Saturday 25 February 2017

प्राचीन मध्य-पूर्व में भारतीय संस्कृति

प्राचीन मध्य-पूर्व में भारतीय संस्कृति

मेसोपोटामिया की सभ्यता विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यता मानी जाती है । इस क्षेत्र में 7000 ईसापूर्व से 2000 ईसापूर्व सुमेर (Sumerian) असुरिया (Assyrian)] अक्काद-अर्कार्द्ध (Akkadian) बाबेल-बबेरु (Bebilonian) अमर (Amerite)] उग्र या उरग (Ugrarian)] खत्ती-हित्ती (Khatti/Hittite)] मितन्नी (Mitanni) आदि विश्व की प्राचीनतम सभ्यताएं अनातोलिया (तुर्की) से लेकर ईरान तक के भूभाग में फली फूली । इन प्राचीन सभ्यताओं के धर्म, स्थापत्य भाषाओं में भारतीय संस्कृति के दर्शन अनायास ही मिल जायेंगे । आगेहम इन्हीं प्राचीन सभ्यताओं की नामावली, स्थापत्य आदि का वैदिक भाषा के साथ तुलनात्मक अध्ययन करेंगे ।

मेसोपोतामिया यूनानी भाषा के दो शब्दों से बना है । मेसो तथा पोतामिया – इसमें मेसो का अर्थ है मध्य और पोतामिया नदियां या जलक्षेत्र । अतः मेसोपोतामिया का अर्थ है दो जलक्षेत्रों या दो नदियों के मध्य का देश । युनानी इण्डो-यूरोपीय परिवार की भाषा है । अतः यूनानी और संस्कृत भाषाओं के शब्दों के लेखन और अर्थ में पर्याप्त समानताएं पाई जाती हैं । यूनानी शब्द मेसोस् संस्कृत के मध्य का अपभ्रंष है । संस्कृत-मध्यस्, अवेस्तन-मदेइस्, पारसी-मेडेस्, युनानी-मेसोस्, लाटिन में Medius medium,  गोथिक में Midjis, अंग्रेजी में Midd, Middle स्लवोनिक में Medzu आर्मेनियन में Mej । हिन्दी भाषा में मध्य, मध, मझ, मंझार आदि विभिन्न शब्द-प्रयोग मिलते हैं । योरोपीयनों द्वारा कृत्रिम रुप से गढ़ी गई तथाकथित प्रोटो-इंडो-योरोपियन भाषा में Medhyo कहा गया है जोकि संस्कृत के मध्य का ही रुपान्तरण है । इन सभी शब्दों का अर्थ है मध्य या बीच में । पोतामिया शब्द संस्कृत शब्द पत्रम् या पात्र से बना है । यह पाई रुट pet-, also *pete लेटिन में petere हित्ती में pittar " यूनानी में piptein "to fall," potamos "rushing water," pteryx "wing लाटिन में penna अंग्रेजी में feder "feather कहा जाता है । हिन्दी में पत्र को पन्ना, पंखा, पंख, पर्का आदि कहा जाता है । संस्कृत के शब्द पत्र का अर्थ उड़ान, पंख, बहना, प्रवाह है । अतः यहां यूनानी शब्द पोतोमस का अर्थ है जल का तेजी से बहना । इस प्रकार संस्कृत के मध्य-प्रवाह से बने यूनानी शब्द मेसो-पोतोमिया का अर्थ है जल-प्रवाह या दो नदियों के बीच का क्षेत्र । अतः प्रचीन योरोपीय इतिहासकारों ने यूफ्रेतस (पुरत्तु) और तिग्रिस (तीव्र) दो नदियों के मध्य के देश को मेसोपोतामिया नाम दिया जिसका मूल संस्कृत भाषा और भारतीय संस्कृति है । इराक की नदी Tigris का नाम भी संस्कृत का अपभ्रंष है । तीव्र गति से बहने के कारण इसे तिग्रिस नाम दिया गया जोकि मूलतः संस्कृत शब्द है और फारसी में होते हुए इस रुप में बोला जाता है ।

