Friday, 21 April 2017

आदिवासियों की संस्कृति में ऐसे ज़हर घोल रही है इसाई मिशनरियाँ

आदिवासियों की संस्कृति में ऐसे ज़हर घोल रही है इसाई मिशनरियाँ

छत्तीसगढ़ का अबूझमाड़ इलाका 3905 वर्ग किलोमीटर में फैला है। प्राकृतिक संसाधनों से सम्पन्न यह क्षेत्र नक्सलियों और मिशनरियों के आपसी गठजोड़ के कारण अबूझ बन गया है। एक तरफ नक्सली वनवासियों के हाथों में बंदूक थमा रहे हैं, तो दूसरी ओर मिशनरी बाइबिल थमाकर उन्हें उनकी सदियों पुरानी सनातन संस्कृति से दूर कर रहे हैं। नक्सलियों और मिशनरियों नेे पूरे क्षेत्र का माहौल हिन्दू विरोधी बना दिया है। अबूझमाड़ नागालैण्ड की राह पर है। इस अबूझ पहेली को  समझना और सुलझाना समय की मांग हो गई है।

अबूझमाड़ ! शेष भारत के लिए आज भी अबूझा, अनजाना। छत्तीसगढ़ के पहाड़ी जंगलों का इलाका। गोंड, मुरिया, अबूझमाडिया और हलबास लोगों की धरती। छत्तीसगढ़ के नारायणपुर, बिलासपुर और दंतेवाड़ा संभागों में बिखरा लगभग 1500 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र। ये हमारी-आपकी और मीडिया की नजर से ओझल रहने वाले उन भूभागों में से है जहां रोशनी को चुनौती देते वन न जाने कब से खड़े हैं। आजादी के बाद इन इलाकों की ओर जो अनदेखी हुई उसके परिणाम अब सामने आ रहे हैं। इन वनों और यहां के वासियों की पहचान और शांत जीवन दोनों भारी खतरे में है। इन भोलेभाले लोगों की पहचान छुड़ाकर बन्दूक थमाने का खेल खतरनाक रूप ले रहा है। प्रकृति पूजकों, शिव और शक्ति के इन सनातन उपासकों की परम्पराएं मिशनरियों के निशाने पर हैं। अथाह संपत्ति और वेतनभोगियों की फौज लेकर 'रिलीजन' के ठेकेदारों ने उन पर पूरी ताकत के साथ हमला बोल दिया है।

