रहा है। केरल की राजनैतिक परिस्थितियों का फ़ायदा जितनी चतुराई से इस्लामी शक्तियाँ उठा रही हैं, उतनी ही चालाकी से मिशनरी भी उठा रही है। जनसंख्या के कारण वोटों का सन्तुलन इस प्रकार बन चुका है कि अब कांग्रेस और वामपंथी दोनों को “मेंढक” की तरह “कभी इधर कभी उधर” फ़ुदक-फ़ुदक कर उन्हें मजबूत बना रहे हैं।
केरल के बढ़ते तालिबानीकरण के पीछे एक कारण है “पेट्रो डॉलर” की बरसात, जो कि वैध या अवैध हवाला के जरिये बड़ी मात्रा में प्रवाहित हो रहा है। मिशनरी और मुल्लाओं को मार्क्सवादियों और कांग्रेस का राजनैतिक सहारा तो है ही, हिन्दू जयचन्दों और “सेकुलर बुद्धिजीवियों” का मानसिक सहारा भी है। जैसे कि एक मलयाली युवक जिसका नाम जावेद “था” (धर्म परिवर्तन से पहले उसका नाम प्रणेश नायर था) जब गुजरात के अहमदाबाद में (15 नवम्बर 2004 को) पुलिस एनकाउंटर में मारा गया और यह साबित हो गया कि वह लश्कर के चार आतंकवादियों की टीम में शामिल था जो नरेन्द्र मोदी को मारने आये थे, तब भी केरल के “मानवाधिकारवादियों” (यानी अंग्रेजी बुद्धिजीवियों) ने जावेद(?) को हीरो और शहीद बताने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। लेकिन जब हाल ही में कश्मीर में सुरक्षा बलों के हाथों मारे गये चार युवकों के पास से केरल के मतदाता परिचय पत्र मिले तब इन “सेकुलरिस्टों” के मुँह में दही जम गया।
केरल के तालिबानीकरण का इतिहास तो सन् 1921 के मोप्ला दंगों से ही शुरु हो चुका है, लेकिन “लाल” इतिहासकारों और गठबंधन की शर्मनाक राजनीति करने वाली पार्टियों ने इस सच को दबाकर रखा और इसे “सिर्फ़ एक विद्रोह” कहकर प्रचारित किया।। एनीबेसेण्ट जैसी विदुषी महिला ने अपनी रिपोर्ट (29 नवम्बर 1921) में कहा था – ..The misery is beyond description. Girl wives, pretty and sweet, with eyes half blind with weeping, distraught with terror; women who have seen their husbands hacked to pieces before their eye, in the way “Moplas consider religious”, old women tottering, whose faces become written with anguish and who cry at a gentle touch and a kind look, waking out of a stupor of misery only to weep, men who have lost all, hopeless, crushed, desperate. ….. I have walked among thousands of them in refugee camps, and sometimes heavy eyes would lift as a cloth was laid gently on the bare shoulder, and a faint watery smile of surprise would make the face even more piteous than the stupor.
तथा तत्कालीन कालीकट जिला कांग्रेस कमेटी के सचिव माधवन नायर ने रिपोर्ट में लिखा है – Can you conceive of a more ghastly and inhuman crime than the murder of babies and pregnant women? … A pregnant woman carrying 7 months was cut through the abdomen by a rebel and she was seen lying dead with on the way with the dead child projecting out … Another baby of six months was snatched away from the breast of the mother and cut into two pieces. … Are these rebels human beings or monsters?
जबकि आंबेडकर, जो कि उच्च वर्ग के प्रति कोई खास प्रेम नहीं रखते थे, उन्होंने भी इस तथाकथित “खिलाफ़त” आन्दोलन के नाम पर चल रही मुस्लिम बर्बरता के खिलाफ़ कड़ी आलोचना की थी। अम्बेडकर के अनुसार “इस्लाम और भारतीय राष्ट्रीयता को समरस बनाने के सारे प्रयास विफ़ल हो चुके हैं… भारतीय संस्कृति के लिये इस्लाम “शत्रुतापूर्ण और पराया” है…”, लेकिन फ़िर भी गाँधी ने इस “बर्बर हत्याकाण्ड और जातीय सफ़ाये” की निंदा तो दूर, एक शब्द भी इसके खिलाफ़ नहीं कहा… मुस्लिमों को शह देकर आगे बढ़ाने और हिन्दुओं को सतत मानसिक रूप से दबाने का उनका यह कृत्य आगे भी जारी रहा… जिसके नतीजे हम आज भी भुगत रहे हैं…। तात्पर्य यह 1921 से ही केरल का तालिबानीकरण शुरु हो चुका था…
हद तो तब हो गई जब फ़रवरी 2005 में CPM (Communal Politicians of Marx) ने वरियमकुन्नाथु कुन्जाअहमद हाजी को एक महान कम्युनिस्ट योद्धा और शहीद का दर्जा दे दिया। उल्लेखनीय है कि ये हाजी साहब 1921 के मलाबार खिलाफ़त आंदोलन में हजारों मासूम हिन्दू औरतों और बच्चों के कत्ल के जिम्मेदार माने जाते हैं, यहाँ तक कि “मुस्लिम लीग” भी इन जैसे “शहीदों”(?) को अपना मानने में हिचकिचाती है, लेकिन “लाल” झण्डे वाले इनसे भी आगे निकले।
अक्सर देखा गया है कि जब भी कोई हिन्दू व्यक्ति धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बन जाता है तो उतना हो-हल्ला नहीं होता, भाजपा-संघ यदि हल्ला करें भी तो उन्हें “साम्प्रदायिक” कहकर दबाने की परम्परा रही है, लेकिन जब कोई मुस्लिम व्यक्ति हिन्दू धर्म स्वीकार कर ले तब देखिये कैसा हंगामा होता है और “वोट बैंक के सौदागर” और दूसरों (यानी हिन्दुओं) को उपदेश देने वाले बुद्धिजीवी कैसे घर में घुसकर छुप जाते हैं। इसके कई उदाहरण हमारे सामने हैं (ताजा मसला चांद-फ़िजा तथा इससे पहले कोलकाता का रिज़वान हत्या प्रकरण, जिसमें मुस्लिम से हिन्दू बनने पर हत्या तक हो गई)। लेकिन इस कथित “शांति का संदेश देने वाले” और “सभ्य” इस्लाम के अनुयायियों ने केरल में 1946 में ही उन्नियन साहब (मुस्लिम से हिन्दू बनने के बाद उसका नाम “रामासिंहम” हो गया था) और उनके परिवार की मलाबार इलाके के मलप्पुरम (बहुचर्चित मलप्पुरम हत्याकाण्ड) में सरेआम हत्या कर दी थी, क्योंकि “रामासिम्हन” (यानी उन्नियन साहब) ने पुनः हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया था। उस समय भी इन तथाकथित प्रगतिशील वामपंथियों ने पुलिस की जाँच को विभिन्न तरीके अपनाकर उलझाने की भरपूर कोशिश की थी ताकि असली मुजरिम बच सकें (EMS के चुनिंदा लेख (Vol.II, pp 356-57) और इनके तत्कालीन नेता थे महान वामपंथी ईएमएस नम्बूदिरिपाद। केरल की ये पार्टियाँ आज 60 साल बाद भी मुस्लिम तुष्टिकरण से बाज नहीं आ रही, बल्कि और बढ़ावा दे रही हैं।
हिन्दू विरोध धीरे-धीरे कम्युनिस्टों का मुख्य एजेण्डा बन गया था, 1968 में इसी नीति के कारण देश में एक “शुद्ध मुस्लिम जिले” मलप्पुरम का जन्म हुआ। आज की तारीख में यह इलाका मुस्लिम आतंकवाद का गढ़ बन चुका है, लेकिन देश में किसी को कोई फ़िक्र नहीं है। केरल सरकार ने मलप्पुरम जिले में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की शाखा खोलने के लिये 24 एकड़ की ज़मीन अधिगृहीत की है, जिसे 1000 एकड़ तक बढ़ाने की योजना है, ताकि राज्य में जमात-ए-इस्लामी का “प्रिय” बना जा सके (अब आप सिर धुनते रहिये कि जब पहले से ही जिले में कालीकट विश्वविद्यालय मौजूद है तब उत्तरप्रदेश से हजारों किमी दूर अलीगढ़ मुस्लिम विवि की शाखा खोलने की क्या तुक है, लेकिन भारत में मुस्लिम वोटों के लिये “सेकुलरिज़्म” के नाम पर कुछ भी किया जा सकता है), भले ही केरल की 580 किमी की समुद्री सीमा असुरक्षित हो, लेकिन इस प्रकार के मूर्खतापूर्ण कामों पर पैसा खर्च किया जा रहा है।