मेसोपोतामिया का इतिहास विश्व की प्राचीनतम सुमेर सभ्यता से आरम्भ होता है । यह सुमेर संस्कृत भाषा शब्द सुमेरु पर्वत का अपभ्रंष है जिसका वर्णन भारतीय इतिहास, पुराणों में प्रायः मिलता है । बायबिल में इसे शिनार कहा गया है । यह हिमालय का नाम है और हिमालय या सुमेरु पर्वत से लोग पश्चिम में प्रवासित या प्रवर्जित होकर जिस क्षेत्र में बस गए उन लोगों को सुमेरु या सुमेरीयन कहा गया । सुमेरियन भाषा में सुमेर का अर्थ है ज्ञानी या सभ्य लोगों की भूमि । इसे संस्कृत में आर्यावर्त अर्थात् सभ्य लोगों की भूमि कहा जाता है । सुमेरु प्रदेश में एक नगर अक्काद का भी वर्णन है । प्रचीन मुद्राओं में उसे अक्काद, अगादे, अगाद कहा गया है । यह शब्द  संस्कृत के अगाध से परिवर्तित है जिसका अर्थ है गहरा, अथाह । मेसोपोटामिया के इतिहासकारों ने अक्काद शब्द अगादे का अर्थ क्राउन आफ फायर भी किया है जिसका संस्कृत रुप अग्न्यार्ध्य अर्थात् अग्नि को अर्ध्य देना होता है । यही अगाध ज्ञान से परिपूर्ण निवासियों या अग्निपूजकों के नाम पर आधुनिक अंग्रजी शब्द अकादेमी बना है जिसे हम भी इसी रुप में प्रयोग करते हैं । योरोपीय विद्वानों के अनुसार सुमेर, अक्काद आदि शब्दों की व्युत्पत्ति अज्ञात है क्योंकि वे संस्कृत भाषा के ज्ञाता नहीं थे । मध्यपूर्व की प्राचीन कथाओं के अनुसार वे लोग पूर्व दिशा से आकर बसे थे । स्पष्टतः वह पूर्व का देश भारत ही है जिसके सुमेरु प्रदेश से निकलकर वे  मेसोपोतामिया में बस गए और सुमेरियन कहलाए ।  भारतीय संस्कृति में सुमेरु या मेरु जानामाना शब्द है । यह हिमालय का नाम है । सुमेरीयन की तरह हिन्दी में सुमेरु को सुमेर ही कहा जाता है । इसी प्रकार मेरु पर्वत का अपभ्रंष मेर है जैसे अजयमेरु से अजमेर, वाग्भट या बाहड़ मेरु से बाढ़मेर, जयसलमेरु से जसलमेर,  मेरुवाट से मारवाड़, मेरुपाट से मेवाड़ । मेरु से अपभ्रंष यह शब्द मेर से नेर भी हो जाता है जैसे राव बीका का नगर बीकानेर, बांकनेर आदि । यही मेरु पर्वत भाषा परिवर्तन के कारण अफगानिस्तान में मीर हो गया जिसके कारण वहां के लोगों का कुलनाम मीर पड़ा और पर्वतमाला को पामीर कहा जाता है । अतः मेरु, सुमेरु या हिमालय के निवासियों ने पश्चिम एशिया की सुमेरु सभ्यता विकसित की जिसे सुमेरीयन या अक्कादियन कहा जाता है ।

