Saturday, 1 April 2017

अद्भुत काव्य श्रीराघवयादवीयम्

क्या ऐसा सम्भव है कि किसी ग्रन्थ को सीधा पढ़ें तो रामायण की कथा पढ़ी जाए और जब उसी ग्रन्थ में लिखे शब्दों को उल्टा करके पढ़े तो कृष्ण भागवत की कथा सुनाई दे।

जी हां, कांचीपुरम के 17वीं शती के कवि वेंकटाध्वरि रचित ग्रन्थ 'राघवयादवीयम् ' ऐसा ही एक अद्भुत ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ को ‘अनुलोम-विलोम काव्य’ भी कहा जाता है।

पूरे ग्रन्थ में केवल 30 श्लोक हैं। इन श्लोकों को सीधे-सीधे पढ़ते जाएँ, तो रामकथा बनती है और विपरीत (उल्टा) क्रम में पढ़ने पर कृष्णकथा।
इस प्रकार हैं तो केवल 30 श्लोक, लेकिन कृष्णकथा के भी 30 श्लोक जोड़ लिए जाएँ तो बनते हैं 60 श्लोक। पुस्तक के नाम से भी यह प्रदर्शित होता है, राघव (राम) + यादव (कृष्ण) के चरित को बताने वाली गाथा है राघवयादवीयम। उदाहरण के तौर पर पुस्तक का पहला श्लोक हैः

वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ १॥

अर्थातः मैं उन भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणाम करता हूं जो जिनके ह्रदय में सीताजी रहती है तथा जिन्होंने अपनी पत्नी सीता के लिए सहयाद्री की पहाड़ियों से होते हुए लंका जाकर रावण का वध किया तथा वनवास पूरा कर अयोध्या वापिस लौटे।

विलोमम्
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥

अर्थातः मैं रूक्मिणी तथा गोपियों के पूज्य भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम करता हूं जो सदा ही मां लक्ष्मी के साथ विराजमान है तथा जिनकी शोभा समस्त जवाहरातों की शोभा हर लेती है।

राघवयादवीयम के ये 60 संस्कृत श्लोक इस प्रकार हैं

राघवयादवीयम् रामस्तोत्राणि

वंदेऽहं देवं तं श्रीतं रन्तारं कालं भासा यः ।
रामो रामाधीराप्यागो लीलामारायोध्ये वासे ॥ १॥

विलोमम्
सेवाध्येयो रामालाली गोप्याराधी भारामोराः ।
यस्साभालंकारं तारं तं श्रीतं वन्देऽहं देवम् ॥ १॥

साकेताख्या ज्यायामासीद्याविप्रादीप्तार्याधारा ।
पूराजीतादेवाद्याविश्वासाग्र्यासावाशारावा ॥ २॥

विलोमम्
वाराशावासाग्र्या साश्वाविद्यावादेताजीरापूः ।
राधार्यप्ता दीप्राविद्यासीमायाज्याख्याताकेसा ॥ २॥

कामभारस्स्थलसारश्रीसौधासौघनवापिका ।
सारसारवपीनासरागाकारसुभूरुभूः ॥ ३॥

विलोमम्
भूरिभूसुरकागारासनापीवरसारसा ।
कापिवानघसौधासौ श्रीरसालस्थभामका ॥ ३॥

रामधामसमानेनमागोरोधनमासताम् ।
नामहामक्षररसं ताराभास्तु न वेद या ॥ ४॥

विलोमम्
यादवेनस्तुभारातासंररक्षमहामनाः ।
तां समानधरोगोमाननेमासमधामराः ॥ ४॥

यन् गाधेयो योगी रागी वैताने सौम्ये सौख्येसौ ।
तं ख्यातं शीतं स्फीतं भीमानामाश्रीहाता त्रातम् ॥ ५॥

विलोमम्
तं त्राताहाश्रीमानामाभीतं स्फीत्तं शीतं ख्यातं ।
सौख्ये सौम्येसौ नेता वै गीरागीयो योधेगायन् ॥ ५॥

मारमं सुकुमाराभं रसाजापनृताश्रितं ।
काविरामदलापागोसमावामतरानते ॥ ६॥

विलोमम्
तेन रातमवामास गोपालादमराविका ।
तं श्रितानृपजासारंभ रामाकुसुमं रमा ॥ ६॥

रामनामा सदा खेदभावे दया-वानतापीनतेजारिपावनते ।
कादिमोदासहातास्वभासारसा-मेसुगोरेणुकागात्रजे भूरुमे ॥ ७॥

विलोमम्
मेरुभूजेत्रगाकाणुरेगोसुमे-सारसा भास्वताहासदामोदिका ।
तेन वा पारिजातेन पीता नवायादवे भादखेदासमानामरा ॥ ७॥

सारसासमधाताक्षिभूम्नाधामसु सीतया ।
साध्वसाविहरेमेक्षेम्यरमासुरसारहा ॥ ८॥

विलोमम्
हारसारसुमारम्यक्षेमेरेहविसाध्वसा ।
यातसीसुमधाम्नाभूक्षिताधामससारसा ॥ ८॥

सागसाभरतायेभमाभातामन्युमत्तया ।
सात्रमध्यमयातापेपोतायाधिगतारसा ॥ ९॥

विलोमम्
सारतागधियातापोपेतायामध्यमत्रसा ।
यात्तमन्युमताभामा भयेतारभसागसा ॥ ९॥

तानवादपकोमाभारामेकाननदाससा ।
यालतावृद्धसेवाकाकैकेयीमहदाहह ॥ १०॥

विलोमम्
हहदाहमयीकेकैकावासेद्ध्वृतालया ।
सासदाननकामेराभामाकोपदवानता ॥ १०॥

वरमानदसत्यासह्रीतपित्रादरादहो ।
भास्वरस्थिरधीरोपहारोरावनगाम्यसौ ॥ ११॥

विलोमम्
सौम्यगानवरारोहापरोधीरस्स्थिरस्वभाः ।
होदरादत्रापितह्रीसत्यासदनमारवा ॥ ११॥

