Thursday, 29 June 2017

ब्राह्मण चक्रवर्ती सम्राट

ब्राह्मण चक्रवर्ती सम्राट

सूर्य - कलिंग के राजा जिनका गोत्र कश्यप
सोम - यमुना नदी के किनारे के क्षेत्र के राजा जिनका गोत्र आत्रेय

मंगल - अवनति के राजा गोत्र अत्रि
बुध - मगध के राजा गोत्र अंगिरस
गुरु - सिंधु के राजा गोत्र भार्गव

शुक्र - भोजकोट के राजा गोत्र कश्यप
शनि - सौराष्ट्र के राजा गोत्र कश्यप
राहु बाबर के राजा गोत्र मैत्रेणी

केतु - कलिंग के राजा गोत्र जैमिनी

राजा दाहिर ,
पुष्यमित्र सुंग,,
देवभूति,
सुष्कर्मा,
शिमुक,
पोरो - जिन्होंने शिकन्दर के खिलाफ युद्ध किया और उसे मार भगाया

दन्तिदुर्ग,
विशबंधन,
बाजीराव पेशवा जिन्होंने 62 से ज्यादा युद्ध किये और एक भी युद्ध नही हारने की वजह से विश्व प्रसिद् सेनापति थे,

सिंध का राजा ,
लक्ष्मी बाई,
बंगाल की राजा,
सुंग वंश ,

कुबेर
लंकेश
शिवाजी गोत्र कौशिक

बुध गोत्र गौतम
अच्युतराय विजयनगर के,
पल्लवस ब्रह्माक्षत्रिय जिन्होंने अरब राजाओ को कुत्ते की तरह मार गिराया .

राजा लिलितादित्य जिनका शासन् केंद्रीय एशिया और कश्मीर तक था.

राजा रुद्रावर्म चंपा के राजा (वियतनाम) 657 AD.

राजा जयवर्मा एकमात्र कंबुज (Kampuchea) 781 A.D

वासुदेव कण्व,
सतवाहनस भी ब्राह्मण योद्धा थे,
राजा हरीशचंद्र ,
सम्राट हेम चंद्र विक्रमादित्य जिनका गोत्र पाराशर

राजा बीरबल,
राजा राम मोहन रॉय.
राजा भरत(भारत)...

Courtesy: https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1347030908679681&id=100001183533798

Wednesday, 28 June 2017

वेद_vs_विज्ञान भाग - २१, नौइंजीनियरी

#वेद_vs_विज्ञान भाग - 21
                        #नौइंजीनियरी      
                 Naval engineering

#परिचय -
नौइंजीनियरी (Naval engineering) प्रौद्योगिकी की वह शाखा है जिसमें समुद्री जहाजों एवं अन्य मशीनों के डिजाइन एवं निर्माण में विशिष्टि (स्पेसलाइजेशन) प्रदान की जाती है। इसके अलावा किसी जलयान पर नियुक्त उन व्यक्तियों (क्रिउ मेम्बर्स) को भी नौइंजीनियर (नेवल इंजीनियर) कहा जाता है जो उस जहाज को चलाने एवं रखरखाव के लिये जिम्मेदार होते हैं। इसके अलावा नौइंजीनियरों को जहाज का सीवेज, प्रकाश व्यवस्था, वातानुकूलन एवं जलप्रदाय व्यवस्था भी देखनी पड़ती है।

#आधुनिक विज्ञान - 1801 ई. में साइमिंग्टन ने शारलॉट डंडैस (Charlotte Dundas) नामक नौका बनाकर उसे फोर्थ (Forth) और क्लाइड (Clyde) नहर में चलाया, जिसका पैडलचक्र वॉट के बनाए द्विक्रियात्मक इंजन से चलता था। यही सर्वप्रथम प्रयोग है, जो सफल समझा जाता है।
1807 ई. में न्यूयार्क के राबर्ट फुल्टन (Robert Fulton) ने क्लेरमाँ (Clermont) नामक नौका बनाई, जिसकी लंबाई 133 फुट, चौड़ाई 18 फुट और गहराई 9 फुट थी। इस पर बोल्टन और वॉट (Boulton and Watt) का बनाया एक द्विक्रियात्मक इंजन लगाया था, जिसके सिलिंडर का व्यास दो फुट और स्ट्रोक चार फुट था। पैडलचक्र के चलने पर नौका की गति पाँच मील प्रति घंटा हो जाती थी। यह प्रयोग भी सफल रहा।

#वैदिक साहित्य में इसका उल्लेख -

बाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में ऐसी बड़ी नावों का उल्लेख आता है जिसमें सैकड़ों योद्धा सवार रहते थे।
नावां शतानां पञ्चानां
कैवर्तानां शतं शतम।
सन्नद्धानां तथा यूनान्तिष्ठक्त्वत्यभ्यचोदयत्‌॥
अर्थात्‌-सैकड़ों सन्नद्ध जवानों से भरी पांच सौ नावों को सैकड़ों धीवर प्रेरित करते हैं।

इसी प्रकार महाभारत में यंत्र-चालित नाव का वर्णन मिलता है।
सर्ववातसहां नावं यंत्रयुक्तां पताकिनीम्‌।
अर्थात्‌-यंत्र पताका युक्त नाव, जो सभी प्रकार की हवाओं को सहने वाली है।

