अवैध बूचड़खानों की बंदी का विरोध कर विपक्ष, मीडिया, महानगरों में बैठे तथाकथित बुद्धिजीवियों ने ना केवल अपनी बेवकूफी का प्रदर्शन किया है बल्कि उनका ज्ञान कितना सिमित है और महानगरो से बाहर के भारत की असलियत से कितने कटे हुए हैं इस सच्चाई के दर्शन भी करा दिए हैं।
लेकिन दुर्भाग्य यह है कि अधिकतर समर्थक भी इस मुद्दे से ठीक से परिचित नही है।
पहली बात तो मुद्दा सिर्फ गौ हत्या का नही था। गौ हत्या पर उत्तर प्रदेश में पहले से ही कानूनी प्रतिबन्ध है। हालांकि सपा और बसपा की सरकारों में इस कानून की धज्जियां उड़ाई गई और बड़े पैमाने पर सरकारी संरक्षण में गौहत्या की जाती रही।
लेकिन गौ हत्या से भी बड़ा मुद्दा (विशेषकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिये) भैंसों के अवैध कटान का रहा है। उदाहरण के लिये कुछ साल पहले तक मेरठ में शहर के बीचों बीच सरकारी कमेला होता था जिसे हर साल नगर निगम मामूली रकम के एवज में याकूब कुरैशी और शाहिद अख़लाक़ जैसे कसाई नेताओ को ठेके पर देता था। मेरठ शहर की रोजाना की मांस की खपत 250 भैंस की है और इसीलिए इस कमेले में कानूनी रूप से रोजाना 250-300 भैंस काटे जाने की अनुमति थी लेकिन स्थानीय मीडिया रिपोर्ट के अनुसार इसमें रोजाना 3-5 हजार तक भैंस काटी जाती थी। इसके अलावा कई हजार मेरठ शहर के एक हिस्से के गली मुहल्लों में बने छोटे कमेलो में कटती थी। मेरठ शहर के मुस्लिम बहुल इलाकों का यह हाल है कि वहां पानी में भी खून आता है। दुर्गन्ध और बीमारियों की वजह से कई इलाको से लोग पलायन कर गए। कोर्ट ने कई सालों पहले ही इस कमेले को बंद करने और शिफ्ट करने का आदेश दिया हुआ था लेकिन उसे हटाने की इक्षाशक्ति किसी सरकार में नही थी।
सबसे बड़ी बात ये है कि ये सारा मांस गल्फ में एक्सपोर्ट होता था। लोकल सप्लाई के लिये इतने कटान की आवश्यकता नही थी। याकूब कुरैशी और शाहिद अख़लाक़ जैसे नेता रातो रात करोड़पति से खरबपति हो गए। बसपा की सरकार में तो इनका खुद का ही राज था। सुविधा अनुसार पार्टी भी बदल लेते थे। पैसो और सत्ता के दम पर इन्होंने मेरठ में आतंक कायम किया। सपा में आजम खान की वजह से इनकी दाल नही गली क्योंकि उसकी कसाईयो से नही बनती थी। आजम खान ने मेरठ की पीड़ित मुस्लिम जनता की गुहार पर कमेला शहर से बाहर शिफ्ट करवा दिया। हालांकि याकूब कुरैशी जैसे इतने पैसे वाले हो गए कि उन्होंने खुद अपने आधुनिक संयंत्र स्थापित कर लिए लेकिन इनमे अवैध कटान चालू रहा।
इसके अलावा गांव देहातो में भी बड़े पैमाने पर अवैध कटान होने लगा। रोजाना इतने पैदा नही होते थे जितने कट जाते थे।
पिछले एक दशक में भैंस चोरी बहुत विकराल समस्या बन गई पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गाँवों में। भैंस चोरों को पुलिस प्रशासन का पूरा संरक्षण मिलता था। इनके हौसले इतने बुलंद होते थे कि ग्रामीणों द्वारा पकड़े जाने की स्थिति में सीधे गोली मारते थे। आए दिन कोई न कोई ऐसी वारदात होती थी जो साम्प्रदायिक रूप ले लेती थी। जो गांव इससे सबसे ज्यादा पीड़ित थे उन्होंने जाती धर्म ना देखकर इस बार एकतरफा भाजपा को वोट दिया है। वो तो बिसाहड़ा बड़ा मुद्दा बन गया, नही तो बिसाहड़ा जैसे कितने काण्ड हुए। प्रशासन के एकतरफा भेदभावपूर्ण रवैये की वजह से जनता असहाय थी।
