Saturday, 8 April 2017

मनुस्मृति में जीव हिंसा का विरोध

Manu-smṛti 5.45 –

“yo ‘hiṁsakāni bhūtāni hinasty ātma-sukhecchayā / sa jīvaṁś ca mṛtaś caiva na kvacit sukham edhate ”
“योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया । स जीवंश्च मृतश्चैव न क्वचित्सुखमेधते ।।“ – meaning – “A human who kills herbivorous animals (who do not eat other animals flesh but eat vegetarian foods ) for the sake of his pleasure of tongue as enjoyment , he never attains peace and happiness either while living or after death – not at any time.”

“जो मनुष्य अहिंसक जीवों को अपने जिव्हा के सुख की इच्छा से पशुओं की हत्या करता है, वह जीता हुआ और मरा हुआ भी कहीं भी सुख से समृद्ध नहीं होता ।“
(b) Manu-smṛti 5.48 –
“nā ‘kṛtvā prāṇināṁ hiṁsāṁ māṁsam utpadyate kvacit / na ca prāṇi-vadhaḥ svargyas tasmān māṁsaṁ vivarjayet //” – “नाऽकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित् । न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्ज्जयेत् ।।–
“meaning – “Meat is never produced without killing of animals. Killing of animals never facilitates in the obtainment of paradise. Hence, the (consumption of) meat is to be, completely, forsaken.” /
“प्राणियों की हिंसा किये बिना कहीं भी मांस उत्पन्न नहीं होता है । प्राणियों की हिंसा स्वर्गप्राप्ति करने में सहायक नहीं है । उस कारण से मांस को (मांसभक्षण को) पूर्णतया वर्जित करें ।“
(C) Manu-smṛti 5.51 –
“anumantā viśasitā nihantā kraya-vikrayī / saṁskārtā copaharttā ca khādakāś ceti ghātakāḥ //”
– “अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी । संस्कर्त्ता चोपहर्त्ता च खादकाश्चेति घातका: ।।–
“meaning – “He who permits (the slaughter of an animal), he who cuts (butchers) it up, he who kills (slaughters) it, he who buys or sells (meat), he who cooks it, he who serves it up, and he who eats it, (must all be considered as) the slayers (of the animal).” /
“पशु को मारने की अनुमति देने वाला, मारने वाला, मरे हुए जीव के शरीर के अङ्गो को टुकडे टुकडे करने वाला, उसे खरीदने वाला, बेचने वाला, पकाने वाला, परोसने वाला और खाने वाला – ये सब जीवहिंसा करने वाले हैं ।“
(D) Manu-smṛti 5.55 –
“māṁ sa bhakṣayitā ‘mutra yasya māṁsam ihā ‘dmy aham / etan māṁsasya māṁsatvaṁ pravadanti manīṣiṇaḥ //”– 
“मां स भक्षयिताऽमुत्र यस्य मांसमिहाऽद्म्यहम् । एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिण: ।।“ –
meaning – “ ‘Me he (maṁ saḥ)’ will devour in the next (world), whose flesh I eat in this (life); the wise declare this (to be) the actual meaning of the term ‘flesh’ (māṁsaḥ).” /
“इस लोक में जिस का मांस-भक्षण मैं करता हूँ (सः) अर्थात् वह परलोक में ‘मां’ अर्थात् मेरा भक्षण करेगा । यही मांस शब्द का अर्थ विद्वानों ने कहा है ।“

ध्यान देने योग्य बात यह है कि 'नस्लवाद' / 'उदारवाद' / 'संरक्षणवाद' / 'नारीगमन' / 'मिहोग्यानी' / 'एनोकॉइसाइड' / 'पीडोफिलिया' / 'मानवाधिकार' आदि जैसे पश्चिमी अवधारणाओं में कई जड़ है। यवन समाज के उत्पाद हैं ।

साभार: https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1817254738596367&id=100009355754237

रामायणकी ऐतिहासिकता (साक्ष्य सहित)

रामायणकी ऐतिहासिकता

पाश्चात्य विद्वानों और उनके भारतीय अन्धानुयायी विद्वान् भगवान् श्रीराम और आदि काव्य वाल्मीकि रामायणको काल्पनिक मानते हैं । उनके अनुसार "२००० वर्ष पहले रामायणकी रचनाकी गयी और उसका उद्देश्य आदर्श चरित्रकी स्थापना करना था ,रामके रूपमें एक आदर्श राजा, एक आदर्श मनुष्यकी कल्पना की गयी । वाल्मीकिके राम एक साधारण मनुष्य थे किन्तु १६वी शती में तुलसीदास ने राम को मानवीय धरातलसे उठाकर ईश्वर रूप में स्थापित किया और इस प्रकार रामभक्ति पल्लवित करने वाले तुलसीदास हैं । "

पाश्चात्योंका ये मत मनगढ़न्त कल्पना मात्र है । जिसका अनुकरण भारतीय विद्वान् करते हैं । वास्तवमें भारतीय विद्वानोंको इसके पीछेकी पाश्चात्योंका उद्देश्य नहीं ज्ञात ।
यूरोप का आदि कवि हौमर का महाकाव्य इलियड ३०० ई पू में लिखा गया ;जिसकी कथावस्तु ट्रायका युद्ध है जिसका  रामायणके लङ्का युद्धसे साम्य होता है । अब यदि रामायणको ३०० ई पू से पहले का मानते हैं तो भारतीय संस्कृति स्वतः यूरोपियोंसे प्राचीन सिद्ध हो जाएगी ; और पाश्चात्य ये बात कैसे स्वीकार कर सकते हैं ? इसीलिए पाश्चात्योंने रामायण को ई पू पहली शतीसे बादकी रचना माना है ।

भगवान् श्रीरामकी ऐतिहासिकता का प्रमाण देने की तो कोई आवश्यकता ही नहीं है वो श्रीराम तो हिंदुओंके हृदयमें वास करते हैं ।
रहा प्रश्न रामायणकी एतिहासिकता तो रामायण जैसे महाकाव्यके विषय में लिखना मेरे जैसे अल्पज्ञके लिए छोटे मुंह बड़ी बात होगी ; भगवान् वाल्मीकि जैसे ऋतम्भरा प्रज्ञा सम्पन्न महर्षि के सामर्थ्यकी बात है ! एक तो मेरी बुद्धि थोड़ी है ऊपरसे समुद्र सा विशाल रामजीका चरित्र किन्तु फिर भी रामायण पर लगे आरोपोंका खण्डन करने का प्रयास कर रहा हूँ ।

सर्व  प्रथम ये बता दूँ आचार्य चाणक्य जिनका समय पाश्चात्य और भारतीय विद्वान् ई पू चौथी शती स्वीकार करते हैं । आचार्य चाणक्यने अपनी नीतिने #अति_सर्वत्र_वर्जिते ० श्लोक में सीता जी के हरण का कारण उनकी अति सुंदरता माना है और रावणकी मृत्युका कारण उसका अति अहँकार माना है " चौथी शती ई पू में आचार्य चाणक्य सीता हरण ,रावण वध का उल्लेख करते हैं फिर ई पू पहली शती की रचना कैसे सम्भव है ? आचार्य चाणक्यके पूर्ववर्ती आचार्य पाणिनि थे उनके सूत्रोमें भी रामायणके चरित्रों का उल्लेख मिलता है ।
किन्तु आचार्य चाणक्यका समय ई पू चौथी शती से कहीं अधिक प्राचीन है ।

वामपंथी इतिहासकार रोमिला थापर के अनुसार ई पू चौथी शती में कौसल राज्यका कोई अस्तित्व ही नहीं था ,अयोध्यामें ई पू चौथी शती से पू के मानव सभ्यताका कोई प्रमाण नहीं है ।

