ये शुतुरमुर्ग प्रजाति कब सुधरेगी?
________________________________________________
मुझे हिन्दू धर्म के अंदर के कई मत-पंथ और धर्मगुरु इसलिये बर्दाश्त नहीं होते क्योंकि उनके अंदर सर्व-धर्म समानता का मूढ़ भाव होता है, जिसे वो अपने मानने वालों में फैलाते रहतें हैं. ऐसे ही टीवी पर एक आते हैं 'सरश्री'. एक दिन उन्हें सुन रहा था, वो कह रहे थे कि जिस तरह ईश्वर का एक नाम हिन्दुओं में 'अमर' है उसी तरह इस्लाम में अकबर है, अकबर माने.....अ+कबर यानि जिसकी कोई कबर (कब्र) नहीं है. अकबर अरबी भाषा का शब्द है और उसमें ये मूर्ख आदमी हिंदी व्याकरण के नियम फिट कर उसका मनमाना अर्थ लगाकर सर्वधर्म समभाव की मूढ़ता का परिचय दे रहा था.
ऐसे ही धर्मगुरुओं ने ये बीमारी हिन्दू समाज में और इस देश में फैलाई हुई है. दो-तीन पहले एक हिंदू मित्र ने अपनी वाल पर कुछ प्रश्न और उसके ऐसे ही बेतुके जबाब देते हुए हिन्दुओं की शुतुरमुर्गी भावना का प्रदर्शन किया था जो महफ़िल लूटने के लिये कुछ भी बोल और लिख सकता है. पहला सवाल "अजान अरबी में ही क्यूं ?" का जबाब देते हुए लिखतें हैं, श्रीकृष्ण बृज के रहने बाले थे लेकिन उपदेश संस्कृत में दिया क्यूंकि तत्कालीन शिक्षा और पढाई देववाणी संस्कृत में ही थी.
अब इनको बताये कि गीता धर्मोपदेश थी जबकि अज़ान एक पुकार है जो ये बताती है कि आपकी इबादत का वक़्त हो गया है. इसके लिये भाषा की कोई बाध्यता नहीं है. अज़ान की प्रथा अरब से शुरू हुई तो वहां अरबी में दी गई, तुर्की वाले तो अज़ान अपनी भाषा में देतें हैं. ये बात अगर ये कुरान के सन्दर्भ में कहतें तो मानी जा सकती थी पर अज़ान और गीता की तुलना हास्यास्पद है.
इनका दूसरा प्रश्न भी इसी से सम्बद्ध है, वो पूछते हैं, भारत में अजान का हिंदी अनुवाद क्यूं नहीं बोला जाता ? इसपर स्वयं ही जबाब देते हुए कहतें हैं, वेदों के मंत्र हों, गीता के श्लोक हों या तुलसी की चौपाई हों या गायत्री मंत्र, संसार के किसी कोने में बोली जाये अपने मूल रूप में ही उच्चारित की जायेंगी अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो जायेगा.
यहाँ भी उनका ऐसा लिखना उनके उस समझ के नतीजे में है जिसके आधार पर उन्होंने एक पुकार (अज़ान) और गीता-वेद इत्यादि को एक माना है.
इनका तीसरा प्रश्न है, जिहाद क्या है ? ये स्वयं ही इसका उत्तर देतें हैं, कहतें हैं, ये धर्म की लडाई है विधर्मियों के खिलाफ, जिस प्रकार श्री कृष्ण ने पांडवों को धर्म पर चलने वाला और कौरवों को अधर्मी बता कर अर्जुन से उन्हें खत्म करने की बात कही, उसी प्रकार नबी सल्ल ने अपने ही परिवार के उन कुरैशों को जो समाज में अनाचार फैला रहे थे, विधर्मी करार दिया और उनके खिलाफ जंग की.
