Saturday, 22 April 2017

“केरल” का तेजी से बढ़ता ईस्लामी तालिबानीकरण।

“केरल” का तेजी से बढ़ता ईस्लामी तालिबानीकरण।
जब वामपंथी कहते हैं कि “धर्म एक अफ़ीम की तरह है…” तो उनका मतलब सिर्फ़ हिन्दू धर्म से होता है, मुसलमानों और ईसाईयों के सम्बन्ध में उनका यह बयान कभी नहीं आता। पश्चिम बंगाल के 22 से 24 जिलों में मुस्लिम आबादी को 50% से ऊपर वे पहले ही पहुँचा चुके हैं, अब नम्बर आया है केरल का। यदि भाजपा हिन्दू हित की कोई बात करे तो वह “साम्प्रदायिक” होती है, लेकिन यदि वामपंथी कोयम्बटूर बम विस्फ़ोटों के आरोपी अब्दुल मदनी से चुनाव गठबन्धन करते हैं तो यह “सेकुलरिज़्म” होता है, कांग्रेस यदि केरल में मुस्लिम लीग को आगे बढ़ाये तो भी यह सेकुलरिज़्म ही है, शिवराज पाटिल आर्चबिशपों के सम्मेलन में जाकर आशीर्वाद लें तो भी वह सेकुलरिज़्म ही होता है… “शर्मनिरपेक्ष” शब्द इन्हीं कारनामों की उपज है। भाजपा-संघ-हिन्दुओं और भारतीय संस्कृति को सतत गरियाने वाले ज़रा केरल की तेजी से खतरनाक होती स्थिति पर एक नज़र डाल लें, और बतायें कि आखिर वे भाजपा-संघ को क्यों कोसते हैं? नीचे video में आप सब देख सकते है कि पोपुलर फ्रन्ट इन्डिया ने अपनी खुद की इस्लामी फौज बना ली है। इनको बस समुद्र के तटव्रती मदरसों से हथयार निकालने की देरी है, 24 घंटे के अन्दर आपको ISIS का रुप केरल में देखने मिल जायेगा।
केरल राज्य की स्थापना सन् 1956 में हुई, उस वक्त हिन्दुओं की जनसंख्या 61% थी। मात्र 50 साल में यह घटकर 55% हो गई है, जबकि दूसरी तरफ़ मुस्लिमों और ईसाईयों की संख्या में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई है। हिन्दुओं की नकारात्मक जनसंख्या वृद्धि दर के पीछे कई प्रकार के राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक कारण हैं, लेकिन सच यही है कि केरल का तेजी से तालिबानीकरण/इस्लामीकरण हो रहा है। केरल की राजनैतिक परिस्थितियों का फ़ायदा जितनी चतुराई से इस्लामी शक्तियाँ उठा रही हैं, उतनी ही चालाकी से मिशनरी भी उठा रही है। जनसंख्या के कारण वोटों का सन्तुलन इस प्रकार बन चुका है कि अब कांग्रेस और वामपंथी दोनों को “मेंढक” की तरह “कभी इधर कभी उधर” फ़ुदक-फ़ुदक कर उन्हें मजबूत बना रहे हैं।
केरल के बढ़ते तालिबानीकरण के पीछे एक कारण है “पेट्रो डॉलर” की बरसात, जो कि वैध या अवैध हवाला के जरिये बड़ी मात्रा में प्रवाहित हो रहा है। मिशनरी और मुल्लाओं को मार्क्सवादियों और कांग्रेस का राजनैतिक सहारा तो है ही, हिन्दू जयचन्दों और “सेकुलर बुद्धिजीवियों” का मानसिक सहारा भी है। जैसे कि एक मलयाली युवक जिसका नाम जावेद “था” (धर्म परिवर्तन से पहले उसका नाम प्रणेश नायर था) जब गुजरात के अहमदाबाद में (15 नवम्बर 2004 को) पुलिस एनकाउंटर में मारा गया और यह साबित हो गया कि वह लश्कर के चार आतंकवादियों की टीम में शामिल था जो नरेन्द्र मोदी को मारने आये थे, तब भी केरल के “मानवाधिकारवादियों” (यानी अंग्रेजी बुद्धिजीवियों) ने जावेद(?) को हीरो और शहीद बताने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। लेकिन जब हाल ही में कश्मीर में सुरक्षा बलों के हाथों मारे गये चार युवकों के पास से केरल के मतदाता परिचय पत्र मिले तब इन “सेकुलरिस्टों” के मुँह में दही जम गया।