किंतु रोमिला थापर का ये मत नितांत ही झूठा है -

किष्किन्धामें लगभग ४४०० ई पू (६४०० वर्ष पुराना) के समय की एक गदा पाई गयी थी । वह सम्भवत: वानर जाती की रही होगी । यह एक विलक्षण धातुकी बनी हुई है जो देखने में प्रस्तर की लगती है ,वास्तव में पत्थरकी है नहीं । यह किसी ऐसी धातुकी है ,जिसे प्रस्तर पर अथवा लोहे पर मारने पर भी इसमें न तो चिन्ह ही पड़ता है और न ही टूटता है । गन्धर्वदेश (अफगानिस्तान) में ४००० ई पू की स्वर्ण मुद्राएँ मिली हैं जिनपर सूर्यकी छाप लगी हुई है । भिवानीके पास भी खदाई में प्रस्तर ,चाँदी और सोने की ऐसी मुद्राएँ मिली हैं जिन पर एक ओर तो राम,सीता और हनुमान् की मूर्ति है तथा दूसरी ओर सूर्यकी छाप है । (भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण हिन्दुस्तान टाइम्स,दिनांक 11 नवम्बर,1992 है !)
"अयोध्या और साकेत के बीच में ४००० ई पू प्राचीन युग के तीन बर्तन खुदाई में मिले हैं -दो थाली,एक कटोरी,जो आश्चर्यजनक चमकीले धातुके हैं । बर्तान पतले मिलें हैं जिनपर सूर्यका चिन्ह है ।"
"त्रिकोमाली (अशोक वाटिका श्रीलङ्का) जहाँ रावणने सीताजी को बन्दी बनाकर रखा था ,वह अब हकगल्ला नामक ४५० मीटर ऊंचाई वाले पहाड़ अमन कबीला नामसे प्रसिद्ध है । जो नुआरा ऐलाया नगर से एक कि. मी. दूर है । पिछली शतीके अंत में हकगल्ला में एक कुँआ खोदते समय मिट्टी के नीचेसे रामभक्त हनुमान् की एक काली पत्थर की एक मूर्ति मिली जिसके एक हाथ में पहाड़ उठाए हैं ।"
  "यपाहाउवा अनुराधापुरके(श्रीलङ्कामें)निकट एक प्राचीन दुर्ग है जिसके चारों ओर परकोटे एवं गहरी खाइयां बनी हुई हैं । इस दुर्ग के परकोटों और बुर्जों पर प्राचीन युद्ध के अनेक चिन्ह अब भी विद्यमान हैं और एक सुसज्जित सोपान मार्ग के अवशेष वहाँ सुरक्षित हैं ।
  "दंमबुल्ला सिगिरिया अशोक वाटिका से १२ कि. मी. दूर है ।  इसके ३५० फुट ऊंचाई पर पांच गुफ़ाएँ बनी हुई हैं । इसमें राक्षसोंके देवताओंकी १५० मूर्तियाँ बनी हुई हैं । गुफाओं की छत पर भित्ति चित्र बने हुए हैं जिनमें श्रीरामसे सम्बंधित महत्वपूर्ण घटनाओं एवं सिंहल द्वीपके इतिहास की युगान्तकारी घटनाओं को अंकित किया हुआ है !"

इसी प्रकार हजारों वर्ष प्राचीन भारत और लङ्का में प्रमाण हैं
ई पू ५००० (७०००वर्ष पुराने ) से भी प्राचीन ताँबे के धनुष-बाण ,बर्तन प्राप्त हुए हैं देखिए
"वैदिककाल और रामायणकी ऐतिहासिकता बाई डॉ सरोज बाला "!

श्रीरामसेतु मानव निर्मित सबसे बड़ा प्रमाण है जिसकी कार्बन डेटिंग १७.५ लाख वर्ष पुराना है । समुद्र विज्ञानके अनुसार ७००० वर्ष पूर्व तक समुद्र का जल स्तर ८.५ फीट निचे था जितना नीचे रामसेतु डूबा हुआ है ।
रामसेतु मानव निर्मित है या प्राकृतिक ??
रामसेतु का निरीक्षण करने पर वैज्ञानिकोंने रामसेतु से कई स्थानोंसे सैम्पल लिया और पाया कि रामसेतु के अंदर जिन पत्थरों और मिट्टी का प्रयोग हुआ है वो न तो समुद्र में पायी जाती है और न ही रामेश्वरम में ही । इससे सिद्ध होता है पत्थर और मिट्टी बाहर से लायी गयी थी । रामसेतु प्राकृतिक होने के कोई प्रमाण नहीं हैं  ।

वाल्मीकि रामायणके सुंदरकाण्डमें जिन चार दाँतों वाले हाथियों का उल्लेख है वो हाथी जीव विज्ञानके अनुसार १० लाख वर्ष पूर्व विलुप्त हो गए ।

वाल्मीकि रामायणमें जिस वानर जाति का उल्लेख है वो वानर जाति ३.६ -१.२ करोड़ वर्ष पूर्व तक धरती पर विद्यमान थे ; १.२ करोड़ वर्ष पहले ये वानर जाति लुप्त हो गयी । बाद में आदि मानव की उत्पत्ति ८० लाख वर्ष पूर्व हुई ।

इन सब प्रमाणों से वाल्मीकि रामायणकी प्राचीनता सिद्ध है ।
रहा प्रश्न श्रीराम भक्ति कब प्रारम्भ हुई ?

इसका प्रमाण वाल्मीकिरामायण ही है जिसमे रामभक्ति का प्रचुर मात्रा में उल्लेख है ।

गोस्वामी तुलसीदासजी से पूर्ववर्ति श्रीरामान्दाचार्यजी और श्रीरामानुजाचार्यजी ने उत्तर और दक्षिणमें रामभक्ति पल्लवित की ।

ऐसा नहीं कि श्रीराम भक्ति और अर्चन मात्र इसी सहस्राब्दी में हुई है सबसे प्राचीन प्रमाण ३००० ई पू के सार्वभौम जन्मेजय का ताम्रपत्र अभिलेख है जिसमें ३०१० ई पू (५०२६ वर्ष पूर्व ) में किष्किन्धा में श्रीसीता-रामकी मूर्ति स्थापना करके श्रीसीता-रामकी अर्चन और यज्ञ किया था ।

इस लिए ये समस्त धारणाएँ भ्रान्ति पूर्ण हैं श्रीमद्वाल्मीकिरामायण अति प्राचीन है और श्रीराम भक्ति आदिकालसे ही प्रचलित है ।

भारतीय इतिहास जो कि युगों -कल्पों पुराना है ,क्या पाश्चात्यो के चश्मे से पढ़ा जा सकता है ? जिनके अनुसार मानव सभ्यता ही कुछ शताब्दियों-सहस्राब्दियों पुरानी है ?

!!             जय श्रीराम                   !!

साभार:

https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1701262656816100&id=100007971457742

Some aspects of Arya Bharat in southern parts

Shozhas were NOT Vellalar "Caste". Caste is a a British construct and the word derives from the Portuguese word "Casta".

As their bronzes and statues repeatedly display, like the Pandyas, the Cheras, and the Pallavas, they were Aryas, Brahmin by religion and Kshatriyas by Varna and wore the Yagnya Upaveethi.

Like Ashoka's "Magadha", the power rose from the economy. The fecundity of the well irrigated soil and distance from alien military threats, protected by the Treaty of Avvayyar* (Magadha was protected by the Treaty of Bharatha** which Ashoka destroyed) that gave them time to equip, train and strengthen.

*In the old days, there used to be a treaty across South India created by the great Spiritualist and Subrahmanya Bhaktha, Avvayyar, that held the peace for centuries.
As there was frequent famine from poor rains, the Kingdoms so afflicted would go on rampage to feed their subjects. So, Avvayyar created the first "food for work" programme that I wot of. And, so it is, that there are so many wonderful temples in the fertile Carnatic Plains, that were built by labour from less fortunate parts of the South.

**Bharatha Varsha is applicable to Bharatha Khanda (Bharatha's part) of the Aryan Empire governed by the Aryan Constitution i.e. Arya Varsha. Bharatha entered into a treaty with Arya Mihira, the paramount Chief of the Aryans of the Central Asian Steppes to pay tribute prevent any further attacks and raids on the Indo-Gangetic Plains and got all the Aryan Chiefs of the Indo-Gangetic Plain to eneter into a common code of chivalry and laws.