भाई मेरे, अरब की तारीख उठा के देख लें, कुरैश या अरब ने ऐसा कोई भी अनाचार नहीं किया था जिसके चलते उन्हें विधर्मी ठहराया जा सके. आज दुनिया जिस सर्वधर्म समभाव की बात करती है वो अरबों का ही विशिष्ट गुण था, उनके अपने आराधनालय में दुनिया के मुख्तलिफ मजहबों के आदर्श मूर्ति, चित्र या प्रतीक रूप में सम्मान पाते थे और वो अरब उनका एहतेराम करते थे. इस्लाम से पूर्व उन्होंने कभी किसी देश की सीमा का अतिक्रमण नहीं किया, किसी पर हमला नहीं किया, दुनिया उनके व्यापारिक कौशल की दीवानी थी, अरबों के मेहमाननवाजी की चर्चा पूरी दुनिया में मशहूर थी और आपने अपनी अज्ञानता में उन्हें अनाचार फैलाने वाला लिख दिया. जहाँ तक आपके ये लिखने का प्रश्न है कि जिहाद धर्म की लडाई है विधर्मियों के खिलाफ तो ये भी आपकी अज्ञानता का सबूत है क्योंकि अरबी में धर्म-युद्ध के लिये प्रयुक्त शब्द है हर्बू-मुकद्दसा न कि जिहाद.
इनका चौथा प्रश्न था, चौथा प्रश्न : अल्लाह सबसे बडा क्यूं ? जबाब में ये कहतें हैं, "यही बात नबी सल्ल से हजार बारह सौ साल पहले गीता में भी कही गयी कि मैं ही परमब्रम्ह हूं/ सारी श्रृष्टि मेरी ही बनायी हुई है. सारा ब्रह्माण्ड मुझमें ही समाया हुआ है. देवी देवताओं के चक्कर में पडने बाले मूर्ख हैं.जो हूं सो मैं ही हूं, दूसरा कोई नहीं. नबी सल्ल ने तो उनकी ओर आपका ध्यान आकर्षित किया है बस।
भाई गीता पढ़ लें पहले, जो शब्द आपने कृष्ण के मुंह में जबरन ठूंसे हैं वैसा प्रभु ने गीता में कहीं भी नहीं कहा, बल्कि उन्होंने तो ये कहा कि कोई भी किसी की भी उपासना करे, किसी भी रीति से करे अंततः मुझ तक ही पहुँचता है, जबकि ला इलाहा इल्ललाह में ये भाव नहीं है. अगर ये भाव होता तो इस्लाम पूर्व के अरब भी तो यही कहते थे बस बाद में जोड़ देते थे कि जिनको तू इलाह बनाये. पर उनकी ये तब्दीली बर्दाश्त नहीं की गई.
कुछ भी लिख दोगे तो कैसे चलेगा?
इनका पांचवां प्रश्न : काफिर कौन है ? जबाब देतें हैं, वो सभी लोग जो सर्वशक्तिमान ईश्वर की राह से भटक कर अंधविश्वास के गर्त में चले गये हैं. बुतपरस्ती की आड़ में मासूम लोगों को लूट रहे हैं. काफिर वो जो कुफ्र करे. अधर्म की राह पर चले.
काफिर की परिभाषा समझाते हुए आपने जो चार बिंदु लिखे हैं इस्लाम के किसी भी मान्य ग्रन्थ से इनमें से सिर्फ एक कि काफिर वो जो कुफ्र करे को छोड़कर बाकी बातें काफ़िर की परिभाषा से निकाल कर दिखा दें तो मान लूँगा.
अपना मूढ़-मति और जड़ हो चुका समाज जब जागृत होने की कोशिश करता है तो ऐसी पोस्टें उसकी राह में बाधा बन जातें हैं.
सही और तार्किक तथ्य के साथ आओगे तो सम्मान है, तुमसे सीखेंगें भी पर महफ़िल लूटने के लिये ज्ञान का बलात्कार करोगे तो ये नहीं चलने देंगे.