1980 में मलप्पुरम में कई सिनेमाघरों में बम विस्फ़ोट हुए, पुलिस ने कुछ नहीं किया, केरल के उत्तरी इलाकों में गत एक दशक में कई विस्फ़ोट हो चुके हैं लेकिन पुलिस कहीं भी हाथ नहीं डाल पा रही। बेपूर बन्दरगाह पर हुए विस्फ़ोट में भी आज तक एक भी आरोपी नहीं पकड़ाया है, ज़ाहिर है कि सत्ताधारी पार्टी ही जब समर्थन में हो तो पुलिस की क्या हिम्मत। लेकिन मलप्पुरम जिले का तालिबानीकरण अब बेहद खतरनाक स्थिति में पहुँच चुका है, हाल ही में 25 जुलाई 2008 के बंगलोर बम विस्फ़ोटों के सिलसिले में कर्नाटक पुलिस ने नौ आरोपियों के खिलाफ़ केस दायर किया है और सभी आरोपी मलप्पुरम जिले के हैं, क्या इसे सिर्फ़ एक संयोग माना जा सकता है? 6 दिसम्बर 1997 को त्रिचूर रेल धमाके हों या 14 फ़रवरी 1998 के कोयम्बटूर धमाके हों, पुलिस के हाथ हमेशा बँधे हुए ही पाये गये हैं।
पाठकों ने गुजरात, अहमदाबाद, कालूपुर-दरियापुर-नरोडा पाटिया, ग्राहम स्टेंस, कंधमाल आदि के नाम सतत सुने होंगे, लेकिन मराड, मलप्पुरम या मोपला का नाम नहीं सुना होगा… यही खासियत है वामपंथी और सेकुलर लेखकों और इतिहासकारों की। मीडिया पर जैसा इनका कब्जा रहा है और अभी भी है, उसमें आप प्रफ़ुल्ल बिडवई, कुलदीप नैयर, अरुंधती रॉय, महेश भट्ट जैसों से कभी भी “जेहाद” के विरोध में कोई लेख नहीं पायेंगे, कभी भी इन जैसे लोगों को कश्मीर के पंडितों के पक्ष में बोलते नहीं सुनेंगे, कभी भी सुरक्षाबलों का मनोबल बढ़ाने वाली बातें ये लोग नहीं करेंगे, क्योंकि ये “सेकुलर” हैं… इन जैसे लोग “अंसल प्लाज़ा” की घटना के बारे में बोलेंगे, ये लोग नरोडा पाटिया के बारे में हल्ला मचायेंगे, ये लोग आपको एक खूंखार अपराधी के मानवाधिकार गिनाते रहेंगे, अफ़ज़ल गुरु की फ़ाँसी रुकवाने का माहौल बनाने के लिये विदेशों के पाँच सितारा दौरे तक कर डालेंगे…। यदि इंटरनेट और ब्लॉग ना होता तो अखबारों और मीडिया में एक छोटी सी खबर ही प्रकाशित हो पाती कि “केरल के मराड में एक हिंसा की घटना में नौ लोगों की मृत्यु हो गई…” बस!!!
अब केरल में क्या हो रहा है… घबराये और डरे हुए हिन्दू लोग मुस्लिम बहुल इलाकों से पलायन कर रहे हैं, मलप्पुरम और मलाबार से कई परिवार सुरक्षित(?) ठिकानों को निकल गये हैं और “दारुल-इस्लाम” बनाने के लिये जगह खाली होती जा रही है। 580 किमी लम्बी समुद्री सीमा के किनारे बसे गाँवों में हिन्दुओं के “जातीय सफ़ाये” की बाकायदा शुरुआत की जा चुकी है। पोन्नानी से बेपूर तक के 65 किमी इलाके में एक भी हिन्दू मछुआरा नहीं मिलता, सब के सब या तो धर्म परिवर्तित कर चुके हैं या इलाका छोड़कर भाग चुके हैं। बहुचर्चित मराड हत्याकाण्ड भी इसी जातीय सफ़ाये का हिस्सा था, जिसमें भीड़ ने आठ मछुआरों को सरेआम मारकर मस्जिद में शरण ले ली थी (देखें)। 10 मार्च 2005 को संघ के कार्यकर्ता अश्विनी की भी दिनदहाड़े हत्या हुई, राजनैतिक दबाव के चलते आज तक पुलिस कोई सुराग नहीं ढूँढ पाई। मलप्पुरम सहित उत्तर केरल के कई इलाकों में दुकानें और व्यावसायिक संस्थान शुक्रवार को बन्द रखे जाते हैं और रमज़ान के महीने में दिन में होटल खोलना मना है। त्रिसूर के माथिलकोम इलाके के संतोष ने इस फ़रमान को नहीं माना और शुक्रवार को दुकान खोली तथा 9 अगस्त 1996 को कट्टरवादियों के हाथों मारा गया, जैसा कि होता आया है इस केस में भी कोई प्रगति नहीं हुई (दीपक धर्मादम, केरलम फ़ीकरारूड स्वान्थमनाडु, pp 59,60)।
पाठकों ने इस प्रकार की घटनाओं के बारे में कभी पढ़ा-सुना या टीवी पर देखा नहीं होगा, सभी घटनायें सच हैं और वीभत्स हैं लेकिन हमारा “राष्ट्रीय मीडिया”(?) जो कि मिशनरी पैसों पर पलता है, हिन्दू-विरोध से ही जिसकी रोटी चलती है, वामपंथियों और कांग्रेसियों का जिस पर एकतरफ़ा कब्जा है, वह कभी इस प्रकार की घटनाओं को महत्व नहीं देता (वह महत्व देता है वरुण गाँधी को, जहाँ उसे हिन्दुत्व को कोसने का मौका मिले)। ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं जिनमें हिन्दुओं की हत्या, अपहरण और बलात्कार हुए हैं, लेकिन “सेकुलरिज़्म” के कर्ताधर्ताओं को भाजपा-संघ की बुराई करने से ही फ़ुर्सत नहीं मिलती। कोट्टायम और एर्नाकुलम जिलों के जागरूक नागरिकों ने जंगलों में चल रहे सिमी के कैम्पों की जानकारी पुलिस को दी, पुलिस आई, कुछ लोगों को पकड़ा और मामूली धारायें लगाकर ज़मानत पर छोड़ दिया। इन्हीं “भटके हुए नौजवानों”(???) में से कुछ देश के विभिन्न हिस्सों में आतंकवादी गतिविधियों में पकड़ाये हैं। हाल ही में मुम्बई की जेलों में अपराधियों को इस्लाम धर्म अपनाने के लिये दाऊद गैंग का हाथ होने की पुष्टि आर्थर रोड जेल के जेलर ने की थी, यह तकनीक केरल में भी अपनाई जा रही है और नये-पुराने अपराधियों को धर्म परिवर्तित करके मुस्लिम बनाया जा रहा है। जब “सिमी” पर प्रतिबन्ध लग गया तो उसने नाम बदलकर NDF रख लिया, इस प्रकार विभिन्न फ़र्जी नामों से कई NGO चल रहे हैं जिनकी गतिविधियाँ संदिग्ध हैं, लेकिन कोई देखने-सुनने वाला नहीं है (दैनिक मंगलम, कोट्टायम, 9 फ़रवरी 2009)।
जैसा कि पहले उल्लेख किया गया “पेट्रो डॉलर” ने केरल में हिन्दू-मुस्लिम के बीच आर्थिक खाई को बहुत चौड़ा कर दिया है, खाड़ी से आये हुए हवाला धन के कारण यहाँ कई जिलों में 70% से अधिक ज़मीन की रजिस्ट्रियाँ मुसलमानों के नाम हुई हैं और हिन्दू गरीब होते जा रहे हैं। पैसा कमाकर लाना और ज़मीन खरीदना कोई जुर्म नहीं है, लेकिन “घेट्टो” मानसिकता से ग्रस्त होकर एक ही इलाके में खास बस्तियाँ बनाना निश्चित रूप से स्वस्थ मानसिकता नहीं कही जा सकती।यहाँ तक कि ज़मीन के इन सौदों में मध्यस्थ की भूमिका भी “एक खास तरह के लोग” ही निभा रहे हैं और इसके कारण हिन्दुओं और मुसलमानों में आर्थिक समीकरण बहुत गड़बड़ा गये हैं (मलयालम वारिका सम्पादकीय, Vol.VII, No.12, 25 जुलाई 2003)।
सदियों से हिन्दू गाय को माता के रूप में पूजते आये हैं, लेकिन भारत में केरल ही एक राज्य ऐसा है जिसने गौवंश के वध की आधिकारिक अनुशंसा की हुई है। सन् 2002 के केरल सरकार के आधिकारिक आँकड़ों के मुताबिक उस वर्ष पाँच लाख गायों का वध किया गया और 2,49,000 टन का गौमाँस निर्यात किया गया (न्यू इंडियन एक्सप्रेस, कोचीन 13 अगस्त 2003), जबकि असली आँकड़े निश्चित रूप से और भी भयावह होते हैं। भले ही मेडिकल साइंस इसके खतरों के प्रति आगाह कर रहा हो, भले ही हिन्दू धर्माचार्य और हिन्दू नेता इसका विरोध करते रहे हों, लेकिन केरल के किसी भी मुस्लिम नेता ने कभी भी इस गौवध का खुलकर विरोध नहीं किया।
केरल के सांस्कृतिक तालिबानीकरण की शुरुआत तो 1970 में ही हो चुकी थी, जबकि केरल के सरकारी स्कूल के “यूथ फ़ेस्टिवल” में “मोप्ला गीत” (मुस्लिम) और “मर्गमकल्ली” (ईसाई गीत) को एक प्रतियोगिता के तौर पर शामिल किया गया (केरल के 53 साल के इतिहास में 49 साल शिक्षा मंत्री का पद किसी अल्पसंख्यक के पास ही रहा है)। जबकि हिन्दुओं की एक कला “कोलकल्ली” का यूनिफ़ॉर्म बदलकर “हरी लुंगी, बेल्ट और बनियान” कर दिया गया… अन्ततः इस आयोजन से सारे हिन्दू छात्र धीरे-धीरे दूर होते गये। 1960 तक कुल मुस्लिम आबादी की 10% बुजुर्ग महिलायें “परदा” रखती थीं, जबकि आज 31% नौजवान लड़कियाँ परदा /बुरका रखती हैं, सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या मुस्लिम लड़कियों में कट्टरता बढ़ रही है, या कट्टरता उन पर थोपी जा रही है? वजह जो भी हो, लेकिन ऐसा हो रहा है।
6 नवम्बर 1999 को पोप जॉन पॉल ने दिल्ली के एक केथीड्रल में कहा था कि “जिस प्रकार पहली सदी में “क्रास” ने यूरोप की धरती पर कदम जमाये और दूसरी सदी में अमेरिका और अफ़्रीका में मजबूती कायम की, उसी प्रकार तीसरी सदी में हम एशिया में अपनी फ़सल बढ़ायेंगे…”, यह वक्तव्य कोई साधारण वक्तव्य नहीं है… थोड़ा गहराई से इसका अर्थ लगायें तो “नीयत” साफ़ नज़र आ जाती है। साफ़ है कि केरल पर दोतरफ़ा खतरा मंडरा रहा है एक तरफ़ “तालिबानीकरण” का और दूसरी तरफ़ से “मिशनरी” का, ऐसे में हिन्दुओं का दो पाटों के बीच पिसना उनकी नियति बन गई है। तीन साल पहले एक अमेरिकी नागरिक जोसेफ़ कूपर ने किलीमन्नूर में एक ईसाई समारोह में सार्वजनिक रूप से हिन्दू भगवानों का अपमान किया था (उस अमेरिकी ने कहा था कि “हिन्दुओं के भगवान कृष्ण विश्व के पहले एड्स मरीज थे…”), जनता में आक्रोश भी हुआ, लेकिन सरकार ने पता नहीं क्यों मामला रफ़ा-दफ़ा करवा दिया।
कश्मीर लगभग हमारे हाथ से जा चुका है, असम भी जाने की ओर अग्रसर है, अब अगला नम्बर केरल का होगा… हिन्दू जितने विभाजित होते जायेंगे, देशद्रोही ताकतें उतनी ही मजबूत होती जायेंगी… जनता के बीच जागरूकता फ़ैलाने की सख्त जरूरत है… हम उठें, आगे बढ़ें और सबको बतायें… मीडिया के भरोसे ना रहें वह तो उतना ही लिखेगा या दिखायेगा जितने में उसे फ़ायदा हो, क्योंकि ऊपर बताई गई कई घटनाओं में से कोई भी घटना “ब्रेकिंग न्यूज़” बन सकती थी, लेकिन नहीं बनी। “नेहरूवादी सेकुलरिज़्म” की बहुत बड़ी कीमत चुका रहा है यह देश…।नेहरू की “मानस संतानें” यानी “सेकुलर बुद्धिजीवी” नाम के प्राणी भी समझ से बाहर है, क्योंकि इन्हें भारत पर और खासकर हिन्दुओं पर कभी भी कोई खतरा नज़र नहीं आता…। जबकि कुछ बुद्धिजीवी “तटस्थ” रहते हैं, तथा जब स्थिति हाथ से बाहर निकल चुकी होती है तब ये अपनी “वर्चुअल” दुनिया से बाहर निकलते हैं… ऐसे में हिन्दुओं के सामने चुनौतियाँ बहुत मुश्किल हैं… लेकिन फ़िर भी चुप बैठने से काम नहीं चलने वाला… एकता ज़रूरी है… “हिन्दू वोट बैंक” नाम की अवधारणा अस्तित्व में लाना होगा… तभी इस देश के नेता-अफ़सरशाही-नौकरशाही सब तुम्हारी सुनेंगे…