यानयानघधीतादा रसायास्तनयादवे ।
सागताहिवियाताह्रीसतापानकिलोनभा ॥ १२॥

विलोमम्
भानलोकिनपातासह्रीतायाविहितागसा ।
वेदयानस्तयासारदाताधीघनयानया ॥ १२॥

रागिराधुतिगर्वादारदाहोमहसाहह ।
यानगातभरद्वाजमायासीदमगाहिनः ॥ १३॥

विलोमम्
नोहिगामदसीयामाजद्वारभतगानया ।
हह साहमहोदारदार्वागतिधुरागिरा ॥ १३॥

यातुराजिदभाभारं द्यां वमारुतगन्धगम् ।
सोगमारपदं यक्षतुंगाभोनघयात्रया ॥ १४॥

विलोमम्
यात्रयाघनभोगातुं क्षयदं परमागसः ।
गन्धगंतरुमावद्यं रंभाभादजिरा तु या ॥ १४॥

दण्डकां प्रदमोराजाल्याहतामयकारिहा ।
ससमानवतानेनोभोग्याभोनतदासन ॥ १५॥

विलोमम्
नसदातनभोग्याभो नोनेतावनमास सः ।
हारिकायमताहल्याजारामोदप्रकाण्डदम् ॥ १५॥

सोरमारदनज्ञानोवेदेराकण्ठकुंभजम् ।
तं द्रुसारपटोनागानानादोषविराधहा ॥ १६॥

विलोमम्
हाधराविषदोनानागानाटोपरसाद्रुतम् ।
जम्भकुण्ठकरादेवेनोज्ञानदरमारसः ॥ १६॥

सागमाकरपाताहाकंकेनावनतोहिसः ।
न समानर्दमारामालंकाराजस्वसा रतम् ॥ १७॥

विलोमम्
तं रसास्वजराकालंमारामार्दनमासन ।
सहितोनवनाकेकं हातापारकमागसा ॥ १७॥

तां स गोरमदोश्रीदो विग्रामसदरोतत ।
वैरमासपलाहारा विनासा रविवंशके ॥ १८॥

विलोमम्
केशवं विरसानाविराहालापसमारवैः ।
ततरोदसमग्राविदोश्रीदोमरगोसताम् ॥ १८॥

गोद्युगोमस्वमायोभूदश्रीगखरसेनया ।
सहसाहवधारोविकलोराजदरातिहा ॥ १९॥

विलोमम्
हातिरादजरालोकविरोधावहसाहस ।
यानसेरखगश्रीद भूयोमास्वमगोद्युगः ॥ १९॥

हतपापचयेहेयो लंकेशोयमसारधीः ।
राजिराविरतेरापोहाहाहंग्रहमारघः ॥ २०॥

विलोमम्
घोरमाहग्रहंहाहापोरातेरविराजिराः ।
धीरसामयशोकेलं यो हेये च पपात ह ॥ २०॥

ताटकेयलवादेनोहारीहारिगिरासमः ।
हासहायजनासीतानाप्तेनादमनाभुवि ॥ २१॥

विलोमम्
विभुनामदनाप्तेनातासीनाजयहासहा ।
ससरागिरिहारीहानोदेवालयकेटता ॥ २१॥

भारमाकुदशाकेनाशराधीकुहकेनहा ।
चारुधीवनपालोक्या वैदेहीमहिताहृता ॥ २२॥

विलोमम्
ताहृताहिमहीदेव्यैक्यालोपानवधीरुचा ।
हानकेहकुधीराशानाकेशादकुमारभाः ॥ २२॥

हारितोयदभोरामावियोगेनघवायुजः ।
तंरुमामहितोपेतामोदोसारज्ञरामयः ॥ २३॥

विलोमम्
योमराज्ञरसादोमोतापेतोहिममारुतम् ।
जोयुवाघनगेयोविमाराभोदयतोरिहा ॥ २३॥

भानुभानुतभावामासदामोदपरोहतं ।
तंहतामरसाभक्षोतिराताकृतवासविम् ॥ २४॥

विलोमम्
विंसवातकृतारातिक्षोभासारमताहतं ।
तं हरोपदमोदासमावाभातनुभानुभाः ॥ २४॥

हंसजारुद्धबलजापरोदारसुभाजिनि ।
राजिरावणरक्षोरविघातायरमारयम् ॥ २५॥

विलोमम्
यं रमारयताघाविरक्षोरणवराजिरा ।
निजभासुरदारोपजालबद्धरुजासहम् ॥ २५॥

सागरातिगमाभातिनाकेशोसुरमासहः ।
तंसमारुतजंगोप्ताभादासाद्यगतोगजम् ॥ २६॥

विलोमम्
जंगतोगद्यसादाभाप्तागोजंतरुमासतं ।
हस्समारसुशोकेनातिभामागतिरागसा ॥ २६॥

वीरवानरसेनस्य त्राताभादवता हि सः ।
तोयधावरिगोयादस्ययतोनवसेतुना ॥ २७॥

विलोमम्
नातुसेवनतोयस्यदयागोरिवधायतः ।
सहितावदभातात्रास्यनसेरनवारवी ॥ २७॥

हारिसाहसलंकेनासुभेदीमहितोहिसः ।
चारुभूतनुजोरामोरमाराधयदार्तिहा ॥ २८॥

विलोमम्
हार्तिदायधरामारमोराजोनुतभूरुचा ।
सहितोहिमदीभेसुनाकेलंसहसारिहा ॥ २८॥

नालिकेरसुभाकारागारासौसुरसापिका ।
रावणारिक्षमेरापूराभेजे हि ननामुना ॥ २९॥

विलोमम्
नामुनानहिजेभेरापूरामेक्षरिणावरा ।
कापिसारसुसौरागाराकाभासुरकेलिना ॥ २९॥

साग्र्यतामरसागारामक्षामाघनभारगौः ॥
निजदेपरजित्यास श्रीरामे सुगराजभा ॥ ३०॥

विलोमम्
भाजरागसुमेराश्रीसत्याजिरपदेजनि ।
गौरभानघमाक्षामरागासारमताग्र्यसा ॥ ३०॥
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॥ इति श्रीवेङ्कटाध्वरि कृतं श्रीराघवयादवीयम् ॥

TULSIDAS DESCRIBED THE DESTRUCTION OF TEMPLE AT RAM-JANMA-BHOOMI