~ #अभिजीत_सिंहजी
Courtesy: Agyeya Atman https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=449500872057598&id=100009930676208
________________________________________________
मुझे हिन्दू धर्म के अंदर के कई मत-पंथ और धर्मगुरु इसलिये बर्दाश्त नहीं होते क्योंकि उनके अंदर सर्व-धर्म समानता का मूढ़ भाव होता है, जिसे वो अपने मानने वालों में फैलाते रहतें हैं. ऐसे ही टीवी पर एक आते हैं 'सरश्री'. एक दिन उन्हें सुन रहा था, वो कह रहे थे कि जिस तरह ईश्वर का एक नाम हिन्दुओं में 'अमर' है उसी तरह इस्लाम में अकबर है, अकबर माने.....अ+कबर यानि जिसकी कोई कबर (कब्र) नहीं है. अकबर अरबी भाषा का शब्द है और उसमें ये मूर्ख आदमी हिंदी व्याकरण के नियम फिट कर उसका मनमाना अर्थ लगाकर सर्वधर्म समभाव की मूढ़ता का परिचय दे रहा था.
ऐसे ही धर्मगुरुओं ने ये बीमारी हिन्दू समाज में और इस देश में फैलाई हुई है. दो-तीन पहले एक हिंदू मित्र ने अपनी वाल पर कुछ प्रश्न और उसके ऐसे ही बेतुके जबाब देते हुए हिन्दुओं की शुतुरमुर्गी भावना का प्रदर्शन किया था जो महफ़िल लूटने के लिये कुछ भी बोल और लिख सकता है. पहला सवाल "अजान अरबी में ही क्यूं ?" का जबाब देते हुए लिखतें हैं, श्रीकृष्ण बृज के रहने बाले थे लेकिन उपदेश संस्कृत में दिया क्यूंकि तत्कालीन शिक्षा और पढाई देववाणी संस्कृत में ही थी.
अब इनको बताये कि गीता धर्मोपदेश थी जबकि अज़ान एक पुकार है जो ये बताती है कि आपकी इबादत का वक़्त हो गया है. इसके लिये भाषा की कोई बाध्यता नहीं है. अज़ान की प्रथा अरब से शुरू हुई तो वहां अरबी में दी गई, तुर्की वाले तो अज़ान अपनी भाषा में देतें हैं. ये बात अगर ये कुरान के सन्दर्भ में कहतें तो मानी जा सकती थी पर अज़ान और गीता की तुलना हास्यास्पद है.
इनका दूसरा प्रश्न भी इसी से सम्बद्ध है, वो पूछते हैं, भारत में अजान का हिंदी अनुवाद क्यूं नहीं बोला जाता ? इसपर स्वयं ही जबाब देते हुए कहतें हैं, वेदों के मंत्र हों, गीता के श्लोक हों या तुलसी की चौपाई हों या गायत्री मंत्र, संसार के किसी कोने में बोली जाये अपने मूल रूप में ही उच्चारित की जायेंगी अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो जायेगा.
यहाँ भी उनका ऐसा लिखना उनके उस समझ के नतीजे में है जिसके आधार पर उन्होंने एक पुकार (अज़ान) और गीता-वेद इत्यादि को एक माना है.
इनका तीसरा प्रश्न है, जिहाद क्या है ? ये स्वयं ही इसका उत्तर देतें हैं, कहतें हैं, ये धर्म की लडाई है विधर्मियों के खिलाफ, जिस प्रकार श्री कृष्ण ने पांडवों को धर्म पर चलने वाला और कौरवों को अधर्मी बता कर अर्जुन से उन्हें खत्म करने की बात कही, उसी प्रकार नबी सल्ल ने अपने ही परिवार के उन कुरैशों को जो समाज में अनाचार फैला रहे थे, विधर्मी करार दिया और उनके खिलाफ जंग की.
