Thursday, 20 April 2017

परिव्राजकधर्म

!!                                 परिव्राजकधर्म                       !!

श्रुतियोंने मोक्षका एकमात्र मात्र संन्यास को बताया है अथवा श्रीभगवान् की कृपासे ही मोक्षकी प्राप्ति होती है ।

नपुंसक , विकलांग ,अंधे ,बालक ,पातकी ,पतित अनधिकारी हैं , जितेन्द्रिय , वैरागीही संन्यासके अधिकारी हैं ।

संन्यास ६ प्रकारके होते हैं - १. कुटिचक,२.बहूदक , ३. हंस , ४. परमहंस , ५ . तुरियातीत और ६. अवधूत !

जो क्रमसे ब्रह्मचर्य ,गृहस्थ ,वानप्रस्थ आश्रमके बाद संन्यास लेते हैं वे आतुर संन्यासी होते हैं - उनके कुटिचक ,  बहूदक और हंस संन्यासका विधान हैं -

१ कुटिचक -- ये संन्यासी शिखासूत्र , स्वेतऊर्ध्वपुण्ड्र और त्रिदण्ड धारण करते हैं । २ मास में एक बार सिरके बाल और दाढ़ी मूँछ कटवाते हैं , ये कुटी बनाकर रहते हैं , एक ही स्थानसे भिक्षा मांगकर दिन में एक ही बार ८ ग्रास ही भोजन करते हैं और माता-पिता-गुरुजनोंकी सेवा करते हैं । कुटिचक कौपीन ,कंथा , दो वल्कल वस्त्र और कमण्डलके अतिरिक्त किसी भी वस्तुका परिग्रह नहीं करते हैं और भुवः लोक को प्राप्त होते हैं ।

२ बहुदक -- ये संन्यासी भी कुटिचक की तरह शिखा-सूत्र ,त्रिपुण्ड्र और दण्ड धारण करते हैं , ४ मास में एक बार सिर के बाल ,दाढ़ी-मूंछ कटवाते हैं । कुटी बनाकर रहते हैं , २ कौपीन , १ कंथा ,१ वल्कल वस्त्र ,कमण्डल के अतिरिक्त किसी वस्तुका परिग्रह नहीं करते हैं , ये निश्चित  घरोंसे भिक्षा मांगकर एक दिन में एक ही बार भोजन करते हैं । इन्हे स्वर्गकी प्राप्ति होती है ।

३ हंस -- ये शिखा-सूत्रका त्याग कर देते हैं , ऊर्ध्वपुण्ड्र-त्रिपुण्ड्र दोनों लगाते हैं , जटा-जूट धारण करते हैं , २ कौपीन , कृष्ण मृगचर्म धारण करते हैं । आठ घरोंसे मधुकरी मांगकर दिन में १ ही बार ८ ग्रास भोजन करते हैं , ये निरन्तर एक स्थान पर नहीं रहते हैं , इन्हें भ्रमरकी भाँती भ्रमण करते रहना चाहिये । ये सत्यलोक को प्राप्त होते हैं

अब ज्ञान संन्यासी के विभाग -
जो ज्ञानी आजीवन अविवाहित रहकर अखण्ड ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं , उनके लिये ३ संन्यास हैं -

१ . परमहंस -- ये शिखा-सूत्र , वल्कल, कंथा , कमण्डलु सभी वस्तुका त्याग कर देते हैं , कौपीन और कृष्णमृगचर्म अथवा दिगम्बर ही रहते हैं , जटा-जूट धारी होते हैं । दिन में एक बार ५ घरोंसे भिक्षा मांगकर १ ही बार जितना हाथ में आ जाए उतना ही खा लेते हैं , इनका कर(हाथ)ही पात्र होते हैं इसीलिए 'करपात्रि' कहे जाते हैं । ये भ्रमणशील होते हैं किसी ग्राम या नगरमें नहीं रुकते किसी कन्दरा अथवा वृक्षकी जड़ ही निवास स्थान होता है । ये सत्यलोकको प्राप्त होते हैं ।

२ . तुरियातीत --  ये शिखा-सूत्र,दण्ड , कमण्डलु ,कौपीन , कंथा , वल्कल सभी वस्तुका त्यागकर देते हैं , । ये गोमुखी होते हैं अर्थात् गायके मुंह में जो खिला दिया जाता है वही खा लेते हैं , ये केवल ३ घरोंसे भिक्षा मांगते हैं । इन्हें कैवल्यकी प्राप्ति होती है ।