कौटिलीय अर्थशास्त्र में राज्य की ओर से नावों के पूरे प्रबंध के संदर्भ में जानकारी मिलती है। ५वीं सदी में हुए वारहमिहिर कृत ‘बृहत्‌ संहिता‘ तथा ११वीं सदी के राजा भोज कृत ‘युक्ति कल्पतरु‘ में जहाज निर्माण पर प्रकाश डाला गया है।
नौका विशेषज्ञ भोज चेतावनी देते हैं कि नौका में लोहे का प्रयोग न किया जाए, क्योंकि संभव है समुद्री चट्टानों में कहीं चुम्बकीय शक्ति हो। तब वह उसे अपनी ओर खींचेगी, जिससे जहाज को खतरा हो सकता है।
नौकाओं के प्रकार- ‘युक्ति कल्पतरु‘ ग्रंथ में नौका शास्त्र का विस्तार से वर्णन है। नौकाओं के प्रकार, उनका आकार, नाम आदि का विश्लेषण किया गया है।
(१) सामान्य-वे नौकाएं, जो साधारण नदियों में चल सकें।
(२) विशेष-जिनके द्वारा समुद्र यात्रा की जा सके।
उत्कृष्ट निर्माण-कल्याण (हिन्दू संस्कृति अंक-१९५०) में नौका की सजावट का सुंदर वर्णन आता है। चार श्रृंग (मस्तूल) वाली नौका सफेद, तीन श्रृग वाली लाल, दो श्रृंग वाली पीली तथा एक श्रृंग वाली को नीला रंगना चाहिए।
नौका मुख-नौका की आगे की आकृति यानी नौका का मुख सिंह, महिष, सर्प, हाथी, व्याघ्र, पक्षी, मेढ़क आदि विविध आकृतियों के आधार पर बनाने का वर्णन है।

#विशेष -

हमने बहोत बार ये पढ़ा होगा कि भारत की खोज वास्कोडिगामा ने की लेकिन ऐसा नही है लंदन म्युजियम में वास्कोडिगामा की एक डायरी आज भी रखी है उस डायरी मे वास्कोडिगामा ने वह भारत कैसे आया, इसका वर्णन किया है। वह लिखता है, जब उसका जहाज अफ्रीका में जंजीबार के निकट आया तो मेरे से तीन गुना बड़ा जहाज मैंने देखा। तब एक अफ्र्ीकन दुभाषिया लेकर वह उस जहाज के मालिक से मिलने गया। जहाज का मालिक चंदन नाम का एक गुजराती व्यापारी था, जो भारतवर्ष से चीड़ व सागवान की लकड़ी तथा मसाले लेकर वहां गया था और उसके बदले में हीरे लेकर वह कोचीन के बंदरगाह आकार व्यापार करता था। वास्कोडिगामा जब उससे मिलने पहुंचा तब वह चंदन नाम का व्यापारी सामान्य वेष में एक स्थान पर बैठा था। उस व्यापारी ने वास्कोडिगामा से पूछा, कहां जा रहे हो? वास्कोडिगामा ने कहा- हिन्दुस्थान घूमने जा रहा हूं। तो व्यापारी ने कहा मैं कल जा रहा हूं, मेरे पीछे-पीछे आ जाओ।‘ इस प्रकार उस व्यापारी के जहाज का अनुगमन करते हुए वास्कोडिगामा भारत पहुंचा। स्वतंत्र देश में यह यथार्थ नयी पीढ़ी को बताया जाना चाहिए था परन्तु दुर्भाग्य से यह नहीं हुआ। (उदयन इंदुरकर-दृष्टकला साधक- पृ. ३२)

साभार: अजेष्ठ त्रिपाठी, https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=277636739369405&id=100013692425716

वेद_vs_विज्ञान भाग - 20, चित्रकला

#वेद_vs_विज्ञान भाग - 20
                        #चित्रकला
                       (Painting)
#परिचय -
चित्रकला एक द्विविमीय (two-dimensional) कला है।इसको विज्ञान की सीरीज में रखना उचित नही था लेकिन बात भारत के प्राचीन ज्ञान की भी हो रही है तो इस विषय वस्तु को यहाँ रखना मुझे अनुचित भी नही लगा। चित्रकला का प्रचार चीन, मिस्र, भारत आदि देशों में अत्यंत प्राचीन काल से है। मिस्र से ही चित्रकला यूनान में गई, जहाँ उसने बहुत उन्नति की। ईसा से १४०० वर्ष पहले मिस्र देश में चित्रों का अच्छा प्रचार था। लंदन के ब्रिटिश संग्रहालय में ३००० वर्ष तक के पुराने मिस्री चित्र हैं।

