रामायणकी ऐतिहासिकता
पाश्चात्य विद्वानों और उनके भारतीय अन्धानुयायी विद्वान् भगवान् श्रीराम और आदि काव्य वाल्मीकि रामायणको काल्पनिक मानते हैं । उनके अनुसार "२००० वर्ष पहले रामायणकी रचनाकी गयी और उसका उद्देश्य आदर्श चरित्रकी स्थापना करना था ,रामके रूपमें एक आदर्श राजा, एक आदर्श मनुष्यकी कल्पना की गयी । वाल्मीकिके राम एक साधारण मनुष्य थे किन्तु १६वी शती में तुलसीदास ने राम को मानवीय धरातलसे उठाकर ईश्वर रूप में स्थापित किया और इस प्रकार रामभक्ति पल्लवित करने वाले तुलसीदास हैं । "
पाश्चात्योंका ये मत मनगढ़न्त कल्पना मात्र है । जिसका अनुकरण भारतीय विद्वान् करते हैं । वास्तवमें भारतीय विद्वानोंको इसके पीछेकी पाश्चात्योंका उद्देश्य नहीं ज्ञात ।
यूरोप का आदि कवि हौमर का महाकाव्य इलियड ३०० ई पू में लिखा गया ;जिसकी कथावस्तु ट्रायका युद्ध है जिसका रामायणके लङ्का युद्धसे साम्य होता है । अब यदि रामायणको ३०० ई पू से पहले का मानते हैं तो भारतीय संस्कृति स्वतः यूरोपियोंसे प्राचीन सिद्ध हो जाएगी ; और पाश्चात्य ये बात कैसे स्वीकार कर सकते हैं ? इसीलिए पाश्चात्योंने रामायण को ई पू पहली शतीसे बादकी रचना माना है ।
भगवान् श्रीरामकी ऐतिहासिकता का प्रमाण देने की तो कोई आवश्यकता ही नहीं है वो श्रीराम तो हिंदुओंके हृदयमें वास करते हैं ।
रहा प्रश्न रामायणकी एतिहासिकता तो रामायण जैसे महाकाव्यके विषय में लिखना मेरे जैसे अल्पज्ञके लिए छोटे मुंह बड़ी बात होगी ; भगवान् वाल्मीकि जैसे ऋतम्भरा प्रज्ञा सम्पन्न महर्षि के सामर्थ्यकी बात है ! एक तो मेरी बुद्धि थोड़ी है ऊपरसे समुद्र सा विशाल रामजीका चरित्र किन्तु फिर भी रामायण पर लगे आरोपोंका खण्डन करने का प्रयास कर रहा हूँ ।
सर्व प्रथम ये बता दूँ आचार्य चाणक्य जिनका समय पाश्चात्य और भारतीय विद्वान् ई पू चौथी शती स्वीकार करते हैं । आचार्य चाणक्यने अपनी नीतिने #अति_सर्वत्र_वर्जिते ० श्लोक में सीता जी के हरण का कारण उनकी अति सुंदरता माना है और रावणकी मृत्युका कारण उसका अति अहँकार माना है " चौथी शती ई पू में आचार्य चाणक्य सीता हरण ,रावण वध का उल्लेख करते हैं फिर ई पू पहली शती की रचना कैसे सम्भव है ? आचार्य चाणक्यके पूर्ववर्ती आचार्य पाणिनि थे उनके सूत्रोमें भी रामायणके चरित्रों का उल्लेख मिलता है ।
किन्तु आचार्य चाणक्यका समय ई पू चौथी शती से कहीं अधिक प्राचीन है ।
वामपंथी इतिहासकार रोमिला थापर के अनुसार ई पू चौथी शती में कौसल राज्यका कोई अस्तित्व ही नहीं था ,अयोध्यामें ई पू चौथी शती से पू के मानव सभ्यताका कोई प्रमाण नहीं है ।
किंतु रोमिला थापर का ये मत नितांत ही झूठा है -
किष्किन्धामें लगभग ४४०० ई पू (६४०० वर्ष पुराना) के समय की एक गदा पाई गयी थी । वह सम्भवत: वानर जाती की रही होगी । यह एक विलक्षण धातुकी बनी हुई है जो देखने में प्रस्तर की लगती है ,वास्तव में पत्थरकी है नहीं । यह किसी ऐसी धातुकी है ,जिसे प्रस्तर पर अथवा लोहे पर मारने पर भी इसमें न तो चिन्ह ही पड़ता है और न ही टूटता है । गन्धर्वदेश (अफगानिस्तान) में ४००० ई पू की स्वर्ण मुद्राएँ मिली हैं जिनपर सूर्यकी छाप लगी हुई है । भिवानीके पास भी खदाई में प्रस्तर ,चाँदी और सोने की ऐसी मुद्राएँ मिली हैं जिन पर एक ओर तो राम,सीता और हनुमान् की मूर्ति है तथा दूसरी ओर सूर्यकी छाप है । (भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण हिन्दुस्तान टाइम्स,दिनांक 11 नवम्बर,1992 है !)