भारतीय सिन्धु-सरस्वती सभ्यता और मिश्र की नील नदीघाटी सभ्यता के साथ आधुनिक इराक में ताम्र-युग और कांस्य-युग में लगभग 5000 से 2000 ईसापूर्व आधुनिक इराक में सुमेर और अक्काद सभ्यताएं विकसित हुई ।  ईसापूर्व 2154 में अक्काद सभ्यता के पतन के बाद इराक दो राज्यों में विभाजित हो गया जिसमें एक असीरिया उत्तरी इराक और दूसरा राज्य बेबीलोन दक्षिणी इराक में था । असीरिया राज्य के अन्तर्गत उत्तरी इराक, उत्तर-पूर्वी सीरिया तथा दक्षिण-पूर्वी तुर्की के प्रदेश थे । असीरिया या आधुनिक सीरिया का मूल नाम सुर्य या सुरिया था । युनानी भाषा में इसे सुरिया अथवा असुरिया दोनों कहा गया है जिसे लाटिन भाषा में सीरिया और असीरिया कहा जाता है । वर्ष 2006 में दक्षिण तुर्की के सेनेकोय में मिले अभिलेख के अनुसार फोनीसियन भाषा में असुर और विवियन भाषा में सुर शब्द का प्रयोग किया गया है । प्रोफेसर रोलिंगटन के अनुसार कीरुयन लोगों को उनकी उत्तरी बोली में सुरोय या सुरायोये तथा दक्षिणी बोली में असुराये या असुरयाये कहा जाता है । पश्चिमी विद्वानों को सीरिया शब्द की व्युत्पत्ति का पता नहीं है । वास्तव में असुरिया या सुरिया नाम इराक की तिग्रिस नदी के पश्चिम में स्थित प्राचीन नगर असुर के नाम पड़ा है । अतः द्वितीय सहस्राब्दि ईसापूर्व आधुनिक इराक, पूर्वी सीरिया, पुर्वी  तुर्की और पश्चिमी ईरान में सुर या असुर जाति निवास करती थी । प्रचीन भारतीय साहित्य और इतिहास में सुर और असुर दोनों कुलों को महर्षि कश्यप की सन्तान कहा गया है । महर्षि कश्यप की 13 पत्नियों में से अदिति के पूत्रों को आदित्य, देवता या सुर, दनु के पुत्रों को दानव तथा दिति के पुत्रों को दैत्य, असुर कहा गया है । संस्कृत साहित्य में असुरों को पुर्वदेवाः कहा  गया है अर्थात् वे भी पूर्वकाल में देव संज्ञा से जाने जाते थे या वे देवताओं के अग्रज थे । इतिहास प्रसिद्ध समुद्रमंथन कथा के अनुसार इसमें प्राप्त सुरा नाम औधषि के पीने से देवताओं का नाम सुर पड़ा जिससे वे अमर हो गये इस कारण उन्हें अमर या अमोराइट, अमरणा ककहा जाता है । सागरमंथन से प्राप्त सुरा न दिए जाने से दानव या दैत्य असुर कहे गए । असुरिया के सम्राट असुर वाणीपाल (Ashur Banipal) का पुस्तकालय विश्वप्रसिद्ध है ।
सुमेरु सभ्यता का उत्तराधिकारी दक्षिणी इराक में बेबीलोन राज्य था । बेबीलोन दक्षिण इराक में एक नगर का नाम है जिसके खण्डहर आज भी मौजूद हैं । इसे अक्कादी भाषा में बाबिली या बोबिलिम, आरामिक भाषा में बाबेल, हिब्रु और सीरियाई में बावेल अरबी में बाबिल और युनानी में बेबीलोन, फारसी में बबिरु  कहा जाता है । भारतीय प्राकृत भाषा में इसे बबेरु कहा गया है । बौद्ध साहित्य में बेबीलोन के नाम पर बबेरु जातक लिखा गया था । उस काल में बेबीलोन को मात अक्कादी (Maat Akkadi) अर्थात् अक्कादियों की मातृभूमि कहा जाता था । इसी प्रकार वर्तमान तुर्की में मितन्नी और हित्ती या खित्ती वैदिक सभ्यताएं थीं । हित्ती अभिलेखों का मितन्नी शब्द संस्कृत के मित्राणि का अपभ्रंष है और मित्र सूर्य  का एक नाम है ।  अतः मित्राणि का अर्थ सूर्य के वंशज हुआ । हित्ती को भी खित्ती भी कहा जाता है । मिश्रदेश के अभिलेखों में इसे खेत राज्य कहा जाता था । यह खेत, खत्ती हिन्दी का खत्री और संस्कृत का क्षत्रिय है । इन हत्ती, खत्ती या क्षत्रिय तथा मितन्नी या मित्राणि राजाओं के देवताओं इन्द्र, मित्र, वरुण, नासत्य आदि को तत्कालीन अभिलेखों में याद किया गया है ।

22वीं शताब्दी ईसापूर्व वर्तमान इजरायल और फलस्तीनी क्षेत्र में अमर सभ्यता (Amorite) विकसित हुई । सुमेरियन भाषा में अमोराइट्स को मर्तु (MAR.TU) कहा गया है जोकि वैदिक देवता मरुत का अपभ्रंष है । मारुत भी देवता हैं और अमर कहे गए हैं ।  अमोराइट्स या अमरों को अक्कादीयन भाषा में तिदनम् या अमरम् कहा जाता है । हिब्रु में यह इमरी रुपान्तरण हो गया । स्पष्टतः ये भी संस्कृत शब्द अमर के ही अपभ्रंष हैं । मार्केण्डेय पुराण के एक भाग श्रीदुर्गासप्तशती में यक्षों और गन्धर्वों के साथ अमरों का भी उल्लेख मिलता है । प्राचीन मध्य-पूर्व की सभ्यताएं और भारतीय संस्कृति न केवल समकालीन थी बल्कि इनमें अटूट समानताएं हैं । मेसो सभ्यता का उत्खनन योरोपीय विद्वानों और पुरातत्वविदों द्वारा किया गया है और वे न तो संस्कृत भाषा जानते हैं ओर न ही भारतीय इतिहास का ज्ञान रखते हैं । रोमन लिपि में स्थानों व्यक्तियों आदि के नाम लिखने में भी अस्पष्टता रहती है । अतः मेसोपोटामिया की सभ्यता और भारतीय सभ्यता की समानता को इतिहासकार जान नहीं पाए । इसलिए वे मेसो-सभ्यता को सेमेटिक सभ्यता से जोड़ते हैं लेकिन यह नहीं जानते कि प्राचीनकाल में सेमेटिक सभ्यता भी भारतीय सभ्यता से ही विकसित हुई है । हमारे देश के शोधछात्रों को इसका अध्ययन करना चाहिए । भारतीय पुरतत्वविदों को वहां के उत्खनन स्थलों, संग्रहालयों में जाकर अध्ययन करना चाहिए । हमारा अकादेमिक इतिहास लेखन ब्रिटिश औपनिवेशिक इतिहास-मत की ही पुनरावृत्ति मात्र है । हमारे विश्वविद्यालयों में नए तथ्यों का अन्वेषण और शोधकार्य उपेक्षित ही है । मेसो-सभ्यताओं के स्थापत्य, कला, ज्योतिष तथा धार्मिक प्रतीकों में भी भारतीयता के तथ्य प्रचूर मात्रा में मिलते हैं ।