#वैदिक भारत मे --
भारतवर्ष में भी अत्यंत प्राचीन काल से यह विधा प्रचलित थी, इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं। रामायण में चित्रों, चित्रकारों और चित्रशालाओं का वर्णन बराबर आया है। विश्वकर्मीय शिल्पशास्त्र में लिखा है कि स्थापक, तक्षक, शिल्पी आदि में से शिल्पी को ही चित्र बनाना चाहिए। प्रकृतिक दृश्यों को अंकित करने में प्रचीन भारतीय चित्रकार कितने निपुण होते थे, इसका कुछ आभास भवभूति के उत्तररामचरित के देखने से मिलता है, जिसमें अपने सामने लाए हुए वनवास के चित्रों को देख सीता चकित हो जाती हैं। यद्यपि आजकल कोई ग्रंथ चित्रकला पर नहीं मिलता है, तथापि प्राचीन काल में ऐसे ग्रंथ अवश्य थे। काश्मीर के राजा जयादित्य की सभा के कवि दोमोदर गुप्त आज से ११०० वर्ष पहले अपने कुट्टनीमत नामक ग्रंथ में चित्रविद्या के 'चित्रसूत्र' नामक एक ग्रंथ का अल्लेख किया है। अजंता गुफा के चित्रों में प्रचीन भारतवासियों की चित्रनिपुणता देख चकित रह जाना पड़ता है। बड़े बड़े विज्ञ युरोपियनों ने इन चित्रों की प्रशंसा की है। उन गुफाओं में चित्रों का बनाना ईसा से दो सौ वर्ष पूर्व से आरंभ हुआ ता औरक आठवीं शताब्दी तक कुछ न कुछ गुफाएँ नई खुदती रहीं। अतः डेढ़ दो हजार वर्ष के प्रत्यक्ष प्रमाण तो ये चित्र अवश्य हैं।

विष्णुधर्मोत्तर पुराण के 'चित्रसूत्र' नामक अध्याय में चित्रकला का महत्त्व इन शब्दों में बताया गया है-

कलानां प्रवरं चित्रम् धर्मार्थ काम मोक्षादं।
मांगल्य प्रथम् दोतद् गृहे यत्र प्रतिष्ठितम् ॥38॥
(अर्थ : कलाओं में चित्रकला सबसे ऊँची है जिसमें धर्म, अर्थ, काम एवम् मोक्ष की प्राप्ति होती है। अतः जिस घर में चित्रों की प्रतिष्ठा अधिक रहती है, वहाँ सदा मंगल की उपस्थिति मानी गई है।
#विशेष -
महाराष्ट्र में औरंगाबाद के पास स्थित अजंता की प्रसिद्ध गुफाओं के चित्रों की चमक हजार से अधिक वर्ष बीतने के बाद भी आधुनिक समय से विद्वानों के लिए आश्चर्य का विषय है। भगवान बुद्ध से संबंधित घटनाओं को इन चित्रों में अभिव्यक्त किया गया है। चावल के मांड, गोंद और अन्य कुछ पत्तियों तथा वस्तुओं का सम्मिश्रमण कर आविष्कृत किए गए रंगों से ये चित्र बनाए गए। लगभग हजार साल तक भूमि में दबे रहे और १८१९ में पुन: उत्खनन कर इन्हें प्रकाश में लाया गया। हजार वर्ष बीतने पर भी इनका रंग हल्का नहीं हुआ, खराब नहीं हुआ, चमक यथावत बनी रही। कहीं कुछ सुधारने या आधुनिक रंग लगाने का प्रयत्न हुआ तो वह असफल ही हुआ। रंगों और रेखाओं की यह तकनीक आज भी गौरवशाली अतीत का याद दिलाती है।

British संशोधक mr. ग्रिफिथ कहते हैं ‘अजंता में जिन चितेरों ने चित्रकारी की है, वे सृजन के शिखर पुरुथ थे। अजंता में दीवारों पर जो लंबरूप (खड़ी) लाइनें कूची से सहज ही खींची गयी हैं वे अचंभित करती हैं। वास्तव में यह आश्चर्यजनक कृतित्व है। परन्तु जब छत की सतह पर संवारी क्षितिज के समानान्तर लकीरें, उनमें संगत घुमाव, मेहराब की शक्ल में एकरूपता के दर्शन होते हैं और इसके सृजन की हजारों जटिलताओं पर ध्यान जाता है, तब लगता है वास्तव में यह विस्मयकारी आश्चर्य और कोई चमत्कार है।‘

साभार: अजेष्ठ त्रिपाठी, https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=275441899588889&id=100013692425716

वेद_vs_विज्ञान भाग -19, विद्युतलेपन

#वेद_vs_विज्ञान भाग -19
                          #विद्युतलेपन
                     (Electroplating)
#परिचय -
विद्युत धारा द्वारा, धातुओं पर लेपन करने की विधि को विद्युतलेपन (Electroplating) कहते हैं। बहुधा लोहे की वस्तुओं को संक्षरण से बचाने तथा चमक के लिए, उन पर ताँबे, निकल अथवा क्रोमियम का लेपन किया जाता है। आधार धातु पर लेपन करने के बाद, लेपन की जानेवाली धातु के बाहरी गुण दिखाई देते हैं। इससे वस्तु का बाहरी रूप रंग निखर जाता है तथा साथ ही वस्तु संक्षारण से भी बचती है। विद्युत्लेपन द्वारा लेपित की जानेवाली धातु, आधार धातु से अच्छी प्रकार संबद्ध हो जाती है और लेपन प्राय: स्थायी रूप में किया जा सकता है।

