प्राचीन मध्य-पूर्व में भारतीय संस्कृति
मेसोपोटामिया की सभ्यता विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता मानी जाती है । इस क्षेत्र में 7000 ईसापूर्व से 2000 ईसापूर्व सुमेर (Sumerian) असुरिया (Assyrian)] अक्काद-अर्कार्द्ध (Akkadian) बाबेल-बबेरु (Bebilonian) अमर (Amerite)] उग्र या उरग (Ugrarian)] खत्ती-हित्ती (Khatti/Hittite)] मितन्नी (Mitanni) आदि विश्व की प्राचीनतम सभ्यताएं अनातोलिया (तुर्की) से लेकर ईरान तक के भूभाग में फली फूली । इन प्राचीन सभ्यताओं के धर्म, स्थापत्य भाषाओं में भारतीय संस्कृति के दर्शन अनायास ही मिल जायेंगे । आगेहम इन्हीं प्राचीन सभ्यताओं की नामावली, स्थापत्य आदि का वैदिक भाषा के साथ तुलनात्मक अध्ययन करेंगे ।
मेसोपोतामिया यूनानी भाषा के दो शब्दों से बना है । मेसो तथा पोतामिया – इसमें मेसो का अर्थ है मध्य और पोतामिया नदियां या जलक्षेत्र । अतः मेसोपोतामिया का अर्थ है दो जलक्षेत्रों या दो नदियों के मध्य का देश । युनानी इण्डो-यूरोपीय परिवार की भाषा है । अतः यूनानी और संस्कृत भाषाओं के शब्दों के लेखन और अर्थ में पर्याप्त समानताएं पाई जाती हैं । यूनानी शब्द मेसोस् संस्कृत के मध्य का अपभ्रंष है । संस्कृत-मध्यस्, अवेस्तन-मदेइस्, पारसी-मेडेस्, युनानी-मेसोस्, लाटिन में Medius medium, गोथिक में Midjis, अंग्रेजी में Midd, Middle स्लवोनिक में Medzu आर्मेनियन में Mej । हिन्दी भाषा में मध्य, मध, मझ, मंझार आदि विभिन्न शब्द-प्रयोग मिलते हैं । योरोपीयनों द्वारा कृत्रिम रुप से गढ़ी गई तथाकथित प्रोटो-इंडो-योरोपियन भाषा में Medhyo कहा गया है जोकि संस्कृत के मध्य का ही रुपान्तरण है । इन सभी शब्दों का अर्थ है मध्य या बीच में । पोतामिया शब्द संस्कृत शब्द पत्रम् या पात्र से बना है । यह पाई रुट pet-, also *pete लेटिन में petere हित्ती में pittar " यूनानी में piptein "to fall," potamos "rushing water," pteryx "wing लाटिन में penna अंग्रेजी में feder "feather कहा जाता है । हिन्दी में पत्र को पन्ना, पंखा, पंख, पर्का आदि कहा जाता है । संस्कृत के शब्द पत्र का अर्थ उड़ान, पंख, बहना, प्रवाह है । अतः यहां यूनानी शब्द पोतोमस का अर्थ है जल का तेजी से बहना । इस प्रकार संस्कृत के मध्य-प्रवाह से बने यूनानी शब्द मेसो-पोतोमिया का अर्थ है जल-प्रवाह या दो नदियों के बीच का क्षेत्र । अतः प्रचीन योरोपीय इतिहासकारों ने यूफ्रेतस (पुरत्तु) और तिग्रिस (तीव्र) दो नदियों के मध्य के देश को मेसोपोतामिया नाम दिया जिसका मूल संस्कृत भाषा और भारतीय संस्कृति है । इराक की नदी Tigris का नाम भी संस्कृत का अपभ्रंष है । तीव्र गति से बहने के कारण इसे तिग्रिस नाम दिया गया जोकि मूलतः संस्कृत शब्द है और फारसी में होते हुए इस रुप में बोला जाता है ।
मेसोपोतामिया का इतिहास विश्व की प्राचीनतम सुमेर सभ्यता से आरम्भ होता है । यह सुमेर संस्कृत भाषा शब्द सुमेरु पर्वत का अपभ्रंष है जिसका वर्णन भारतीय इतिहास, पुराणों में प्रायः मिलता है । बायबिल में इसे शिनार कहा गया है । यह हिमालय का नाम है और हिमालय या सुमेरु पर्वत से लोग पश्चिम में प्रवासित या प्रवर्जित होकर जिस क्षेत्र में बस गए उन लोगों को सुमेरु या सुमेरीयन कहा गया । सुमेरियन भाषा में सुमेर का अर्थ है ज्ञानी या सभ्य लोगों की भूमि । इसे संस्कृत में आर्यावर्त अर्थात् सभ्य लोगों की भूमि कहा जाता है । सुमेरु प्रदेश में एक नगर अक्काद का भी वर्णन है । प्रचीन मुद्राओं में उसे अक्काद, अगादे, अगाद कहा गया है । यह शब्द संस्कृत के अगाध से परिवर्तित है जिसका अर्थ है गहरा, अथाह । मेसोपोटामिया के इतिहासकारों ने अक्काद शब्द अगादे का अर्थ क्राउन आफ फायर भी किया है जिसका संस्कृत रुप अग्न्यार्ध्य अर्थात् अग्नि को अर्ध्य देना होता है । यही अगाध ज्ञान से परिपूर्ण निवासियों या अग्निपूजकों के नाम पर आधुनिक अंग्रजी शब्द अकादेमी बना है जिसे हम भी इसी रुप में प्रयोग करते हैं । योरोपीय विद्वानों के अनुसार सुमेर, अक्काद आदि शब्दों की व्युत्पत्ति अज्ञात है क्योंकि वे संस्कृत भाषा के ज्ञाता नहीं थे । मध्यपूर्व की प्राचीन कथाओं के अनुसार वे लोग पूर्व दिशा से आकर बसे थे । स्पष्टतः वह पूर्व का देश भारत ही है जिसके सुमेरु प्रदेश से निकलकर वे मेसोपोतामिया में बस गए और सुमेरियन कहलाए । भारतीय संस्कृति में सुमेरु या मेरु जानामाना शब्द है । यह हिमालय का नाम है । सुमेरीयन की तरह हिन्दी में सुमेरु को सुमेर ही कहा जाता है । इसी प्रकार मेरु पर्वत का अपभ्रंष मेर है जैसे अजयमेरु से अजमेर, वाग्भट या बाहड़ मेरु से बाढ़मेर, जयसलमेरु से जसलमेर, मेरुवाट से मारवाड़, मेरुपाट से मेवाड़ । मेरु से अपभ्रंष यह शब्द मेर से नेर भी हो जाता है जैसे राव बीका का नगर बीकानेर, बांकनेर आदि । यही मेरु पर्वत भाषा परिवर्तन के कारण अफगानिस्तान में मीर हो गया जिसके कारण वहां के लोगों का कुलनाम मीर पड़ा और पर्वतमाला को पामीर कहा जाता है । अतः मेरु, सुमेरु या हिमालय के निवासियों ने पश्चिम एशिया की सुमेरु सभ्यता विकसित की जिसे सुमेरीयन या अक्कादियन कहा जाता है ।
भारतीय सिन्धु-सरस्वती सभ्यता और मिश्र की नील नदीघाटी सभ्यता के साथ आधुनिक इराक में ताम्र-युग और कांस्य-युग में लगभग 5000 से 2000 ईसापूर्व आधुनिक इराक में सुमेर और अक्काद सभ्यताएं विकसित हुई । ईसापूर्व 2154 में अक्काद सभ्यता के पतन के बाद इराक दो राज्यों में विभाजित हो गया जिसमें एक असीरिया उत्तरी इराक और दूसरा राज्य बेबीलोन दक्षिणी इराक में था । असीरिया राज्य के अन्तर्गत उत्तरी इराक, उत्तर-पूर्वी सीरिया तथा दक्षिण-पूर्वी तुर्की के प्रदेश थे । असीरिया या आधुनिक सीरिया का मूल नाम सुर्य या सुरिया था । युनानी भाषा में इसे सुरिया अथवा असुरिया दोनों कहा गया है जिसे लाटिन भाषा में सीरिया और असीरिया कहा जाता है । वर्ष 2006 में दक्षिण तुर्की के सेनेकोय में मिले अभिलेख के अनुसार फोनीसियन भाषा में असुर और विवियन भाषा में सुर शब्द का प्रयोग किया गया है । प्रोफेसर रोलिंगटन के अनुसार कीरुयन लोगों को उनकी उत्तरी बोली में सुरोय या सुरायोये तथा दक्षिणी बोली में असुराये या असुरयाये कहा जाता है । पश्चिमी विद्वानों को सीरिया शब्द की व्युत्पत्ति का पता नहीं है । वास्तव में असुरिया या सुरिया नाम इराक की तिग्रिस नदी के पश्चिम में स्थित प्राचीन नगर असुर के नाम पड़ा है । अतः द्वितीय सहस्राब्दि ईसापूर्व आधुनिक इराक, पूर्वी सीरिया, पुर्वी तुर्की और पश्चिमी ईरान में सुर या असुर जाति निवास करती थी । प्रचीन भारतीय साहित्य और इतिहास में सुर और असुर दोनों कुलों को महर्षि कश्यप की सन्तान कहा गया है । महर्षि कश्यप की 13 पत्नियों में से अदिति के पूत्रों को आदित्य, देवता या सुर, दनु के पुत्रों को दानव तथा दिति के पुत्रों को दैत्य, असुर कहा गया है । संस्कृत साहित्य में असुरों को पुर्वदेवाः कहा गया है अर्थात् वे भी पूर्वकाल में देव संज्ञा से जाने जाते थे या वे देवताओं के अग्रज थे । इतिहास प्रसिद्ध समुद्रमंथन कथा के अनुसार इसमें प्राप्त सुरा नाम औधषि के पीने से देवताओं का नाम सुर पड़ा जिससे वे अमर हो गये इस कारण उन्हें अमर या अमोराइट, अमरणा ककहा जाता है । सागरमंथन से प्राप्त सुरा न दिए जाने से दानव या दैत्य असुर कहे गए । असुरिया के सम्राट असुर वाणीपाल (Ashur Banipal) का पुस्तकालय विश्वप्रसिद्ध है ।