साभार: आचार्य अत्रेय
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मार्सेल्स नगर में वीर सावरकर की मूर्ति। कठिनाई क्या है?

8 जुलाई 2010 को स्वातंत्र्य वीर सावरकर द्वारा अंग्रेजों के चंगुल से छूटने की कोशिश के तहत फ़्रांस के समुद्र में ऐतिहासिक छलांग लगाने को 100 वर्ष पूरे हुए । भारतवासियों के इस गौरवशाली क्षण को मधुर बनाने के लिये फ़्रांस सरकार ने मार्सेल्स नगर में वीर सावरकर की मूर्ति लगाने का फ़ैसला किया था, जिसे भारत सरकार के अनुमोदन हेतु भेजा गया… ताकि इसे एक सरकारी आयोजन की तरह आयोजित किया जा सके।
लेकिन हमेशा की तरह भारत की प्रमुख राजनैतिक पार्टी कांग्रेस और उसके पिछलग्गू सेकुलरों ने इसमें अड़ंगा लगा दिया, और पिछले काफ़ी समय से फ़्रांस सरकार का यह प्रस्ताव धूल खा रहा है। इस मूर्ति को लगाने के लिये न तो फ़्रांस सरकार भारत से कोई पैसा ले रही है, न ही उस जगह की लीज़ लेने वाली है, लेकिन फ़िर भी “प्रखर हिन्दुत्व” के इस महान योद्धा को 100 साल बाद भी विदेश में कोई सम्मान न मिलने पाये, इसके लिये “सेकुलरिज़्म” के कनखजूरे अपने काम में लगे हुए हैं। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि “यह एक संवेदनशील मामला है…(?) और मार्सेल्स नगर के अधिकारी इस बात पर सहमत हुए हैं कि इतिहास के तथ्यों पर पुनर्विचार करने के बाद ही वे कोई अगला निर्णय लेंगे…”। (आई बात आपकी समझ में? संसद परिसर में सावरकर की आदमकद पेंटिंग लगाई जा चुकी है, लेकिन फ़्रांस में सावरकर की मूर्ति लगाने पर कांग्रेस को आपत्ति है…, इसे संवेदनशील मामला बताया जा रहा है)

आपको याद होगा कि 2004 में तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री मणिशंकर अय्यर ने अंडमान की सेल्युलर जेल से सावरकर के कथ्यों वाली प्लेट को हटवा दिया था, और तमाम विरोधों के बावजूद उसे दोबारा नहीं लगने दिया। मणिशंकर अय्यर का कहना था कि सावरकर की अंग्रेजों के खिलाफ़ लड़ाई संदिग्ध है तथा गाँधी की हत्या में उनका हाथ है, इसलिये पोर्ट ब्लेयर के इस ऐतिहासिक स्मारक से सावरकर की यह पट्टी हटाई गई है (यह वही मणिशंकर अय्यर हैं जो 1962 के चीन युद्ध के समय चीन के पक्ष में इंग्लैण्ड में चन्दा एकत्रित कर रहे थे, और कहने को कांग्रेसी, लेकिन दिल से “कमीनिस्ट” मणिशंकर अय्यर… प्रकाश करात, एन राम और प्रणय रॉय के खास मित्रों में से हैं, जो अंग्रेजी में सोचते हैं, अंग्रेजी में ही लिखते-बोलते-खाते-पीते हैं)।