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क्या हम कुछ सोचेंगे इस पर? भारतीय सेना ने ******* पर जुल्म किए हैं?

कल एक युवा मुस्लिम छात्र ने एक बात कही कि भारतीय सेना ने मुसलमानों पर जुल्म किए हैं, साथ साथ सिख और आदिवासियों तथा पूर्वोत्तर का भी नाम ले डाला । युवा बीस साल का है, जाहिल नहीं है ।
चिंतन के साथ चिंता का भी यह विषय इसलिए है कि यह तर्क नहीं, दुष्ट कुतर्क है लेकिन इतने कम उम्र में यह दिमाग में उतारा गया है कि भारतीय सेना ने मुसलमानों पर जुल्म किए हैं। और साथ साथ यह ट्रेनिंग भी दिखाई दे रही है कि अपनी लड़ाई का दायरा बढ़ाओ, दोषारोपण का दायरा बढ़ाओ, औरों को भी अपने साथ विरोध में लपेट लो ताकि विरोधी को अधिकाधिक मोर्चों पर लड़ना मुश्किल हो जाये। यह सोच पर आते हैं थोड़ी देर में। पहले सेना और जुल्म की बात को लेते हैं।
भारत में लोकतान्त्रिक सरकार है, केंद्र में भी और राज्यों में भी। राज्य में कानून और सुव्यवस्था राज्य सरकार की ज़िम्मेदारी होती है। अगर कहीं फसाद, दंगे या विद्रोह की स्थिति में राज्य की पुलिस व्यवस्था या फिर केंद्र से मांगी CRPF वगैरा से भी स्थिति नियंत्रण में न आए तो ही सेना को पचारण किया जाता है और उसे स्पष्ट निर्देश होते हैं कि परिस्थिति शीघ्र काबू में लाएँ। उस समय मार्शल लॉं जाहिर किया जाता है और सेना को निर्ममता से दमन के आदेश होते हैं।
पुलिस के नियंत्रण से स्थिति बाहर इसीलिए होती है क्योंकि दंगा फसाद करनेवाले या विद्रोही उनसे अधिक सशस्त्र और प्रजा में आतंक फैलानेवाले होते हैं। भारत का कानून शस्त्र खास कर के firearms बिना कारण के यूं ही रखने की इजाजत नहीं देता, कड़े नियम होते हैं लायसेंस के। इसका मतलब एक ही है कि ये शस्त्र गैर कानूनी तौर से लाये गए होते हैं और इनका उद्देश केवल आतंक ही नहीं लेकिन देश से द्रोह है। निर्ममता से दमन ही सेना भेजने का प्रयोजन होता है और यह विद्रोहियों के गैर कानूनी हरकतों के कारण ही आवश्यक हो जाता है। जुल्म की कोई बात नहीं होती, आतंकी विद्रोह का दमन होता है। हाँ, ऐसे में गेहूं के साथ घुन भी पीसता है जिसका कोई इलाज नहीं। अगर आप आतंकियों को आसरा दोगे तो आप के साथ भी वही सलुख होना ही है।
बात समझानेपर भी यही जिद रही कि कश्मीर में इतने लोग मारे गए, इतने अभी भी गायब हैं ..... लेकिन इस बात से कन्नी काट रहे हैं कि यह परिस्थिति आई क्यूँ। क्यूँ सेना बुलानी पड़ी और अभी तक वहाँ रखनी पड़ी है। सेना पर बलात्कार के भी आरोप हैं और कश्मीरी पंडितों के साथ जो किया गया उसका नाम तक नहीं। केवल मुसलमानों पर जुल्म .... क्या वहाँ के मुसलमानों का जुर्म संगीन नहीं है कि वहाँ सेना भेजनी पड़ी, या शत्रु देश पाकिस्तान से हाथ मिलाकर देश द्रोह उनका इस्लामी हक़ और कर्तव्य है? और अगर केवल मुसलमानों पर जुल्म ही करना था तो और राज्यों में ऐसी कोई हरकत क्यों नहीं की सेना या सरकार ने ? और सेना भेजी तब तो कोई हिंदुवादी सरकार नहीं थी। क्यों victim victim खेल रहे हैं ?
रही बात सिक्खों की तो वहाँ एक ही जवाब है कि वहाँ क्या हुआ और ब्लूस्टार तक क्यों नौबत आई देश जानता ही है, पंजाब भी जानता है । उसके बाद भी सेना में सिक्ख कम नहीं हुए यह बात उनकी देशभक्ति का प्रमाण है, मजबूरी का नहीं, क्योंकि वहाँ रोजगार की कमी नहीं। लेकिन शायद देशभक्ति यह शब्द का अर्थ इस्लाम में समझना मना है तो पता नहीं, क्योंकि अजम खाँ जैसे बुजुर्ग सीधा कहते हैं कि इस्लाम देश से बड़ा है और जो मुसलमान ऐसा नहीं कहता वो मुसलमान नहीं।
आदिवासियों और पूर्वोत्तर में वामी और इसाइयों का ठगबंधन कार्यरत है और था। पूर्वोत्तर का इतिहास अभ्यासनीय है कि भारत ने उसे मिशनरियों से कैसे बचाया।
खैर, अभ्यास के कारण मैं तो इन बातों का उत्तर दे सकता हूँ, लेकिन चिंता यह है कि हमारे युवा शायद ही यह सभी जानकारी रखते हैं और ऐसे कुतर्कों के सामने निरुत्तर हो जाते हैं। इनको युवावस्था में ही यह सारी ट्रेनिंग दी जाती है जिसके कारण ये समाज में अपना झूठ भी प्रभावशाली तरीके से रखते हैं, खास कर के युवाओं के मनों को भ्रमित करते हैं।
उसके पास यह जवाब नहीं है कि मार्शल लॉं क्यूँ जरूरी होता है, लेकिन यह सवाल है कि भारत के हिन्दू सेना ने कश्मीर के मुसलमानों पर अत्याचार किए। कितने भारतीय जवानों का वहाँ अपनी भूमी की रक्षा करते हुए खून बहा ये वो नहीं जानती न उसे परवा है। कौन देता है उन्हें यह एकतरफा और झूठी जानकारी ?
और एक बात मैंने कही थी ट्रेनिंग की। इस युवा ने मुसलमान के साथ साथ सिख, आदिवासी और पूर्वोत्तर वालों को भी जोड़ लिया। मुसलमानों ने सिक्खों से क्या सलूख किया यह इतिहास है - एक मुसलमान को कहाँ से सिक्खों का प्यार उमड़ आया? यह केवल इस्लाम की सीख है जिसका जिक्र पाकिस्तानी ब्रिगड़िएर जनरल एस के मलिक ने अपने Quranic Concept Of War में खुलकर किया है। इस तरह अपने विरोधी के लिए लड़ाई का दायरा बढ़ाना, उसके खिलाफ औरों को उकसाना यह tactics होते हैं । कितने हिन्दू युवा इन tactics से परिचित हैं ?
क्या हम कुछ सोचेंगे इस पर?

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शिव लिंग क्या है?? शिवलिंग किस चीज का प्रतिनिधित्व करता है?