केरल के तालिबानीकरण का इतिहास तो सन् 1921 के मोप्ला दंगों से ही शुरु हो चुका है, लेकिन “लाल” इतिहासकारों और गठबंधन की शर्मनाक राजनीति करने वाली पार्टियों ने इस सच को दबाकर रखा और इसे “सिर्फ़ एक विद्रोह” कहकर प्रचारित किया।। एनीबेसेण्ट जैसी विदुषी महिला ने अपनी रिपोर्ट (29 नवम्बर 1921) में कहा था – ..The misery is beyond description. Girl wives, pretty and sweet, with eyes half blind with weeping, distraught with terror; women who have seen their husbands hacked to pieces before their eye, in the way “Moplas consider religious”, old women tottering, whose faces become written with anguish and who cry at a gentle touch and a kind look, waking out of a stupor of misery only to weep, men who have lost all, hopeless, crushed, desperate. ….. I have walked among thousands of them in refugee camps, and sometimes heavy eyes would lift as a cloth was laid gently on the bare shoulder, and a faint watery smile of surprise would make the face even more piteous than the stupor.
तथा तत्कालीन कालीकट जिला कांग्रेस कमेटी के सचिव माधवन नायर ने रिपोर्ट में लिखा है – Can you conceive of a more ghastly and inhuman crime than the murder of babies and pregnant women? … A pregnant woman carrying 7 months was cut through the abdomen by a rebel and she was seen lying dead with on the way with the dead child projecting out … Another baby of six months was snatched away from the breast of the mother and cut into two pieces. … Are these rebels human beings or monsters?
जबकि आंबेडकर, जो कि उच्च वर्ग के प्रति कोई खास प्रेम नहीं रखते थे, उन्होंने भी इस तथाकथित “खिलाफ़त” आन्दोलन के नाम पर चल रही मुस्लिम बर्बरता के खिलाफ़ कड़ी आलोचना की थी। अम्बेडकर के अनुसार “इस्लाम और भारतीय राष्ट्रीयता को समरस बनाने के सारे प्रयास विफ़ल हो चुके हैं… भारतीय संस्कृति के लिये इस्लाम “शत्रुतापूर्ण और पराया” है…”, लेकिन फ़िर भी गाँधी ने इस “बर्बर हत्याकाण्ड और जातीय सफ़ाये” की निंदा तो दूर, एक शब्द भी इसके खिलाफ़ नहीं कहा… मुस्लिमों को शह देकर आगे बढ़ाने और हिन्दुओं को सतत मानसिक रूप से दबाने का उनका यह कृत्य आगे भी जारी रहा… जिसके नतीजे हम आज भी भुगत रहे हैं…। तात्पर्य यह 1921 से ही केरल का तालिबानीकरण शुरु हो चुका था…
हद तो तब हो गई जब फ़रवरी 2005 में CPM (Communal Politicians of Marx) ने वरियमकुन्नाथु कुन्जाअहमद हाजी को एक महान कम्युनिस्ट योद्धा और शहीद का दर्जा दे दिया। उल्लेखनीय है कि ये हाजी साहब 1921 के मलाबार खिलाफ़त आंदोलन में हजारों मासूम हिन्दू औरतों और बच्चों के कत्ल के जिम्मेदार माने जाते हैं, यहाँ तक कि “मुस्लिम लीग” भी इन जैसे “शहीदों”(?) को अपना मानने में हिचकिचाती है, लेकिन “लाल” झण्डे वाले इनसे भी आगे निकले।