सावरकर के अपमान जैसे दुष्कृत्य के बदले में मणिशंकर अय्यर को देशप्रेमियों और राष्ट्रवादियों के दिल से निकली ऐसी “हाय और बद-दुआ” लगी, कि पहले पेट्रोलियम मंत्रालय छिना, ग्रामीण विकास मंत्रालय मिला, फ़िर उसमें भी सारे अधिकार छीनकर पंचायत का काम देखने का ही अधिकार बचा, अन्त में वह भी चला गया। 2009 के आम चुनाव में टिकट के लिये करुणानिधि के आगे नाक रगड़नी पड़ी, बड़ी मुश्किल से धांधली करके चन्द वोटों से चुनाव जीते और अब बेचारे संसद में पीछे की बेंच पर बैठते हैं और कोशिश में लगे रहते हैं कि किसी तरह उनके “मालिक” यानी राहुल गाँधी की नज़रे-इनायत उन पर हो जाये ।
वीर सावरकर पर अक्सर आरोप लगते हैं कि उन्होंने अंग्रेजों से माफ़ी माँग ली थी और जेल से रिहा करने के बदले में अंग्रेजों के खिलाफ़ न लड़ने का “अलिखित वचन” दे दिया था, जबकि यह सच नहीं है। सावरकर ने 1911 और 1913 में दो बार “स्वास्थ्य कारणों” से उन्हें रिहा करने की अपील की थी, जो अंग्रेजों द्वारा ठुकरा दी गई। यहाँ तक कि गाँधी, पटेल और तिलक की अर्जियों को भी अंग्रेजों ने कोई तवज्जो नहीं दी, क्योंकि अंग्रेज जानते थे कि यदि अस्वस्थ सावरकर भी जेल से बाहर आये तो मुश्किल खड़ी कर देंगे। जबकि सावरकर जानते थे कि यदि वे बाहर नहीं आये तो उन्हें “काला पानी” में ही तड़पा-तड़पाकर मार दिया जायेगा और उनके विचार आगे नहीं बढ़ेंगे। इसलिये सावरकर की “माफ़ी की अर्जी” एक शातिर चाल थी, ठीक वैसी ही चाल जैसी आगरा जेल से शिवाजी ने औरंगज़ेब को मूर्ख बनाकर चली थी। क्योंकि रिहाई के तुरन्त बाद सावरकर ने 23 जनवरी 1924 को “हिन्दू संस्कृति और सभ्यता के रक्षण के नाम पर” रत्नागिरी हिन्दू सभा का गठन किया और फ़िर से अपना “मूल काम” करने लगे थे।

तात्पर्य यह कि उन्होंने कभी भी अंग्रेजों के सामने “दिल-दिमाग” से समर्पण नहीं किया था, वहीं हमारे“ईमानदार बाबू” हैं जो ऑक्सफ़ोर्ड में जाकर ब्रिटिश राज की तारीफ़ कर आये… या फ़िर “मोम की गुड़िया” हैं जो “राष्ट्रमण्डल के गुलामों हेतु बने खेलों” में अरबों रुपया फ़ूंकने की खातिर, इंग्लैण्ड जाकर “महारानी” के हाथों बेटन पाकर धन्य-धन्य हुईं।

उल्लेखनीय है कि सावरकर को दो-दो आजीवन कारावास की सजा दी गई थी, सावरकर ने अण्डमान की सेलुलर जेल में कई वर्ष काटे। किसी भी सामान्य व्यक्ति की मानसिक हिम्मत और शारीरिक ताकत जवाब दे जाये, ऐसी कठिन परिस्थिति में उन्हें रहना पड़ा, उन्हें बैल की जगह जोतकर कोल्हू से तेल निकलवाया जाता था, खाने को सिर्फ़ इतना ही दिया जाता था कि वे जिन्दा रह सकें, लेकिन फ़िर भी स्वतन्त्रता आंदोलन का यह बहादुर योद्धा डटा रहा।

सावरकर के इस अथक स्वतन्त्रता संग्राम और जेल के रोंगटे खड़े कर देने वाले विवरण पढ़ने के बाद एक-दो सवाल मेरे मन में उठते हैं –

1) नेहरु की “पिकनिकनुमा” जेलयात्राओं की तुलना, अगर हम सावरकर की कठिन जेल परिस्थितियों से करें… तो स्वाभाविक रुप से सवाल उठता है कि यदि “मुँह में चांदी का चम्मच लिये हुए सुकुमार राजपुत्र” यानी “नेहरु” को सिर्फ़ एक साल के लिये अण्डमान की जेल में रखकर अंग्रेजों द्वारा उनके “पिछवाड़े के चमड़े” तोड़े जाते, तो क्या तब भी उनमें अंग्रेजों से लड़ने का माद्दा बचा रहता? क्या तब भी नेहरु,लेडी माउण्टबेटन से इश्क लड़ाते? असल में अंग्रेज शासक नेहरु और गाँधी के खिलाफ़ कुछ ज्यादा ही “सॉफ़्ट” थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि ये तो “अपना ही आदमी” है? [मैकाले की शिक्षा पद्धति और लुटेरी “आईसीएस” (अब IAS) की व्यवस्था को ज्यों का त्यों बरकरार रखने वाले नेहरु ही थे]

