Wednesday, 19 April 2017

क्लेश-कर्म-विपाक् से रहित हैं भगवान्

क्लेश-कर्म-विपाक् से रहित हैं भगवान् !!

किसी नास्तिकने एक भक्तसे कहा -
"नारदजीके श्रापके कारण जिन श्रीरामको जन्म लेना पड़ा , बालिवध के प्रारब्ध स्वरूप जराके बाणसे जिन श्रीकृष्णको मरना पड़ा ,ऐसे भगवान् की भक्तिका क्या लाभ ?? जो अपने कर्मफल को न काट सके , वो हमारी क्या रक्षा करेगा ?"

समाधान -  भगवान् कौन हैं पहले यह जान लो ,फिर उनके दिव्य जन्म-कर्म को जानना ।

#भगवत्तत्त्वकी_तात्विक_मीमांसा- ज्ञान ,शक्ति ,बल ,ऐश्वर्य ,वीर्य और तेजोरूप षड्विध ऐश्वर्यसे सदा सम्पन्न तथा क्लेश,कर्म,विपाक् और आशयरूप जीवभावसे सदा सुदूर पुरुषविशेष भगवान् हैं ।
षड्ऐश्वर्य सम्पन्न भगवान् -
१. ज्ञान - घट ,पट, स्त्री,पुत्र,गृह-नक्षत्रादि रूप अर्थका बोध ज्ञान है ।
२. शक्ति-  कार्यसम्पादन-सामर्थ्य शक्ति है ।
३. बल-  सहायसम्पत्ति बल है ।
४. ऐश्वर्य - ईश्वररूप स्वातन्त्र्य ऐश्वर्य है ।
५. वीर्य - ओजस्विता वीर्य है ।
६ . तेज- सदा उत्साहसम्पन्नता अर्थात् अपराभवता तेज है ।

कर्म-विपाक् रहित भगवान् -
१. क्लेश-अविद्या, अस्मिता,राग,द्वेष और अभिनिवेशरूप पञ्चक्लेश हैं ।
२. कर्म- शुभ ,अशुभ और मिश्रसंज्ञक त्रिविध कर्म हैं ।
३. विपाक् -सुख-दुःख और मोहसंज्ञक त्रिविध कर्मफल विपाक् हैं ।
४. आशय - अन्तःकरण और तन्निष्ठ संस्कारका नाम आशय है ।

इसलिए यह आरोप निज अज्ञानता है कि भगवान् कर्म फल भोगते हैं । भगवान् का अवतार लेना और तिरोहित हो जाना जन्म-मृत्यु नहीं है ,किसी कर्मका फल नहीं , प्रारब्ध नहीं है । जैसे सूर्य प्रातः उदय होते हैं और शायं काल में अस्त हो जाते हैं ,इसका अर्थ यह नहीं कि सूर्य भगवान्  प्रातः उत्पन्न होकर शायं काल में नष्ट हो जाते हैं , इसी प्रकार भगवान् का प्राकट्य और तिरोहित होना भी कर्म-विपाक् नहीं है ,यह सब अविद्यासे भासित होता है ।

अब भगवान् श्रीनारद प्रभृत् भक्तोंके शापसे अवतार क्यों लेते हैं , इसपर भी परिशीलन करते हैं ।
नारदजीने भगवान् को  शाप दिया तो भगवान् उसमें बाध्य होकर कर्म फल भोगने के लिये अवतार लेते हैं , वे सर्वशक्तिमान् नहीं है , यह केवल भ्रम मात्र है ।
भगवान् केवल भक्तोंके रञ्जनके लिये अवतार लेते हैं , श्रीभृगु-नारद प्रभृत् भक्तोंकी कामना पूर्ण करने के लिये भगवान् विविध रूप धारण करते हैं । यह भगवान् की भक्तिका ही फल है जिससे भगवान् अवतार लेते । भगवान् स्वयं कहते हैं - वे  भक्तोंके सर्वथा अधीन हैं , स्वतन्त्र नहीं । " अहं भक्त पराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज !"(श्रीमद्भागवत ९/४/६३)   जो भगवान् भक्तोंके अधीन होकर ,भक्तोंके साथ क्रीड़ा करते हैं ,ऐसे दयासिंधुकी भक्ति क्यों न करें ...?