शिव लिंग क्या है?? शिवलिंग किस चीज का प्रतिनिधित्व करता है?
आज के समय में कुछ अज्ञानी किस्म के प्राणियों ने परम पवित्र शिवलिंग को जननांग समझ कर पता नही क्या-क्या और कपोल कल्पित अवधारणाएं फैला रखी हैं| क्या आप जानते हैं कि शिवलिंग का मतलब क्या होता है और, शिवलिंग किस चीज का प्रतिनिधित्व करता है?
शिवलिंग वातावरण सहित घूमती धरती तथा सारे अनन्त ब्रह्माण्ड (क्योंकि, ब्रह्माण्ड गतिमान है) का अक्स/धुरी (axis) ही लिंग है।
दरअसल ये गलतफहमी भाषा के रूपांतरण और, मलेच्छों द्वारा हमारे पुरातन धर्म ग्रंथों को नष्ट कर दिए जाने तथा, अंग्रेजों द्वारा इसकी व्याख्या से उत्पन्न हुआ हो सकता है! खैरजैसा कि हम सभी जानते है कि एक ही शब्द के विभिन्न भाषाओँ में अलग-अलग अर्थ निकलते हैं! उदाहरण के लिए यदि हम हिंदी के एक शब्द “सूत्र” को ही ले लें तो सूत्र मतलब डोरी/ धागागणितीय सूत्र कोई भाष्य अथवा लेखन भी हो सकता है जैसे कि नासदीय सूत्रब्रह्म सूत्र इत्यादि! उसी प्रकार “अर्थ” शब्द का भावार्थ: सम्पति भी हो सकता है और मतलब भी! ठीक बिल्कुल उसी प्रकार शिवलिंग के सन्दर्भ में लिंग शब्द से अभिप्राय चिह्न, निशानी, गुण, व्यवहार या प्रतीक है। ध्यान देने योग्य बात है कि “लिंग” एक संस्कृत का शब्द है जिसके निम्न अर्थ है :
1.) त आकाशे न विधन्ते -वै०। अ ० २ । आ ० १ । सू ० ५
अर्थात रूप, रस, गंध और स्पर्श ये लक्षण आकाश में नही है किन्तु शब्द ही आकाश का गुण है ।
2.) निष्क्रमणम् प्रवेशनमित्याकश स्य लिंगम् -वै०। अ ० २ । आ ० १ । सू ० २०
अर्थात जिसमे प्रवेश करना व् निकलना होता है वह आकाश का लिंग है अर्थात ये आकाश के गुण है ।
3.) अपरस्मिन्नपरं युगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिङ्गानि । -वै०। अ ० २। आ ० २ । सू ० ६
अर्थात जिसमे अपर, पर, (युगपत) एक वर, (चिरम) विलम्ब, क्षिप्रम शीघ्र इत्यादि प्रयोग होते है, इसे काल कहते है, और ये काल के लिंग है।
4.) इत इदमिति यतस्यद्दिश्यं लिंगम । -वै०। अ ० २ । आ ० २ । सू ० १ ०
अर्थात जिसमे पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ऊपर व् नीचे का व्यवहार होता है उसी को दिशा कहते है मतलब किये सभी दिशा के लिंग है।
5.) इच्छाद्वेषप्रयत ्नसुखदुःखज्ञाना न्यात्मनो लिंगमिति – न्याय० अ ० १ । आ ० १ । सू ० १ ०
अर्थात जिसमे (इच्छा) राग, (द्वेष) वैर, (प्रयत्न) पुरुषार्थ, सुख, दुःख, (ज्ञान) जानना आदि गुण हो, वो जीवात्मा है और, ये सभी जीवात्मा के लिंग अर्थात कर्म व् गुण है । इसीलिए शून्य, आकाश, अनन्त, ब्रह्माण्ड और निराकार परमपुरुष का प्रतीक होने के कारन इसे लिंग कहा गया है। स्कन्दपुराण में स्पष्ट कहा है कि आकाश स्वयं लिंग है एवं, धरती उसका पीठ या आधार है और, ब्रह्माण्ड का हर चीज अनन्त शून्य से पैदा होकर अंततः उसी में लय होने के कारण इसे लिंग कहा है|
यही कारण है कि इसे कई अन्य नामो से भी संबोधित किया गया है जैसे कि: प्रकाश स्तंभ/लिंग, अग्नि स्तंभ/लिंग, उर्जा स्तंभ/लिंग, ब्रह्माण्डीय स्तंभ/लिंग इत्यादि! यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि इस ब्रह्माण्ड में दो ही चीजे है| ऊर्जा और प्रदार्थ! इसमें से हमारा शरीर प्रदार्थ से निर्मित है जबकि आत्मा एक ऊर्जा है| ठीक इसी प्रकार शिव पदार्थ और शक्ति ऊर्जा का प्रतीक बन कर शिवलिंग कहलाते हैं| क्योंकि ब्रह्मांड में उपस्थित समस्त ठोस तथा उर्जा शिवलिंग में निहित है! अगर इसे धार्मिक अथवा आध्यात्म की दृष्टि से बोलने की जगह शुद्ध वैज्ञानिक भाषा में बोला जाए तो हम कह सकते हैं कि शिवलिंग और कुछ नहीं बल्कि हमारे ब्रह्मांड की आकृति है और अगर इसे धार्मिक अथवा आध्यात्म की भाषा में बोला जाए तो शिवलिंग भगवान शिव और देवी शक्ति (पार्वती) का आदि-अनादि एकल रूप है तथा पुरुष और प्रकृति की समानता का प्रतीक है! अर्थात शिवलिंग हमें बताता है कि इस संसार में न केवल पुरुष का और न ही केवल प्रकृति (स्त्री) का वर्चस्व है बल्कि, दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और दोनों ही समान हैं|
शिवलिंग की पूजा को ठीक से समझने के लिए आप जरा आईसटीन का वो सूत्र याद करें जिसके आधार पर उसने परमाणु बम बनाया था! क्योंकि उस सूत्र ने ही परमाणु के अन्दर छिपी अनंत ऊर्जा की एक झलक दिखाई जो कितनी विध्वंसक थी ये सर्वविदित है| और परमाणु बम का वो सूत्र था e / c = m c {e=mc^2} अब ध्यान दें कि ये सूत्र एक सिद्धांत है जिसके अनुसार पदार्थ को पूर्णतया ऊर्जा में बदला जा सकता है अर्थात, अर्थात पदार्थ और उर्जा दो अलग-अलग चीज नहीं बल्कि, एक ही चीज हैं परन्तु वे दो अलग-अलग चीज बनकर ही सृष्टि का निर्माण करते हैं!
जिस बात को आईसटीन ने अभी बताया उस रहस्य को हमारे ऋषियो ने हजारो-लाखों साल पहले ही ख़ोज लिया था| यह सर्वविदित है कि हमारे संतों/ऋषियों ने हमें वेदों और उपनिषदों का ज्ञान लिखित रूप में प्रदान किया है, परन्तु, उन्होंने कभी यह दावा नहीं किया कि यह उनका काम है बल्कि, उन्होंने हर काम के अंत में स्वीकार किया कि वे हमें वही बता रहे हैं ज उन्हें अपने पूर्वजों द्वारा कहा गया है| लगभग १३७ खरब वर्ष पुराना सार्वभौमिक ज्ञान हमें तमिल और संस्कृत जैसी महान भाषाओँ में उपलब्ध होता है और भावार्थ बदल जाने के कारण इसे किसी अन्य भाषा में पूर्णतया अनुवाद नही किया जा सकता| कम से कम अंग्रेजी जैसी कमजोर भाषा में तो बिलकुल नही। इसके लिए एक बहुत ही छोटा सा उदाहरण देना ही पर्याप्त होगा कि आज “गूगल ट्रांसलेटर” में लगभग सभी भाषाओँ का समावेश है परन्तु संस्कृत का नही क्योंकि संस्कृत का व्याकरण विशाल तथा दुर्लभ है! कुछ समय पहले जब नासा के वैज्ञानिकों नें अपने उपग्रह आकाश में भेजे और उनसे रेडार के द्वारा इंग्लिश में संपर्क करने की कोशिश की, जो वाक्य उन्होंने पृथ्वी से आकाश में भेजे उपग्रह के प्रोग्राम में वो सब उल्टा हो गया और उन सबका उच्चारण ही बदल गया| इसी तरह वैज्ञानिक नै १०० से ज्यादा भाषाओँ का प्रयोग किया लेकिन सभी में यही परेशानी हुई कि वाक्यों का अर्थ ही बदल जा रहा था| बाद में वैज्ञानिकों नें संस्कृत भाषा का उपयोग किया तो सारे वाक्य सही अर्थ में उपग्रह को मिले और फिर सही से सभी वाक्यों का सही संपर्क मिल सका| कोई भी प्प्राणी नासा वाली बात का सबूत गूगल पर सर्च कर सकते हैं|
खैर हम फिर शिवलिंग पर आते हैं शिवलिंग का प्रकृति में बनना हम अपने दैनिक जीवन में भी देख सकते है जब कि किसी स्थान पर अकस्मात् उर्जा का उत्सर्जन होता है तो, उर्जा का फैलाव अपने मूल स्थान के चारों ओर एक वृताकार पथ में तथा उपर व नीचे की ओर अग्रसर होता है अर्थात दशो दिशाओं (आठों दिशों की प्रत्येक डिग्री (360 डिग्री)+ ऊपर व नीचे ) होता है| जिसके फलस्वरूप एक क्षणिक शिवलिंग आकृति की प्राप्ति होती है उसी प्रकार बम विस्फोट से प्राप्त उर्जा का प्रतिरूप एवं, शांत जल में कंकर फेंकने पर प्राप्त तरंग (उर्जा) का प्रतिरूप भी शिवलिंग का निर्माण करते हैं! दरअसल सृष्टि के आरम्भ में महाविस्फोट के पश्चात् उर्जा का प्रवाह वृत्ताकार पथ में तथा ऊपर व नीचे की ओर हुआ फलस्वरूप एक महाशिवलिंग का प्राकट्य हुआ जिसका वर्णन हमें लिंगपुराण, शिवमहापुराण, स्कन्द पुराण आदि में इस प्रकार मिलता है कि आरम्भ में निर्मित शिवलिंग इतना विशाल (अनंत) तथा की देवता आदि मिल कर भी उस लिंग के आदि और अंत का छोर या शाश्वत अंत न पा सके।
हमारे पुराणो में कहा गया है कि प्रत्येक महायुग के पश्चात समस्त संसार इसी शिवलिंग में समाहित (लय) होता है तथा इसी से पुनः सृजन होता है । इस तरह सामान्य भाषा में कहा जाए तो उसी आदि शक्ति के आदि स्वरुप (शिवलिंग ) से इस समस्त संसार की उत्पति हुई तथा उसका यह गोलाकार/ सर्पिलाकार स्वरुप प्रत्यक्ष अथवा प्ररोक्ष तथा प्राकृतिक अथवा कृत्रिम रूप से हमारे चारों और स्थित है और, शिवलिंग का प्रतिरूप ब्रह्माण्ड के हर जगह मौजूद है जैसे कि 1 हमारी आकाश गंगा , हमारी पडोसी अन्य आकाश गंगाएँ (पांच -सात -दस नही, अनंत है), ग्रहों, उल्काओं आदि की गति (पथ), ब्लैक होल की रचना , संपूर्ण पृथ्वी पर पाए गये सर्पिलाकार चिन्ह (जो अभी तक रहस्य बने हए है और, हजारों की संख्या में है तथा, जिनमे से अधिकतर पिरामिडों से भी पुराने है। ), समुद्री तूफान , मानव डीएनए, परमाणु की संरचना इत्यादि! इसीलिए तो शिव को शाश्वत एवं अनादी, अनत निरंतर भी कहा जाता है! याद रखो सही ज्ञान ही आधुनिक युग का सबसे बड़ा हथियार है|

