Wednesday 29 March 2017

सेक्युलर_जमात_के_प्रिय_हथियार_तुलसीदास

#सेक्युलर_जमात_के_प्रिय_हथियार_तुलसीदास

(पोस्ट लंबी, गंभीर लेकिन महत्त्वपूर्ण है। पढ़ने, शेयर करने या कॉपी-पेस्ट करने की अनुमति नहीं आग्रह है।)
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'धूत कहौ, अवधूत कहौ, रजपूत कहौ, जोलहा कहौ कोऊ।
काहू की बेटी से बेटा न ब्याहब, काहू की जाति बिगारौ न सोऊ।
तुलसी सरनाम गुलाम है राम को, जाको रुचै सो कहौ कछु ओऊ।
मांगि के खैबो मसीत को सोइबो, लैवे को एक न दैये को दोऊ।'

(कवितावली उत्तरकाण्ड छंद संख्या १०६)

साज़िशों को अमली जामा पहनाने का शानदार तरीका है कुछ चीजों को दबा कर कुछ को उभार देना या फिर कथ्य को तोड़-मरोड़ कर दर्शा देना। संस्कृत में एक सूत्र है- सर्वे सर्वार्थ वाचकाः, यानि सभी चीजों से सभी कुछ कहा जा सकता है। कैसे? उदाहरण देखिये। 'यह काम तुमने किया....' अब मैं चाहूँ तो इस वाक्य से कई सारे भाव निकाल लूँ। प्रश्न, स्वीकारोक्ति या व्यंग्य। मुझ पर है।

कवितावली की ये पंक्तियां आजकल 'हिट' हैं, क्योंकि राम जन्म भूमि अभी ज्वलंत मुद्दा है। तुलसी की रामभक्ति ऐसी कि लगभग चार सौ साल बाद भी लोग राम को याद करते हैं तो तुलसी सहज ही याद आ जाते हैं।

मसीत का अर्थ मस्जिद ही है। निस्संदेह यह सच है लेकिन तुलसी द्वारा 'मस्जिद में सोने' को इस तरह अपने काव्य में स्वीकारना किस बात का परिचायक है इसकी पड़ताल ज़रूरी है।

कवितावली में ही उत्तरकाण्ड में ही छिहत्तरवां छंद है।

'आँधरो, अधम, जड़, जाजरो जरा जवन,
सूकर के सावक ढका ढकेल्यौ मग में।
गिरो हिये हहरि, 'हराम हो हराम हन्यो',
हाय हाय करत परी गो काल-फेंग में।'

अर्थ सीधा है। किसी समय एक अंधे, नीच, मूर्ख, निर्बल यवन को एक सूअर के बच्चे ने धक्के से ढकेल दिया और वह 'ह'राम ने मार डाला' कह कर मोक्ष को प्राप्त हो गया। यहां तुलसी की लाक्षणिकता के इतर एक चीज़ और भी समझी जानी चाहिए। वह यह कि वे यवन को भी 'राम' से मुक्ति दिलवा रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि वही तुलसी मस्जिद में सोना क्यों संतोषजनक मानते हैं?

जाहिर है वह वक्रोक्ति है। क्योंकि तुलसी उत्तरकाण्ड के उन्यासीवें छंद में लिख चुके हैं,

'जाहिर जहान में जमानो एक भाँति भयो,
बेधिये बिबुध-धेनु रासभी बेसाहिये।
ऐसेउ कराल कलिकाल में कृपालु तेरे,
नाम के प्रताप न त्रिताप तन चाहिए।'
(बिबुध-धेनु- कामधेनु,  बेसाहिये-मोल लीजिये)

तुलसी को इस बात का कष्ट है कि लोग कामधेनु को बेच रासभी (गदही) खरीद रहे हैं, वे कहते हैं कि ऐसे में अगर मैं त्रिताप से नहीं जलता तो यह केवल आपके नाम का प्रताप है।

दुखित होते हुए भी तुलसी का राम में यूँ अटूट विश्वास था फिर वह मस्जिद में सोना क्यों पसंद करेंगे? खासकर तब जब वे यवन को मोक्ष दिलवाने के लिए ह'राम में लक्षणा ढूंढते हैं? ध्यान दें कि यवनों में मोक्ष का कोई प्राविधान नहीं है  लेकिन तुलसी अपने राम से उसके लिए मोक्ष की व्यवस्था भी करवाते हैं। यानि तुलसी अपनी विचारधारा से समझौता नहीं करते।

छंद संख्या १०६ में तुलसी कहते हैं कि लोग चाहे उन्हें जो कहें, धूर्त या फिर अवधूत या राजपूत या जोलहा, भले ही वे मस्जिद में सोने को बाध्य हों लेकिन जपेंगे राम ही।

जोलहा तुलसीदास का समय आते-आते क्या रहे होंगे यह कबीर को जानने वाले समझ सकते हैं। कबीर भी राम ही भजते थे लेकिन उनके राम बिल्कुल अलग थे। उनपर कभी आक्षेप नहीं लगते। क्योंकि उनकी छवि सेक्युलर कवि की रही लेकिन तुलसी सबकी आँखों में चुभते रहे। उनके चुभने का कारण यह कि वे हिन्दू और मुस्लिम दोनों को बराबर नहीं गरियाते वरन यवन की मस्जिद में सोते हुए भी राम का नाम भजते हैं, यवन के लिए भी मोक्ष की व्यवस्था करते हैं।

छंद १०७ (कवितावली, उत्तरकाण्ड) तुलसी पर लगे जातिवाद के आरोप को भी धुलता है

'मेरे जाति-पाँति न चहौ काहू की जाति-पाँति,
मेरे कोऊ काम को, न हौं काहू के काम को।
लोक परलोक रघुनाथ ही के हाथ सब,
भारी है भरोसों तुलसी के एक नाम को।'

विचारणीय है कि जो रचनाधर्मी यह कहता है कि उसे किसी की जाति-पाँति से कोई मतलब नहीं वह जातिवादी होगा?

तुलसी वाराणसी की तात्कालिक अवस्था से बहुत ज्यादा दुखी थे इसीलिए जब वे कहते हैं 'बीसी बिस्वनाथ की बिषाद बढ़ी बारानसी, बूझिये न ऐसी गति संकर-सहर की।' तब यकीन मानिए उस शहर की अवस्था देख कर उनका दिल ज़रूर रोया होगा। अवस्था क्या और क्यों रही होगी यह बहुत दुर्गम्य विचार नहीं है, क्योंकि तुलसी ने बहुत कुछ लिख छोड़ा है, बस आँखें चाहिए।

इतना होने पर भी तुलसी उन लोगों के प्रिय हैं, जिन्हें तुलसी पर तोहमतें लगानी हैं, तुलसी की अधूरी पंक्तियों से अपना उल्लू सीधा करना है, क्योंकि तुलसी टारगेट नहीं हैं, टारगेट हैं राम। वही राम जिनका जब-जब नाम लिया जाएगा, तुलसी के काव्य हथियार बनाए जाएंगे ताकि राम कमज़ोर हो सकें।

तुलसी की आत्मा कदाचित आज भी कहती होगी,

'हा हा करै तुलसी दयानिधान राम! ऐसी,
कासी की कदर्थना कराल कलिकाल की।'
(कदर्थना- दुर्दशा)

(कवितावली, उत्तरकाण्ड १८२)

कदाचित काशी आज का पूरा भारत है।

उजबक देहाती विकामी

साभार:
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=437318336609185&id=100009930676208

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