अक्सर देखा गया है कि जब भी कोई हिन्दू व्यक्ति धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बन जाता है तो उतना हो-हल्ला नहीं होता, भाजपा-संघ यदि हल्ला करें भी तो उन्हें “साम्प्रदायिक” कहकर दबाने की परम्परा रही है, लेकिन जब कोई मुस्लिम व्यक्ति हिन्दू धर्म स्वीकार कर ले तब देखिये कैसा हंगामा होता है और “वोट बैंक के सौदागर” और दूसरों (यानी हिन्दुओं) को उपदेश देने वाले बुद्धिजीवी कैसे घर में घुसकर छुप जाते हैं। इसके कई उदाहरण हमारे सामने हैं (ताजा मसला चांद-फ़िजा तथा इससे पहले कोलकाता का रिज़वान हत्या प्रकरण, जिसमें मुस्लिम से हिन्दू बनने पर हत्या तक हो गई)। लेकिन इस कथित “शांति का संदेश देने वाले” और “सभ्य” इस्लाम के अनुयायियों ने केरल में 1946 में ही उन्नियन साहब (मुस्लिम से हिन्दू बनने के बाद उसका नाम “रामासिंहम” हो गया था) और उनके परिवार की मलाबार इलाके के मलप्पुरम (बहुचर्चित मलप्पुरम हत्याकाण्ड) में सरेआम हत्या कर दी थी, क्योंकि “रामासिम्हन” (यानी उन्नियन साहब) ने पुनः हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया था। उस समय भी इन तथाकथित प्रगतिशील वामपंथियों ने पुलिस की जाँच को विभिन्न तरीके अपनाकर उलझाने की भरपूर कोशिश की थी ताकि असली मुजरिम बच सकें (EMS के चुनिंदा लेख (Vol.II, pp 356-57) और इनके तत्कालीन नेता थे महान वामपंथी ईएमएस नम्बूदिरिपाद। केरल की ये पार्टियाँ आज 60 साल बाद भी मुस्लिम तुष्टिकरण से बाज नहीं आ रही, बल्कि और बढ़ावा दे रही हैं।
हिन्दू विरोध धीरे-धीरे कम्युनिस्टों का मुख्य एजेण्डा बन गया था, 1968 में इसी नीति के कारण देश में एक “शुद्ध मुस्लिम जिले” मलप्पुरम का जन्म हुआ। आज की तारीख में यह इलाका मुस्लिम आतंकवाद का गढ़ बन चुका है, लेकिन देश में किसी को कोई फ़िक्र नहीं है। केरल सरकार ने मलप्पुरम जिले में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की शाखा खोलने के लिये 24 एकड़ की ज़मीन अधिगृहीत की है, जिसे 1000 एकड़ तक बढ़ाने की योजना है, ताकि राज्य में जमात-ए-इस्लामी का “प्रिय” बना जा सके (अब आप सिर धुनते रहिये कि जब पहले से ही जिले में कालीकट विश्वविद्यालय मौजूद है तब उत्तरप्रदेश से हजारों किमी दूर अलीगढ़ मुस्लिम विवि की शाखा खोलने की क्या तुक है, लेकिन भारत में मुस्लिम वोटों के लिये “सेकुलरिज़्म” के नाम पर कुछ भी किया जा सकता है), भले ही केरल की 580 किमी की समुद्री सीमा असुरक्षित हो, लेकिन इस प्रकार के मूर्खतापूर्ण कामों पर पैसा खर्च किया जा रहा है।