TULSIDAS DESCRIBED THE DESTRUCTION OF TEMPLE AT RAM-JANMA-BHOOMI.

Bilingual Post in Hindi and English, based on testimony of Rambhadracharya ji, as an expert on Tulsidas, before Allahabad High Court, under Indian Evidence Act, quoted in the judgement of HC on Ramjanmabhoomi title suite.
Tulsidasji, famous as a writer of Ramcharit Manas, and who was contemporary of Babar, mentions the destruction of RamTemple at Ramjnamabhoomi, Ayodhya, by Mir Baqi, Mughal General of Babar's army in one of his lesser known work, "Tulsi Shatak".

तुलसीदासजी द्वारा बाबरी मस्जिद
का वर्णन !

एक तर्क हमेशा दिया जाता है कि अगर बाबर ने राम मंदिर तोड़ा होता तो यह कैसे सम्भव होता कि महान रामभक्त और राम चरित मानस के रचइता गोस्वामी  तुलसीदास इसका वर्णन पाने इस ग्रन्थ में नहीं करते। 
ये बात सही है कि राम चरित मानस
में गोस्वामी जी ने मंदिर विध्वंस और बाबरी मस्जिद का कोई वर्णन नहीं किया है। हमारे वामपंथी इतिहासकारों ने इसको खूब प्रचारित किया और जन मानस में यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि कोई मंदिर टूटा ही नहीं था अरु यह सब मिथ्या है।
यह प्रश्न इलाहाबाद उच्च न्यायालय
के समक्ष भी था।
इलाहाबाद उच्च नयायालय में जब बहस शुरू हुयी तो श्री रामभद्राचार्य जी को Indian Evidence Act के अंतर्गत एक expert witness के तौर पर बुलाया गया और इस सवाल का उत्तर पूछा गया। 
उन्होंने कहा कि यह सही है कि श्री राम चरित मानस में इस घटना का वर्णन नहीं है लेकिन तुलसीदास जी
ने इसका वर्णन अपनी अन्य कृति 'तुलसी शतक' में किया है जो कि
श्री राम चरित मानस से कम प्रचलित है।
अतः यह गलत है कि तुलसी दास जो कि बाबर के समकालीन भी थे,ने इस घटना का वर्णन नहीं किया है और जहाँ तक राम चरित मानस कि बात है उसमे तो कहीं भी मुग़ल कि भी चर्चा नहीं है इसका मतलब वे भी नहीं ऐसा तो नहीं निकाला जा सकता है। 
गोस्वामी जी तुलसी शतक में लिखते हैं कि,

मंत्र उपनिषद ब्रह्माण्हू बहु पुराण इतिहास।
जवन जराए रोष भरी करी तुलसी परिहास।।

सिखा सूत्र से हीन करी, बल ते हिन्दू लोग।
भमरी भगाए देश ते, तुलसी कठिन कुयोग।।

सम्बत सर वसु बाण नभ, ग्रीष्म ऋतू अनुमानि।
तुलसी अवधहि जड़ जवन, अनरथ किये अनमानि।।

रामजनम महीन मंदिरहिं, तोरी मसीत बनाए।
जवहि बहु हिंदुन हते, तुलसी किन्ही हाय।।

दल्यो मीरबाकी अवध मंदिर राम समाज।
तुलसी ह्रदय हति, त्राहि त्राहि रघुराज।।

रामजनम मंदिर जहँ, लसत अवध के बीच।
तुलसी रची मसीत तहँ, मीरबांकी खाल नीच।।

रामायण घरी घंट जहन, श्रुति पुराण उपखान।
तुलसी जवन अजान तहँ, कइयों कुरान अजान।।

अर्थात :

('Yavan' that is barbarians/ mohammedans, ridicule hymns, several Upanishads and treatise like Brahmans, Purnas, Itihas and also Hindu sociiety having faith in them. They exploits the Hindu society in different ways.)

(Forcible attempts are being made by Muslims to expel the followers of Hinduism from their own native place, forcibly divesting them to their shikhas and yagyopaveet and causing them to deviate from their religion. He terms it as as hard and horrowing time.)

(Describing the barbaric attack of babur, Goswami says that he indulged in gruesome genocide of the natives of that place, using swords. He says countless atrocities were committed by foolish Yavans in Awadh in and around the summer of samvat 1585, that is 1528AD.)