2) दूसरा लेकिन सबसे महत्वपूर्ण सवाल उठता है कि यदि सावरकर हिन्दू ब्राह्मण की बजाय, दलित-OBC या मुस्लिम होते तो क्या होता? शायद तब मायावती पूरे उत्तरप्रदेश में खुद ही उनकी मूर्तियाँ लगवाती फ़िरतीं, या फ़िर कांग्रेस भी “गाँधी परिवार” के अलावा किसी स्टेडियम, सड़क, नगर, पुल, कालोनी, संस्थान, पुरस्कार आदि का नाम सावरकर के नाम पर रख सकती थी,

लेकिन दुर्भाग्य से सावरकर ब्राह्मण थे, गाँधी परिवार से सम्बन्धित भी नहीं थे, और ऊपर से “हिन्दुत्व” के पैरोकार भी थे… यानी तीनों “माइनस” पॉइंट… ऐसे में उनकी उपेक्षा, अपमान होना स्वाभाविक बात है, मूर्ति वगैरह लगना तो दूर रहे।

सुरेश चिपलूनकर ।

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महान युगदृष्टा वीर विनायक दमोदर सावरकर

26फरवरी 1966 हिँदूओ को हिँदूत्व का पाठ पढाने वाले महान युगदृष्टा वीर विनायक दमोदर सावरकर जी भारत विभाजन की पीडा से आहत और बीमार होकर शरीर त्याग दिया। आज हमारे पास सावरकर जी का चिँतन है उनकी सोच है उनके बताये रास्ते है तभी तो देश मे पुनः जय हिँदू राष्टृ गूँजने लगा, हिँदू स्वाराज्य हम सबका उददेश्य बन गया। बाल गँगाधर तिलक, और महान क्रँतिकारी मैजिनी से प्रभावित सावरकर जी ने कलम और बँदूक दोनो का अँग्रेजो के खिलाफ इस्तेमाल किया। भयभीत अँग्रेजो ने दो जन्म कारावास की सजा सुनाकर पूर्नजन्म को स्वीकार किया हिँदू सभ्यता को , ऐसे महान पुरूष को 28साल करीब जेल व नजर बँदी , के तौर पर जीवन जीना पडा, हिँदूत्व की क्षीण होती परम्परा को पुनः स्थापित करने के लिये बाल गँगाधर जी के साथ गणेश महोत्सव , मित्र मेला शुरू करना आदि हिँदू शक्ति को मजबूत किया। शिवाजी महराज, बाजीराव पेशवा को अपना आदर्श मानने वाले सावरकर जी ने हिँदू समाज मे एकता लाने के लिये भेदभाव खत्म करने के लिये रत्नागिरी मे पतित पावन मँदिर का निर्माण कराया ,अन्दोलन चलाया। उस समय के हिँदू यदि गाँधी जैसे धूर्त के छलावा मे न आते और सावरकर जी की बात माना होता तो 36लाख हिँदू न मरा होता न भारत विभाजन होता और न आज हिँदू .......आप खुद समझे..विचार करे....
शत शत नमन

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Adi Guru Sri Dakshinamurty

In a remote forest under a Vata Vruksha (Banyan tree) facing Dakshina (South) sat a young Adi Guru (Cosmic Teacher) surrounded by four aged Shishyas (Disciples). Guru sported a Jnana Mudra where the tip of his index figure was touching the base of the thumb and other three fingers were straight apart from each other. The thumb represents the Absolute Consciousness and the forefinger the Individual Consciousness. The forefinger touching the base of the thumb indicates surrender attitude of Jivatma. The three other fingers represents Trigunas namely Satva, Rajas and Tamo.  When the Jivatma transcend these three gunas and surrender to Paramatma then Jnana unfolds, th is the philosophical symbolism behind the gesture of Jnana mudra by the Guru. The Guru is Dakshina Murthy and the four aged disciples are Sanaka, Sanatana, Sanandana and Sanat kumara. Guru Dakshina Murthy has Apasmara, the dwarf who represents Ignorance and Epilepsy under his foot.
           