ये ऐसी लड़ाई है जिसमें होने वाला नुकसान तुरंत नहीं दिखता। अबूझमाड़ में पुरानी हो चुकी इस बीमारी के घाव अब दिखने लगे हैं। नारायणपुर जिले के बड़गांव में रहने वाली 19 वर्षीय राधा ने बताया,  'मैं 2009 में ईसाई बनी थी और चर्च जाना शुरू किया। इससे पहले मैं भगवान शंकर और देवी दुर्गा की पूजा करती थी। लेकिन जब से ईसाई बनी तब से मैं किसी को नहीं पूजती। न ही कोई  हिन्दू त्योहार  मनाती हूं। मुझे कोण्डागांव के पादरी ने ईसाई बनाया था। हर रविवार को गांव के चर्च में 50 के लगभग  पास-पड़ोस के लोग जीसस और मदर मैरी की प्रार्थना करने के लिए इकट्ठे होते हैं।' 'वहां प्रार्थना के अलावा और क्या होता है ,यह पूछने पर राधा कहती है, 'प्रार्थना के बाद पादरी हमको  बताते हैं कि जो खुशी यीशु दे सकते हैं वह कोई भगवान नहीं दे सकते। अगर जीवन में खुशियां पानी हैं तो अन्य सब को छोड़कर  यीशु के पास आओ वह तुम्हारे सभी दुख हर लेंगे।  किसी भी देवता में जीसस जितनी ताकत नहीं है जो किसी का दुख हर सके।' यह अबूझमाड़ की राधा की जुबानी है जबकि ऐसी सैकड़ों हजारों राधा और उनके परिवार हैं। किसी को भूत प्रेत, नरक आदि का भय दिखाकर तो किसी को झाड़- फूंक का लालच देकर, किसी को पैसे का लालच देकर  तो किसी को भावनात्मक रूप से 'ब्लैकमेल' करके ईसाई बनाया गया है। इन नवदीक्षित ईसाइयों में हिन्दू संस्कृति और वनवासी परम्पराओं के प्रति नफरत बोयी जा रही है।
छिनती  पहचान अबूझमाड़ में मिशनरियों के इन ताजा शिकारों के  मन में उनकी परम्परागत पहचान के खिलाफ ऐसा जहर भर दिया गया  है कि  अब वे अपनी  जन्म से 'हिन्दू' पहचान को भी छिपाने लगे  हैं। उनके सगे  सम्बन्धी – मित्र वगैरह, जो ईसाई नहीं बने हैं, उनको वेे हीन  भाव से देखते हैं और इसमें उनकी गलती भी क्या जब उनके ये तथाकथित नव मुक्तिदाता उन्हें ऐसा करने के लिए उकसाते है, ताकि कन्वर्जन की रफ्तार को बढ़ाया जा सके। इस महामारी का व्याप बहुत बड़ा है। वर्तमान में प्रदेश का शायद ही कोई वनवासी जिला मिशनरियों की वक्रदृष्टि से बचा हो । सब जगह उद्योग स्तर पर कन्वर्जन का धंधा चल रहा है। वनों की संस्कृति व कुटुम्ब परम्परा को तोड़ा जा रहा है। हिन्दू रीति-रिवाजों को जड़-मूल से नष्ट करने का षड्यंत्र किया जा रहा है। बहुत सोचे-समझे ढंग से इन वनवासियों के  मनों में 'गैर हिन्दू' होने का जहर बोया जा रहा है। इन वनवासियों के बीच  मिशनरियों का सदी पुराना खेल है- 'तुम हिन्दू नहीं हो।  तुम तो आदिवासी हो। तुम्हे शहर में रहने वाले इन हिन्दुओं से संघर्ष करना है।'

वैसे ईसाई मिशनरियों के कुकृत्यों को जानने और देखने के लिए नारायणपुर-ओरछा (अबूझमाड़) सटीक स्थान है। 'हर गांव चर्च-हर हाथ बाइविल' के गुप्त नारे के साथ लोभ, लालच और छल प्रपंचों से वनवासी समदुाय के  हजारों बंधुओं  को गुप्त (क्रिप्टो किश्चियन) अथवा प्रकट रूप में  ईसाई बनाया जा चुका है। अकेले नारायणपुर जिला ही नहीं प्रदेश के लगभग 8 जिलों बस्तर, नारायणपुर, बीजापुर, सुकमा, दंतेवाड़ा, कोंडागांव, महासमुंद  एवं जगदलपुर में ईसाई मिशनरियों का कार्य अपने चरम पर है।  सेवा के बाने में कन्वर्जन का खेल  खुलेआम खेला जा रहा है।