अब रहा प्रश्न श्राप देनेका , तो सुनिये -
ब्रह्मर्षि भृगुने भगवान् को शाप दिया , मनुष्य रूप में जन्म लेनेका ,तो उन्हें अपनी असमर्थता का बोध हुआ -

"शापाभिहतचेतास्तु स्वात्मना भावितोऽभवत् !!
अर्चयामास तं देवं       भृगु: शापेन पीड़ितः  !
तपसाऽऽराधितो देवो ह्यब्रवीद्  भक्तवत्सलः !!
लोकानां सम्प्रियार्थं तु तं शापं  गृहमुक्तवान् ! ( श्रीमद्वाल्मीकिरामायण ७/५१/१६-१७) "

अर्थात् - (भगवान् को शाप देने के पश्चात् ) इस प्रकार शाप देकर भृगु ऋषिके चित्त में बड़ा पश्चाताप हुआ । उनकी अन्तरात्मने भगवान् से उस शाप को स्वीकार कराने के लिये उन्हींकी आराधना करने के लिये प्रेरित किया । इस तरह शाप की विफलता के भय से पीड़ित हुए भृगुने तपस्या द्वारा भगवान् विष्णुकी आराधना की ।। तपस्या के द्वारा उनके आराधना करने पर भक्तवत्सल भगवान् विष्णुने सन्तुष्ट होकर कहा -महर्षे ! सम्पूर्ण जगत् का प्रिय करने के लिये मैं उस शाप को गृहण करूँगा ।"

श्रीमद्वाल्मीकिरामायणके उपरोक्त प्रमाण से यह सिद्ध है ,कि भगवदावतार शापके कारण नहीं , अनुग्रह के कारण होता है , किसी शाप में इतनी सामर्थ्य नहीं कि वे सर्वात्मा सर्वशक्तिमान् भगवान् को बाध्य कर सकें , यह तो भगवान् की भक्तिसे ही सम्भव है । भृगु-नारदके शापका भगवान् पर कोई प्रभुत्व नहीं था ,अपितु भृगु-नारदादिकी भक्ति-आराधना से भगवान् अवतार लेते हैं ।

अब भगवान् के वालीके पुनर्जन्म ज़राके बाण से मृत्यु पर परिशीलन करते हैं -

वाली यदि जरा व्याध बनकर भगवान् पर बाण चलाता है , जिससे भगवान् स्वधाम गमन करते हैं ,इससे भगवान् का वालीवध स्वरूप कर्म-विपाक् नहीं बनता है । यह तो भक्तवत्सल भगवान् की वालीपर अनुग्रह करना ही सिद्ध होता है , अपराधीको दण्ड देने से न्यायधीशको उसकी सजा नहीं भोगनी पड़ती ,अपितु अपराधी को दण्ड न देने पर न्यायधीशको अवश्य सजा भोगनी पड़ती है । भगवान् श्रीराम न्यायधीश हैं ,वाली अपराधी है और भगवान् ने अपराधी को दण्ड दिया ,इससे भगवान् को इसका फल क्यों भोगना पड़ेगा ??   यह भक्तवत्सल भगवान् की दयालुता है , जिससे वाली की निकृष्ट कामना को भी पूर्ण करते हैं , वालीके मन में यह भावना रही कि यद्यपि  श्रीरामने वालीको दण्ड दिया तथापि बिना शत्रुताके वालीका वध किया था , जिससे मरते  समय वाली के मन सूक्ष्म कामना रह गयी ,जिसे भगवान् अपने जन्म में जराके हाथों बिना शत्रुता बाण मारने की इच्छा पूर्ण कर दी । यह भगवान् का कर्म -विपाक् नहीं ,वात्सल्यता है ।