1980 में मलप्पुरम में कई सिनेमाघरों में बम विस्फ़ोट हुए, पुलिस ने कुछ नहीं किया, केरल के उत्तरी इलाकों में गत एक दशक में कई विस्फ़ोट हो चुके हैं लेकिन पुलिस कहीं भी हाथ नहीं डाल पा रही। बेपूर बन्दरगाह पर हुए विस्फ़ोट में भी आज तक एक भी आरोपी नहीं पकड़ाया है, ज़ाहिर है कि सत्ताधारी पार्टी ही जब समर्थन में हो तो पुलिस की क्या हिम्मत। लेकिन मलप्पुरम जिले का तालिबानीकरण अब बेहद खतरनाक स्थिति में पहुँच चुका है, हाल ही में 25 जुलाई 2008 के बंगलोर बम विस्फ़ोटों के सिलसिले में कर्नाटक पुलिस ने नौ आरोपियों के खिलाफ़ केस दायर किया है और सभी आरोपी मलप्पुरम जिले के हैं, क्या इसे सिर्फ़ एक संयोग माना जा सकता है? 6 दिसम्बर 1997 को त्रिचूर रेल धमाके हों या 14 फ़रवरी 1998 के कोयम्बटूर धमाके हों, पुलिस के हाथ हमेशा बँधे हुए ही पाये गये हैं।
पाठकों ने गुजरात, अहमदाबाद, कालूपुर-दरियापुर-नरोडा पाटिया, ग्राहम स्टेंस, कंधमाल आदि के नाम सतत सुने होंगे, लेकिन मराड, मलप्पुरम या मोपला का नाम नहीं सुना होगा… यही खासियत है वामपंथी और सेकुलर लेखकों और इतिहासकारों की। मीडिया पर जैसा इनका कब्जा रहा है और अभी भी है, उसमें आप प्रफ़ुल्ल बिडवई, कुलदीप नैयर, अरुंधती रॉय, महेश भट्ट जैसों से कभी भी “जेहाद” के विरोध में कोई लेख नहीं पायेंगे, कभी भी इन जैसे लोगों को कश्मीर के पंडितों के पक्ष में बोलते नहीं सुनेंगे, कभी भी सुरक्षाबलों का मनोबल बढ़ाने वाली बातें ये लोग नहीं करेंगे, क्योंकि ये “सेकुलर” हैं… इन जैसे लोग “अंसल प्लाज़ा” की घटना के बारे में बोलेंगे, ये लोग नरोडा पाटिया के बारे में हल्ला मचायेंगे, ये लोग आपको एक खूंखार अपराधी के मानवाधिकार गिनाते रहेंगे, अफ़ज़ल गुरु की फ़ाँसी रुकवाने का माहौल बनाने के लिये विदेशों के पाँच सितारा दौरे तक कर डालेंगे…। यदि इंटरनेट और ब्लॉग ना होता तो अखबारों और मीडिया में एक छोटी सी खबर ही प्रकाशित हो पाती कि “केरल के मराड में एक हिंसा की घटना में नौ लोगों की मृत्यु हो गई…” बस!!!
अब केरल में क्या हो रहा है… घबराये और डरे हुए हिन्दू लोग मुस्लिम बहुल इलाकों से पलायन कर रहे हैं, मलप्पुरम और मलाबार से कई परिवार सुरक्षित(?) ठिकानों को निकल गये हैं और “दारुल-इस्लाम” बनाने के लिये जगह खाली होती जा रही है। 580 किमी लम्बी समुद्री सीमा के किनारे बसे गाँवों में हिन्दुओं के “जातीय सफ़ाये” की बाकायदा शुरुआत की जा चुकी है। पोन्नानी से बेपूर तक के 65 किमी इलाके में एक भी हिन्दू मछुआरा नहीं मिलता, सब के सब या तो धर्म परिवर्तित कर चुके हैं या इलाका छोड़कर भाग चुके हैं। बहुचर्चित मराड हत्याकाण्ड भी इसी जातीय सफ़ाये का हिस्सा था, जिसमें भीड़ ने आठ मछुआरों को सरेआम मारकर मस्जिद में शरण ले ली थी (देखें)। 10 मार्च 2005 को संघ के कार्यकर्ता अश्विनी की भी दिनदहाड़े हत्या हुई, राजनैतिक दबाव के चलते आज तक पुलिस कोई सुराग नहीं ढूँढ पाई। मलप्पुरम सहित उत्तर केरल के कई इलाकों में दुकानें और व्यावसायिक संस्थान शुक्रवार को बन्द रखे जाते हैं और रमज़ान के महीने में दिन में होटल खोलना मना है। त्रिसूर के माथिलकोम इलाके के संतोष ने इस फ़रमान को नहीं माना और शुक्रवार को दुकान खोली तथा 9 अगस्त 1996 को कट्टरवादियों के हाथों मारा गया, जैसा कि होता आया है इस केस में भी कोई प्रगति नहीं हुई (दीपक धर्मादम, केरलम फ़ीकरारूड स्वान्थमनाडु, pp 59,60)।