नारायणपुर में  नागालैंड वाला षड्यंत्र
राजधानी रायपुर से लगभग 340 किमी. की दूरी पर नारायणपुर जिला है। आमतौर पर हमारे मन में एक जिले की जिस प्रकार की कल्पना होती है उससे यह जिला बिल्कुल भिन्न है।  वनों से घिरा हुआ यह क्षेत्र प्राकृतिक संपदा के मामले में धनी है। पहाड़ और वनों से यह पूरा क्षेत्र आच्छादित है। सागौन के वन इस क्षेत्र की पहचान हैं। रायपुर से  सिर्फ सड़क रास्ता ही जाने के लिए है। मैं भी बस से नारायणपुर सुबह पहुंचा और किसी तरह ठहरने के लिए स्थान का इंतजाम हुआ। वैसे ठहरने के लिए होटल या विश्राम गृह खोजने पर भी मिलना यहां संभव  नहीं है। यह सिर्फ इसलिए क्योंकि यह क्षेत्र पूर्ण तरीके से नक्सल-मिशनरी प्रभावित है और लोगों में एक डर का सामान्य तौर पर माहौल बना रहता है। नारायणपुर से अबूझमाड़ की सीमा लगभग 15 किमी़ दूरी से प्रारम्भ हो जाती है। धीमा -धीमा सरकता दिन, टूटी-फूटी सड़कें, ऊंचे-नीचे रास्ते, किलोमीटरों तक सिर्फ वन ही वन, निर्जन क्षेत्र, नक्सलियों का मौन आतंक, दबी जुबान में सुनाई  जाने वाली  नक्सली बर्बरता की कहानियां और मिशनरियों की सरगर्मियां।

अबूझमाड़ की प्रमुख जनजाति माडिया है और उपजाति अबूझमाडिया। वैसे यहां गोंड, हल्बा एवं कुछ अन्य वनवासी जातियां की भी ठीकठाक संख्या है। एक दुकान पर नारायणुपर के ही स्थानीय निवासी राजेन्द्र कुमार देशमुख से भेंट हुई। 65 की उम्र पार कर चुके देशमुख शिक्षक पद से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। जब उनसे ईसाई मिशनरियों के षड्यंत्रपूर्ण कार्य के विषय में पूछा तो वे कहते हैं, 'यहां मिशनरियां हिन्दुओं को कन्वर्ट करने के लिए अंधाधुंध पैसा झोंक रही हैं। अगर इस क्षेत्र पर ध्यान नहीं दिया गया तो नारायणपुर नागालैंड बन जायेगा।' उनकी बात यूं ही खारिज नहीं की जा सकती। वे आगे और बताते हैं कि' इस क्षेत्र में  गांव के  गांव आज ईसाई हो गए हैं। नारायणपुर जिले के वनवासी लोगों को कन्वर्ट करके  एक गांव बसाया गया है जिसका नाम 'शान्ति नगर' है। अधिकतर गांव जहां पर मिशनरियों की वक्रदृष्टि पूरी तरह से पड़ी वहां 80 प्रतिशत हिन्दू आज ईसाई बन चुके हैं और तो और गढ़बंगाल गांव में 70 प्रतिशत जनसंख्या अब ईसाइयों की है।'

ओरछा तक पहुंचकर ही यह समझ में आने लगता है कि मिशनरी आक्रमण के चलते इस क्षेत्र की सनातन पहचान  मटियामेट होने को है। ओरछा के आगे बीहड़ वनांचल जहां पहुंचना बेहद कष्टप्रद है।  उन स्थानों पर क्या होगा इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता है। यहां प्रचुर संसाधनों से लैस मिशनरी सबको धता बताते हुए अपने पांसे फेंकने में लगे हैं। यहां मिट्टी के बने चर्च तेजी से खड़े हो रहे हैं और आंगाओं के घर अब उजड़ने लगे हैं। परम्परा से जंगल में सम्माननीय गायताओं,माझियों और गुनियाओं का सम्मान समाज के भीतर से योजनाबद्घ ढंग से समाप्त किया जा रहा है।  छत्तीसगढ़ के वनांचलों  में पूरी साठगांठ के साथ यह खेल  जारी है।