#आधुनिक विज्ञान का मत और इतिहास -
सर हंफ्री डेवी (सन्‌ 1778-1829) ने सर्वप्रथम पिघले लवणों के विद्युत्‌-अपघटन से क्षारीय धातुओं को प्राप्त किया। माइकल फैराडे (सन्‌ 1791-1867), जे.डब्ल्यू. हिटार्फ (सन्‌ 1824-1914), स्वति आरहेनियस, (सन्‌ 1859-1927) और सी.एम. हाल (सन्‌ 1863-1914) आदि वैज्ञानिकों के सहयोग ने विद्युत्‌-धातुकर्म को प्रगतिशील बनाया और वैज्ञानिक क्षेत्र में आगे बढ़ाया।
लेपन में एक और व्यावहारिक कठिनाई है। यदि किसी सक्रिय धातु को ऐसे धातु के यौगिक के विलयन में डाल दिया जाए जिसमें आयन प्रचुर मात्रा में हों, (जैसे लोहे को ताम्र सल्फ़ेट के बाथ में) तो पृथक्करण क्रिया होने लगती है। ऐसे लेपन टिकाऊ नहीं होते। ताँबे या पीतल पर चाँदी-सोने का लेपन करने में भी यही कठिनाई होती है इनमें प्रयोग होनेवाले रासायनिक विलयनों का संघटन बहुत संतुलित रखा जाता है।
लेपन वाथ में, सामान्यत:, एक और यौगिक, जिसे योजित कारक (Additive agent) कहते हैं, मिलाया जाता है। गोंद, जिलेटिन, ऐल्ब्यूमिन आदि सामान्य प्रयोग में आनेवाले योजित कारक हैं।

#वैदिक शास्त्र और इसका ज्ञान -
अगस्त्य संहिता में विद्युत्‌ का उपयोग इलेक्ट्रोप्लेटिंग के लिए करने का भी विवरण मिलता है। उन्होंने बैटरी द्वारा तांबा या सोना या चांदी पर पालिश चढ़ाने की विधि निकाली। अत: अगस्त्य को कुंभोद्भव (Battery Bone) कहते हैं।

कृत्रिमस्वर्णरजतलेप: सत्कृतिरुच्यते। -शुक्र नीति
यवक्षारमयोधानौ सुशक्तजलसन्निधो॥
आच्छादयति तत्ताम्रं
स्वर्णेन रजतेन वा।
सुवर्णलिप्तं तत्ताम्रं
शातकुंभमिति स्मृतम्‌॥ ५ (अगस्त्य संहिता)

अर्थात्‌-कृत्रिम स्वर्ण अथवा रजत के लेप को सत्कृति कहा जाता है। लोहे के पात्र में सुशक्त जल अर्थात तेजाब का घोल इसका सानिध्य पाते ही यवक्षार (सोने या चांदी का नाइट्रेट) ताम्र को स्वर्ण या रजत से ढंक लेता है। स्वर्ण से लिप्त उस ताम्र को शातकुंभ अथवा स्वर्ण कहा जाता है।

#विशेष -
मजहब और सियासत के मेल से इतिहास विकृत होता है। पश्चिम में सियासत के साथ मजहब का गठजोड़ 1700 साल पहले शुरू हुआ। इसका पश्चिम के इतिहास पर क्या असर हुआ? इसकी एक झलक दिखती है विज्ञान के इतिहास लेखन में। पश्चिमी इतिहास हमें बतलाता है कि विज्ञान है तो सार्वभौमिक, मगर यह जन्मा सिर्फ पश्चिम में : जहाँ वह ग्रीक लोगों के बीच शुरू हुआ और फिर कोपर्निकस और न्यूटन की क्रांतियों के साथ यूरोप में फैला. चर्च और सियासत के मेल से बना यह इतिहास पूर्वाग्रहों से भरा है।

साभार: अजेष्ठ त्रिपाठी, https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=275027826296963&id=100013692425716

वेद_vs_विज्ञान भाग - 18, प्रकाश का वेग

#वेद_vs_विज्ञान भाग - 18
                        #प्रकाश का वेग
                       (Velocity of light)

#परिचय -
प्रकाश का वेग (Velocity of light) (इसे प्राय: c से निरूपित किया जाता है) एक भौतिक नियतांक है। निर्वात में इसका मान ठीक-ठीक 299,792,458 मीटर प्रति सेकेण्ड है  जिसे प्राय: 3 लाख किमी/से. कह दिया जाता है। वस्तुत: सभी विद्युतचुम्बकीय तरंगों (जैसे रेडियो तरंगें, गामा किरणे, प्रकाश आदि) का वेग इतना ही होता है। चाहे प्रेक्षक का 'फ्रेम ऑफ रिफरेंस' कुछ भी हो या प्रकाश-उत्सर्जक स्रोत किसी भी वेग से किधर भी गति कर रहा हो, हर प्रेक्षक को प्रकाश का यही वेग मिलेगा। कोई भी वस्तु प्रकाश के वेग से अधिक वेग पर गति नहीं कर सकता।
प्रकाश के वेग का ठीक-ठाक मान निकालना एक अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य है, क्योंकि यह चुंबकीय एवं विद्युतीय घटनाओं का एक अभिन्न अंग है। जितने भी ऊर्जा के संचार के कार्य हैं, उनमें इसका उपयोग होता है।