जब दैत्यराज बलिकी पुत्री रत्नमाला वामन भगवान् को देखकर , उनको पुत्र रूप में पाने की कामना करती है तो भगवान् ने पूतना के रूप में उसका स्तनपान करके उसकी यह शुद्ध भावना पूर्ण की , जबकि वामन भगवान् के द्वारा पिता बलि को छले जाने पर रत्नमाला की अशुद्ध भावना हुई ऐसे पुत्र को तो विष देकर मार डालूँ और भगवान् बलिपुत्री की यह अशुद्ध भावना भी पूतना के स्तनपान करके विषपान करके पूर्ण की । इससे भगवान् की अनन्य भक्तवत्सलता ही सिद्ध होती है कोई कर्म विपाक् नहीं । यदि कर्म विपाक् मानेंगे तब भगवान् विष से मर जाते , यह तो दयालुता ही है क्योंकि भगवान् पूतना के विष देने पर मरे नहीं , अपितु उसकी निकृष्ट कामना को भी भगवान् पूर्ण करने वाले हैं । फिर वानरशिरोमणि वाली की सूक्ष्म हृदयकी भावना बिना शत्रुताके भगवान् को बाण मारने की इच्छा पूर्ण करना कर्म विपाक् नहीं अपितु भक्तवत्सलता ही है , जराके बाण मारने से भगवान् मरे नहीं अपितु सशरीर अपने धाम गये थे ।

भगवान् के चरणमें यदि जरा व्याधका बाण लगा तो इसमें भी भगवान् की भक्तोंकी कामना पूर्ण करना ही था ।
भक्त ऋषि दुर्वासाने भगवान् को अपना उच्छिष्ट शरीर में लगाते समय शाप दिया था तुम्हारे चरण में बाण लगने से छेद हो जाएगा , भगवान् जब स्वधाम गमन करना चाहते थे तब उन्हें दुर्वासा का वचन स्मरण हुआ और भगवान् ने अपनी माया से भक्त का वचन पूर्ण किया ।

"दुर्वाससा पायसोच्छिष्टलिप्ते यच्चाप्युक्तं तच्च सस्मार वाक्यम् !(मौसलपर्व ४/१९)
तथा च लोकत्रयपालनार्थ मात्रेयवाक्य प्रतिपालनाय !!(४/२०)"

इसी कारण जरा व्याध ने भगवान् के चरण में बाण मारकर छेद कर दिया , लेकिन इससे भगवान् की मृत्यु नहीं हुई , यह तो निमित्त मात्र था "र्निमित्तमैच्छत् सकलार्थतत्त्व वित् !"(४/२१)

भगवान् आकाश पृथ्वीको प्रकाशित करते हुए ,सशरीर अपने धाम चले गए ।

"मत्वाऽऽत्मानं त्वपराद्ध स तस्य पादौ जरा जगृहे शंकितात्मा !
आश्वासयंस्तं  महात्मा तदानीं   गच्छन्नूर्ध्वं रोदसी व्याप्य लक्ष्म्या !!( मौसलपर्व ४/२४)

अर्थात् - अब तो जरा अपने को अपराधी मानकर मन ही मन बहुत डर गया । उसने भगवान् श्रीकृष्णके दोनोंचरण पकड़ लिये । तब महात्मा श्रीकृष्णने उसे आश्वासन दिया और अपनी कान्तिसे पृथ्वी एवं आकाश को व्याप्त करते हुए वे ऊर्ध्वलोक में चले गये । "  

जो भगवान् भक्तोंकी कामना पूर्ण करने लिये पुनः पुनः अवतार धारण करते हैं , उन भगवान् की आराधना भक्ति क्यों न करें । जिसे कर्म विपाक् कहकर भगवान् को निर्बल कह रहे हो , यही भक्ति भक्तोका परम् बल है ।

ऐसे लोगो के लिये तो तुलसी बाबा ठीक ही कहते हैं

ते सठ हठ बस संसय करहीं । निज अज्ञान राम पर धरहीं !! ( उत्तरकाण्ड  ७२/५)

साभार:

https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1851474128461618&id=100007971457742

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