टूट रहे हैं कुटुंब
जिन लोगों को ईसाई बनाया जाता है उन्हें बरगलाया जाता है कि अब वो अपने कुटुंब के दूसरे सदस्यों को भी ईसाई बनने के लिए दबाव डालें।  ऐसे बहुत से परिवार यहां मिलते हैं जो ईसाई बने हैं और अपने सम्बन्धियों द्वारा बनाए जा रहे दबाव से बेहद तनाव में हैं। घरों में झगडे हो रहे हैं।  परिवार टूट रहे हैं। सोनबाई उसेंडी अपने घर के मुख्य द्वार पर बूढ़ाबाबा (भगवान शंकर) का एक बड़ा चित्र लगाए हुए हैं। उनसे ओरछा में ईसाई मिशनरियों की गतिविधियों पर पूछा तो वे कहती हैं 'यहां पर मिशनरियों का तांता लगा रहता है। अभी कुछ दिन पहले 'बाम्बे वाली' नाम से एक महिला पादरी आई थी और लगभग वह इस क्षेत्र में 2 वर्ष तक रहीं। वे इस क्षेत्र में घर-घर जाकर प्रचार करती थीं और लोगों को कन्वर्ट करती थीं। इस पादरी महिला ने माड़ में 2 वर्ष में ही सैकड़ों लोगों को ईसाई बना दिया।' वे आगे बताती हैं कि 'मिशनरियों की हालत यह है कि जिस घर में उन्हें नई लड़की दिख जाती है उस घर पर उनकी निगाह बनी रहती और यह निगाह तब तक बनी रहती है जब उसके गले में क्रॉस न पहना दें ।'

सोनबाई भरे गले से कहती हैं, 'मेरे परिवार के तीन सदस्यों को इन लोगों ने ईसाई बना दिया। जो रोज आकर मुझसे लड़ते हैं और ईसाई बनने के लिए जोर देते हैं। लेकिन मैंने उन्हें मना कर दिया है और कहा कि मैं अपने धर्म में ही जिऊंगी और अपने ही धर्म में मरूंगी। हमारा तो एक ही देव है वह है बूढ़ाबाबा। मुझे बड़ा दुख होता है कि जब लोग अपने धर्म को छोड़कर ऐसे स्थान पर जाते हैं जहां कोई किसी का नहीं है। जिस दिन आप ईसाई बन जाते हैं मिशनरी उस दिन  जीवन को मझधार में  ही छोड़कर चले जाते हैं और तब आप कहीं के नहीं रहते हो।'

निशाने पर वनवासी
मुरिया, गोड़ ,उरांव, माडिया, पनक, राऊत, मरार, महारा, हलवा, साहू, यादव, खसिया, लोहार ये सभी जातियां वनवासी समाज की प्रमुख जातियों में से एक हैं। सरकार की ओर से इन्हें संरक्षित करने की बात समय-समय पर सामने आती रहती है। लेकिन जब अबूझमाड़ में आप प्रवेश करते हैं तो अधिकतर गांवों में देखने को मिलता है संरक्षण की बात तो इतर है जबकि मिशनरियों के निशाने पर यही जातियां हैं।  इन्हीं जातियों के सबसे ज्यादा लोग कन्वर्ट हो रहे हैं। अबूझमाड़ क्षेत्र के रहने वाले ननकूराम वनवासी जातियों के मिशनरी निशाने की बात पर कहते हैं, ' इन जातियों में अशिक्षा का घोर अभाव है। लोग न के बराबर पढ़े हुए हैं और जो थोड़ा बहुत  पढ़ लिख जाते हैं वे यहां रहना पसंद नहीं करते।  यहां के लोग अभी भी 18वीं शताब्दी जैसे साधनों में जीवन यापन कर रहे हैं।'

