#जय_जय_राजपुताना #जय_जय_राजपूत_भूमि_भारत
कहा जाता है कि अगर भारत का इतिहास लिखना है तो इसकी शुरुआत राजस्थान की धरा से करनी चाहिए !
वीरों की अमर गाथा से भरे इस प्रदेश की हर दरो-दीवार पर यहां के शूरवीरों के शौर्य की कहानियां मिल जायेंगी ! राजस्थान का अपना गौरवमयी इतिहास स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है !
आज आपके सामने प्रस्तुत है एक वीर योद्धा की कहानी जिसने राजा की सेना में आगे रहने के लिए अपना सिर काटकर किले में फेंक दिया था !
ऐसा प्रतीत होता है कि आत्मा की अमरता का गीता सन्देश राजस्थान ने पूरी तरह आत्मसात किया | यही कारण है कि पद्मिनी का जौहर हो चाहे राजपूतों के हजारों बलिदानों की शौर्य गाथा, यहाँ के चप्पे चप्पे पर मिल जाती हैं ! ऎसी ही गाथाओं मे से एक है चूडावतों के सरदार जैतसिंह चूडावत की कहानी ! मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह की सेना की दो राजपूत रेजिमेंट चूडावत और शक्तावत में अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए एक प्रतियोगिता हुई थी ! इस प्रतियोगिता को राजपूतों की अपनी आन, बान और शान के लिए अपने प्राण तक न्यौछावर कर देने का अद्भुत उदाहरण माना जाता है !
मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह की सेना में ,विशेष पराक्रमी होने के कारण "चूडावत" खाप के वीरों को ही "हरावल" यानी युद्ध भूमि में अग्रिम पंक्ति में रहने का गौरव प्राप्त था व वे उसे अपना अधिकार समझते थे ! किन्तु "शक्तावत" खाप के वीर राजपूत भी कम पराक्रमी नहीं थे ! उनके हृदय में भी यह इच्छा जागृत हुई कि युद्ध क्षेत्र में मृत्यु से पहला मुकाबला हमारा होना चाहिए !
अपनी इस महत्वाकांक्षा को महाराणा अमरसिंह के समक्ष रखते हुए शक्तावत वीरों ने कहा कि हम चूडावतों से त्याग,बलिदान व शौर्य में किसी भी प्रकार कम नहीं है ! कृपया हरावल में रहने का अधिकार हमें दीजिये ! सभी जानते थे कि युद्ध भूमि में सबसे आगे रहना अर्थात मृत्यु को सबसे पहले गले लगाना है ! मौत की इस तरह पहले गले लगाने की चाहत को देख महाराणा धर्म-संकट में पड़ गए कि किस पक्ष को अधिक पराक्रमी मानकर युद्ध भूमि में आगे रहने का अधिकार दिया जाए ?
हरावल में आगे रहने का निर्णय करने के लिए उन्होंने एक कसौटी तय की, इस कसौटी के अनुसार यह तय किया गया कि दोनों दल उन्टाला दुर्ग पर अलग-अलग दिशा से एक साथ आक्रमण करेंगे व जिस दल का व्यक्ति पहले दुर्ग में प्रवेश करेगा उसे ही युद्ध भूमि में रहने का अधिकार दिया जाएगा !
प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए दोनों दलों के रण-बांकुरों ने उन्टाला दुर्ग (किले) पर आक्रमण कर दिया ! शक्तावत वीर दुर्ग के फाटक के पास पहुंच कर उसे तोड़ने का प्रयास करने लगे तो चूडावत वीरों ने पास ही दुर्ग की दीवार पर रस्से डालकर चढ़ने का प्रयास शुरू कर दिया ! इधर शक्तावतों ने जब दुर्ग के फाटक को तोड़ने के लिए फाटक पर हाथी को टक्कर देने के लिए आगे बढाया तो फाटक में लगे हुए लोहे के नुकीले शूलों से सहम कर हाथी पीछे हट गया !
हाथी को पीछे हटते देख शक्तावतों का सरदार बल्लू शक्तावत, अद्भुत बलिदान का उदाहरण देते हुए फाटक के शूलों पर सीना अड़ाकर खड़ा हो गया व महावत को हाथी से अपने शरीर पर टक्कर दिलाने को कहा जिससे कि हाथी शूलों के भय से पीछे न हटे ! एक बार तो महावत सहम गया, किन्तु फिर वीर बल्लू को साक्षात यमराज जैसा क्रोधावेश में देखकर उसे विवश होना पड़ा | अंकुश खाकर हाथी ने शक्तावत सरदार बल्लू को टक्कर मारी, फाटक में लगे हुए शूल वीर बल्लू शक्तावत के सीने में घुस गए और वे वीर-गति को प्राप्त हो गये ! उसके साथ ही दुर्ग का फाटक भी टूट गया !
शक्तावत के दल ने दुर्ग का फाटक तोड़ दिया ! दूसरी ओर चूडावतों के सरदार जैतसिंह चूडावत ने जब यह देखा कि फाटक टूटने ही वाला है तो उसने पहले दुर्ग में पहुंचने की शर्त जीतने के उद्देश्य से अपने साथी को कहा कि मेरा सिर काटकर दुर्ग की दीवार के ऊपर से दुर्ग के अन्दर फेंक दो ! साथी जब ऐसा करने में असमर्थ दिखा तो उसने स्वयं अपना मस्तक काटकर दुर्ग में फेंक दिया ! फाटक तोड़कर जैसे ही शक्तावत वीरों के दल ने दुर्ग में प्रवेश किया, तो उससे पहले ही चूडावत सरदार का कटा मस्तक दुर्ग के अन्दर मौजूद था !
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