A Supreme Council of Brahmins representing all the Chief was created in Kashi as a Supreme Court and arbiter of disputes. Under the treaty, any attack by any outsider on any one Chief was to be considered as an attack on all and all the Chief would unite against the outsider. The Rig Vedic and Shukla Yajur Vedic Raja Suya Yajna whereby the most powerful Chief would offer the heads of all who opposed him to claim the paramount Chieftaincy was replaced with Ashwamedha Yajna of the Krishna Yajur Veda whereby duels between champions would take place for the benefit of the general populace but, in reality, once every Twelve Years, the Supreme Council would decide by a process of consensus as to who the next Chakravarthi should be. At that time the laws would be re-codified and all the out castes (law breakers) would be re integrated with society.

The tribute that was exacted from agriculture went a fifth to the agriculturist, a fifth to the temples that functioned as a welfare set up and provided free food to the needy, justice by interpreting the laws, shelter and reserve provisions in case of calamities. A fifth went to Public Works such as irrigation. A further fifth went to running the educational institutions that decided the caste of the students based on their talent and proclivity as well as for the care of widows, orphans, destitutes and travellers. The last fifth went to the ruler for military preparedness and maintenance of law and order. Over time as the Indo-Gangetic alliance grew in strength and power due to the enormous wealth and agriculture based civilization, they stopped paying tribute to Arya Mihira and the original Aryan stock who went their way. Untul the Atharva Veda period, the Druids were excluded from the benefits of the Aryan system as well as the liability to bear arms when summoned to do so by the Chiefs, except for their fifth of produce.

However, with the Agama Shastras, the Druid Agricultural and Architectural technologies entered the Aryan main stream and the Drudis became full participants and inter married with the Aryas. Ashoka was considered too young, rash and impetuous by the Supeme Council for the position of Chakravarthu which he demanded by dint of is military prowess. Thus denied, he broke the treaty of Bharatha and declared war, by surprise, on his fellow treaty members.

The Fraternity of Aryan Chiefs. (Something like the US decalring war on the other NATO members). He broke the back of the Indo-Gangetic alliance and destroyed the Aryan might together with the treaty of Bharatha. For this act of fratricide, Ashoka was declared an out caste by the Supreme Council. He then became a Budhist and, out of vengeance, destroyed all the Dravido-Aryan temples and Gurukulas bringing the Dravido Aryan Civilization, Laws, Culture and caste mobility to an end. (Note that there are no great temples or stone structures structures older than Ashoka's Sarnath in his erstwhile empire while the Ramayana describes, in detail, the countless Vimanas (towers) during that pre-temple worship Aryan age). Ultimately, as the Aryan military reputation began to fade over the Centuries and devolved into warring petty chieftains with the extinction of Bharatha Varsha, this rendered the Legendary Aryan Military Might extinct and laid India open to every possible adventurer and plunderer who came this way.

Courtesy: S Suchindranath Aiyer

Further reading, http://postcard.news/cholas-tamil-nadu-regarded-one-mighty-warriors-times/?utm_medium=onsignal&utm_source=onsignal&utm_campaign=onesignal&utm_content=onesignal

Friday, 7 April 2017

Illegal Cow Slaughter Houses are on killing rampage

Why is this not reported, Illegal Cow Slaughter Houses are on killing rampage. Below shown killings are some of the incidents which are reported by India's leading news papers, there are many more killings which go unreported by leading media.

Cattle smugglers kill a police sub-inspector in Bareilly on 10th September 2015
A sub-inspector died after being shot by some alleged cow smugglers in Bareilly. The incident took place when sub-inspector Manoj Mishra and a constable saw some persons taking away 50-60 cattle. http://www.deccanchronicle.com/150910/nation-current-affairs/article/cattle-smugglers-shot-sub-inspector-dies

Police officer crushed to death by cattle smugglers in Jaunpur on 5th August 2016
A Police Sub-Inspector Triloki Tiwari was killed after cattle-smugglers allegedly drove a pick-up van over him during a vehicle check in Jaunpur. http://www.hindustantimes.com/india-news/cornered-cattle-smugglers-crush-policeman-to-death-while-escaping/story-7LdGcoqb8ZpdQuXEIEA1LO.html

Illegal Cow Slaughter Houses Mafia kill police constable in Bhadohi on 1st June 2013
A 27-year-old police constable Ashok Kumar Yadav was killed and six policemen were injured when the jeep in which they were chasing suspected cattle smugglers was hit by them.
The incident was reported in Aurai area of Sant Ravi Das Nagar (Bhadohi) district. Bhadohi Superintendent of Police Vijay Kumar Dixit said "the police team chased them and overtook the truck, But the suspects did not stop at the toll booth, bulldozing their way through the barrier & then hitting the police team.
http://indianexpress.com/article/lucknow/constable-dies-while-chasing-cattle-smugglers/
Cow smugglers kill 2 UP Police Men in Mathura on February 20, 2015

Two policemen, including a head constable, were killed in Mathura and many others injured when they were trying to nab cow smugglers under Chatta tehsil. The vehicle ran over Ghan Shyam
and then collided with the police van resulting into injuries to head Constables Ram Vakil and Rajeev and Bhanu Pratap. Head Constables Ram Vakil & Ghan Shyam died on spot.
http://www.tribuneindia.com/news/nation/up-cow-smugglers-kill-2-cops-in-up/44501.html

Illegal Cow Slaughter houses gang kill Dalit leader in Agra on February 27, 2016
Dalit VHP leader Arun Kumar Mahaur who was shot dead as he was running a relentless campaign against cow slaughter. VHP leaders asked for Strict action against those who are behind Mahaur’s murder, Otherwise, the entire Dalit community can begin an agitation.
http://indianexpress.com/article/india/india-news-india/vhp-leader-murder-rss-vhp-say-entire-dalit-community-will-begin-stir/

Cattle smugglers kill woman after she tries to stop them from stealing cattle on 11th November 2016 in Etah
Unidentified bovine thieves killed a 20-year-old woman in the intervening night of Thursday and Friday when she caught them red-handed for stealing the cattle from backyard barn.
Identified as Yasoda, the resident of Asrauli village of Dehat kotwali area of Etah, the victim was taken to local community health centre, where she was declared brought dead. The incident
took place, at around 3am.
http://timesofindia.indiatimes.com/city/agra/Animal-smugglers-kill-woman-after-she-tries-to-stop-them-from-stealing-cattle/articleshow/55374769.cms

Bovine smugglers mow down Dalit man to steal his cattle in Firozabad district on 19th June 2016
Unidentified bovine smugglers ran over and killed a Dalit man in Firozabad district when he tried to stop them from stealing his cattle. Identified as Dinesh Kumar (35) of 'Jaatav' community
and resident of Pilkhatar Jait village of Fariha area, the victim was taken to local community health centre, where he was declared brought dead.
http://timesofindia.indiatimes.com/city/agra/Bovine-smugglers-mow-down-dalit-man-to-steal-his-cattle/articleshow/52821092.cms

Cattle smugglers kill two in UP minister's village in Bareilly on 7th February 2014
Two residents of the Bhagwat Saran Gangwar, minister's village Ahmedabad in Bareilly were killed by a gang when villagers tried to stop them from taking away the livestock of local residents for illegal slaughtering. In the first incident, an elderly person named Chokhey Lal was allegedly shot dead on Thursday night. The battered body of another resident was recovered from a spot nearby on the same night when he went in pursuit of the gang that had swooped down on the village.
http://timesofindia.indiatimes.com/city/kanpur/Now-cattle-smugglers-kill-two-in-UP-ministers-village/articleshow/29990402.cms

16-year-old girl shot by Cow smugglers in Etah districts on June 1st, 2016
Sixteen-year-old girl shot in Ahmadabad village of Etah districts when the victim Nirdesh Singh caught the accused men stealing her two cows. After the incident, tension prevailed in
the village and police force was deployed in the area for preceding 24 hours.
http://timesofindia.indiatimes.com/city/lucknow/Caught-in-the-act-cattle-thieves-shoot-at-minor-girl-in-Etah/articleshow/52535380.cms

Bajrang Dal activist Prasant Poojary who was actively involved in preventing illegal cow slaughter and transportation. Six persons in two motorcycles came to the market around 7 a.m. when Prashant Poojary (29), the deceased, and his father were selling flowers. They attacked Poojary with sharp weapons and fled, even as he collapsed on the road.
http://www.thehindu.com/todays-paper/tension-in-moodbidri-after-murder/article7745045.ece