There was no teaching or preaching heard aloud yet knowledge was transferred in silence. It is said that Mauna Vakyanam (Silent Sentences) were transmitted from the young Guru to the aged Shishyas. The Guru and Shishyas were in sync with lessons while the words were superfluous.

How could the Shishyas get the knowledge without Guru uttering a single word??? Is it possible???

Yes, This was the kind of educational practice my country had long back. It was not like the education system we find in recent times. Most of the knowledge that the student received was through contemplation. There are two major parts in the accumulation of knowledge, Sravana (Listening) and Manana (Contemplating). Earlier the students were Ekasantagrahi (one who can grasp by listening once). So Sravana (Listening) was just 20% while the second part Manana (Contemplating) was remaining 80%. Moreover the lessons at those times were in Sutras (Thread)  The connection between thread and lessons derived from the fact that these were aphorisms verbally taught for easy memorization. 

The knowledge obtained by Manana is what is called “Mauna Vakyanam” by the Guru.    

Bookish knowledge or knowledge that is forced upon will not help us to think analytically. Analytical knowledge alone gives us the leverage to think out of the box. This analytical knowledge is obtained by contemplating on the knowledge got by books or lecture, but the academic knowledge is got by mugging up that which is in the books. While the analytical knowledge stays till our last breath, the validity of academic knowledge is sufficient till one takes the examination to obtain grades and certificates.

When a guru or a teacher talks about any subject it remains as a concept till the disciple or the student contemplates and comprehends it, so that the reality of that is known to him. These are the silent sentences which help him to get the knowledge first hand. It is not only in the case of learning but in every aspect of life one need to think and get the answers instead of borrowing them from others.

Suppose I am told about the route from Bangalore to Mysore via, Ramanagaram, Channapattana, Maddur, Mandya, Srirangapattana. I will know that it is not the only route but I can take the Kanakapura, Sathanuru, Malavalli route too to reach Mysore, and that will be only if I travel. Guru is like a road map he can only guide but to reach the destination involves my efforts.

Sri Krishna tells Arjuna to act as he wish at the end of the Bhagvad-Gita sermon (Chapter 18, verse 63. He never said “now I have told you everything come on draw out the sword and get going” Sri Krishna throughout His sermon guided Arjuna and at the end He wanted Arjuna to act as he wished. To wish Arjuna had to think.... this is the power of contemplation.

There are more answers got in silence.

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Friday 24 February 2017

SHIVRATRI - DWADASH JYOTIRLING VANDANA - 12 (JYOTIRLINGA OF GHRISHNESHWAR, ELLORA)

SHIVRATRI - DWADASH JYOTIRLING VANDANA - 12
(JYOTIRLINGA OF GHRISHNESHWAR, ELLORA)

#12:
NAME: GHRISNESHWAR (Lord of compassion)

LOCATION: Ellora, Maharashtra

ORIGINALLY BUILT BY:  (Couldn't trace. Please share if you know)

BRIEF HISTORY: This temple was destroyed by the Delhi Sultanate during the Hindu-Muslim wars of 13th and 14th-century. The temple went through several rounds of rebuilding followed by re-destruction during the Mughal-Maratha conflict. It was rebuilt in the current form in the 18th century under the sponsorship of a Hindu queen Rani Ahalyabai of Indore, after the fall of the Mughal Empire

REMARKS: Some believe that Ghumeshwar Shiv Ling in Ghumeshwar, Shiwar is the 12th Jyotirling

VERSE TO WORSHIP:
Elapure ramya vishalakeshmin samullasantamcha jagadvarenyam .
Vande mahodaratara swabhavam Ghrishneshwarakhyam saranam prapadye

(Jyotirling Series ends with this post. Wish you all a Blissful & Auspicious Shivratri...!!! Har Har Mahadev...!!!)

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SHIVRATRI - DWADASH JYOTIRLING VANDANA - 11 (JYOTIRLINGA OF VISHWANATH, KASHI/VARANSI)

SHIVRATRI - DWADASH JYOTIRLING VANDANA - 11
(JYOTIRLINGA OF VISHWANATH, KASHI/VARANSI)

#11:
NAME: Vishwanath/Vishweshwar (Lord/Savior of the Universe)

LOCATION: On the Banks of Holy Ganges in Varansi, Uttar Pradesh

ORIGINALLY BUILT BY: Legend says that Lord himself came down to Kashi to live in the form of Jyotirlinga Vishvanath when Maa Sati self immolated herself. Original construction goes back to unwritten history. Many pious rulers contributed to reviving the temple time to time whilst many invaders destroyed parallely.