(Describing the attacks made by Yavans on Shri Ramjanm Bhoomi temple, Tulsidas says that after a number of Hindus have been mercilessly killed, Shri Ramjanm Bhoomi was broken to make it a mosque. Looking at ruthless killing of Hindus Tulsidas says that his heart felt aggrieved)

(Seeing the mosque constructed by Mir Baqui in Awadh, in the wake of demolition of Shri Ramjanm bhoomi Temple preceded by grisly killing of followers of Hinduism having faith in Ram and also seeing the bad plight of the temple of his favoured diety Ram, the heart of Tulsi begane to cry for Raghuraj)

(Tulsidas says that the mosque was constructed by the wicked Mir Baqui after demolishing Sri Ramjanm Bhumi temple situated in the middle of Awadh.)

(Tulsidas says that the the Quran as well as Ajaan call is heard from the holy place of shri Ramjanm Bhumi where discourses from Shrutis, Vedas, Purans, Upnishads etc used to be always heard anbd which to be constantly reververated with sweet sounds of bells.)
उपरोक्त इलाहबाद उच्च न्यायलय के निर्णय से जैसा है वैसा ही लिया हुआ है
सदा सर्वदा सुमंगल,
हर हर महादेव,
जय भवानी,
जय श्री राम

Comment by post author:

Thank you Sir for inspiring me to read the judgement of Honourble High court.. just went through it. Very erudite, and highly recommended.. here it is for General people  who May be interested      http://elegalix.allahabadhighcourt.in/elegalix/ayodhyafiles/honsukj.pdf, message to me from Atul Kr Bhaskar ji

साभार- Unkown,  via Sudipta Bhaarat ji, former Researcher Centre for Historical Studies, JNU.
Source: https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=10212170125265463&id=1146345539

Friday, 31 March 2017

The Aryan Swastika and Scandinavian Deity Thor

The Aryan Swastika in  a 1872 painting of Scandinavian Deity Thor (Indra) "Battle Against the Jötnar" (Rakshasas).

The Swastika is the Yantra (symbol) of the original Aryan Constitution. It incorporates the Four Bindus representing the four offices of Aryavartha within the four arms. It pre dates the Rik Veda but evolved after the Brahmin Canon of the Prathamo Upanishad The Mantra (the condensed verbal vibrations) gives the four institutions, the objectives, the ordination and dedication in the Rik Veda: "Om Bhadram Karne bhi shrenayama Devaha, Om Bhadram Pashyemakshu bhir yajathraha, Sthiray rangay sthusthuvahum swasthino bhihi, vyyashema deva hitham yadayuhu. Swasthina Indro Vridhashrawaha. Swatshina Poosha Vishwavedaha. Swasthinastharkshyo arishtanaemihi. Swasthino Brishapathir Dathathu. Om Shanti, shanthi, shantihi". (Circa 20,000 B.C). The Tantra is implicit in the Mantra. Well being results and we shall see and hear only that which is auspicious and enjoy life with all our sixteen senses when the leader (Indra) is well famed), the Judge (Poosha) is all knowing, the Law Enforcer (Taarkshya) strikes down evil and the Mentor (Brihaspathi) educates well so blessing us with auspiciousness. From this will come Peace, Peace, Peace. This prototypal or fractal Constitution is replicatable from the tiniest tribe to the overarching Grand Chief (or Arya Mihira) of all the tribes under Aryan Law or Varsha.P.S. The Vedas are not "epics" but an orally transmitted compendium of the Aryan experience while the Upanishads are the wisdom distilled therefrom. The Puranas are mythology and traditional History, often distorted to reconcile  and enable the inclusion of various different traditions within the Aryan fold.  The "auspiciousness" of the Swastika is the promise of the "rule of law" that is enabled by the four institutions mentioned in this Aryan Constitution having the qualities associated with them.

Courtesy:
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=10155982166303082&id=683703081

How NCERT covers up Islam’s role in temple destruction


How NCERT covers up Islam’s role in temple destruction

NCERT history textbooks have progressed from a total denial of temple and idol destruction to a too clever by half cover-up of the Islamic roots of iconoclasm by Muslim invaders.

by Koenraad Elst

- See more at: http://www.pragyata.com/mag/how-ncert-covers-up-islams-role-in-temple-destruction-342

Nadedaduva Devaru (Walking God)

He is known as "Nadedaduva Devaru" (Walking God) in Karnataka. He is widely respected for his philanthropic work by all communities. He has established educational institutions which offer courses in traditional learning of Sanskrit as well as modern science and technology.

His Guru Kula houses more than 8500 children of age group 5 to 16 years and is open to children from all religions, castes, and creeds, which is providing free ANNA (Food), AKSHARA (Education), and ASHRAYA (Shelter) which is Trivida Dasoha (Three types of Donation).

Sri Sri Sri Sivakumara Swamiji is the head of Sree Siddaganga Mutt in Tumkur District, Karnataka and founder of the Sri Siddaganga Education Society.

On 1st of April, Swamy ji completes 110 years of his meaningful stay on this sacred land. Let Swamy ji be the guiding light for all of us in the years to come.

Sharanu Sharanarthi......

Ramaswamy Sastry & Vighnesh Ghanapaathi ( रामस्वामि शास्त्री विघ्नेश घनपाठी च​ ): Was Brahmastra a nuclear weapon ?

Ramaswamy Sastry & Vighnesh Ghanapaathi ( रामस्वामि शास्त्री विघ्नेश घनपाठी च​ ): Was Brahmastra a nuclear weapon ?: There are many who say that Brahmastra used by Vishwamitra, Sri Rama and Ashwathama and also divine weapons such s Pashupatastra, Agneyaas...