Courtesy: Shubam Singh

Thursday, 6 April 2017

अमर बलिदानी चंद्रशेखर आज़ाद व उनकी माँ का अपमान, स्वतंत्रता के बाद भी

यह सच किसी से हजम ना होगा।

भारत माता के अजर अमर बलिदानी सपूत चंद्रशेखर आज़ाद और उनकी माता की पुण्य स्मृतियों के साथ यमराजी कांग्रेस सरकार द्वारा किये गए खूनी तांडव के राक्षसी सच से परिचित होंने से पहले चंद पंक्तियों में उस सच की पृष्ठभूमि से भी परिचित हो लीजिये...
27 फ़रवरी 1931 को चंद्रशेखर आज़ाद की शहादत के कुछ वर्षों बाद उनके पिता जी की भी मृत्यु हो गयी थी. आज़ाद के भाई की मृत्यु भी इससे पहले ही हो चुकी थी. अत्यंत निर्धनावस्था में हुई उनके पिता की मृत्यु के पश्चात आज़ाद की निर्धन निराश्रित वृद्ध माताश्री उस वृद्धावस्था में भी किसी के आगे हाथ फ़ैलाने के बजाय जंगलों में जाकर लकड़ी और गोबर बीनकर लाती थी तथा कंडे और लकड़ी बेचकर अपना पेट पालती रहीं. लेकिन वृद्ध होनेके कारण इतना काम नहीं कर पाती थीं कि भरपेट भोजन का प्रबंध कर सकें. अतः कभी ज्वार कभी बाज़रा खरीद कर उसका घोल बनाकर पीती थीं क्योंकि दाल चावल गेंहू और उसे पकाने का ईंधन खरीदने लायक धन कमाने की शारीरिक सामर्थ्य उनमे शेष ही नहीं रह गयी थी उनकी यह स्थिति देश को आज़ादी मिलने के 2 वर्ष बाद(1949 ) तक जारी रही। (यहां आज की पीढ़ी के लिए उल्लेख कर दूँ कि उस दौर में ज्वार और बाज़रा को ''मोटा अनाज'' कहकर बहुत उपेक्षित और हेय दृष्टि से देखा जाता था और इनका मूल्य गेंहू से बहुत कम होता था )
अगस्त 1947 तक कभी जेल कभी फरारी में फंसे रहे चंद्रशेखर आज़ाद के क्रन्तिकारी साथी सदाशिव राव मलकापुरकर को जब आज़ाद की माता की इस स्थिति के विषय में पता चला तो वे उनको लेने उनके घर पहुंचे. उस स्वाभिमानी माँ ने अपनी उस दीनहीन दशा के बावजूद उनके साथ चलने से इनकार कर दिया था।तब चंद्रशेखर आज़ाद जी को दिए गए अपने एक वचन का वास्ता देकर सदाशिव जी उन्हें अपने साथ अपने घर झाँसी लेकर आये थे,क्योंकि उनकी स्वयं की स्थिति अत्यंत जर्जर होने के कारण उनका घर बहुत छोटा था अतः उन्होंने आज़ाद के ही एक अन्य मित्र भगवान दास माहौर के घर पर आज़ाद की माताश्री के रहने का प्रबंध किया था और उनके अंतिम क्षणों तक उनकी सेवा और सम्मान अपनी माँ के समान करते हुए उनका अंतिम संस्कार स्वयं अपने हाथों से ही किया था. अपनी भयानक आर्थिक स्थिति के बावजूद सदाशिव जी ने चंद्रशेखर आज़ाद को दिए गए अपने वचन के अनुरूप आज़ाद की माताश्री को अनेक तीर्थस्थानों की तीर्थ यात्रायें अपने साथ ले जाकर करवायी थीं।
अब यहाँ से प्रारम्भ होता है वो खूनी अध्याय जो कांग्रेस की राक्षसी राजनीति के उस भयावह चेहरे और चरित्र को नंगा करता है जिसके रोम-रोम में चंद्रशेखर आज़ाद सरीखे क्रांतिकारियों के प्रति केवल और केवल जहर ही भरा हुआ था।
मार्च 1951 में चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री के देहांत के पश्चात झाँसी की जनता ने उनकी स्मृति में उनके नाम से एक सार्वजनिक प्याऊ की स्थापना की थी. प्रदेश की तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने प्याऊ के निर्माण को झाँसी की जनता की अवैध और गैरकानूनी गतिविधि घोषित कर दिया था,किन्तु झाँसी के राष्ट्रभक्त नागरिकों ने कांग्रेसी सरकार के उस शासनादेश को "टॉयलेट पेपर" से भी कम महत्व देते हुए उस प्याऊ के पास ही चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की मूर्ति स्थापित करने का फैसला कर लिया था।
आज़ाद के ही एक अन्य साथी तथा कुशल शिल्पकार रूद्र नारायण सिंह जी ने आज़ाद की माताश्री के चेहरे की प्रतिमा तैयार कर दी थी. झाँसी के नागरिकों के इन राष्ट्रवादी तेवरों से तिलमिलाई बिलबिलाई कांग्रेस की सरकार अब तक अपने वास्तविक राक्षसी रूप में आ चुकी थी. उसने अमर बलिदानी चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की मूर्ति स्थापना को देश,समाज और झाँसी की कानून व्यवस्था के लिए खतरा घोषित कर उनकी मूर्ति स्थापना के कार्यक्रम को प्रतिबंधित कर के पूरे झाँसी शहर में कर्फ्यू लगाकर चप्पे चप्पे पर पुलिस तैनात कर दी थी ताकि अमर बलिदानी चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की मूर्ति की स्थापना ना की जा सके. कांग्रेसी सरकार के इस यमराजी रूप के खिलाफ आज़ाद के अभिन्न मित्र सदाशिव जी ने ही कमान संभाली थी और चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की मूर्ति अपने सिर पर रखकर इस एलान के साथ कर्फ्यू तोड़कर अपने घर से निकल पड़े थे कि यदि चंद्रशेखर आज़ाद ने मातृभूमि के लिए अपने प्राण बलिदान कर दिए थे तो आज मुझे अवसर मिला है कि उनकी माताश्री के सम्मान के लिए मैं अपने प्राणों का बलिदान कर दूं।
अपने इस एलान के साथ आज़ाद की माताश्री की मूर्ति अपने सिर पर रखकर प्याऊ की तरफ चल दिए सदाशिव जी के साथ झाँसी के राष्ट्रभक्त नागरिक भी चलना प्रारम्भ हो गए थे।
अपने रावणी आदेश की झाँसी की सडकों पर बुरी तरह उड़ती धज्जियों से तिलमिलाई कांग्रेस की उस यमराजी सरकार ने अपनी पुलिस को सदाशिव जी को गोली मार देने का आदेश दे डाला था किन्तु आज़ाद की माताश्री की प्रतिमा को अपने सिर पर रखकर प्याऊ की तरफ बढ़ रहे सदाशिव जी को जनता ने चारों तरफ से अपने घेरे में लेकर आगे बढ़ना शुरू कर दिया था अतः सरकार ने उस भीड़ पर भी गोली चलाने का आदेश दे डाला था।
परिणाम स्वरूप झाँसी की उस निहत्थी निरीह राष्ट्रभक्त जनता पर यमराजी कांग्रेस सरकार की पुलिस की बंदूकों के बारूदी अंगारे मौत बनकर बरसने लगे थे सैकड़ों लोग घायल हुए, दर्जनों लोग जीवन भर के लिए अपंग हुए और तीन लोग मौत के घाट उतर गए थे।
यमराजी कांग्रेसी सरकार के इस खूनी तांडव का परिणाम यह हुआ था कि चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की मूर्ति स्थापित नहीं हो सकी थी और आते जाते अनजान नागरिकों की प्यास बुझाने के लिए उनकी स्मृति में बने प्याऊ को भी पुलिस ने ध्वस्त कर दिया था।
अमर बलिदानी चंद्रशेखर आज़ाद की माताश्री की 2-3 फुट की मूर्ति के लिए उस देश में 5 फुट जमीन भी देने से यमराजी कांग्रेस सरकार ने इनकार कर दिया था जिस देश के लिए चंद्रशेखर आज़ाद ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए थे।
उचित समझे तो इतना शेयर करिये कि सारा देश विशेषकर आज की नौजवान पीढ़ी का हर सदस्य इस सच से परिचित हो सके क्योंकि 65 सालों से कांग्रेस ने बहुत कुटिलता और कपट के साथ अपने ऐसे यमराजी कारनामों को हमसे आपसे छुपा कर रखा है और 67 सालों से हमे सिर्फ यह समझाने की कोशिश की है कि देश की आज़ादी का इकलौता ठेकेदार मोहनदास करम चंद गांधी व उसके चमचे जवाहरलाल और इस जोड़ी का कांग्रेसी गैंग ही था।  #copy

