Sunday 26 March 2017

चिपको आन्दोलन और गौरादेवी

२६ मार्च/इतिहास-स्मृति
*चिपको आन्दोलन और गौरादेवी*

🌏 आज पूरी दुनिया लगातार बढ़ रही वैश्विक गर्मी से चिन्तित है। पर्यावरण असंतुलन, कट रहे पेड़, बढ़ रहे सीमेंट और कंक्रीट के जंगल, बढ़ते वाहन, ए.सी, फ्रिज, सिकुड़ते ग्लेशियर तथा भोगवादी पश्चिमी जीवन शैली इसका प्रमुख कारण है।

🌳 हरे पेड़ों को काटने के विरोध में सबसे पहला आंदोलन पांच सितम्बर, १७३० में अलवर (राजस्थान) में इमरती देवी के नेतृत्व में हुआ था, जिसमें ३६३ लोगों ने अपना बलिदान दिया था। इसी प्रकार २६ मार्च, १९७४ को चमोली गढ़वाल के जंगलों में भी *‘चिपको आंदोलन’* हुआ, जिसका नेतृत्व ग्राम रैणी की एक वीरमाता गौरादेवी ने किया था।

👵🏻 गौरादेवी का जन्म १९२५ में ग्राम लाता (जोशीमठ, उत्तरांचल) में हुआ था। विद्यालयीन शिक्षा से विहीन गौरा का विवाह १२ वर्ष की अवस्था में ग्राम रैणी के मेहरबान सिंह से हुआ। १९ वर्ष की अवस्था में उसे एक पुत्र की प्राप्ति हुई और २२ वर्ष में वह विधवा भी हो गयी। गौरा ने इसे विधि का विधान मान लिया।

🌌 पहाड़ पर महिलाओं का जीवन बहुत कठिन होता है। सबका भोजन बनाना, बच्चों, वृद्धों और पशुओं की देखभाल, कपड़े धोना, पानी भरना और जंगल से पशुओं के लिए घास व रसोई के लिए ईंधन लाना उनका नित्य का काम है। इसमें गौरादेवी ने स्वयं को व्यस्त कर लिया।

🐚 १९७३ में शासन ने जंगलों को काटकर अकूत राजस्व बटोरने की नीति बनाई। जंगल कटने का सर्वाधिक असर पहाड़ की महिलाओं पर पड़ा। उनके लिए घास और लकड़ी की कमी होने लगी। हिंसक पशु गांव में आने लगे। धरती खिसकने और धंसने लगी। वर्षा कम हो गयी।हिमानियों के सिकुड़ने से गर्मी बढ़ने लगी और इसका वहां की फसल पर बुरा प्रभाव पड़ा। लखनऊ और दिल्ली में बैठे निर्मम शासकों को इन सबसे क्या लेना था, उन्हें तो प्रकृति द्वारा प्रदत्त हरे-भरे वन अपने लिए सोने की खान लग रहे थे।

👊 गाँव के महिला मंगल दल की अध्यक्ष गौरादेवी का मन इससे उद्वेलित हो रहा था। वह महिलाओं से इसकी चर्चा करती थी। २६ मार्च, १९७४ को गौरा ने देखा कि मजदूर बड़े-बड़े आरे लेकर ऋषिगंगा के पास देवदार के जंगल काटने जा रहे थे। उस दिन गाँव के सब पुरुष किसी काम से जिला केन्द्र चमोली गये थे।

👍 *सारी जिम्मेदारी महिलाओं पर ही थी। अतः गौरादेवी ने शोर मचाकर गांव की अन्य महिलाओं को भी बुला लिया। सब महिलाएँ पेड़ों से लिपट गयीं। उन्होंने ठेकेदार को बता दिया कि उनके जीवित रहते जंगल नहीं कटेगा। ठेकेदार ने महिलाओं को समझाने और फिर बंदूक से डराने का प्रयास किया; पर गौरादेवी ने साफ कह दिया कि कुल्हाड़ी का पहला प्रहार उसके शरीर पर होगा, पेड़ पर नहीं। ठेकेदार डर कर पीछे हट गया।*

😎 यह घटना ही ‘चिपको आंदोलन’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। कुछ ही दिनों में यह आग पूरे पहाड़ में फैल गयी। आगे चलकर चंडीप्रसाद भट्ट तथा सुंदरलाल बहुगुणा जैसे समाजसेवियों के जुड़ने से यह आंदोलन विश्व भर में प्रसिद्ध हो गया।  ४जुलाई, १९९१ को इस आंदोलन की प्रणेता गौरादेवी का देहांत हो गया। यद्यपि जंगलों का कटान अब भी जारी है।

🗾 *नदियों पर बन रहे दानवाकार बाँध और विद्युत योजनाओं से पहाड़ और वहां के निवासियों का अस्तित्व संकट में पड़ गया है। गंगा-यमुना जैसी नदियां भी सुरक्षित नहीं हैं; पर रैणी के जंगल अपेक्षाकृत आज भी हरे और जीवंत हैं। सबको लगता है कि वीरमाता गौरादेवी आज भी अशरीरी रूप में अपने गांव के जंगलों की रक्षा कर रही हैं।*
...................

Copied from https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1655723398057923&id=100008608351394

No comments:

Post a Comment

Note: only a member of this blog may post a comment.

विश्वगुरु_भारत_से_विकासशील_भारत_का_सफर

-- #विश्वगुरु_भारत_से_विकासशील_भारत_का_सफर -- -------------------------------------------------------------------- इतिहास में भारतीय इस्पा...