Courtesy: Hindu Jaagran https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=459472384394674&id=436564770018769&substory_index=0

 

मै हिन्दू क्यों हूँ?

मै हिन्दू क्यों हूँ?
मै हिन्दू इसलिए नहीं हूँ की मैंने एक हिन्दू परिवार में जन्म लिया है। जैसा की हमारा राष्ट्र भारत एक लोकतान्त्रिक देश है। यहाँ सभी को अपना धर्म मानने का अधिकार है। कोई भी अपना धर्म परिवर्तन कर सकता है। इसके वावजूद मै एक हिन्दू हूँ या हिन्दू धर्म के प्रति मेरा बहुत लगाव है....इसका कारण मै आप लोगों के सामने बताना चाहूंगा -
१.हिन्दू धर्म दुनिया का सबसे पुराना धर्म है।
२.हिन्दू धर्म एक मात्र धर्म है जिसने वसुधैव कुटुम्बकम का नारा दिया और बताया की सारे लोग एक हैं चाहे वे ईश्वर की पूजा जिस भी रूप में कर रहे हों।
३. हिन्दू धर्म दुनिया का एक मात्र धर्म है जिसमे
धर्मावलम्बी बनाने का प्रावधान नहीं है। सनातन धर्म का मानना है की दुनिया में केवल २ तरह के लोग रहते है आस्तिक और नास्तिक जो ईश्वर की सत्ता पर विश्वास करते हैं, चाहे वो उनकी जिस रूप में भी पूजा करते हों, वो हिन्दू हैं।
४. हिन्दू धर्म कभी भी नहीं सिखाता की"हमारे कौम को मानने वालों के आलावा सभी काफ़िर हैं। अगर वो हमारा कौम नहीं कुबूल करते तो उनका गला काट लो."
५. वेद दुनिया की सबसे प्राचीन पुस्तके हैं जो हिन्दू धर्म से सम्बंधित हैं, इससे पता चलता है की जब लोग जंगलों में रहते थे तब भी हमारे यहाँ वेदों के मंत्र गूंजा करते थे।
६. हिन्दू धर्म एक मात्र धर्म है जो हर चीज़ में ईश्वर की उपस्थिति मानता है इसलिए हम हर कंकड़ को शिव , नदिओं को माता और पहाड़ों को पिता के समान पूजते हैं।
७. हिन्दू धर्म कभी नहीं सिखाता की दूसरों के धर्मस्थान तोड़कर अपना धर्मस्थान बनाने पर जन्नत नसीब होती है।
८. हिन्दू धर्म कभी नहीं सिखाता की अपने धर्म को छोड़कर दूसरे धर्मवालों से कर ( टैक्स ) लेना हमारा अधिकार है।
९. सारी दुनिया का शासन चाहे वो लोकतान्त्रिक हो, राजशाही हो या वामपंथी हो...वो हिन्दू धर्म के हिसाब से ही चलता है। जैसे जल के देवता- वरुण, धन के देवता-कुबेर, न्याय के देवता-धर्मराज उसी तरह हमारे यहाँ अलग-अलग मंत्रालय होते हैं।
इसलिए गर्व से कहो-"हम हिन्दू है"।

सीता जी के पद चिह्न

#Official_सप्तर्षि_Saptarshi
सीता जी के पद चिह्न
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ऎसी मान्यता रही है कि अंबिकापुर (छत्तीसगढ) से लगभग ३५-४० किमी दूर रामगढ की पहाडियों मे सीता जी के पद चिह्न अंकित है, चित्र में देख लीजिये, समीप की दूसरी गुफ़ा में ब्राह्मी अभिलेख है, जो कि लगभग ३०० ईसा पूर्व का है।
इसी तरह, श्री राम के पद चिह्न राम शिला, चित्रकूट में भी हैं
आधुनिक वैज्ञानिक तरीकों से अवधि (Dating) का निर्धारण न होने से, भारतीय इतिहास की प्राचीनता निर्धारत नहीं हो पाती है, पत्रकार बंधुओ से उम्मीद है कि वे अपने स्तर पर Dating का दबाव बनायें, जिसमें खर्च भी बहुत अधिक नहीं आता है, समस्या केवल ASI की उदासीनता है


 