साभार: https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1504212399610689&id=100000658290563

Wednesday, 5 April 2017

समाज का कृतज्ञ रहिए

समाज का कृतज्ञ रहिए।
वैसे तो समाज एक अमूर्त अवधारणा है, जिसकी साधारण सी परिभाषा है "संबंधों का जाल ही समाज है,।अगर आप कहीं गलत समाज में फंस गए तो बिल्कुल बंदर हो जाएंगे, या भेड़िया हो जाएंगे या जानवर बन जाएंगे,आपका बर्ताव,स्वभाव,हाव-भाव सब सब पशुवत ससमाज के आचरण में तब्दील हो जाएगा।वैसा ही बन जाएंगे जैसा समाज आपको बनाएगा।हमने बचपन में रामू भेड़िया की घटनाएं सुनी होंगी,लेकिन अब यह नीचे लीजिए एक और खबर पढ़िए।इस अखबार की कतरन से।यह आज दिनांक 6 अप्रैल 2017 को  दैनिक जागरण,पृष्ठ 15 पर छपा है।यह छोटी बच्ची बंदरो के बीच में न जाने की रह गई और उन्हीं के हाव-भाव,बोलचाल,जीने-खाने के तरीके में बदल गई।उन्हीं की संस्कृति सीख लिया। तो आप जिस संस्कृति, जिस समाज,जिस जीवनशैली में रहते हैं वही बन जाते हैं।वैसा ही सोचने लगते हैं,वैसा ही करने लगते हैं।आप थोड़ा और गहरे सोचिए और अंदर जाइए।हमें हमारे मानव समाज ने क्या दिया है उस पर कृतज्ञ रहिए।क्योंकि जो जी खा रहे हैं, बोल रहे हैं, बतिया रहे हैं,चल फिर रहे हैं या आप सोच रहे हैं उसकी 90 परसेंट से अधिक चीजें समाज की देन है।आपके सामूहिक जीवन ने आपको बोलने से लेकर लाखो चीजे दी है।अगर आप समाज द्रोही हैं तो यह और खतरनाक है।अगर समाज ही खराब है तो फिर वह खुद खत्म हो जाएगा।समाज के प्रभाव से ही आप मनुष्य जैसा कुछ सीखते-बनते है।सोशलाइजेशन के दौरान समाज जैसा सोचता है वैसे ही आप सोचने-करने लगते हैं।ऐसे समाजों से बचकर रहिए जो इतिहास से,पितरो से,मातृभूमि के प्रति आस्था से,इसके लिए लड़-कटने वाले स्वाभिमानी भाव से रोकता है।उसे आप त्याग दीजिये। कुल मिला कर के आप वही पैदा कर लेते हैं जो आपका समाज देता है।उन समाजों पर भी चिंतन करते रहिए। आप का परम कर्तव्य है कि ऐसे समाजों से बचे और दुनिया को बचाइए जो समस्त दुनिया के लिए खतरनाक है। अहंकार युक्त समाज दूसरे के अस्तित्व को खतरे में डालता है। चलते-चलते मैं एक बात जरुर कहना चाहूंगा कि हिन्दू समाज के प्रति उसकी देनो,प्रव्रृत्तियो,गुण,धर्म के प्रति हमेशा कृतज्ञ रहिए क्योंक़ि वह एकमात्र समाज है जो पूर्ण लोकतांत्रिक,और सेकंड-इक्झिस्टेंट को भी सम्मान देता है।

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Tuesday, 4 April 2017

क्या वेदों में पशुबलि, मांसाहार आदि का विधान है ?

वेदों के विषय में सबसे अधिक प्रचलित अगर कोई शंका है तो वह है कि क्या वेदों में पशुबलि, मांसाहार आदि का विधान है ?

इस भ्रांति के होने के मुख्य-मुख्य कुछ कारण हैं। सर्वप्रथम तो पाश्चात्य विद्वानों जैसे मैक्समुलर [i], ग्रिफ्फिथ [ii] आदि द्वारा यज्ञों में पशुबलि, मांसाहार आदि का विधान मानना, द्वितीय मध्यकाल के आचार्यों जैसे सायण [iii], महीधर [iv] आदि का यज्ञों में पशुबलि का समर्थन करना, तीसरा ईसाइयों, मुसलमानों आदि द्वारा मांसभक्षण के समर्थन में वेदों की साक्षी देना [v], चौथा साम्यवादी अथवा नास्तिक विचारधारा [vi] के समर्थकों द्वारा सुनी-सुनाई बातों को बिना जांचे बार-बार रटना।

किसी भी सिद्धांत अथवा किसी भी तथ्य को आंख बंद कर मान लेना बुद्धिमान लोगों का लक्षण नहीं है। हम वेदों के सिद्धांत की परीक्षा वेदों की साक्षी द्वारा करेंगे जिससे कि हमारी भ्रांति का निराकरण हो सके।

शंका 1. क्या वेदों में मांसभक्षण का विधान है?

समाधान : वेदों में मांसभक्षण का स्पष्ट निषेध किया गया है। अनेक वेद मंत्रों में स्पष्ट रूप से किसी भी प्राणी को मारकर खाने का स्पष्ट निषेध किया गया हैं, जैसे

हे मनुष्यों! जो गौ आदि पशु हैं वे कभी भी हिंसा करने योग्य नहीं हैं। -यजुर्वेद 1।1

जो लोग परमात्मा के सहचरी प्राणीमात्र को अपनी आत्मा का तुल्य जानते हैं अर्थात जैसे अपना हित चाहते हैं, वैसे ही अन्यों में भी व्रतते हैं। -यजुर्वेद 40।7

हे दांतों तुम चावल खाओ, जौ खाओ, उड़द खाओ और तिल खाओ। तुम्हारे लिए यही रमणीय भोज्य पदार्थों का भाग है। तुम किसी भी नर और मादा की कभी हिंसा मत करो। -अथर्ववेद 6।140।2

वह लोग जो नर और मादा, भ्रूण और अंडों के नाश से उपलब्ध हुए मांस को कच्चा या पकाकर खाते हैं, हमें उनका विरोध करना चाहिए। -अथर्ववेद 8।6।23

निर्दोषों को मारना निश्चित ही महापाप है, हमारे गाय, घोड़े और पुरुषों को मत मार। -अथर्ववेद 10।1।29

इन मंत्रों में स्पष्ट रूप से यह संदेश दिया गया है कि वेदों के अनुसार मांसभक्षण निषेध है।

शंका 2. क्या वेदों के अनुसार यज्ञों में पशुबलि का विधान है?