NCERT का भारत विरोधी इतिहास

Courtesy #Sameer_Kaushik

ये दुर्भाग्य है की #NCERT पुस्तकों में यह सब पढाया जाता है । आप चाहें तो देख सकते हैं । आखिर हमारा इतिहास क्यों छुपाया जाता है । कठमुल्लों को बढ़ा चढ़ा के क्यों दिखाया जाता है ।

आज कल यह पढ़ाया जा रहा है बच्चो को !!!

1. वैदिक काल में विशिष्ट अतिथियों के लिए #गोमांस का परोसा जाना सम्मान सूचक माना जाता था। (कक्षा 6 -प्राचीन भारत, पृष्ठ 35, लेखिका - #रोमिला_थापर)

2. महमूद गज़नवी ने मूर्तियों को तोड़ा और इससे वह धार्मिक नेता बन गया। (कक्षा 7 - मध्यकालीन भारत, पृष्ठ 28)

3.1857 का स्वतंत्रता संग्राम एक सैनिक विद्रोह था। (कक्षा 8-सामाजिक विज्ञान भाग-1)

4. महावीर 12 वर्षों तक जहां-तहां भटकते रहे । 12 वर्ष की लम्बी यात्रा के दौरान, उन्होंने एक बार भी अपने वस्त्र नहीं बदले । 😞 42 वर्ष की आयु में उन्होंने वस्त्र का एकदम त्याग कर दिया। 😲 (कक्षा 11, प्राचीन भारत, पृष्ठ 101, लेखक - #रामशरण_शर्मा)

5. तीर्थंकर, जो अधिकतर मध्य गंगा के मैदान में उत्पन्न हुए और जिन्होंने बिहार में निर्वाण प्राप्त किया, की मिथक कथा जैन सम्प्रदाय की प्राचीनता सिद्ध करने के लिए गढ़ ली गई। (कक्षा 11-प्राचीन भारत, पृष्ठ 101, लेखक - #रामशरण_शर्मा)

6. जाटों ने, गरीब हो या धनी, जागीरदार हो या किसान, हिन्दू हो या मुसलमान, सबको लूटा। (कक्षा 12 - आधुनिक भारत, पृष्ठ 18-19, लेखक - #विपिन_चन्द्र)

7. रणजीत सिंह अपने सिंहासन से उतरकर मुसलमान फकीरों के पैरों की धूल अपनी लम्बी सफेद दाढ़ी से झाड़ता था। (कक्षा 12 -पृष्ठ 20, लेखक - #विपिन_चन्द्र)

8. आर्य समाज ने हिन्दुओं, मुसलमानों, पारसियों, सिखों और ईसाइयों के बीच पनप रही राष्ट्रीय एकता को भंग करने का प्रयास किया। (कक्षा 12-आधुनिक भारत, पृष्ठ 183, लेखक - #विपिन_चन्द्र)

9. तिलक, अरविन्द घोष, विपिनचन्द्र पाल और लाला लाजपतराय जैसे नेता उग्रवादी तथा आतंकवादी थे ।
(कक्षा 12 - आधुनिक भारत, लेखक - #विपिन_चन्द्र, पृष्ठ 208)

10. 400 वर्ष ईसा पूर्व अयोध्या का कोई अस्तित्व नहीं था। महाभारत और रामायण कल्पित महाकाव्य हैं ।
(कक्षा 11, पृष्ठ 107, मध्यकालीन इतिहास,लेखक - #आर_एस_शर्मा)

11. वीर #पृथ्वीराज_चौहान मैदान छोड़कर भाग गया और गद्दार जयचन्द गोरी के खिलाफ युद्धभूमि में लड़ते हुए मारा गया। (कक्षा 11, मध्यकालीन भारत, लेखक -
#प्रो_सतीश_चन्द्र)

12. औरंगजेब जिन्दा पीर थे। (मध्यकालीन भारत, पृष्ठ 316, लेखक- #प्रो_सतीश_चन्द्र)

13. राम और कृष्ण का कोई अस्तित्व ही नहीं था। वह केवल काल्पनिक कहानियां हैं । (मध्यकालीन भारत, पृष्ठ 245, लेखक - #रोमिला_थापर)

(ऐसी और भी बहुत सी आपत्तिजनक बाते आपको एन.सी.आर.टी. की किताबों में पढ़ने को मिल जायेंगी)

इन किताबों में जो छापा जा रहा हैं उनमें रोमिला थापर जैसी लेखको ने मुसलमानों द्वारा धर्म के नाम पर काफ़िर हिन्दुओं के ऊपर किये गये भयानक अत्याचारों को गायब कर दिया है ।

नकली धर्मनिरपेक्षतावादी नेताओं की शह पर झूठा इतिहास लिखकर एक समुदाय की हिंसक मानसिकता पर जानबूझकर पर्दा ड़ाला जा रहा है । इन भयानक अत्याचारों को सदियों से चली आ रही गंगा जमुनी संस्कृति, अनेकता में एकता और धार्मिक सहिष्णुता बताकर नौजवान पीढ़ी को धोखा दिया जा रहा है ।

उन्हें अंधकार में रखा जा रहा है । भविष्य में इसका परिणाम बहुत भयानक व भयावह होगा क्योंकि नयी पीढ़ी ऐसे मुसलमानों की मानसिकता न जानने के कारण उनसे असावधान रहेगी और खतरे में पड़ जायेगी ।

सोचने का विषय है कि आखिर किसके दबाव में सत्य को छिपाया अथवा तोड़ मरोड़ कर पेश किया जा रहा है...??