#आधुनिक विज्ञान का मत और इतिहास -
आज के लगभग 300 वर्ष पहले यह गलत धारणा थी कि प्रकाश का वेग अनंत होता है, अर्थात् उसे एक स्थान से दूसरे स्थान पहुँचने में कुछ भी समय नहीं लगता। सर्वप्रथम सितंबर, सन् 1676 में रोमर ने इस गलत धारणा को दूर कर यह बताया कि प्रकाश का वेग बहुत अधिक होने के बावजूद 'परिमित' होता है। बृहस्पति के उपग्रहों के ग्रहणों के अंतर काल में पृथ्वी से संबंधित दूरी के बदलने से होनेवाले परिवर्तन का अध्ययन कर, रोमर ने प्रकाश को पृथ्वी की कक्षा के व्यास को पार करने में लगनेवाले काल को निकाला। पृथ्वी की कक्षा के व्यास को मालूम कर, उसने प्रकाशवेग का मान मालूम किया, जो 2,14,300 किलोमीटर प्रति सेकंड के बराबर ज्ञात हुआ। उन दिनों की विज्ञान की प्रगति को देखते हुए यह अत्यंत प्रशंसापूर्ण कार्य था।

#वेदों में इसका सटीक ज्ञान -
ऋग्वेद के प्रथम मंडल में दो ऋचाएं है-

मनो न योऽध्वन: सद्य एत्येक: सत्रा सूरो वस्व ईशे अर्थात् मन की तरह शीघ्रगामी जो सूर्य स्वर्गीय पथ पर अकेले जाते हैं। ( 1-71-9)
("तरणिर्विश्वदर्शतो ज्योतिकृदसि सूर्य विश्वमाभासिरोचनम्") अर्थात् हे सूर्य, तुम तीव्रगामी एवं सर्वसुन्दर तथा प्रकाश के दाता और जगत् को प्रकाशित करने वाले हो। ( 1.50.9)

योजनानां सहस्रे द्वे द्वेशते द्वे च योजने।
एकेन निमिषार्धेन क्रममाण नमोऽस्तुते।।
अर्थात् आधे निमेष में 2202 योजन का मार्गक्रमण करने वाले प्रकाश तुम्हें नमस्कार है।

इसमें 1 योजन- 9 मील 160 गज
अर्थात् 1 योजन- 9.11 मील
1 दिन रात में- 810000 अर्ध निषेष
अत: 1 सेकेंड में - 9.41 अर्ध निमेष

इस प्रकार 2202 x 9.11- 20060.22 मील प्रति अर्ध निमेष तथा 20060.22 x 9.41- 188766.67 मील प्रति सेकण्ड। आधुनिक विज्ञान को मान्य प्रकाश गति के यह अत्यधिक निकट है।
#विशेष--
प्रख्यात खगोलज्ञ जॉन प्लेफेयर का एक लेख "Remarks on the Astronomy of the brahmins" (1790 से प्रकाशित) दिया है। यह लेख सिद्ध करता है कि 6000 से अधिक वर्ष पूर्व में भारत में खगोल का ज्ञान था और यहां की गणनाएं दुनिया में प्रयुक्त होती थीं।

साभार: अजेष्ठ त्रिपाठी, https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=274549769678102&id=100013692425716

वेद_vs_विज्ञान भाग-17, कोशिका (Cell)

#वेद_vs_विज्ञान भाग-17
                        #कोशिका (Cell)
   
#परिचय -
कोशिका (Cell) सजीवों के शरीर की रचनात्मक और क्रियात्मक इकाई है और प्राय: स्वत: जनन की सामर्थ्य रखती है। यह विभिन्न पदार्थों का वह छोटे-से-छोटा संगठित रूप है जिसमें वे सभी क्रियाएँ होती हैं जिन्हें सामूहिक रूप से हम जीवन कहतें हैं।

'कोशिका' का अंग्रेजी शब्द सेल (Cell) लैटिन भाषा के 'शेलुला' शब्द से लिया गया है जिसका अर्थ 'एक छोटा कमरा' है। कुछ सजीव जैसे जीवाणुओं के शरीर एक ही कोशिका से बने होते हैं, उन्हें एककोशकीय जीव कहते हैं जबकि कुछ सजीव जैसे मनुष्य का शरीर अनेक कोशिकाओं से मिलकर बना होता है उन्हें बहुकोशकीय सजीव कहते हैं।

#आधुनिक विज्ञान मतानुसार -
कोशिका की खोज रॉबर्ट हूक ने १६६५ ई० में किया।[1] १८३९ ई० में श्लाइडेन तथा श्वान ने कोशिका सिद्धान्त प्रस्तुत किया जिसके अनुसार सभी सजीवों का शरीर एक या एकाधिक कोशिकाओं से मिलकर बना होता है तथा सभी कोशिकाओं की उत्पत्ति पहले से उपस्थित किसी कोशिका से ही होती है।
सजीवों की सभी जैविक क्रियाएँ कोशिकाओं के भीतर होती हैं। कोशिकाओं के भीतर ही आवश्यक आनुवांशिक सूचनाएँ होती हैं जिनसे कोशिका के कार्यों का नियंत्रण होता है तथा सूचनाएँ अगली पीढ़ी की कोशिकाओं में स्थानान्तरित होती हैं।[2]
कोशिकाओं का विधिवत अध्ययन कोशिका विज्ञान (Cytology) या 'कोशिका जैविकी' (Cell Biology) कहलाता है।
इसके (कोशिका)भीतर निम्नलिखित संरचनाएँ पाई जाती हैं:-
(1) केंद्रक एवं केंद्रिका
(2) जीवद्रव्य
(3) गोल्गी सम्मिश्र या गोल्गी यंत्र
(4) कणाभ सूत्र
(5) अंतर्प्रद्रव्य डालिका
(6) गुणसूत्र (पितृसूत्र) एवं जीन
(7) राइबोसोम तथा सेन्ट्रोसोम
(8) लवक