पाठकों ने इस प्रकार की घटनाओं के बारे में कभी पढ़ा-सुना या टीवी पर देखा नहीं होगा, सभी घटनायें सच हैं और वीभत्स हैं लेकिन हमारा “राष्ट्रीय मीडिया”(?) जो कि मिशनरी पैसों पर पलता है, हिन्दू-विरोध से ही जिसकी रोटी चलती है, वामपंथियों और कांग्रेसियों का जिस पर एकतरफ़ा कब्जा है, वह कभी इस प्रकार की घटनाओं को महत्व नहीं देता (वह महत्व देता है वरुण गाँधी को, जहाँ उसे हिन्दुत्व को कोसने का मौका मिले)। ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं जिनमें हिन्दुओं की हत्या, अपहरण और बलात्कार हुए हैं, लेकिन “सेकुलरिज़्म” के कर्ताधर्ताओं को भाजपा-संघ की बुराई करने से ही फ़ुर्सत नहीं मिलती। कोट्टायम और एर्नाकुलम जिलों के जागरूक नागरिकों ने जंगलों में चल रहे सिमी के कैम्पों की जानकारी पुलिस को दी, पुलिस आई, कुछ लोगों को पकड़ा और मामूली धारायें लगाकर ज़मानत पर छोड़ दिया। इन्हीं “भटके हुए नौजवानों”(???) में से कुछ देश के विभिन्न हिस्सों में आतंकवादी गतिविधियों में पकड़ाये हैं। हाल ही में मुम्बई की जेलों में अपराधियों को इस्लाम धर्म अपनाने के लिये दाऊद गैंग का हाथ होने की पुष्टि आर्थर रोड जेल के जेलर ने की थी, यह तकनीक केरल में भी अपनाई जा रही है और नये-पुराने अपराधियों को धर्म परिवर्तित करके मुस्लिम बनाया जा रहा है। जब “सिमी” पर प्रतिबन्ध लग गया तो उसने नाम बदलकर NDF रख लिया, इस प्रकार विभिन्न फ़र्जी नामों से कई NGO चल रहे हैं जिनकी गतिविधियाँ संदिग्ध हैं, लेकिन कोई देखने-सुनने वाला नहीं है (दैनिक मंगलम, कोट्टायम, 9 फ़रवरी 2009)।
जैसा कि पहले उल्लेख किया गया “पेट्रो डॉलर” ने केरल में हिन्दू-मुस्लिम के बीच आर्थिक खाई को बहुत चौड़ा कर दिया है, खाड़ी से आये हुए हवाला धन के कारण यहाँ कई जिलों में 70% से अधिक ज़मीन की रजिस्ट्रियाँ मुसलमानों के नाम हुई हैं और हिन्दू गरीब होते जा रहे हैं। पैसा कमाकर लाना और ज़मीन खरीदना कोई जुर्म नहीं है, लेकिन “घेट्टो” मानसिकता से ग्रस्त होकर एक ही इलाके में खास बस्तियाँ बनाना निश्चित रूप से स्वस्थ मानसिकता नहीं कही जा सकती।यहाँ तक कि ज़मीन के इन सौदों में मध्यस्थ की भूमिका भी “एक खास तरह के लोग” ही निभा रहे हैं और इसके कारण हिन्दुओं और मुसलमानों में आर्थिक समीकरण बहुत गड़बड़ा गये हैं (मलयालम वारिका सम्पादकीय, Vol.VII, No.12, 25 जुलाई 2003)।
सदियों से हिन्दू गाय को माता के रूप में पूजते आये हैं, लेकिन भारत में केरल ही एक राज्य ऐसा है जिसने गौवंश के वध की आधिकारिक अनुशंसा की हुई है। सन् 2002 के केरल सरकार के आधिकारिक आँकड़ों के मुताबिक उस वर्ष पाँच लाख गायों का वध किया गया और 2,49,000 टन का गौमाँस निर्यात किया गया (न्यू इंडियन एक्सप्रेस, कोचीन 13 अगस्त 2003), जबकि असली आँकड़े निश्चित रूप से और भी भयावह होते हैं। भले ही मेडिकल साइंस इसके खतरों के प्रति आगाह कर रहा हो, भले ही हिन्दू धर्माचार्य और हिन्दू नेता इसका विरोध करते रहे हों, लेकिन केरल के किसी भी मुस्लिम नेता ने कभी भी इस गौवध का खुलकर विरोध नहीं किया।