जनेऊ क्यों पहनते हैं

जनेऊ क्यों पहनते हैं, -
।।ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायताम।।
अर्थात ब्राह्मण ब्रह्म (ईश्वर) तेज से युक्‍त हो।
ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेयर्त्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥ -पार. गृ.सू. 2.2.11।
जनेऊ को उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं। जनेऊ धारण करने की परम्परा बहुत ही प्राचीन है। वेदों में जनेऊ धारण करने की हिदायत दी गई है। इसे उपनयन संस्कार कहते हैं।
उपनयन' का अर्थ है, 'पास या सन्निकट ले जाना।' किसके पास? ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना। हिन्दू धर्म के 16 संस्कारों में से एक 'उपनयन संस्कार' के अंतर्गत ही जनेऊ पहनी जाती है जिसे 'यज्ञोपवीत संस्कार' भी कहा जाता है। मुंडन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अंग होते हैं।
यज्ञोपवीत धारण करने वाले व्यक्ति को सभी नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है। एक बार जनेऊ धारण करने के बाद मनुष्य इसे उतार नहीं सकता। मैला होने पर उतारने के बाद तुरंत ही दूसरा जनेऊ धारण करना पड़ता है। आओ जानते हैं जनेऊ के धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व के साथ ही उसके स्वास्थ लाभ के बारे में।
कौन कर सकता है जनेऊ धारण...
जनेऊ क्यों पहनते हैं, जानिए
हर हिन्दू का कर्तव्य : हिन्दू धर्म में प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है जनेऊ पहनना और उसके नियमों का पालन करना। हर हिन्दू जनेऊ पहन सकता है बशर्ते कि वह उसके नियमों का पालन करे।
ब्राह्मण ही नहीं समाज का हर वर्ग जनेऊ धारण कर सकता है। जनेऊ धारण करने के बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। द्विज का अर्थ होता है दूसरा जन्म।
ब्रह्मचारी और विवाहित : वह लड़की जिसे आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करना हो, वह जनेऊ धारण कर सकती है। ब्रह्मचारी तीन और विवाहित छह धागों की जनेऊ पहनता है। यज्ञोपवीत के छह धागों में से तीन धागे स्वयं के और तीन धागे पत्नी के बतलाए गए हैं।
जनेऊ क्यों पहनते हैं, जानिए जनेऊ क्या है : आपने देखा होगा कि बहुत से लोग बाएं कांधे से दाएं बाजू की ओर एक कच्चा धागा लपेटे रहते हैं। इस धागे को जनेऊ कहते हैं। जनेऊ तीन धागों वाला एक सूत्र होता है। जनेऊ को संस्कृत भाषा में 'यज्ञोपवीत' कहा जाता है। यह सूत से बना पवित्र धागा होता है, जिसे व्यक्ति बाएं कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। अर्थात इसे गले में इस तरह डाला जाता है कि वह बाएं कंधे के ऊपर रहे।
तीन सूत्र क्यों : जनेऊ में मुख्‍यरूप से तीन धागे होते हैं। प्रथम यह तीन सूत्र त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। द्वितीय यह तीन सूत्र देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक होते हैं और तृतीय यह सत्व, रज और तम का प्रतीक है। चतुर्थ यह गायत्री मंत्र के तीन चरणों का प्रतीक है। पंचम यह तीन आश्रमों का प्रतीक है। संन्यास आश्रम में यज्ञोपवीत को उतार दिया जाता है।
नौ तार : यज्ञोपवीत के एक-एक तार में तीन-तीन तार होते हैं। इस तरह कुल तारों की संख्‍या नौ होती है। एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वारा मिलाकर कुल नौ होते हैं। हम मुख से अच्छा बोले और खाएं, आंखों से अच्छा देंखे और कानों से अच्छा सुने।
पांच गांठ : यज्ञोपवीत में पांच गांठ लगाई जाती है जो ब्रह्म, धर्म, अर्ध, काम और मोक्ष का प्रतीक है। यह पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों का भी प्रतीक भी है।
जनेऊ की लंबाई : यज्ञोपवीत की लंबाई 96 अंगुल होती है। इसका अभिप्राय यह है कि जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने का प्रयास करना चाहिए। चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक मिलाकर कुल 32 विद्याएं होती है। 64 कलाओं में जैसे- वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान आदि।
जनेऊ धारण वस्त्र : जनेऊ धारण करते वक्त बालक के हाथ में एक दंड होता है। वह बगैर सिला एक ही वस्त्र पहनता है। गले में पीले रंग का दुपट्टा होता है। मुंडन करके उसके शिखा रखी जाती है। पैर में खड़ाऊ होती है। मेखला और कोपीन पहनी जाती है।
मेखला, कोपीन, दंड : मेखला और कोपीन संयुक्त रूप से दी जाती है। कमर में बांधने योग्य नाड़े जैसे सूत्र को मेखला कहते हैं। मेखला को मुंज और करधनी भी कहते हैं। कपड़े की सिली हुई सूत की डोरी, कलावे के लम्बे टुकड़े से मेखला बनती है। कोपीन लगभग 4 इंच चौड़ी डेढ़ फुट लम्बी लंगोटी होती है। इसे मेखला के साथ टांक कर भी रखा जा सकता है। दंड के लिए लाठी या ब्रह्म दंड जैसा रोल भी रखा जा सकता है। यज्ञोपवीत को पीले रंग में रंगकर रखा जाता है।
कैसे करते हैं जनेऊ धारण...
जनेऊ क्यों पहनते हैं, जानिए जनेऊ धारण : बगैर सिले वस्त्र पहनकर, हाथ में एक दंड लेकर, कोपीन और पीला दुपट्टा पहनकर विधि-विधान से जनेऊ धारण की जाती है। जनेऊ धारण करने के लिए एक यज्ञ होता है, जिसमें जनेऊ धारण करने वाला लड़का अपने संपूर्ण परिवार के साथ भाग लेता है। यज्ञ द्वारा संस्कार किए गए विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है।
गायत्री मंत्र : यज्ञोपवीत गायत्री मंत्र से शुरू होता है। गायत्री- उपवीत का सम्मिलन ही द्विजत्व है। यज्ञोपवीत में तीन तार हैं, गायत्री में तीन चरण हैं। ‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ प्रथम चरण, ‘भर्गोदेवस्य धीमहि’ द्वितीय चरण, ‘धियो यो न: प्रचोदयात्’ तृतीय चरण है। गायत्री महामंत्र की प्रतिमा- यज्ञोपवीत, जिसमें 9 शब्द, तीन चरण, सहित तीन व्याहृतियां समाहित हैं।
यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र है-
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।
आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।। जनेऊ का धार्मिक महत्व : यज्ञोपवीत को व्रतबन्ध कहते हैं। व्रतों से बंधे बिना मनुष्य का उत्थान सम्भव नहीं। यज्ञोपवीत को व्रतशीलता का प्रतीक मानते हैं। इसीलिए इसे सूत्र (फार्मूला, सहारा) भी कहते हैं। धर्म शास्त्रों में यम-नियम को व्रत माना गया है।
बालक की आयुवृद्धि हेतु गायत्री तथा वेदपाठ का अधिकारी बनने के लिए उपनयन (जनेऊ) संस्कार अत्यन्त आवश्यक है।
धार्मिक दृष्टि से माना जाता है कि जनेऊ धारण करने से शरीर शुद्घ और पवित्र होता है। शास्त्रों अनुसार आदित्य, वसु, रुद्र, वायु, अग्नि, धर्म, वेद, आप, सोम एवं सूर्य आदि देवताओं का निवास दाएं कान में माना गया है। अत: उसे दाएं हाथ से सिर्फ स्पर्श करने पर भी आचमन का फल प्राप्त होता है। आचमन अर्थात मंदिर आदि में जाने से पूर्व या पूजा करने के पूर्व जल से पवित्र होने की क्रिया को आचमन कहते हैं। इस्लाम धर्म में इसे वजू कहते हैं।
द्विज : स्वार्थ की संकीर्णता से निकलकर परमार्थ की महानता में प्रवेश करने को, पशुता को त्याग कर मनुष्यता ग्रहण करने को दूसरा जन्म कहते हैं। शरीर जन्म माता-पिता के रज-वीर्य से वैसा ही होता है, जैसा अन्य जीवों का। आदर्शवादी जीवन लक्ष्य अपना लेने की प्रतिज्ञा करना ही वास्तविक मनुष्य जन्म में प्रवेश करना है। इसी को द्विजत्व कहते हैं। द्विजत्व का अर्थ है दूसरा जन्म। ऐसे करते हैं संस्कार : यज्ञोपवित संस्कार प्रारम्भ करने के पूर्व बालक का मुंडन करवाया जाता है। उपनयन संस्कार के मुहूर्त के दिन लड़के को स्नान करवाकर उसके सिर और शरीर पर चंदन केसर का लेप करते हैं और जनेऊ पहनाकर ब्रह्मचारी बनाते हैं। फिर होम करते हैं। फिर विधिपूर्वक गणेशादि देवताओं का पूजन, यज्ञवेदी एवं बालक को अधोवस्त्र के साथ माला पहनाकर बैठाया जाता है। फिर दस बार गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित करके देवताओं के आह्‍वान के साथ उससे शास्त्र शिक्षा और व्रतों के पालन का वचन लिया जाता है।
फिर उसकी उम्र के बच्चों के साथ बैठाकर चूरमा खिलाते हैं फिर स्नान कराकर उस वक्त गुरु, पिता या बड़ा भाई गायत्री मंत्र सुनाकर कहता है कि आज से तू अब ब्राह्मण हुआ अर्थात ब्रह्म (सिर्फ ईश्वर को मानने वाला) को माने वाला हुआ।
इसके बाद मृगचर्म ओढ़कर मुंज (मेखला) का कंदोरा बांधते हैं और एक दंड हाथ में दे देते हैं। तत्पश्चात्‌ वह बालक उपस्थित लोगों से भीक्षा मांगता है। शाम को खाना खाने के पश्चात्‌ दंड को साथ कंधे पर रखकर घर से भागता है और कहता है कि मैं पढ़ने के लिए काशी जाता हूं। बाद में कुछ लोग शादी का लालच देकर पकड़ लाते हैं। तत्पश्चात वह लड़का ब्राह्मण मान लिया जाता है।
कब किया जाता है कब पहने जनेऊ : जिस दिन गर्भ धारण किया हो उसके आठवें वर्ष में बालक का उपनयन संस्कार किया जाता है। जनेऊ पहनने के बाद ही विद्यारंभ होता है, लेकिन आजकल गुरु परंपरा के समाप्त होने के बाद अधिकतर लोग जनेऊ नहीं पहनते हैं तो उनको विवाह के पूर्व जनेऊ पहनाई जाती है। लेकिन वह सिर्फ रस्म अदायिगी से ज्यादा कुछ नहीं, क्योंकि वे जनेऊ का महत्व नहीं समझते हैं।
।।यथा-निवीनी दक्षिण कर्णे यज्ञोपवीतं कृत्वा मूत्रपुरीषे विसृजेत।।
अर्थात : अशौच एवं मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ रखना आवश्यक है। हाथ पैर धोकर और कुल्ला करके ही इसे उतारें।
* किसी भी धार्मिक कार्य, पूजा-पाठ, यज्ञ आदि करने के पूर्व जनेऊ धारण करना जरूरी है।
* विवाह तब तक नहीं होता जब तक की जनेऊ धारण नहीं किया जाता है।
* जब भी मूत्र या शौच विसर्जन करते वक्त जनेऊ धारण किया जाता है।
जनेऊ संस्कार का समय : माघ से लेकर छ: मास उपनयन के लिए उपयुक्त हैं। प्रथम, चौथी, सातवीं, आठवीं, नवीं, तेरहवीं, चौदहवीं, पूर्णमासी एवं अमावस की तिथियां बहुधा छोड़ दी जाती हैं। सप्ताह में बुध, बृहस्पति एवं शुक्र सर्वोत्तम दिन हैं, रविवार मध्यम तथा सोमवार बहुत कम योग्य है। किन्तु मंगल एवं शनिवार निषिद्ध माने जाते हैं।

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चित्रकूट का जानकीकुंड, जहां १६० - १७० करोड वर्ष पहले बहुकोशिकीय प्राणीयों (Cambrian Era Paleoproterozoic) का जीवन शुरू हुआ