#वैदिक साहित्यो में विस्तृत ज्ञान -
वृक्ष आयुर्वेद इसके लेखक है महामुनि पाराशर। इस ग्रंथ में जो वैज्ञानिक विवेचन है, वह विस्मयकारी है। इस पुस्तक के ६ भाग हैं- (१) बीजोत्पत्ति काण्ड (२) वानस्पत्य काण्ड (३) गुल्म काण्ड (४)वनस्पति काण्ड (५) विरुध वल्ली काण्ड (६) चिकित्सा काण्ड।

आपोहि कललं भुत्वा यत्‌ पिण्डस्थानुकं भवेत्‌।
तदेवं व्यूहमानत्वात्‌ बीजत्वमघि गच्छति॥
अर्थात -
पहले पानी जेली जैसे पदार्थ को ग्रहण कर न्यूक्लियस बनता है और फिर वह धीरे-धीरे पृथ्वी से ऊर्जा और पोषक तत्व ग्रहण करता है। फिर उसका आदि बीज के रूप में विकास होता है और आगे चलकर कठोर बनकर वृक्ष का रूप धारण करता है। आदि बीज यानी प्रोटोप्लाज्म के बनने की प्रक्रिया है जिसकी अभिव्यक्ति बीजत्व अधिकरण में की गई है।

पत्राणि तु वातातपरञ्जकानि अभिगृहन्ति।‘
अर्थात-
वात-क्दृ२ आतप च्द्वदथ्त्ढ़ण्द्य, रंजक क्लोरोफिल। यह स्पष्ट है कि वात कार्बन डाय आक्साइड व सूर्य प्रकाश  क्लोरोफिल से अपना भोजन वृक्ष बनाते हैं। इसका स्पष्ट वर्णन इस ग्रंथ में है।

#विशेष -
सन्‌ १६६५ में राबर्ट हुक ने माइक्रोस्कोप के द्वारा जो वर्णन किया उससे विस्तृत वर्णन महर्षि पाराशर हजारों वर्ष पूर्व करते हैं। वे कहते हैं, कोष की रचना निम्न प्रकार है-

(१) कलावेष्टन (cell wall)

(२)रंजकयुक्त रसाश्रय (plastids)

(३) सूक्ष्मपत्रक (ribosome and myocardial)

(४) अण्वश्च (nucleus)

साभार: अजेष्ठ त्रिपाठी, https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=274108286388917&id=100013692425716

वेद vs विज्ञान भाग - 16, ध्वनि तथा वाणी विज्ञान

#वेद vs  विज्ञान भाग - 16
                         ध्वनि तथा वाणी विज्ञान
        (SOUND ENGINEERING AND MUSIC) 

स्वानिकी या स्वनविज्ञान (Phonetics), भाषाविज्ञान की वह शाखा है जिसके अंतर्गत मानव द्वारा बोली जाने वाली ध्वनियों का अध्ययन किया जाता है। यह बोली जाने वाली ध्वनियों के भौतिक गुण, उनके शारीरिक उत्पादन, श्रवण ग्रहण और तंत्रिका-शारीरिक बोध की प्रक्रियाओं से संबंधित है।

कल की मेरी एक पोस्ट में कुछ #स्वघोषित_बुद्धिजीवियों ने ये कहा कि मैं सिर्फ वैदिक ज्ञान का बखान कर रहा हु जिसका कोई अस्तित्व ही नही है और मैं लोगो को गलत दिशा में भटका रहा हूँ, तो आइए आप सभी तो कुछ ऐसे वैदिक ज्ञान से परिचय कराते है जो आज भी गर्व के साथ आधुनिक विज्ञान माने जाते है और आज भी उतने नए है जितने जब अविष्कार किये गए थे।हमे अपने गौरवशाली इतिहास पे गर्व है जिसको हम ऐसे ही प्रचारित करते रहेंगे ।

#ध्वनि_तथा_वाणी_विज्ञान

#वाणी का स्वरूप
हमारे यहां वाणी विज्ञान का बहुत गहराई से विचार किया गया। ऋग्वेद में एक ऋचा आती है-

चत्वारि वाक्‌ परिमिता पदानि
तानि विदुर्व्राह्मणा ये मनीषिण:
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति
तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति॥
ऋग्वेद १-१६४-४५
अर्थात्‌
वाणी के चार पाद होते हैं, जिन्हें विद्वान मनीषी जानते हैं। इनमें से तीन शरीर के अंदर होने से गुप्त हैं परन्तु चौथे को अनुभव कर सकते हैं। इसकी विस्तृत व्याख्या करते हुए पाणिनी कहते हैं, वाणी के चार पाद या रूप हैं-
१. परा, २. पश्यन्ती, ३. मध्यमा, ४. वैखरी