३ . अवधूत -- अवधूत और तुरियातीत में कोई भेद नहीं होता ये दोनों ही दिगम्बर संन्यासी हैं , वस ये गोमुखी न होकर अजगरवृत्तिको अपनाते हैं जो देवयोगसे प्राप्त हो जाए उसी को खा लेते हैं ।

वास्तविक संन्यासी तो ब्रह्मचर्य आश्रमके बाद जो लेते हैं - संन्यासीको नपुंसक ,अजिह्व , षण्डक ,पंगु ,बधिर और मुग्ध होना चाहिये -
नपुंसक का अर्थ  - जो नवजात कन्या , षोडशी युवती और शत वर्षीय वृद्धामें समान बुद्धि रखकर ,किसी भी प्रकार राग उत्पन्न नहीं करते , उसे नपुंसक कहते हैं ।

अजिह्व का अर्थ - जो स्वाद-अस्वाद को न देकहकर भोजन ग्रहण करता है , उसे अजिह्व कहते हैं ।

पंगु का अर्थ - जो केवल भिक्षार्थ अथवा मल मूत्र त्यागकेलिये ही भ्रमण करते हैं तथा एक दिन में १ योजन से अधिक नहीं चलते उन्हें  पंगु  कहते हैं ।

अंध का अर्थ-  जो चलते या खड़े होकर दश हाथ भूमिसे अधिक दृष्टि नहीं ऊपर करते वे अंध होते हैं ।

बधिर का अर्थ -  स्तुति निंदा सुनकर भी जो समान रहकर विचलित नहीं होते वे बधिर होते हैं ।

मुग्ध का अर्थ - विषयोंकी समीपता , शरीर में सामर्थ्य और इन्द्रियों में स्वास्थ्यता होते हुए भी जो समान उन विषयोंकी ओर आकृष्ट नहीं होते वे मुग्ध होते हैं ।

परिव्राजक को अपनी शिखा-सूत्र,दण्ड , कमण्डल , कंथा आदि समस्त वस्तुओंको जल में विसर्जित कर देना चाहिये । वृक्षकी जड़ ही संन्यासीका घर है , कौपीन ही वस्त्र है , ब्रह्मज्ञान ही शिखा-सूत्र है  , वर्षा ऋतूके चार मास छोड़के आठ मास तक कभी एक स्थान पर नहीं रुकना चाहिये , जितनी देर में गोदोहन होता है , उतनी देर ही किसी गाँव में रुके । जब गृहस्थके चूले की आग बुझ जाए ,सभी भोजन कर चुके हों तब भिक्षा एक ही बार मांगनी चाहिये , जिस घर से दूसरा संन्यासी भिक्षा ले गया हो उस घर में नहीं भिक्षा मांगनी चाहिये । संन्यासी को शीत-उष्ण की भीषण यातना खुले शरीर पर ही साहनी चाहिये , उसे किसी घर या वस्त्र का आश्रय नहीं लेना चाहिये । संन्यासीके लिये मञ्च (कुर्सी आदि) , स्वेतवस्त्र , स्त्रीचर्चा , इन्द्रियलोलुपता , दिन में शयन और सवारी पर यात्रा ये छः दोष पातक रूप हैं इनसे सदैव दूर रहना चाहिये , सर्वत्र अकेला , पैदल ही विचरण करे । संन्यासीके लिये घृत कुत्तेके मूत्रके समान , शहद मदिरा के समान , तेल शूकरके मूत्रके समान , लहसुन -उड़द -मालपुआ गोमांसके समान , दूध मूत्र के समान हैं , इसीलिए ये सब न खाये केवल मधुकरीका ही भोजन पाये ।  चन्द्रायण व्रतके द्वारा तपस्या करता रहे और निरन्तर ब्रह्मका ही चिंतन करे ।   

  इस भीषण कलिकाल में ज्ञान संन्यासका पालन करना असम्भव ही प्रतीत होता है ।

मूलं तरोः केवलमाश्रयन्त: पाणिद्वये भोक्तुममत्रयन्तः ।
कन्थामपि स्त्रीमिव कुत्सयन्तः कौपीनवन्त: खलु भाग्यवन्त: !!

कौपीनवन्त: खलु भाग्यवन्तः ( कौपीनधारी ही भाग्यवान् हैं )

साभार: https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1889627347979629&id=100007971457742

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