वे एक बार को बार-बार ध्यान दिलाते हैं कि  इस क्षेत्र में जानबूझकर के ऐसा माहौल तैयार किया गया है कि लोग आगे न बढ़ सकें। यहां आकर वनवासी लोगों को कोई भी कुछ भी बता देता है वह सच मान लेते हैं। चूंकि कोई सही गलत बताने वाला नहीं है इसलिए मतलबी लोग जैसा कहते हैं ये  करते चले जाते हैं। मिशनरियां हिन्दू  परम्पराओं और संस्कृति पर चोट करती हैं। यहां तथाकथित आदिवासी बनाम हिन्दू नामक पाठ पढ़ाया जाता है । हिन्दुओं से घृणा करना सिखाया जाता है। दरअसल ( प्रथम वासी या मूल वासी) शब्द अंग्रेज देकर गए हैं। पाठ्यक्रमों में आयोंर् के आक्रमण का जो कपोल कल्पित सिद्धांत ठूंसा गया है वह ऐसे लोगों के बहुत काम आता है।  मिशनरी और नक्सली दोनों ही इन्हें समझाते हैं कि तुम लोग 'आदिवासी' हो , भारत पर आयोंर् ने हमला करके यहां के लोगों को जंगलों में खदेड़ दिया था। वे आर्य हमलावर हिन्दू हैं और तुम लोग मूल निवासी यानी आदिवासी।

परम्पराओं को मिटाने पर आमादा उन्मादी
गांव पखूरपारा के निवासी ठाकुर रामेश्वर सिंह कहते हैं कि' ईसाई मिशनरियां गांव के लोगों से  कहती हैं कि आप कोई भी हिन्दू सूचक चिन्ह न ही बांधेंगे और न ही लगाएंगे। भगवान सिर्फ यीशु हैं और कोई नहीं। वह परम्परा जो हजारों सालों  से चली आ रही है ये लोग उसे नष्ट कर रहे हैं। जो धार्मिक व पारम्परिक यात्राएं यहां होती चली आ रही थीं वे अब बंद होने की स्थिति में हैं। जिन बूढ़ाबाबा(शंकर) को हम पूजते थे अब उन्हीं के खिलाफ सुनने को विवश हैं। मिशनरियों के लोग इन क्षेत्रों में एक छद्मयुद्घ  लड़ रहे हैं।' बस्तर के तुलसीदास के रूप में विख्यात साहित्यकार एवं पत्रकार रामसिंह ठाकुर (84) जिन्होंने दो पुस्तकें, रामचरित मानस एवं श्रीमद्भगवद्गीता का हलवी में अनुवाद किया है। वे कहते हैं कि 'अंग्रेज यहां तराजू (व्यवसाय) लेकर आए थे लेकिन मिशनरी अब 'माला' लेकर आए हैं। वे सेवा के नाम का ढोंग रचाकर कन्वर्जन का खेल वनवासी लोगों के साथ खेल रहे हैं।

हाल के  दिनों में इनकी गतिविधियां बढ़ गई  हैं। ऐसा प्रतीत होने लगा है कि नारायणपुर मिशनरियों का गढ़ बन रहा हो।'  वे माड़ की संस्कृति को बताते हुए कहते हैं कि 'यहां के देवी-देवता एक जीवित परम्परा हैं। वे भव्य नहीं हैं, धनाढ्य नहीं हैं, बड़े-बड़े महलों और मंदिरों के भीतर आसीन नहीं हैं, लेकिन यहां की  अनुपम संस्कृति के मान बिन्दु हैं। इन्हीं देवताओं में बस्तर की जनजातियां ईश्वर का दिव्य रूप देखती हैं। बस्तर भूमि का अपना मातृसत्तात्मक देव परिवार है। देवी दंतेश्वरी के साथ इस परिवार में पाटदेव प्रमुख हैं। इसके साथ ही देवी के सहायक देवी- देवताओं के स्थान गांव-गांव में हैं। यह मिट गए तो ये अंचल  कुरूप हो जाएगा।

साभार:
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=459000014441911&id=436564770018769

No comments:

Post a Comment

Note: only a member of this blog may post a comment.

मानव_का_आदि_देश_भारत, पुरानी_दुनिया_का_केंद्र – भारत

#आरम्भम - #मानव_का_आदि_देश_भारत - ------------------------------------------------------------------              #पुरानी_दुनिया_का_केंद्र...