समाधान : यज्ञ की महता का गुणगान करते हुए वेद कहते हैं कि सत्यनिष्ठ विद्वान लोग यज्ञों द्वारा ही पूजनीय परमेश्वर की पूजा करते हैं। [vii]

यज्ञों में सब श्रेष्ठ धर्मों का समावेश होता है। यज्ञ शब्द जिस यज् धातु से बनता है। उसके देवपूजा, संगतिकरण और दान हैं इसलिए यज्ञों वै श्रेष्ठतमं कर्म [viii] एवं यज्ञो हि श्रेष्ठतमं कर्म [ix] इत्यादि कथन मिलते हैं। यज्ञ न करने वाले के लिए वेद कहते हैं कि जो यज्ञमयी नौका पर चढ़ने में समर्थ नहीं होते वे कुत्सित, अपवित्र आचरण वाले होकर यही इस लोक में नीचे-नीचे गिरते जाते हैं। [x]

एक ओर वेद यज्ञ की महिमा को परमेश्वर की प्राप्ति का साधन बताते हैं दूसरी ओर वैदिक यज्ञों में पशुबलि का विधान भ्रांत धारणा मात्र है।

यज्ञ में पशुबलि का विधान मध्यकाल की देन है। प्राचीनकाल में यज्ञों में पशुबलि आदि प्रचलित नहीं थे। मध्यकाल में जब गिरावट का दौर आया तब मांसाहार, शराब आदि का प्रयोग प्रचलित हो गया।

सायण, महीधर आदि के वेद भाष्य में मांसाहार, हवन में पशुबलि, गाय, अश्व, बैल आदि का वध करने की अनुमति थी जिसे देखकर मैक्समुलर, विल्सन [xi], ग्रिफ्फिथ आदि पाश्चात्य विद्वानों ने वेदों से मांसाहार का भरपूर प्रचार कर न केवल पवित्र वेदों को कलंकित किया अपितु लाखों निर्दोष प्राणियों को मरवाकर मनुष्य जाति को पापी बना दिया।

मध्यकाल में हमारे देश में वाम मार्ग का प्रचार हो गया था, जो मांस, मदिरा, मैथुन, मीन आदि से मोक्ष की प्राप्ति मानता था। आचार्य सायण आदि यूं तो विद्वान थे, पर वाम मार्ग से प्रभावित होने के कारण वेदों में मांसभक्षण एवं पशु बलि का विधान दर्शा बैठे।

निरीह प्राणियों के इस तरह कत्लेआम एवं बोझिल कर्मकांड को देखकर ही महात्मा बुद्ध [xii] एवं महावीर ने वेदों को हिंसा से लिप्त मानकर उन्हें अमान्य घोषित कर दिया जिससे वेदों की बड़ी हानि हुई एवं अवैदिक मतों का प्रचार हुआ जिससे क्षत्रिय धर्म का नाश होने से देश को गुलामी सहनी पड़ी।

इस प्रकार वेदों में मांसभक्षण के गलत प्रचार के कारण देश की कितनी हानि हुई, इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। एक ओर वेदों में जीव रक्षा और निरामिष भोजन का आदेश है तो दूसरी ओर उसके विपरीत उन्हीं वेदों में पशु आदि की यज्ञों में बलि तर्क संगत नहीं लगती है।

स्वामी दयानंद [xiii] ने वेदभाष्य में मांसभक्षण, पशुबलि आदि को लेकर जो भ्रांति देश में फैली थी, उसका निवारण कर साधारण जनमानस के मन में वेद के प्रति श्रद्धाभाव उत्पन्न किया। वेदों में यज्ञों में पशुबलि के विरोध में अनेक मंत्रों का विधान हैं, जैसे-

यज्ञ के विषय में अध्वर शब्द का प्रयोग वेद मंत्रों में हुआ है जिसका अर्थ निरुक्त [xiv] के अनुसार हिंसारहित कर्म है।

हे ज्ञानस्वरूप परमेश्वर, तू हिंसारहित यज्ञों (अध्वर) में ही व्याप्त होता है और ऐसे ही यज्ञों को सत्यनिष्ठ विद्वान लोग सदा स्वीकार करते हैं। -ऋग्वेद 1/1/4

यज्ञ के लिए अध्वर शब्द का प्रयोग ऋग्वेद 1/1/8, ऋग्वेद 1/14/21,ऋग्वेद 1/128/4 ऋग्वेद 1/19/1, ऋग्वेद 3/21/1, सामवेद 2/4/2, अथर्ववेद 4/24/3, अथर्ववेद 1/4/2 इत्यादि मंत्रों में इसी प्रकार से हुआ है। अध्वर शब्द का प्रयोग चारों वेदों में अनेक मंत्रों में होना हिंसारहित यज्ञ का उपदेश है।

हे प्रभु! मुझे सब प्राणी मित्र की दृष्टि से देखें, मैं सब प्राणियों को मित्र की प्रेममय दृष्टि से देखूं, हम सब आपस में मित्र की दृष्टि से देखें। -यजुर्वेद 36/18

यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म के नाम से पुकारते हुए उपदेश है कि पशुओं की रक्षा करें। -यजुर्वेद 1 /1

पति-पत्नी के लिए उपदेश है कि पशुओं की रक्षा करें। -यजुर्वेद 6/11

हे मनुष्य, तू दो पैर वाले अर्थात अन्य मनुष्यों एवं चार पैर वाले अर्थात पशुओं की भी सदा रक्षा कर। -यजुर्वेद 14 /8

चारों वेदों में दिए गए अनेक मंत्रों से यह सिद्ध होता है कि यज्ञों में हिंसारहित कर्म करने का विधान है एवं मनुष्य को अन्य पशु-पक्षियों की रक्षा करने का स्पष्ट आदेश है।

शंका 3. क्या वेदों में वर्णित अश्वमेध, नरमेध, अजमेध, गोमेध में घोड़ा, मनुष्य, गौ की यज्ञों में बलि देने का विधान नहीं है? मेध का मतलब है मारना जिससे यह सिद्ध होता है?

समाधान : मेध शब्द का अर्थ केवल हिंसा नहीं है। मेध शब्द के 3 अर्थ हैं- 1. मेधा अथवा शुद्ध बुद्धि को बढ़ाना, 2. लोगों में एकता अथवा प्रेम को बढ़ाना, 3. हिंसा। इसलिए मेध से केवल हिंसा शब्द का अर्थ ग्रहण करना उचित नहीं है।

जब यज्ञ को अध्वर अर्थात ‘हिंसारहित' कहा गया है तो उसके संदर्भ में ‘मेध' का अर्थ हिंसा क्यों लिया जाए? बुद्धिमान व्यक्ति ‘मेधावी' कहे जाते हैं और इसी तरह लड़कियों का नाम मेधा, सुमेधा इत्यादि रखा जाता है, तो क्या ये नाम क्या उनके हिंसक होने के कारण रखे जाते हैं? या बुद्धिमान होने के कारण?

अश्वमेध शब्द का अर्थ यज्ञ में अश्व की बलि देना नहीं है अपितु शतपथ 13.1.6.3 और 13.2.2.3 के अनुसार राष्ट्र के गौरव, कल्याण और विकास के लिए किए जाने वाले सभी कार्य 'अश्वमेध' है [xv]।

गौमेध का अर्थ यज्ञ में गौ की बलि देना नहीं है अपितु अन्न को दूषित होने से बचाना, अपनी इन्द्रियों को वश में रखना, सूर्य की किरणों से उचित उपयोग लेना, धरती को पवित्र या साफ रखना ‘गोमेध' यज्ञ है। ‘गो’ शब्द का एक और अर्थ है पृथ्वी। पृथ्वी और उसके पर्यावरण को स्वच्छ रखना ‘गोमेध’ कहलाता है। [xvi]

नरमेध का अर्थ है मनुष्य की बलि देना नहीं है अपितु मनुष्य की मृत्यु के बाद उसके शरीर का वैदिक रीति से दाह-संस्कार करना नरमेध यज्ञ है। मनुष्यों को उत्तम कार्यों के लिए प्रशिक्षित एवं संगठित करना नरमेध या पुरुषमेध या नृमेध यज्ञ कहलाता है।

अजमेध का अर्थ बकरी आदि की यज्ञ में बलि देना नहीं है अपितु अज कहते हैं बीज, अनाज या धान आदि कृषि की पैदावार बढ़ाना है। अजमेध का सीमित अर्थ अग्निहोत्र में धान आदि की आहुति देना है। [xvii]

शंका 4 : यजुर्वेद मंत्र 24/29 में हस्तिन आलभते अर्थात हाथियों को मारने का विधान है।

समाधान : 'लभ्’ धातु से बनने वाले आलम्भ शब्द का अर्थ मारना नहीं अपितु अच्छी प्रकार से प्राप्त करना, स्पर्श करना या देना होता है। हस्तिन शब्द का अर्थ अगर हाथी लें तो इस मंत्र में राजा को अपने राज्य के विकास हेतु हाथी आदि को प्राप्त करना, अपनी सेनाओं को सुदृढ़ करना बताया गया है। यहां पर हिंसा का कोई विधान नहीं है।

पारस्कर सूत्र 2 /2/16 में कहा गया है कि आचार्य ब्रह्मचारी का आलम्भ अर्थात हृदय का स्पर्श करता है। यहां पर आलम्भ का अर्थ स्पर्श आया है।

पारस्कर सूत्र 1/8/8 में ही आया है कि वर वधू के दक्षिण कंधे के ऊपर हाथ ले जाकर उसके हृदय का स्पर्श करे। यहां पर भी आलम्भ का अर्थ स्पर्श आया है।

अगर यहां पर आलम्भ शब्द का अर्थ मारना ग्रहण करें तो यह कैसे युक्तिसंगत एवं तर्कसंगत सिद्ध होगा? इससे सिद्ध होता है कि आलम्भ शब्द का अर्थ ग्रहण करना, प्राप्त करना अथवा स्पर्श करना है।

शंका 5 : वेद, ब्राह्मण एवं सूत्र ग्रंथों में संज्ञपन शब्द आया है जिसका अर्थ पशु को मारना है?