Courtesy: https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=434499506887801&id=292543404416746

Thursday, 30 March 2017

भारत के पहले राष्ट्रपति और पहले प्रधानमंत्री के रिश्ते

भारत के पहले राष्ट्रपति और पहले प्रधानमंत्री के रिश्ते।

डा.राजेन्द्र प्रसाद की शख्सियत से पंडित नेहरु हमेशा अपने को असुरक्षित महसूस करते रहे। उन्होंने राजेन्द्र बाबू को नीचा दिखाने का कोई अवसर भी हाथ से जाने नहीं दिया। हद तो तब हो गई जब 12 वर्षों तक राष्ट्रपति रहने के बाद राजेन्द्र बाबू देश के राष्ट्रपति पद से मुक्त होने के बाद पटना जाकर रहने लगे, तो नेहरु ने उनके लिए वहां पर एक सरकारी आवास तक की व्यवस्था नहीं की, उनकी सेहत का ध्यान नहीं रखा गया। दिल्ली से पटना पहुंचने पर राजेन्द्र बाबू बिहार विद्यापीठ, सदाकत आश्रम के एक सीलनभरे कमरे में रहने लगे। उनकी तबीयत पहले से खराब रहती थी, पटना जाकर ज्यादा खराब रहने लगी। वे दमा के रोगी थे, इसलिए सीलनभरे कमरे में रहने के बाद उनका दमा ज्यादा बढ़ गया। वहां उनसे मिलने के लिए श्री जयप्रकाश नारायण पहुंचे। वे उनकी हालत देखकर हिल गए। उस कमरे को देखकर जिसमें देश के पहले राष्ट्रपति और संविधान सभा के पहले अध्यक्ष डा.राजेन्द्र प्रसाद रहते थे, उनकी आंखें नम हो गईं। उन्होंने उसके बाद उस सीलन भरे कमरे को अपने मित्रों और सहयोगियों से कहकर कामचलाउ रहने लायक करवाया। लेकिन, उसी कमरे में रहते हुए राजेन्द्र बाबू की 28 फरवरी,1963 को मौत हो गई। क्या आप मानेंगे कि उनकी अंत्येष्टि में पंडित नेहरु ने शिरकत करना तक भी उचित नहीं समझा। वे उस दिन जयपुर में एक अपनी  ‘‘तुलादान’’ करवाने जैसे एक मामूली से कार्यक्रम में चले गए। यही नहीं, उन्होंने राजस्थान के तत्कालीन राज्यपाल डा.संपूर्णानंद को राजेन्द्र बाबू की अंत्येष्टि में शामिल होने से रोका।नेहरु ने राजेन्द्र बाबू के उतराधिकारी डा. एस. राधाकृष्णन को भी पटना न जाने की सलाह दे दी। लेकिन, डा0 राधाकृष्णन ने नेहरू के परामर्श को नहीं माना और वे राजेन्द्र बाबू के अंतिम संस्कार में भाग लेने पटना पहुंचे। इसी से आप अंदाजा लगा सकते हैं कि नेहरू किस कदर राजेन्द्र प्रसाद से दूरियां बनाकर रखते थे।

इस मार्मिक और सनसनीखेज तथ्य का खुलासा खुद डा.संपूर्णानंद ने किया है। संपूर्णानंद जी ने जब नेहरू को कहा कि वे पटना जाना चाहते हैं, राजेन्द्र बाबू की अंत्येष्टि में भाग लेने के लिए तो उन्होंने (नेहरु) संपूर्णानंद से कहा कि ये कैसे मुमकिन है कि देश का प्रधानमंत्री किसी राज्य में आए और उसका राज्यपाल वहां से गायब हो। इसके बाद डा. संपूर्णानंद ने अपना पटना जाने का कार्यक्रम रद्द किया। हालांकि, उनके मन में हमेशा यह मलाल रहा कि वे राजेन्द्र बाबू के अंतिम दर्शन नहीं कर सके। वे राजेन्द्र बाबू का बहुत सम्मान करते थे। डॉक्टर सम्पूर्णानंद ने राजेन्द बाबू के सहयोगी प्रमोद पारिजात शास्त्री को लिखे गए पत्र में अपनी व्यथा व्यक्त करते हुए लिखा था कि ‘‘घोर आश्चर्य हुआ कि बिहार के जो प्रमुख लोग दिल्ली में थे उनमें से भी कोई पटना नहीं गया, (किसके डर से?) सब लोगों को इतना कौन सा आवश्यक काम अचानक पड़ गया, यह समझ में नहीं आया, यह अच्छी बात नहीं हुई। यह बिलकुल ठीक है कि उनके जाने न जाने से उस महापुरुष का कुछ भी बनता बिगड़ता नहीं। परन्तु, ये लोग तो निश्चय ही अपने कर्तव्य से विमुख रहे.

ये बात भी अब सबको मालूम है कि पटना में डा. राजेन्द्र बाबू को उत्तम क्या मामूली स्वास्थ्य सुविधाएं तक नहीं मिलीं। उनके साथ बेहद बेरुखी वाला व्यवहार होता रहा, मानो सबकुछ केन्द्र के निर्देश पर हो रहा हो। उन्हें कफ की खासी शिकायत रहती थी। उनकी कफ की शिकायत को दूर करने के लिए पटना मेडिकल कालेज में एक मशीन थी कफ निकालने वाली। उसे भी केन्द्र के निर्देश पर मुख्यमंत्री ने राजेन्द्र बाबू के कमरे से निकालकर वापस पटना मेडिकल कालेज भेज दिया गया। जिस दिन कफ निकालने की मशीन वापस मंगाई गई उसके दो दिन बाद ही राजेन्द बाबू खाँसते-खाँसते चल बसे, यानी राजेन्द्र बाबू को मारने का पूरा और पुख्ता इंतजाम किया गया था. कफ निकालने वाली मशीन वापस लेने की बात तो अखबारों में भी आ गई हैं.