भाई मेरे, अरब की तारीख उठा के देख लें, कुरैश या अरब ने ऐसा कोई भी अनाचार नहीं किया था जिसके चलते उन्हें विधर्मी ठहराया जा सके. आज दुनिया जिस सर्वधर्म समभाव की बात करती है वो अरबों का ही विशिष्ट गुण था, उनके अपने आराधनालय में दुनिया के मुख्तलिफ मजहबों के आदर्श मूर्ति, चित्र या प्रतीक रूप में सम्मान पाते थे और वो अरब उनका एहतेराम करते थे. इस्लाम से पूर्व उन्होंने कभी किसी देश की सीमा का अतिक्रमण नहीं किया, किसी पर हमला नहीं किया, दुनिया उनके व्यापारिक कौशल की दीवानी थी, अरबों के मेहमाननवाजी की चर्चा पूरी दुनिया में मशहूर थी और आपने अपनी अज्ञानता में उन्हें अनाचार फैलाने वाला लिख दिया. जहाँ तक आपके ये लिखने का प्रश्न है कि जिहाद धर्म की लडाई है विधर्मियों के खिलाफ तो ये भी आपकी अज्ञानता का सबूत है क्योंकि अरबी में धर्म-युद्ध के लिये प्रयुक्त शब्द है हर्बू-मुकद्दसा न कि जिहाद.
इनका चौथा प्रश्न था, चौथा प्रश्न : अल्लाह सबसे बडा क्यूं ? जबाब में ये कहतें हैं, "यही बात नबी सल्ल से हजार बारह सौ साल पहले गीता में भी कही गयी कि मैं ही परमब्रम्ह हूं/ सारी श्रृष्टि मेरी ही बनायी हुई है. सारा ब्रह्माण्ड मुझमें ही समाया हुआ है. देवी देवताओं के चक्कर में पडने बाले मूर्ख हैं.जो हूं सो मैं ही हूं, दूसरा कोई नहीं. नबी सल्ल ने तो उनकी ओर आपका ध्यान आकर्षित किया है बस।
भाई गीता पढ़ लें पहले, जो शब्द आपने कृष्ण के मुंह में जबरन ठूंसे हैं वैसा प्रभु ने गीता में कहीं भी नहीं कहा, बल्कि उन्होंने तो ये कहा कि कोई भी किसी की भी उपासना करे, किसी भी रीति से करे अंततः मुझ तक ही पहुँचता है, जबकि ला इलाहा इल्ललाह में ये भाव नहीं है. अगर ये भाव होता तो इस्लाम पूर्व के अरब भी तो यही कहते थे बस बाद में जोड़ देते थे कि जिनको तू इलाह बनाये. पर उनकी ये तब्दीली बर्दाश्त नहीं की गई.
कुछ भी लिख दोगे तो कैसे चलेगा?
इनका पांचवां प्रश्न : काफिर कौन है ? जबाब देतें हैं, वो सभी लोग जो सर्वशक्तिमान ईश्वर की राह से भटक कर अंधविश्वास के गर्त में चले गये हैं. बुतपरस्ती की आड़ में मासूम लोगों को लूट रहे हैं. काफिर वो जो कुफ्र करे. अधर्म की राह पर चले.
काफिर की परिभाषा समझाते हुए आपने जो चार बिंदु लिखे हैं इस्लाम के किसी भी मान्य ग्रन्थ से इनमें से सिर्फ एक कि काफिर वो जो कुफ्र करे को छोड़कर बाकी बातें काफ़िर की परिभाषा से निकाल कर दिखा दें तो मान लूँगा.
अपना मूढ़-मति और जड़ हो चुका समाज जब जागृत होने की कोशिश करता है तो ऐसी पोस्टें उसकी राह में बाधा बन जातें हैं.
सही और तार्किक तथ्य के साथ आओगे तो सम्मान है, तुमसे सीखेंगें भी पर महफ़िल लूटने के लिये ज्ञान का बलात्कार करोगे तो ये नहीं चलने देंगे.
~ #अभिजीत_सिंहजी
Courtesy: Agyeya Atman https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=449500872057598&id=100009930676208
No comments:
Post a Comment
Note: only a member of this blog may post a comment.