समाधान : संज्ञपन शब्द का अर्थ है ज्ञान देना, दिलाना तथा मेल कराना। अथर्ववेद 6/10/14-15 में लिखा है कि तुम्हारे मन का ज्ञानपूर्वक अच्छी प्रकार (संज्ञपन) मेल हो, तुम्हारे हृदयों का ज्ञानपूर्वक अच्छी प्रकार (संज्ञपन) मेल हो।

इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण 1/4 में एक आख्यानिका है जिसका अर्थ है- मैं वाणी तुझ मन से अधिक अच्छी हूं, तू जो कुछ मन में चिंतन करता है मैं उसे प्रकट करती हूं, मैं उसे अच्छी प्रकार से दूसरों को जतलाती हूं (संज्ञपयामी)। संज्ञपन शब्द का मेल के स्थान पर हिंसापरक अर्थ करना अज्ञानता का परिचायक है।

शंका 6 : वेदों में गोघ्न अर्थात गायों के वध करने का आदेश है।

समाधान : गोघ्न शब्द में हन धातु का प्रयोग है जिसके दो अर्थ बनते हैं हिंसा और गति। गोघ्न में उसका गति अथवा ज्ञान, गमन, प्राप्ति विषयक अर्थ है। मुख्य भाव यहां प्राप्ति का है अर्थात जिसे उत्तम गौ प्राप्त कराई जाए।

हिंसा के प्रकरण में वेद का उपदेश गौ की हत्या करने वाले से दूर रहने का है।

ऋग्वेद 1/114 /10 में लिखा है, जो गोघ्न (गौ की हत्या करने वाला) है, वह नीच पुरुष है। वह तुमसे दूर ही रहे।

वेदों के कई उदाहरणों से पता चलता है कि ‘हन्’ का प्रयोग किसी के निकट जाने या पास पहुंचने के लिए भी किया जाता है। उदाहरण में अथर्ववेद 6/101/1 में पति को पत्नी के पास जाने का उपदेश है।

इस मंत्र का यह अर्थ कि पति पत्नी के पास जाए उचित प्रतीत होता है न कि पति द्वारा पत्नी को मारना उचित सिद्ध होता है इसलिए हनन का केवल हिंसा अर्थ गलत परिप्रेक्ष्य में प्रयोग करना भ्रम फैलाने के समान है।

शंका 7. वेदों में अतिथि को भोजन में गौ आदि का मांस पकाकर खिलाने का आदेश है।

समाधान- ऋग्वेद के मंत्र 10/68 /3 में अतिथिनीर्गा: का अर्थ अतिथियों के लिए गौए किया गया है जिसका तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के आने पर गौ को मारकर उसके मांस से उसे तृप्त किया जाता था।

यहां पर जो भ्रम हुआ है उसका मुख्य कारण अतिथिनी शब्द को समझने की गलती के कारण हुआ है। यहां पर उचित अर्थ बनता है ऐसी गौएं जो अतिथियों के पास दानार्थ लाई जाएं, उन्हें दान की जाएं।

Monier Williams ने भी अपनी संस्कृत-इंग्लिश शब्दकोश में अतिथिग्व का अर्थ "To whom guests should go" (P.14) अर्थात जिसके पास अतिथि प्रेमवश जाएं ऐसा किया है। श्री Bloomfield ने भी इसका अर्थ "Presenting cows to guests" अर्थात अतिथियों को गौएं भेंट करने वाला ही किया है। अतिथि को गौमांस परोसना कपोल-कल्पित है। [xviii]

शंका 8. वेदों में बैल को मारकर खाने का आदेश है?

समाधान- यह भी एक भ्रांति है कि वेदों में बैल को खाने का आदेश है। वेदों में जैसे गौ के लिए अघन्या अर्थात न मारने योग्य शब्द का प्रयोग है उसी प्रकार से बैल के लिए अघ्न्य शब्द का प्रयोग है।

यजुर्वेद 12/73 में अघन्या शब्द का प्रयोग बैल के लिए हुआ है। इसकी पुष्टि सायणाचार्य ने काण्वसंहिता में भी की है। इसी प्रकार से अथर्ववेद 9/4/17 में लिखा है कि बैल सींगों से अपनी रक्षा स्वयं करता है, परंतु मानव समाज को भी उसकी रक्षा में भाग लेना चाहिए।

अथर्ववेद 9/4/19 मंत्र में बैल के लिए अघन्य और गौ के लिए अघन्या शब्दों का वर्णन मिलता है। यहां पर लिखा है कि ब्राह्मणों को ऋषभ (बैल) का दान करके यह दाता अपने को स्वार्थ त्याग द्वारा श्रेष्ठ बनाता है। वह अपनी गोशाला में बैलों और गौओं की पुष्टि देखता है।

अथर्ववेद 9/4/20 मंत्र में जो सत्पात्र में वृषभ (बैल) का दान करता है उसकी गौएं संतान आदि उत्तम रहती हैं।

इन उदाहरणों से यह सिद्ध होता है कि गौ के साथ-साथ बैल की रक्षा का वेद संदेश देते हैं।

शंका 9. वेद में वशा/ वंध्या अर्थात वृद्ध गौ अथवा बैल (उक्षा) को मारने का विधान है?

समाधान- शंका का कारण ऋग्वेद 8/43/11 मंत्र के अनुसार वन्ध्या गौओं की अग्नि में आहुति देने का विधान बताया गया है। यह सर्वथा अशुद्ध है।

इस मंत्र का वास्तविक अर्थ निघण्टु 3/3 के अनुसार यह है कि जैसे महान सूर्य आदि भी जिसके प्रलयकाल में (वशा) अन्न व भोज्य के समान हो जाते हैं, इसका शतपथ 5/1/3 के अनुसार अर्थ है पृथ्वी भी जिसके (वशा) अन्न के समान भोज्य है ऐसे परमेश्वर की नमस्कारपूर्वक स्तुतियों से सेवा करते हैं।

वेदों के विषय में इस भ्रांति के होने का मुख्य कारण वशा, उक्षा, ऋषभ आदि शब्दों के अर्थ न समझ पाना है। यज्ञ प्रकरण में उक्षा और वशा दोनों शब्दों के औषधिपरक अर्थ का ग्रहण करना चाहिए जिन्हें अग्नि में डाला जाता है। सायणाचार्य एवं मोनियर विलियम्स के अनुसार उक्षा शब्द के अर्थ सोम, सूर्य, ऋषभ नामक औषधि है।

वशा शब्द के अन्य अर्थ अथर्ववेद 1/10/1 के अनुसार ईश्वरीय नियम वा नियामक शक्ति है। शतपथ 1/8/3/15 के अनुसार वशा का अर्थ पृथ्वी भी है। अथर्ववेद 20/103/15 के अनुसार वशा का अर्थ संतान को वश में रखने वाली उत्तम स्त्री भी है।