दरअसल नेहरु अपने को राजेन्द्र प्रसाद के समक्ष बहुत बौना महसूस करते थे। उनमें इस कारण से बड़ी हीन भावना पैदा हो गई थी और वे उनसे छतीस का आंकड़ा रखते थे। वे डा. राजेन्द्र प्रसाद को किसी न किसी तरह से आदेश देने की मुद्रा में रहते थे, जिसे राजेन्द्र बाबू मुस्कुराकर टाल दिया करते थे। नेहरू ने राजेंद्र प्रसाद से सोमनाथ मंदिर का 1951 में उदघाटन न करने का आग्रह किया था। उनका तर्क था कि धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र के प्रमुख को मंदिर के उदघाटन से बचना चाहिए।हालांकि, नेहरू के आग्रह को न मानते हुए डा. राजेंद्र प्रसाद ने सोमनाथ मंदिर में शिव मूर्ति की स्थापना की. डा. राजेन्द्र प्रसाद मानते थे कि ‘‘धर्मनिरपेक्षता का अर्थ अपने संस्कारों से दूर होना या धर्मविरोधी होना नहीं हो सकता।’’ सोमनाथ मंदिर के उदघाटन के वक्त डा. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था कि भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, लेकिन नास्तिक राष्ट्र नहीं है. डा. राजेंद्र प्रसाद मानते थे कि उन्हें सभी धर्मों के प्रति बराबर और सार्वजनिक सम्मान प्रदर्शित करना चाहिए। एक तरफ तो नेहरु डा. राजेन्द्र प्रसाद को सोमनाथ मंदिर में जाने से मना करते रहे लेकिन, दूसरी तरफ वे स्वयं 1956 के इलाहाबाद में हुए कुंभ मेले में डुबकी लगाने चले गए. बताते चलें कि नेहरु के वहां अचानक पहुँच जाने से कुंभ में अव्यवस्था फैली और भारी भगदड़ में करीब 800 लोग मारे गए।

हिन्दू कोड बिल पर भी राजेन्द्र प्रसाद, नेहरु से अलग राय रखते थे. जब पंडित जवाहर लाल नेहरू हिन्दुओं के पारिवारिक जीवन को व्यवस्थित करने के लिए हिंदू कोड बिल लाने की कोशिश में थे, तब डा.राजेंद्र प्रसाद इसका खुलकर विरोध कर रहे थे। डा. राजेंद्र प्रसाद का कहना था कि लोगों के जीवन और संस्कृति को प्रभावित करने वाले कानून न बनाये जायें। दरअसल जवाहर लाल नेहरू चाहते ही नहीं थे कि डा. राजेंद्र प्रसाद देश के राष्ट्रपति बनें। उन्हें राष्ट्रपति बनने से रोकने के लिए उन्होंने ‘‘झूठ’’ तक का सहारा लिया था।नेहरु ने 10 सितंबर, 1949 को डा. राजेंद्र प्रसाद को पत्र लिखकर कहा कि उन्होंने (नेहरू) और सरदार पटेल ने फैसला किया है कि सी.राजगोपालाचारी को भारत का पहला राष्ट्रपति बनाना सबसे बेहतर होंगा। नेहरू ने जिस तरह से यह पत्र लिखा था, उससे डा.राजेंद्र प्रसाद को घोर कष्ट हुआ और उन्होंने पत्र की एक प्रति सरदार पटेल को भिजवाई। पटेल उस वक्त बम्बई में थे। कहते हैं कि सरदार पटेल उस पत्र को पढ़ कर सन्न थे, क्योंकि, उनकी इस बारे में नेहरू से कोई चर्चा नहीं हुई थी कि राजाजी (राजगोपालाचारी) या डा. राजेंद्र प्रसाद में से किसे राष्ट्रपति बनाया जाना चाहिए। न ही उन्होंने नेहरू के साथ मिलकर यह तय किया था कि राजाजी राष्ट्रपति पद के लिए उनकी पसंद के उम्मीदवार होंगे। यह बात उन्होंने राजेन्द्र बाबू को बताई। इसके बाद डा. राजेंद्र प्रसाद ने 11 सितंबर,1949 को नेहरू को पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि ‘‘पार्टी में उनकी (डा0 राजेन्द प्रसाद की) जो स्थिति रही है, उसे देखते हुए वे बेहतर व्यवहार के पात्र हैं। नेहरू को जब यह पत्र मिला तो उन्हें लगा कि उनका झूठ पकड़ा गया। अपनी फजीहत कराने के बदले उन्होंने अपनी गलती स्वीकार करने का निर्णय लिया।

नेहरू यह भी नहीं चाहते थे कि हालात उनके नियंत्रण से बाहर हों और इसलिए ऐसा बताते हैं कि उन्होंने इस संबंध में रातभर जाग कर डा. राजेन्द्र प्रसाद को जवाब लिखा। डा. राजेन्द्र बाबू, प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के विरोध के बावजूद दो कार्यकाल के लिए राष्ट्रपति चुने गए थे। बेशक, नेहरू सी राजगोपालाचारी को देश का पहला राष्ट्रपति बनाना चाहते थे, लेकिन सरदार पटेल और कांग्रेस के तमाम वरिष्ठ नेताओं की राय डा. राजेंद्र प्रसाद के हक में थी।आखिर नेहरू को कांग्रेस नेताओं सर्वानुमति की बात माननी ही पड़ी और राष्ट्रपति के तौर पर डा. राजेन्द्र प्रसाद को ही अपना समर्थन देना पड़ा।