सुमेरु सभ्यता का उत्तराधिकारी दक्षिणी इराक में बेबीलोन राज्य था । बेबीलोन दक्षिण इराक में एक नगर का नाम है जिसके खण्डहर आज भी मौजूद हैं । इसे अक्कादी भाषा में बाबिली या बोबिलिम, आरामिक भाषा में बाबेल, हिब्रु और सीरियाई में बावेल अरबी में बाबिल और युनानी में बेबीलोन, फारसी में बबिरु कहा जाता है । भारतीय प्राकृत भाषा में इसे बबेरु कहा गया है । बौद्ध साहित्य में बेबीलोन के नाम पर बबेरु जातक लिखा गया था । उस काल में बेबीलोन को मात अक्कादी (Maat Akkadi) अर्थात् अक्कादियों की मातृभूमि कहा जाता था । इसी प्रकार वर्तमान तुर्की में मितन्नी और हित्ती या खित्ती वैदिक सभ्यताएं थीं । हित्ती अभिलेखों का मितन्नी शब्द संस्कृत के मित्राणि का अपभ्रंष है और मित्र सूर्य का एक नाम है । अतः मित्राणि का अर्थ सूर्य के वंशज हुआ । हित्ती को भी खित्ती भी कहा जाता है । मिश्रदेश के अभिलेखों में इसे खेत राज्य कहा जाता था । यह खेत, खत्ती हिन्दी का खत्री और संस्कृत का क्षत्रिय है । इन हत्ती, खत्ती या क्षत्रिय तथा मितन्नी या मित्राणि राजाओं के देवताओं इन्द्र, मित्र, वरुण, नासत्य आदि को तत्कालीन अभिलेखों में याद किया गया है ।
22वीं शताब्दी ईसापूर्व वर्तमान इजरायल और फलस्तीनी क्षेत्र में अमर सभ्यता (Amorite) विकसित हुई । सुमेरियन भाषा में अमोराइट्स को मर्तु (MAR.TU) कहा गया है जोकि वैदिक देवता मरुत का अपभ्रंष है । मारुत भी देवता हैं और अमर कहे गए हैं । अमोराइट्स या अमरों को अक्कादीयन भाषा में तिदनम् या अमरम् कहा जाता है । हिब्रु में यह इमरी रुपान्तरण हो गया । स्पष्टतः ये भी संस्कृत शब्द अमर के ही अपभ्रंष हैं । मार्केण्डेय पुराण के एक भाग श्रीदुर्गासप्तशती में यक्षों और गन्धर्वों के साथ अमरों का भी उल्लेख मिलता है । प्राचीन मध्य-पूर्व की सभ्यताएं और भारतीय संस्कृति न केवल समकालीन थी बल्कि इनमें अटूट समानताएं हैं । मेसो सभ्यता का उत्खनन योरोपीय विद्वानों और पुरातत्वविदों द्वारा किया गया है और वे न तो संस्कृत भाषा जानते हैं ओर न ही भारतीय इतिहास का ज्ञान रखते हैं । रोमन लिपि में स्थानों व्यक्तियों आदि के नाम लिखने में भी अस्पष्टता रहती है । अतः मेसोपोटामिया की सभ्यता और भारतीय सभ्यता की समानता को इतिहासकार जान नहीं पाए । इसलिए वे मेसो-सभ्यता को सेमेटिक सभ्यता से जोड़ते हैं लेकिन यह नहीं जानते कि प्राचीनकाल में सेमेटिक सभ्यता भी भारतीय सभ्यता से ही विकसित हुई है । हमारे देश के शोधछात्रों को इसका अध्ययन करना चाहिए । भारतीय पुरतत्वविदों को वहां के उत्खनन स्थलों, संग्रहालयों में जाकर अध्ययन करना चाहिए । हमारा अकादेमिक इतिहास लेखन ब्रिटिश औपनिवेशिक इतिहास-मत की ही पुनरावृत्ति मात्र है । हमारे विश्वविद्यालयों में नए तथ्यों का अन्वेषण और शोधकार्य उपेक्षित ही है । मेसो-सभ्यताओं के स्थापत्य, कला, ज्योतिष तथा धार्मिक प्रतीकों में भी भारतीयता के तथ्य प्रचूर मात्रा में मिलते हैं ।
साभार: आचार्य अत्रेय
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