क, ख, ग, घ, ङ- कंठव्य कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय ध्वनि कंठ से निकलती है।
च, छ, ज, झ,ञ- तालव्य कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय जीभ लालू से लगती है।
ट, ठ, ड, ढ , ण- मूर्धन्य कहे गए, क्योंकि इनका उच्चारण जीभ के मूर्धा से लगने पर ही सम्भव है।
त, थ, द, ध, न- दंतीय कहे गए, क्योंकि इनके उच्चारण के समय जीभ दांतों से लगती है।
प, फ, ब, भ, म,- ओष्ठ्य कहे गए, क्योंकि इनका उच्चारण ओठों के मिलने पर ही होता है।

#स्वर विज्ञान
सभी वर्ण, संयुक्ताक्षर, मात्रा आदि के उच्चारण का मूल ‘स्वर‘ हैं। अत: उसका भी गहराई से अध्ययन तथा अनुभव किया गया। इसके निष्कर्ष के रूप में प्रतिपादित किया गया कि स्वर तीन प्रकार के हैं।
उदात्त-उच्च स्वर
अनुदात्त-नीचे का स्वर
स्वरित- मध्यम स्वर
इनका और सूक्ष्म विश्लेषण किया गया, जो संगीत शास्त्र का आधार बना। संगीत शास्त्र में सात स्वर माने गए जिन्हें सा रे ग म प ध नि के प्रतीक चिन्हों से जाना जाता है। इन सात स्वरों का मूल तीन स्वरों में विभाजन किया गया।
उच्चैर्निषाद, गांधारौ नीचै ऋर्षभधैवतौ।
शेषास्तु स्वरिता ज्ञेया:, षड्ज मध्यमपंचमा:॥
अर्थात्‌ निषाद तथा गांधार (नि ग) स्वर उदात्त हैं। ऋषभ और धैवत (रे, ध) अनुदात्त। षड्ज, मध्यम और पंचम (सा, म, प) ये स्वरित हैं।
इन सातों स्वरों के विभिन्न प्रकार के समायोजन से विभिन्न रागों के रूप बने और उन रागों के गायन में उत्पन्न विभिन्न ध्वनि तरंगों का परिणाम मानव, पशु प्रकृति सब पर पड़ता है। इसका भी बहुत सूक्ष्म निरीक्षण हमारे यहां किया गया है।
विशिष्ट मंत्रों के विशिष्ट ढंग से उच्चारण से वायुमण्डल में विशेष प्रकार के कंपन उत्पन्न होते हैं, जिनका विशेष परिणाम होता है। यह मंत्रविज्ञान का आधार है। इसकी अनुभूति वेद मंत्रों के श्रवण या मंदिर के गुंबज के नीचे मंत्रपाठ के समय अनुभव में आती है।
हमारे यहां विभिन्न रागों के गायन व परिणाम के अनेक उल्लेख प्राचीनकाल से मिलते हैं। सुबह, शाम, हर्ष, शोक, उत्साह, करुणा-भिन्न-भिन्न प्रसंगों के भिन्न-भिन्न राग हैं। दीपक से दीपक जलना और मेघ मल्हार से वर्षा होना आदि उल्लेख मिलते हैं। वर्तमान में भी कुछ उदाहरण मिलते हैं।

#विशेष ---
किसी पे उँगली जब उठाते है तो तथ्यो का अध्धयन अवश्य कर ले क्योंकि तथ्यो को सिर्फ तथ्यो से ही गलत सिद्ध किया जा सकता है अन्यथा सूर्य को चंद्र कह भर देने से वो शीतल नही हो जाता ।

साभार: अजेष्ठ त्रिपाठी, https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=273692099763869&id=100013692425716

वेद_vs_विज्ञान भाग -15, गति का नियम

#वेद_vs_विज्ञान भाग -15
                        #गति का नियम
                     (  Law of motions )
#परिचय -
आधुनिक विज्ञान न्यूटन को इसका अविष्कारक मानता है ।न्यूटन के गति नियम तीन भौतिक नियम हैं जो चिरसम्मत यांत्रिकी के आधार हैं। ये नियम किसी वस्तु पर लगने वाले बल और उससे उत्पन्न उस वस्तु की गति के बीच सम्बन्ध बताते हैं। इन्हें तीन सदियों में अनेक प्रकार से व्यक्त किया गया है।

#न्यूटन के गति का सिद्धांत -
न्यूटन के गति के तीनों नियम, पारम्परिक रूप से, संक्षेप में निम्नलिखित हैं -