चित्रकूट का जानकीकुंड, जहां १६० - १७० करोड वर्ष पहले बहुकोशिकीय प्राणीयों (Cambrian Era Paleoproterozoic) का जीवन शुरू हुआ
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भारत माता की स्नेह वत्सला गोद, मे जीवन की सर्वप्रथम पूर्ण संरचना, बहुकोशीय प्राणियों की उत्पत्ति के प्रमाण चित्रकूट के जानकी कुंड से मिले हैं, जिन्हे निर्विवाद रूप से समस्त विश्व मे मान लिया गया है.
इन बहुकोशीय प्राणियो के जीवाश्म मिलने से अब तक स्वीकृत जीवन प्रवाह की समय सारणी (geochronology) बदल गयी है और अफ़्रीका मे जीवन की प्रथम शुरुआत का भ्रम भी समाप्ति की ओर बढ रहा है.
चित्रकूट से चोपन तक ये जीवाश्म मिल रहे हैं, चित्रकूट से पहले कनाडा की पहाडियों मे स्थित ब्रिटिश कोलंबिया के अंतर्गत ( Burgess Shale ) नामक स्थल को वैज्ञानिकों ने बहुत महत्व दिया था, जहां कुछ इसी तरह के जीवाश्म पाये गये थे जो कि (Geochronology) को ५० करोड वर्ष पूर्व तक ले जाते थे.
चित्रकूट वह क्षेत्र सिद्ध हुआ जहां एक कोशीय जीवन से बहुकोशीय जीवन की कडी जुडती है, किंतु यह गौरव आसानी से सीधे सीधे नही मिला, पहले विदेशी वैज्ञानिको ने इस खोज को "विवादित घोषित किया उनके दबाव मे आकर संबंधित भारतीय वैज्ञानिक संस्थाओ ( Geological Society of India, National Academy of Sciences) ने पूरी की पूरी खोज को संदेहास्पद घोषित कर दिया था, लेकिन जब ओक्स्फ़ॉर्ड के Martin Brasier, मार्टिन ब्रेसर ने इस खोज को सही साबित कर दिया तो भारतीय वैज्ञानिक संस्थाओ ने भी अपनी गलती मान ली.
इसे देहरादून स्थित वाडिया इंस्टीट्यूट आफ़ हिमालयन ज्योलाजी के रफ़त अलो ने १९९८ मे खोज निकाला था, और ११ वर्ष तक अपमानित होते रहे
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घी का अविष्कार भारत के ऋषियों ने ऋग्वेद काल में ही कर लिया था

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!! घृतस्य नाम गुह्यं !! (ऋग्वेद, 4.58.1)
!! Ghṛtasya Nāma Guhyaṃ (Rgvēda, 4.58.1)
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छोटे छोटे किंतु तीखे अवलोकन इतिहास बद्ल सकते हैं, जब समस्त दुनिया के विद्वान वैदिक संस्कृति को खानाबदोश घुमंतू कबीलों की संस्कृति बताने में लगे है, ऋग्वेद के किसी भी भाग के २५-५० पृष्ठ् उस आधार-हीन इतिहास को उखाड फ़ेकने की क्षमता अध्येता को दे देते हैं
ऋग्वेद के इंद्र गोपति एवं नृपति दोनों हैं, दोनों ही तथ्य अपने आप में बडे महत्वपूर्ण हैं, खानाबदोश गांव नहीं बसाते एवं गायें नहीं पालते, क्योंकि गायों को चारा एवं पानी का स्थायी स्रोत चाहिये, वे उंट, घोडे एवं भेडों की तरह लगातार दूर तक नहीं चल सकती हैं,गाय, गांव, गाय का दूध एवं घी खानबदोश होने की कहानी को झूठा सिद्ध कर देते हैं.
आज के कथानक में घी प्रमुख विषय है
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घी का अविष्कार भारत के ऋषियों ने ऋग्वेद काल में ही कर लिया था, शतपथ ब्राह्मण में गाय के घी को "वज्र" कहा गया है, क्योंकि घी से वज्र जैसा स्वस्थ एवं पुष्ट शरीर निर्मित होता है. ऋग्वेद में घी के महत्व पर अनेक मंत्र मिलते हैं, जिनमें से एक महत्वपूर्ण मंत्र यहां उद्धृत है
!! घृ॒तस्य॒ नाम॒ गुह्यं॒ यदस्ति॑ जि॒ह्वा दे॒वाना॑म॒मृत॑स्य॒ नाभि॑ !!
(ऋग्वेद, 4.58.1)
:
!! ghṛtasya nāma guhyaṁ yad asti jihvā
devānām amṛtasya nābhiḥ !! (Rgvēda, 4.58.1)
Meaning :
"Ghee is a material to be kept as safe and secretive as the tongue, It's the elixir found in God's belly"
अर्थात् :
"घी गोपनीय पदार्थ है, जैसे मुख मे जिह्वा, यह देवों की नाभि मे स्थित अमृत है"
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ऎतिहासिक एवं भाषाई विशेषता
"घी" का ऐतिहासिक एवं भाषाई महत्व अत्यधिक है, इतना अधिक कि ऋषियों ने घी बनाने की विधि भारत से बाहर जाने नहीं दी, भारत तक ही गुप्त रखा, जिसके कारण यूरोप एवं विश्व की अन्य भाषाओ तथा बोलियों में "घी" के समानार्थी शब्द नहीं मिलते हैं क्योंकि अन्य किसी भी देश या संस्कृति को घी बनाने का ज्ञान नहीं हुआ

Source: https://www.facebook.com/groups/241741922903017/permalink/266562363754306/?comment_id=266699983740544&reply_comment_id=266712893739253&notif_t=group_comment&notif_id=1492841245029848

One more treacherous act of Nehru

One more treacherous act of Nehru!
#Osho speaking on the Kashmir problem. Amazing Insight and rare words. Read on.
The lambs, liberals and pseudo peace-makers are in for a shock!
"In India I knew many politicians, but I have not seen any brains in them.
Simple things that anybody will understand, things which don't need great genius, politicians will miss. One of my friend was commander-in-chief of the Indian Army. When Pakistan invaded India, this man - his name was #General_Chaudhri - asked permission of the Prime Minister to counter attack; it was needed, just being defensive would not help. That's a simple military strategy; if you become defensive you are already defeated. The best way is to be aggressive.
If Pakistan had invaded one part of Kashmir, Chaudhri's idea was that we invade Pakistan from four or five fronts. They will be confused, they will run amok, they will not be able to decide where they have to send their armies. Their attack will become a failure because they have to defend all the borders of their country.
But politicians! The Prime Minister, Nehru, informed him - "Wait till 6'O clock in the morning."
General Chaudhri told me that he was thrown out of the army - not publicly. Publicly he retired honorably, but he was kicked out. He was told - 'either you resign or we will throw you out.'
The reason was that he attacked Pakistan at 5'O clock in the morning - one hour before the order. That was the right time, by 6'O clock, it would be sunrise, people would be awake. 5 'O clock was the perfectly right time - everybody was asleep - to drive them crazy. And he did what he was saying - he made the whole of Pakistan tremble. He was just 15 miles from Lahore - Pakistan's biggest city.
The whole night #Tharki (Nehru) and his cabinet were discussing this way or that way - to do it or not to do it. And even by 6'O clock in the morning they had not come to any conclusion. They just heard on the radio - 'General Chaudhri is entering Lahore.'
That was too much for the politicians. They stopped him just 15 miles before Lahore. And I can see that was sheer stupidity. If the man had taken Lahore, the problem of Kashmir and India would have been solved forever. It is not ever going to be solved, the problem of the territory of Kashmir which Pakistan has occupied - and it was because General Chaudhri was told to come back, "because India is a non-violent country and you did not wait for the order."
He said to them - "I do understand military strategy, you don't. Even by 6'O clock where was your order? Pakistan has already occupied a certain territory, the most beautiful part of Kashmir - and you were just discussing the whole night. This is not a question to be discussed - this has to be decided on the warfield. If you had allowed me to take over Lahore then we would have been in a position to bargain. Now we are not in a position to bargain. You pulled me back. I had to come back."
The UN decided for a ceasefire line. So now for 40 years, UN armies have been there patrolling, on the other side Pakistani armies are patrolling, on this side Indian armies are patrolling. For 40 years - just nonsense! And in the UN they go on discussing and nothing comes out of it.
And the territory that has been taken by Pakistan you cannot take back because of the ceasefire. They have decided in their Parliament that the territory occupied by them is combined into Pakistan. Now they show it on their maps. It is no longer occupied territory, it is Pakistani territory.
I had told General Chaudhri "This was such a simple thing that you had to be in a bargaining position. If you had taken Lahore, they would have immediately agreed to leave Kashmir because they could not lose Lahore. Or if a ceasefire was to come, okay, then Lahore remains with us when we ceasefire. Either way there will be something to bargain. India doesn't have anything to bargain with - why should Pakistan bother?"
But politicians certainly don't have brains."
- Osho, From Darkness to Light
[#My_observation: The politicians ain't idiots. They are smart. They are concerned only about self. And most importantly, Osho definitely must not be knowing that Tharki was a muslim and was only helping his Ummah to spread their Islamic tentacles over leftover Sanatan Bhumi.]