जवाहर लाल नेहरू और डा. राजेंद्र प्रसाद में वैचारिक और व्यावहारिक मतभेद बराबर बने रहे थे। ये मतभेद शुरू से ही थे, लेकिन 1950 से 1962 तक राजेन्द्र बाबू के राष्ट्रपति रहने के दौरान ज्यादा मुखर और सार्वजनिक हो गए। नेहरु पश्चिमी सभ्यता के कायल थे जबकि राजेंद्र प्रसाद भारतीय सभ्यता देश के एकता का मूल तत्व मानते थे। राजेन्द्र बाबू को देश के गांवों में जाना पसंद था, वहीं नेहरु लन्दन और पेरिस में चले जाते थे। पेरिस के धुले कपड़े तक पहनते थे। सरदार पटेल भी भारतीय सभ्यता के पूर्णतया पक्षधर थे। इसी कारण सरदार पटेल और डा. राजेंद्र प्रसाद में खासी घनिष्ठता थी। सोमनाथ मंदिर मुद्दे पर डा. राजेंद्र प्रसाद और सरदार पटेल ने एक जुट होकर कहा की यह भारतीय अस्मिता का केंद्र है इसका निर्माण होना ही चाहिए।

अगर बात बिहार की करें तो वहां गांधी के बाद राजेन्द्र प्रसाद ही सबसे बड़े और लोकप्रिय नेता थे। गांधीजी के साथ ‘राजेन्द्र प्रसाद जिन्दाबाद’ के भी नारे लगाए जाते थे। लंबे समय तक देश के राष्ट्रपति रहने के बाद भी राजेन्द्र बाबू ने कभी भी अपने किसी परिवार के सदस्य को न पोषित किया और न लाभान्वित किया। हालांकि नेहरु इसके ठीक विपरीत थे। उन्होंने अपनी पुत्री इंदिरा गांधी और बहन विजयालक्ष्मी पंडित को सत्ता की रेवडि़यां खुलकर बांटीं। सारे दूर-दराज के रिश्तेदारों को राजदूत, गवर्नर, जज बनाया। एक बार जब डा. राजेंद्र प्रसाद ने बनारस यात्रा के दौरान खुले आम काशी विश्वनाथ मंदिर के पुजारियों के पैर छू लिए तो नेहरू नाराज हो गए और सार्वजनिक रूप से इसके लिए विरोध जताया, और कहा की भारत के राष्ट्रपति को ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए। हालांकि डा. राजेन्द्र प्रसाद ने नेहरु की आपत्ति पर प्रतिक्रिया देना भी उचित नहीं समझा। राजेन्द्र प्रसाद नेहरू की तिब्बत नीति और हिन्दी-चीनी भाई-भाई की नीति से असहमत थे। नेहरु की चीन नीति के कारण भारत 1962 की जंग में करारी शिकस्त झेलनी पड़ी। इसी प्रकार राजेन्द्र बाबू और नेहरु में राज्यभाषा हिन्दी को लेकर भी मतभेद था। मुख्यमंत्रियों की सभा (1961) को राष्ट्रपति ने लिखित सुझाव भेजा कि अगर भारत की सभी भाषाएं देवनागरी लिपि अपना लें, जैसे यूरोप की सभी भाषाएं रोमन लिपि में लिखी जाती हैं, तो भारत की राष्ट्रीयता मजबूत होगी। सभी मुख्यमंत्रियों ने इसे एकमत से स्वीकार कर लिया, किन्तु अंग्रेजी परस्त नेहरू की केंद्र सरकार ने इसे नहीं माना क्योंकि, इससे अंग्रेजी देश की भाषा नहीं बनी रहती जो नेहरू चाहते थे।

वास्तव में डा. राजेंद्र प्रसाद एक दूरदर्शी नेता थे वो भारतीय संस्कृति सभ्यता के समर्थक थे, राष्ट्रीय अस्मिता को बचाकर रखने वालो में से थे।जबकि नेहरु पश्चिमी सभ्यता के समर्थक और, भारतीयता के विरोधी थे। बहरहाल आप समझ गए होंगे कि नेहरु जी किस कद्र भयभीत रहते थे राजेन्द्र बाबू से। अभी संविधान पर देश भर में चर्चाएं हो रही हैं। डा0 राजेन्द्र प्रसाद ही संविधान सभा के अध्यक्ष थे और उन्होंने जिन 24 उप-समितियों का गठन किया था, उन्हीं में से एक ‘‘मसौदा कमेटी’’ के अध्यक्ष डा0 भीमराव अम्बेडकर थे। उनका काम 300 सदस्यीय संविधान सभा की चर्चाओं और उप-समितियों की अनुशंसाओं को संकलित कर एक मसौदा (ड्राफ्ट) तैयार करना था जिसे संविधान सभा के अध्यक्ष के नाते डा0 राजेन्द्र प्रसाद स्वीकृत करते थे। फिर वह ड्राफ्ट संविधान में शामिल होता था। संविधान निर्माण का कुछ श्रेय तो आखिरकार देशरत्न डा0 राजेन्द्र प्रसाद को भी मिलना ही चाहिए, लेकिन आंबेडकर पूजा में हम इतने व्यस्त और मस्त हो गए हैं कि राजेन्द्र प्रसाद के योगदान को गायब ही कर दिया।

साभार: हिन्दू जागरण

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