इन सब का डेयरी उद्योग पर बहुत भयावह प्रभाव पड़ा। सिर्फ एक दशक में ही भैंस की कीमत 7-8 गुना बढ़ गई। इसके मुकाबले दूध की कीमत उतनी नही बढ़ी। दुधारू पशुपालन जो कि गरीब किसानों के लिये आय का सबसे बढ़िया वैकल्पिक स्त्रोत होता था वो घाटे का सौदा हो गया। भैंस पालना गरीब किसान के लिये रिस्की काम हो गया। कसाईयो द्वारा भैंसों को जहर देने की समस्या आम थी। गाँवों में पशुपालन पहले की तुलना में बहुत कम हो गया।
दुग्ध उत्पादन बढ़ने के जो सरकारी दावे किए जाते हैं वो किस आधार पर किये जाते हैं पता नही। जबकि असलियत यह है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में दूध से ज्यादा खून की नदियां बह रही हैं। गुजरात में आनंद के बाद सबसे ज्यादा दूध का उत्पादन बुलंदशहर जिले में होता था आज ये नकली दूध के कारोबार में पहले नंबर पर है।
इस डेढ़ दशक के दौर में अगर मायावती और यादव कुनबे के अलावा कोई संपन्न हुआ है तो वो सिर्फ कसाई हैं जो रातोरात करोड़पति और अरबपति हो गए। अब तो मुस्लिमो में दूसरी जाती के लोग भी ये काम करने लगे हैं जबकि आम किसान इससे बरबाद ही हुआ है।
लेकिन दुर्भाग्य ये है कि ना तो इसको सामाजिक संगठनों ने बहुत बड़ा मुद्दा बनाया और ना ही चुनाव में बहुत बड़ा मुद्दा बना। हिन्दू संगठनों और भाजपा को सिर्फ गौहत्या से मतलब रहता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनावों में मेरठ की सभा में इसे मुद्दा बनाया लेकिन प्रधान मंत्री बनने के बाद भूल गए।
लेकिन सबसे हैरानी की बात है कि बगल में ही दिल्ली और नॉएडा में बैठे तथाकथित बुद्धिजीवी, ओपिनियन मेकर्स और राष्ट्रीय मीडिया वालों को इतने बड़े मुद्दे की कोई खबर ही नही। इनकी हिम्मत या जाहिलपना देखिये कि ये लोग इन अवैध बूचड़खाने वालो के रोजगार के लिये चिंतित हैं। ये उस राजस्व के नुक़सान की बात कर रहे हैं जो सरकार को कभी मिलता ही नही। इन्हें किसानों के रोजगार से कोई मतलब ही नही। यहां तक कि बिसाहड़ा काण्ड को मुद्दा बनाने के बाद भी इन्होंने कभी कोशिश नही कि की ये इसके तह में जाएं। इनके ज्ञान और बुद्धिजीविता का जनाजा निकल गया है।
हद तो ये है कि इन गधो के प्रोपगंडा के प्रभाव में आकर आजकल के महानगरो के ड्यूड ड्यूडीनी टाइप लोग भी ज्ञान देने लगते हैं जिन्हें आगे पीछे का कुछ नही पता। इस तरह के लोग ये जान ले की ना तो ये मुद्दा शाकाहार बनाम मांसाहार का है और ना ही सिर्फ गौ हत्या का और ना ही हिन्दू-मुस्लिम का है। ये मुद्दा शुद्ध रूप से आर्थिक है क्योंकि गल्फ देशों को मीट सप्लाई करने और कसाईयो द्वारा अवैध काम करके (जिसमे सरकार को कोई राजस्व ना मिलता हो) मालामाल होने से ज्यादा महत्वपूर्ण जनता के लिए दूध की उपलब्धता सुनिश्चित कराना है।
और ये लोग अवैध और वैध का मतलब भी जान ले। जो बूचड़खाने सरकार द्वारा लाइसेंस प्राप्त हैं और लाइसेंसशुदा संख्या में कटान होता है और गौ हत्या नही होती उनपर ना तो प्रतिबन्ध लगा है और ना ही लगेगा। जिन बूचड़खानों में बिना लाइसेंस लिए unhygenic conditions में अवैध तरीके से कटान होता है और जिन्हें तीन साल पहले सुप्रीम कोर्ट द्वारा बंद करने का फरमान जारी किया जा चुका है केवल उन्हें ही बंद किया गया है। इसलिये ये भाजपा के नेताओ के कमेलो की बात न ही करे। अगर भाजपा के किसी नेता का कमेला अवैध है और वो अब भी चल रहा है तो उसके सबूत दिखाओ नही तो सिर्फ आलोचना के लिये ही हवा में अटकलबाजी कर अपनी अज्ञानता का प्रदर्शन ना करें।
साभार - Pushpendra Rana जी
Copied from
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=10212117235143243&id=1146345539
No comments:
Post a Comment
Note: only a member of this blog may post a comment.