Courtesy:  https://www.facebook.com/koul.utsaav/posts/395133664204835

Friday 21 April 2017

महान हिन्दू राजपूत राजा संग्रामपीड

©Copyright हिन्दू शेरनी मनीषा सिंह की कलम से कश्मीर के इस शौर्य को इतिहास के पन्नों पर लिखा गया था महाराजा संग्रामपीड द्वितीय के शासनकाल में।
कश्मीर के कर्कोटक नागवंशी राजपूत राजा संग्रामपीड द्वितीय 57वर्ष तक शासन किया
इस शूरवीर राजा ने कश्मीर प्रदेश पर 672 ई. से लेकर 729 ई. तक राज्य किया, ये ललितापिड के पुत्र थे (ललितापिड को ललितादित्य समझने की भूल ना करे दोनों अलग हैं इतिहाकारों ने ये गलती किया हैं दोनों को एक समझकर गलत इतिहास लिखा हैं बल्कि दोनों के समय में बहोत अंतर हैं सम्राट ललितादित्य के छठी पीढ़ी राजा थे ललितापिड जो संग्रामपीड के पिताश्री थे) ।
अरण्यक साम्राज्य भी कश्मीर के राजपूत राजाओ के साम्राज्य का हिस्सा था जिसपर कई इस्लामिक हमले हुए और क्रूरतम आक्रमण हुए अरण्य साम्राज्य पर आक्रमण करने से पूर्व उसके आसपास के गाँव, राज्य इत्यादि सब जला देते थे तहस-नहस कर देते थे भाड़ी लूट मार मचाते हुए अरण्यक की और बढ़ते थे पर कभी जीत नही पाए थे अरण्यक (वर्त्तमान ईरान) को कर्कोटक वंश के इतिहास भी मिलता हैं Thabit Abdullah (Civilizations of Central Asia, Chapter 14) ने भी इस किताब में राजपूत शासनकाल की पुष्ठी किया हैं ।
यमन के सुल्तान मुरीद-अल्बानी ने सन 688 ईस्वी अरण्यक (वर्त्तमान ईरान) पर आक्रमण किया था अरण्यक उस समय कर्कोटक नागवंशी राजपूत साम्राज्य का हिस्सा था जिसे ललितादित्य कर्कोटक ने अरण्यक (वर्त्तमान ईरान) पर भी केसरिया ध्वज लहराया था, तबसे अरण्यक पर नागवंशी राजपूतों का शासन था । अरण्यक की गद्दी पर संग्रामपिड द्वितीय आसीन हुए जो अत्यंत वीर, पराक्रमी एवं राजनीति और रणकौशल में निपुण थे , इनके गुप्तचरों की संख्या अधिक थी जो बहरूपिया बन गाँव , राज्य , प्रान्त हर जगह फैले हुए थे जो संग्रामपीड तक हर खबर पहुँचाते थे । हम संग्रामपिड के गुप्तचरों की कुशलता इसी से भांप सकते हैं मुरीद-अल्बानी अरण्यक पर आक्रमण करने से दो माह पूर्व ही गुप्तचरों ने आगम सुचना भेज चुके थे जिससे संग्रामपीड को समय मिल गया था युद्ध की तैय्यारी के लिए ।   
त्रिशूल व्यूह से राज्य की सीमारेखा को घेड़ दिया जिससे मलेच्छ आक्रमणकारी सीमारेखा लांघ कर राज्य में प्रवेश ना कर पाए सुल्तान एवं उसके 1,63,700 सैनिक सीमारेखा को लांघ नही पाया यह युद्ध हरिरुद्र नामक नदी के तट पे हुआ था ये प्रलयंकारी युद्ध हुआ।
संग्रामपीड ने उनके सेनापति किशन सिंह भाटी के साथ मिलकर महिष व्यूह की रचना किया (मृत्युदेव का वाहन महिष के आकर का व्यूह) मलेच्छ सुल्तान हमारे भारतीय युद्ध व्यूह रचना की कला से अज्ञात था संग्रामपीड द्वारा रचाया गया इस सैन्य व्यूह में फंसकर उनके आधे से ज्यादा सैनिक को मृत्युदेव के चरणों में बलि चढ़ गये, राजपूत सेना के पराक्रमी प्रहार को देखकर सुल्तान मुरीद का हृदय कांप रहा था सुल्तान को चारो दिशाओं में केवल अपने साथ लाये हुए लूटेरों के लाशों का ढेर नज़र आरहा था सुल्तान जान बचाकर भागने पर विवश होगया परन्तु उनके सेनापति ने सुल्तान को पकड़ कर संग्रामपीड के समक्ष उपस्थित किये संग्रामपीड ने उस मलेच्छ के सर को काट कर उनके साम्राज्य यमन भेज दिया जिससे मलेच्छ दोबारा उनके साम्राज्य पर आक्रमण करने का हिम्मत ना करे हुआ भी ऐसा दोबारा उम्मायद वंश के अरबी लूटेरो की हिम्मत नही हुआ संग्रामपीड के साम्राज्य पर आक्रमण करने का ।  इस युद्ध की पुष्ठी अनेक विदेशी इतिहासकारों के इतिहास में मिलता हैं जैसे Sayyid Fayyaz And Minahan History of Humanity: From the third to the nineth century-: Page 734 ने अपने किताब में इस युद्ध की पुष्ठी किया । 

इराक़, तुर्किस्तान, दाम्स्कास के कुछ हिस्सों को अपने पांवों तले रौंदने वाला तुर्की सुल्तान अब्द-मार्वन 703 ईस्वी में कश्मीर की धरती से पराजित होकर लौटा था । यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि क्षत्रिय सैनिकों की तलवार के वार वह सह न सका और जिंदगी भर कश्मीर की वादियों को जीतने की तमन्ना पूरी न कर सका। कश्मीर के इस शौर्य को इतिहास के पन्नों पर लिखा गया महाराजा संग्रामपीड के शासनकाल में।
उमय्यद ख़िलाफ़त वंश के क्रूरतम शासक अब्द-मार्वन का आक्रमण भारत पर 703 ई. में हुआ था । संग्रामपीड अब्द-मार्वन की आक्रमण शैली को समझता था । धोखा, फरेब, देवस्थानों को तोड़ने, बलात्कार इत्यादि महाजघन्य कुकृत्य करने वाले सुल्तान अब्द-मार्वन के आक्रमण की गंभीरता को समझते हुए उसने पूरे कश्मीर की सीमाओं पर पूरी चौकसी रखने के आदेश दिए। सीमावर्ती क्षेत्रों के लोगों को विशेष रूप से प्रशिक्षित किया गया ताकि पूरी सतर्कता से प्रत्येक परिस्थिति का सामना कर सकें। कश्मीर में प्रवेश द्वार और इसकी ओर खुलने वाली सड़कों की ओर सदा मजबूत निगाह रखते हैं। अब्द-मार्वन कश्मीर राज्य को भी फ़तेह करने के इरादे से सन् 703 ई. में कश्मीर पर आक्रमण किया। कश्मीर की सीमा पर स्थित तौसी नामक मैदान में उसने सैनिक पड़ाव डाला। तौसी छोटी नदी को कहते हैं इस स्थान पर यह नदी झेलम नदी में मिलती है अत: इसका नाम तौसी मैदान पड़ा। अब्द-मार्वन के आक्रमण की सूचना सीमा क्षेत्रों पर बढ़ाई गई चौकसी और गुप्तचरों की सक्रियता के कारण तुरंत राजा तक पहुंची। कश्मीर की सेना ने एक दक्ष सेनापति कुँवर वीरभद्र के नेतृत्व में कुंच कर दिया। राजा संग्रामपीड स्वयं भी सेना के साथ तौसी के मैदान में आ डटा । अब्द-मार्वन की सेना को चारों ओर से घेर लिया गया । अब्द-मार्वन की सेना को मैदानी युद्धों का अभ्यास था। वह पहाड़ी रास्तों से अनभिज्ञ थी। अब्द-मार्वन की षड्यंत्र-युक्त युद्धशैली कश्मीरी सेना की चातुर्यपूर्ण पहाड़ी व्यूहरचना के आगे पिट गई। तौसी का युद्ध स्थल अब्द-मार्वन के सैनिकों के शवों से भर गया। कश्मीर से संग्रामपीड के द्वारा भेजी गई एक और सैनिक टुकड़ी, जो किले की व्यूहरचना को तोड़ने में सिद्ध हस्त थी, ने किले को घेरकर भेदकर अंदर प्रवेश किया तो अब्द-मार्वन , जो किले के भीतर एक सुरक्षित स्थान पर दुबका पड़ा था, अपने इने-गिने सैनिकों के साथ भागने में सफल हो गया। मिट्टी में मिला गुरूरभारत में अब्द-मार्वन की यह पहली बड़ी पराजय थी। उसकी सेना अपरिचित पहाड़ी मार्गों पर रास्ता भूल गई और उनका पीछे मुड़ने का मार्ग बाढ़ के पानी ने रोक लिया। अत्यधिक प्राणहानि के पश्चात् अब्द-मार्वन की सेना मैदानी क्षेत्रों में भागी और अस्तव्यस्त हालत में अब्द-मार्वन तक पहुंच सकी। कश्मीरी सेना के हाथों इतनी मार खाने के बाद अब्द-मार्वन ने संग्रामपीड की सैनिक क्षमता का लोहा माना अब्द-मार्वन गजनवी की पराजय हुई और वह कश्मीरि राजपूतों के हाथों पिट कर अरब भाग गया ।
चीन के साथ हुआ (चीन ने ललितादित्य/ मुक्तापिडा के समय आक्रमण किया था फिर दोबारा संग्रामपीड के वक़्त आक्रमण किया) युद्ध जिसे हम अगले भाग में बताएँगे । 
पश्चिमी और इस्लामिक अरब देशों के ज्ञात इतिहास में अधिकांश राजाओं ने पर संस्कृतियों के नाश के लिए धनसंपदा की लूट के लिए दूसरे देशों पर आक्रमण किये और ऐसे अपने डकैत आक्रांताओं को भी महिमामण्डित कर इतिहास में स्थान दिया । जिस प्रकार संसार की अन्य जातियों के महान पुरूष स्वयं इस बात का गर्व करते हैं कि उनके पूर्वज किसी एक बड़े डाकुओं के गिरोह के सरदार थे, जो समय-समय पर अपनी पहाड़ी गुफाओं से निकलकर बटोहियों पर छापा मारा करते थे, हम हिन्दू इस बात पर गर्व करते हैं कि हमारे पूर्वज ऋषितथा महात्मा थे, जो पहाड़ों की कंदराओं में रहते थे, वन के फल-मूल जिनका आहार थे तथा जो निरंतर श्री हरी के चिंतन में मग्न रहते थे।
यह संस्कृति और कुसंस्कृति का अंतर है, जिसे कुछ लोग भारत में गंगा-जमुनी संस्कृति कहकर मिटाने का प्रयास करते हैं। तुम्हारे देशभक्तों को गद्दार और अपने डकैतों को महान कहकर इस अंतर को कम किया गया है। यद्यपि इससे सच कुछ आहत हुआ है परंतु सच तो फिर भी सच है। आवश्यकता आज सत्य के महिमामंडन की है।

संदर्भ-:
पंडित कोटा वेंकटचेलाम की प्राचीन हिन्दू इतिहास भाग द्वितीय
राजतरंगिणी, कल्हण चतुर्थ तरंग एवं पुराणों से लिए गये हैं ।

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