"अयोध्या और साकेत के बीच में ४००० ई पू प्राचीन युग के तीन बर्तन खुदाई में मिले हैं -दो थाली,एक कटोरी,जो आश्चर्यजनक चमकीले धातुके हैं । बर्तान पतले मिलें हैं जिनपर सूर्यका चिन्ह है ।"
"त्रिकोमाली (अशोक वाटिका श्रीलङ्का) जहाँ रावणने सीताजी को बन्दी बनाकर रखा था ,वह अब हकगल्ला नामक ४५० मीटर ऊंचाई वाले पहाड़ अमन कबीला नामसे प्रसिद्ध है । जो नुआरा ऐलाया नगर से एक कि. मी. दूर है । पिछली शतीके अंत में हकगल्ला में एक कुँआ खोदते समय मिट्टी के नीचेसे रामभक्त हनुमान् की एक काली पत्थर की एक मूर्ति मिली जिसके एक हाथ में पहाड़ उठाए हैं ।"
"यपाहाउवा अनुराधापुरके(श्रीलङ्कामें)निकट एक प्राचीन दुर्ग है जिसके चारों ओर परकोटे एवं गहरी खाइयां बनी हुई हैं । इस दुर्ग के परकोटों और बुर्जों पर प्राचीन युद्ध के अनेक चिन्ह अब भी विद्यमान हैं और एक सुसज्जित सोपान मार्ग के अवशेष वहाँ सुरक्षित हैं ।
"दंमबुल्ला सिगिरिया अशोक वाटिका से १२ कि. मी. दूर है । इसके ३५० फुट ऊंचाई पर पांच गुफ़ाएँ बनी हुई हैं । इसमें राक्षसोंके देवताओंकी १५० मूर्तियाँ बनी हुई हैं । गुफाओं की छत पर भित्ति चित्र बने हुए हैं जिनमें श्रीरामसे सम्बंधित महत्वपूर्ण घटनाओं एवं सिंहल द्वीपके इतिहास की युगान्तकारी घटनाओं को अंकित किया हुआ है !"
इसी प्रकार हजारों वर्ष प्राचीन भारत और लङ्का में प्रमाण हैं
ई पू ५००० (७०००वर्ष पुराने ) से भी प्राचीन ताँबे के धनुष-बाण ,बर्तन प्राप्त हुए हैं देखिए
"वैदिककाल और रामायणकी ऐतिहासिकता बाई डॉ सरोज बाला "!
श्रीरामसेतु मानव निर्मित सबसे बड़ा प्रमाण है जिसकी कार्बन डेटिंग १७.५ लाख वर्ष पुराना है । समुद्र विज्ञानके अनुसार ७००० वर्ष पूर्व तक समुद्र का जल स्तर ८.५ फीट निचे था जितना नीचे रामसेतु डूबा हुआ है ।
रामसेतु मानव निर्मित है या प्राकृतिक ??
रामसेतु का निरीक्षण करने पर वैज्ञानिकोंने रामसेतु से कई स्थानोंसे सैम्पल लिया और पाया कि रामसेतु के अंदर जिन पत्थरों और मिट्टी का प्रयोग हुआ है वो न तो समुद्र में पायी जाती है और न ही रामेश्वरम में ही । इससे सिद्ध होता है पत्थर और मिट्टी बाहर से लायी गयी थी । रामसेतु प्राकृतिक होने के कोई प्रमाण नहीं हैं ।
वाल्मीकि रामायणके सुंदरकाण्डमें जिन चार दाँतों वाले हाथियों का उल्लेख है वो हाथी जीव विज्ञानके अनुसार १० लाख वर्ष पूर्व विलुप्त हो गए ।
वाल्मीकि रामायणमें जिस वानर जाति का उल्लेख है वो वानर जाति ३.६ -१.२ करोड़ वर्ष पूर्व तक धरती पर विद्यमान थे ; १.२ करोड़ वर्ष पहले ये वानर जाति लुप्त हो गयी । बाद में आदि मानव की उत्पत्ति ८० लाख वर्ष पूर्व हुई ।
इन सब प्रमाणों से वाल्मीकि रामायणकी प्राचीनता सिद्ध है ।
रहा प्रश्न श्रीराम भक्ति कब प्रारम्भ हुई ?
इसका प्रमाण वाल्मीकिरामायण ही है जिसमे रामभक्ति का प्रचुर मात्रा में उल्लेख है ।
गोस्वामी तुलसीदासजी से पूर्ववर्ति श्रीरामान्दाचार्यजी और श्रीरामानुजाचार्यजी ने उत्तर और दक्षिणमें रामभक्ति पल्लवित की ।
ऐसा नहीं कि श्रीराम भक्ति और अर्चन मात्र इसी सहस्राब्दी में हुई है सबसे प्राचीन प्रमाण ३००० ई पू के सार्वभौम जन्मेजय का ताम्रपत्र अभिलेख है जिसमें ३०१० ई पू (५०२६ वर्ष पूर्व ) में किष्किन्धा में श्रीसीता-रामकी मूर्ति स्थापना करके श्रीसीता-रामकी अर्चन और यज्ञ किया था ।
इस लिए ये समस्त धारणाएँ भ्रान्ति पूर्ण हैं श्रीमद्वाल्मीकिरामायण अति प्राचीन है और श्रीराम भक्ति आदिकालसे ही प्रचलित है ।
भारतीय इतिहास जो कि युगों -कल्पों पुराना है ,क्या पाश्चात्यो के चश्मे से पढ़ा जा सकता है ? जिनके अनुसार मानव सभ्यता ही कुछ शताब्दियों-सहस्राब्दियों पुरानी है ?
!! जय श्रीराम !!
साभार:
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