#प्रथम नियम: प्रत्येक पिंड तब तक अपनी विरामावस्था अथवा सरल रेखा में एकसमान गति की अवस्था में रहता है जब तक कोई बाह्य बल उसे अन्यथा व्यवहार करने के लिए विवश नहीं करता। इसे जड़त्व का नियम भी कहा जाता है।
#द्वितीय नियम: किसी भी पिंड की संवेग परिवर्तन की दर लगाये गये बल के समानुपाती होती है और उसकी (संवेग परिवर्तन की) दिशा वही होती है जो बल की होती है।
तृतीय नियम: प्रत्येक क्रिया की सदैव बराबर एवं विपरीत दिशा में प्रतिक्रिया होती है।
सबसे पहले न्यूटन ने इन्हे अपने ग्रन्थ फिलासफी नेचुरालिस प्रिंसिपिआ मैथेमेटिका (सन १६८७) मे संकलित किया था। न्यूटन ने अनेक स्थानों पर भौतिक वस्तुओं की गति से सम्बन्धित समस्याओं की व्याख्या में इनका प्रयोग किया था। अपने ग्रन्थ के #तृतीय भाग में न्यूटन ने दर्शाया कि गति के ये तीनों नियम और उनके सार्वत्रिक गुरुत्वाकर्षण का नियम सम्मिलित रूप से केप्लर के आकाशीय पिण्डों की गति से सम्बन्धित नियम की व्याख्या करने में समर्थ हैं।

#वेदों में इसका प्रचुर ज्ञान -
आचार्य कणाद ने हजारो सालो पहले ही गति के नियमों को स्थापित कर दिया था।ऐसे में स्पष्ट है कि गति के सिद्धांत के जनक न्यूटन नहीं बल्कि कणाद थे।

वैशेषिक सूत्र में दसवें चैप्टर में 373 श्लोक हैं, जिसमें से निम्नलिखित श्लोक गति के नियम को समझाते हैं। उदाहरण के तौर पर गति के पहले नियम को वैशेषिक सूत्र के पहले चैप्टर के पहले भाग में 20वें श्लोक में
#प्रथम नियम -
संयोगविभगावेगानं कर्म समानम,
न द्रव्यानां कर्म, द्रव्यश्रय्यगुणावां संयोगविभागेस्वकारणमनपेक्ष इति गुणलक्षणम। 

#दूसरा गति के नियम में -
नोदनविससभावांनोर्ध्वं न त्थ्र्यिगगमनं, प्रयत्नविशेषातनोदनविशेष :  नोदन विशेषात उदासन विशेष

इस आधार पर किया दावा
तीसरा नियम कार्यविरोधि कर्म दिया है। इन सभी श्लोकों का अर्थ हूबहू वही है जो न्यूटन का सिद्धांत कहता है। उदाहरण के तौर पर आचार्य कणाद और न्यूटन के सिद्धांत की समानता इस प्रकार समझी जा सकती है।
#न्यूटन का गति का तीसरा सिद्धांत :  प्रत्येक क्रिया की सदैव बराबर एवं विपरीत दिशा में प्रतिक्रिया होती है।
#कणाद का गति का तीसरा सिद्धांत : कार्य विरोधि कर्म यानी कार्य (एक्शन), विरोधी (अपोजिट), एक्शन (यहां इसका आशय रिएक्शन है)

वैशेषिक दर्शन में इन्होने गति के लिए कर्म शब्द प्रयुक्त किया है । इसके पांच प्रकार हैं यथा :

1 उत्क्षेपण (upward motion)
2 अवक्षेपण )downward motion)
3 आकुञ्चन (Motion due to the release of tensile stress)
4 प्रसारण (Shearing motion)
5 गमन )General Type of motion)

विभिन्न कर्म या motion को उसके कारण के आधार पर जानने का विश्लेषण वैशेषिक में किया है।

(१) नोदन के कारण-लगातार दबाव
(२) प्रयत्न के कारण- जैसे हाथ हिलाना
(३) गुरुत्व के कारण-कोई वस्तु नीचे गिरती है
(४) द्रवत्व के कारण-सूक्ष्म कणों के प्रवाह से

#महर्षि  लिखते हैं
‘वेगो पञ्चसु द्रव्येषु निमित्त-विशेषापेक्षात्‌ कर्मणो जायते नियतदिक्‌ क्रिया प्रबंध हेतु: स्पर्शवद्‌ द्रव्यसंयोग विशेष विरोधी क्वचित्‌ कारण गुण पूर्ण क्रमेणोत्पद्यते।‘

अर्थात्‌ वेग या मोशन पांचों द्रव्यों (ठोस, तरल, गैसीय) पर निमित्त व विशेष कर्म के कारण उत्पन्न होता है तथा नियमित दिशा में क्रिया होने के कारण संयोग विशेष से नष्ट होता है या उत्पन्न होता है।

#विशेष -
प्रशस्तिपाद भाष्य को तीन भागों में विभाजित करें तो न्यूटन के गति सम्बंधी नियमों से इसकी समानता ध्यान आती है।
1. कर्मणो जायते निमित्त विशेषात वेग:|
२.  वेग निमित्तापेक्षात्‌ कर्मणो जायते नियत्दिक्‌ क्रिया प्रबंध हेतु

३  वेग: संयोगविशेषाविरोधी

वैशेषिक सूत्र में गति के साथ साथ ब्रह्माण्ड , समय तथा अणु /परमाणु का ज्ञान भी है जिसे विदेशी भी चुपके चुपके पढ़ते हैँ ।
http://www.ece.lsu.edu/kak/roopa51.pdf

Courtesy: https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=273314849801594&id=100013692425716

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