इस सत्यार्थ को न समझकर वेद मंत्रों का अनर्थ करना निंदनीय है।

शंका 10. वेदादि धर्मग्रंथों में माष शब्द का उल्लेख हैं जिसका अर्थ मांस खाना है।

समाधान- माष शब्द का प्रयोग ‘माषौदनम्' के रूप में हुआ है। इसे बदलकर किसी मांसभक्षी ने मांसौदनम् अर्थ कर दिया है। यहां पर माष एक दाल के समान वर्णित है इसलिए यहां मांस का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

आयुर्वेद (सुश्रुत संहिता शरीर अध्याय 2) गर्भवती स्त्रियों के लिए मांसाहार को सख्त मना करता है और उत्तम संतान पाने के लिए माष (दाल) सेवन को हितकारी कहता है। इससे क्या स्पष्ट होता है। यही कि माष शब्द का अर्थ मांसाहार नहीं अपितु दाल आदि को खाने का आदेश है। फिर भी अगर कोई माष को मांस ही कहना चाहे, तब भी मांस को निरुक्त 4/1/3 के अनुसार मनन साधक, बुद्धिवर्धक और मन को अच्छी लगने वाली वास्तु जैसे फलका गूदा, खीर आदि कहा गया है। प्राचीन ग्रंथों में मांस अर्थात गूदा खाने के अनेक प्रमाण मिलते है, जैसे चरक संहिता देखे में आम्रमांसं (आम का गूदा), खजूरमांसं (खजूर का गूदा), तैत्तरीय संहिता 2.32.8 (दही, शहद और धान) को मांस कहा गया है।

इससे यही सिद्ध होता है कि वेदादि शास्त्रों में जहां पर माष शब्द आता है अथवा मांस के रूप में भी जिसका प्रयोग हुआ है उसका अर्थ दाल अथवा फलों का मध्य भाग अर्थात गूदा है।

शंका 11. वेदों में यज्ञ में घोड़े की बलि देने का और घोड़े का मांस पकाने का वेदों में आदेश है।

समाधान- यजुर्वेद के 25 अध्याय में सायण, महीधर, उव्वट, ग्रिफ्फिथ, मैक्समुलर आदि ने अश्व हिंसापरक अर्थ किए हैं। इसका मुख्य कारण वाजिनम् शब्द के अर्थ को न समझना है। वाजिनम् का अश्व के साथ-साथ अन्य अर्थ है शूर, बलवान, गतिशील और तेज।

यजुर्वेद के 25/34 मंत्र का अर्थ करते हुए सायण लिखते हैं कि अग्नि से पकाए, मरे हुए तेरे अवयवों से जो मांस-रस उठता है वह भूमि या तृण पर न गिरे, वह चाहते हुए देवों को प्राप्त हो।

इस मंत्र का अर्थ स्वामी दयानंद वेद भाष्य में लिखते हैं- हे मनुष्य, जो ज्वर आदि से पीड़ित अंग हो उन्हें वैद्यजनों से निरोग कराना चाहिए। चूंकि उन वैद्यजनों द्वारा जो औषध दी जाती है वह रोगीजन के लिए हितकारी होती है एवं मनुष्य को व्यर्थ वचनों का उच्चारण न करना चाहिए, किंतु विद्वानों के प्रति उत्तम वचनों का ही सदा प्रयोग करना चाहिए।

अश्व की हिंसा के विरुद्ध यजुर्वेद 13/47 मंत्र का शतपथकार ने पृष्ठ 668 पर अर्थ लिखा है कि अश्व की हिंसा न कर।

यजुर्वेद 25/44 के यज्ञ में घोड़े की बलि के समर्थन में अर्थ करते हुए सायण लिखते हैं कि हे अश्व! तू अन्य अश्वों की तरह मरता नहीं, चूंकि तुझे देवत्व प्राप्ति होगी और न हिंसित होता है, क्यूंकि व्यर्थ हिंसा का यहां अभाव है। प्रत्यक्ष रूप में अवयव नाश होते हुए ऐसा कैसे कहते हो? इसका उत्तर देते हैं कि सुंदर देवयान मार्गों से देवों को तू प्राप्त होता है इसलिए यह हमारा कथन सत्य है।

इस मंत्र का स्वामी दयानंद अर्थ करते हैं कि जैसे विद्या से अच्छे प्रकार प्रयुक्त अग्नि, जल, वायु इत्यादि से युक्त रथ में स्थित होकर मार्गों से सुख से जाते हैं, वैसे ही आत्मज्ञान से अपने स्वरूप को नित्य जान के मरण और हिंसा के डर को छोड़कर दिव्य सुखों को प्राप्त हो।

पाठक स्वयं विचार करें ‍कि कहां स्वामी दयानंद द्वारा किया गया सच्चा उत्तम अर्थ और कहां सायण आदि के हिंसापरक अर्थ। दोनों में आकाश-पाताल का भेद है। ऐसा ही भेद वेद के उन सभी मंत्रों में है जिनका अर्थ हिंसापरक रूप में किया गया है अत: वे मानने योग्य नहीं हैं।

शंका 12. क्या वेदों के अनुसार इंद्र देवता बैल खाता है?

समाधान- इंद्र द्वारा बैल खाने के समर्थन में ऋग्वेद 10/28/3 और 10/86/14 मंत्र का उदाहरण दिया जाता है। यहां पर वृषभ और उक्षन् शब्दों के अर्थ से अनभिज्ञ लोग उनका अर्थ बैल कर देते हैं। ऋग्वेद में लगभग 20 स्थलों पर अग्नि को, 65 स्थलों पर इंद्र को, 11 स्थलों पर सोम को, 3 स्थलों पर पर्जन्य को, 5 स्थलों पर बृहस्पति को, 5 स्थलों पर रुद्र को वृषभ कहा गया है [xix]। व्याख्याकारों के अनुसार वृषभ का अर्थ यज्ञ है।

उक्षन् शब्द का अर्थ ऋग्वेद में अग्नि, सोम, आदित्य, मरुत आदि के लिए प्रयोग हुआ है। जब वृषभ और उक्षन् शब्दों के इतने सारे अर्थ वेदों में दिए गए हैं, तब उनका व्यर्थ ही बैल अर्थ कर उसे इंद्र को खिलाना युक्तिसंगत एवं तर्कपूर्ण नहीं है।

इसी संदर्भ में ऋग्वेद में इंद्र के भोज्य पदार्थ निरामिषरूपी धान, करम्भ, पुरोडाश तथा पेय सोमरस है, न कि बैल को बताया गया है। [xx]

शंका 13. वेदों में गौ का क्या स्थान है?

समाधान- यजुर्वेद 8/43 में गाय का नाम इडा, रंता, हव्या, काम्या, चन्द्रा, ज्योति, अदिति, सरस्वती, महि, विश्रुति और अघन्या [xxi] कहा गया है। स्तुति की पात्र होने से इडा, रमयित्री होने से रंता, इसके दूध की यज्ञ में आहुति दी जाने से हव्या, चाहने योग्य होने से काम्या, हृदय को प्रसन्न करने से चन्द्रा, अखंडनीय होने से अदिति, दुग्धवती होने से सरस्वती, महिमशालिनी होने से महि, विविध रूप में श्रुत होने से विश्रुति तथा न मारी जाने योग्य होने से अघन्या [xxii] कहलाती है [xxiii]।

अघन्या शब्द में गाय का वध न करने का संदेश इतना स्पष्ट है कि विदेशी लेखक भी उसे भली प्रकार से स्वीकार करते हैं। [xxiv]

हे गौओं, तुम पूज्य हो, तुम्हारी पूज्यता मैं भी प्राप्त करूं। -यजुर्वेद 3/20

मैं समझदार मनुष्य को कहे देता हूं कि तू बेचारी बेकसूर गाय की हत्या मत कर, वह अदिति है काटने-चीरने योग्य नहीं है। -ऋग्वेद 8/101/15

उस देवी गौ को मनुष्य अल्प बुद्धि होकर मारे-काटे नहीं। -ऋग्वेद 8/101/16

निरपराध की हत्या बड़ी भयंकर होती है अत: तू हमारे गाय, घोड़े और पुरुष को मत मार। -अथर्ववेद 10/1/29

गौएं वधशाला में न जाएं। -ऋग्वेद 6/28/4

गाय का वध मत कर। -यजुर्वेद 13/43

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