केरल के सांस्कृतिक तालिबानीकरण की शुरुआत तो 1970 में ही हो चुकी थी, जबकि केरल के सरकारी स्कूल के “यूथ फ़ेस्टिवल” में “मोप्ला गीत” (मुस्लिम) और “मर्गमकल्ली” (ईसाई गीत) को एक प्रतियोगिता के तौर पर शामिल किया गया (केरल के 53 साल के इतिहास में 49 साल शिक्षा मंत्री का पद किसी अल्पसंख्यक के पास ही रहा है)। जबकि हिन्दुओं की एक कला “कोलकल्ली” का यूनिफ़ॉर्म बदलकर “हरी लुंगी, बेल्ट और बनियान” कर दिया गया… अन्ततः इस आयोजन से सारे हिन्दू छात्र धीरे-धीरे दूर होते गये। 1960 तक कुल मुस्लिम आबादी की 10% बुजुर्ग महिलायें “परदा” रखती थीं, जबकि आज 31% नौजवान लड़कियाँ परदा /बुरका रखती हैं, सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या मुस्लिम लड़कियों में कट्टरता बढ़ रही है, या कट्टरता उन पर थोपी जा रही है? वजह जो भी हो, लेकिन ऐसा हो रहा है।
6 नवम्बर 1999 को पोप जॉन पॉल ने दिल्ली के एक केथीड्रल में कहा था कि “जिस प्रकार पहली सदी में “क्रास” ने यूरोप की धरती पर कदम जमाये और दूसरी सदी में अमेरिका और अफ़्रीका में मजबूती कायम की, उसी प्रकार तीसरी सदी में हम एशिया में अपनी फ़सल बढ़ायेंगे…”, यह वक्तव्य कोई साधारण वक्तव्य नहीं है… थोड़ा गहराई से इसका अर्थ लगायें तो “नीयत” साफ़ नज़र आ जाती है। साफ़ है कि केरल पर दोतरफ़ा खतरा मंडरा रहा है एक तरफ़ “तालिबानीकरण” का और दूसरी तरफ़ से “मिशनरी” का, ऐसे में हिन्दुओं का दो पाटों के बीच पिसना उनकी नियति बन गई है। तीन साल पहले एक अमेरिकी नागरिक जोसेफ़ कूपर ने किलीमन्नूर में एक ईसाई समारोह में सार्वजनिक रूप से हिन्दू भगवानों का अपमान किया था (उस अमेरिकी ने कहा था कि “हिन्दुओं के भगवान कृष्ण विश्व के पहले एड्स मरीज थे…”), जनता में आक्रोश भी हुआ, लेकिन सरकार ने पता नहीं क्यों मामला रफ़ा-दफ़ा करवा दिया।
कश्मीर लगभग हमारे हाथ से जा चुका है, असम भी जाने की ओर अग्रसर है, अब अगला नम्बर केरल का होगा… हिन्दू जितने विभाजित होते जायेंगे, देशद्रोही ताकतें उतनी ही मजबूत होती जायेंगी… जनता के बीच जागरूकता फ़ैलाने की सख्त जरूरत है… हम उठें, आगे बढ़ें और सबको बतायें… मीडिया के भरोसे ना रहें वह तो उतना ही लिखेगा या दिखायेगा जितने में उसे फ़ायदा हो, क्योंकि ऊपर बताई गई कई घटनाओं में से कोई भी घटना “ब्रेकिंग न्यूज़” बन सकती थी, लेकिन नहीं बनी। “नेहरूवादी सेकुलरिज़्म” की बहुत बड़ी कीमत चुका रहा है यह देश…।नेहरू की “मानस संतानें” यानी “सेकुलर बुद्धिजीवी” नाम के प्राणी भी समझ से बाहर है, क्योंकि इन्हें भारत पर और खासकर हिन्दुओं पर कभी भी कोई खतरा नज़र नहीं आता…। जबकि कुछ बुद्धिजीवी “तटस्थ” रहते हैं, तथा जब स्थिति हाथ से बाहर निकल चुकी होती है तब ये अपनी “वर्चुअल” दुनिया से बाहर निकलते हैं… ऐसे में हिन्दुओं के सामने चुनौतियाँ बहुत मुश्किल हैं… लेकिन फ़िर भी चुप बैठने से काम नहीं चलने वाला… एकता ज़रूरी है… “हिन्दू वोट बैंक” नाम की अवधारणा अस्तित्व में लाना होगा… तभी इस देश के नेता-अफ़सरशाही-नौकरशाही सब तुम्हारी सुनेंगे…

Courtesy: https://www.facebook.com/436564770018769/videos/458919254449987/

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