BRIEF HISTORY: The original Vishwanath temple was destroyed by the army of Qutb-ud-din Aibak in 1194 CE, when he defeated the Raja of Kannauj as a commander of Mohammad Ghori. The temple was rebuilt by a Gujarati merchant during the reign of Delhi's Sultan Iltutmish (1211-1266 CE). It was demolished again during the rule of either Hussain Shah Sharqi (1447-1458) or Sikandar Lodhi (1489-1517).
In 1669 CE, Emperor Aurangzeb destroyed the temple and built the Gyanvapi Mosque in its place.The remains of the erstwhile temple can be seen in the foundation, the columns and at the rear part of the mosque

REMARKS: Considered as the holiest abode of Prabhu Mahadev. Today it's a broken half temple-half mosque.

VERSE TO WORSHIP:
Saananda maanandavane vasantamanandakandam hatapapavrindam .
Vaaranaseenathamanatha natham shree Vishwanatham Sharanam prapadye

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Terrorism, you and I

कक्षा 9 में पढ़नेवाली एक बालिका के पिता ने उसके भाषण का यह ड्राफ्ट मुझे भेजा था कि मैं इसमें कुछ सुधार कर दूँ । आप भी पढ़िये, मैंने तो जस का तस लौटाया,  मन: पूर्वक आशीर्वाद के साथ,  बच्चियाँ अगर इतना स्पष्ट समझ रही हैं परिस्थिति को तो हालात इतने भी बुरे नहीं है ।  यथाशक्ति हिन्दी अनुवाद यहाँ उपलब्ध किया है । https://www.facebook.com/anandrajadhyaksha19570621/posts/1625634700787654
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Terrorism, you and I .

Pranaam to Acharya gan and all elders, namaste to all my brothers and sisters. Perhaps you may be wondering why a young girl like me wants to talk on a subject like terrorism. My answer is simple. It hurts all of us. I am not separate from that. There is a famous saying that You may not be interested in war, but war is interested in you. Terrorism is war. It is a war by cowards who do not wish to fight in the open and show bravery only against the unarmed.

Terrorism is a coward's war. 

Let me tell you about the means the terrorists use and what  we can do to safeguard ourselves against it. Brothers and sisters, please understand; terrorists do not materialize out of thin air like in TV serials. They have to physically travel to the place they wish to unleash terror. So local help is needed.  Without local help this is not possible. So we must be wary of their possible local helpers.

Brothers and sisters, the terrorist comes to kill and die. He thinks he will go to heaven for killing innocent people who have never hurt him. Do you know something ? He is always an outsider, he is never a local  from where he is going to kill people. So you see ? His local helpers wish to remain safe after he is killed. They do not wish to die. They want to help someone who wants to kill us. So, it is not actually the terrorist who is our real enemy. He does not know us. He has no real reason to kill us. He is a robot, programmed to kill people of another religion, just because they belong to another religion.  They are faceless to him, anybody and everybody.

But that is not the case with his local helpers. They know us. They know who we are. They know us by name, they know where we stay. They make friends with us.

And then they bring this terrorist to our doorstep. To kill us.

So dear brothers and sisters, you tell me who is our real enemy: is he the outsider who has come to kill us and die?  Yes, he has to be found and killed before he can kill us, but you will surely agree with me that we must first find and deal with those who want to bring him to our homes.  So they must not dare to think of doing so, ever.

I do not think many of us can stand the idea of violence, so we must use peaceful means. Economic boycott is one method. Stop buying from those you suspect of helping terror. It is our own money that is paying for our own murder.  Can we allow this ? When you keep buying from them, they know your preferences. They know your tastes..... and... they also know your name and address. When you take home delivery from them,  they know your home and how many people stay, what is your family status, everything.  Are you aware of this danger and think you can remain safe ?

Let me tell you something. You know termites ? White ants ….deemak ? You know, right ? OK, so you know how small it is, you can kill it with one finger, no force at all.... so you don't do any pest control because you know you can kill any single deemak..... but you know how fast they increase their numbers and how fast they can weaken your house which will just fall … dhadaam.... one day … maybe when you are fast asleep and least expect something like this to happen.... you got that, right ? Thank you.

Another thing is to keep watch, report  to police, preferably on the net, anonymously, because many times the local station has been bought....sorry to say, but … bika hua... so maintain secrecy in reporting, for your own safety.

At our small level, this is mostly all we can do without violence. So let's do it.  Our forefathers have shed blood therefore we are what we are, let us not lose that over biryani. Blood cannot be paid for in biryani.

Thank you, all of you, for sparing time to hear me out. Jai Hind, Vande Mataram !

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