वैदिक विज्ञानं को नष्ट करने वाला था सम्राट अशोक मौर्य
सबसे पहले पाश्चात्य विद्वान् #विलिमय_जॉन्स ने ही ग्रीक आक्रान्ता सिकन्दर (३२६-३२५ई पू ) के समकालीन भारतीय सम्राट #सैंड्रोकोट्टस को चन्द्रगुप्त मौर्य स्वीकार किया था । उसके बाद सभी पाश्चात्य विद्वान् और तदानुयायी भारतीय विद्वान् भी सिकन्दर के समकालीन चन्द्रगुप्त मौर्य मान लिया है ।
उसी प्रकार #जेम्स_प्रिंसप नामक पाश्चात्य विद्वान् ने ही सबसे पहले २५८ ई पू के प्रियदर्शी के शिलालेखों को पढ़कर अशोक मौर्य घोषित किया था । उसके बाद उसका सभी अंधानुकरण कर रहे हैं ।
भ्रांति फैलायी गयी यूरोपियन इतिहासकार द्वारा। सिकन्दर के आक्रमण के समय ३२६-३२५ ई में भारत का सम्राट #जेण्ड्रमस था जिसका वास्तविक नाम #चंद्राश्री जिसे अंतिम नन्द वंशी सम्राट #धनानन्द प्रमाण करने लगे हैं ।
सैंड्रोकोट्स को मौर्य वंश का संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य घोषित कर रहा है जबकि धनानन्द का जेंड्रमस से और चन्द्रगुप्त का सैंड्रोकोट्स से कोई साम्य नही होता । यहाँ तक की नामों तक में साम्य नहीं है । यही नहीं किसी भी यूनानी लेखक ने #चन्द्रगुप्त के महान् गुरु #आचार्य_कौटल्य का वर्णन नही किया है (यदि किया हो तो कोई सिद्ध करके बताये किस नाम से किया है ?)
भारतीय ग्रन्थों में तो यूनानियों के आक्रमण का उल्लेख तक नही मिलता । #सिकन्दर का नाम तो दूर की बात रही ।
जेम्प्स प्रिंसेप ने प्रियदर्शी के अभिलेखों को अशोक मौर्य मान लिया है जबकि अशोक के ४० अभिलेख प्राप्त हुए हैं जिनमें मात्र २ अभिलेखों में ही "देवानांप्रिय प्रियदर्शी अशोक" नाम प्राप्त हुआ है । अन्य सभी ३८ अभिलेखों में प्रियदर्शी नाम ही मिलता है । इससे अशोक मौर्य सिद्ध नही हो जाता है । "प्रियदर्शी अशोक" मात्र एक उपाधि है किसी भारतीय सम्राट का नाम नहीं । जबकि अशोक मौर्य प्रारंभ में बहुत खूंखार (चण्ड) था । इस लिये "चण्डाशोक" नाम से प्रसिद्ध हो चुका था और बाद में शास्त्र त्याग अहिंसा का मार्ग अपनाकर "धर्माशोक" के नाम से प्रसिद्ध हुआ था ।
अशोक मौर्य का तीसरा नाम "प्रियदर्शी अशोक" किसी भी भी भारतीय ग्रन्थ में नहीं मिलता है फिर प्रियदर्शी अशोक चन्द्रगुप्त मौर्य का पौत्र अशोक मौर्य कैसे हो गया ?
"प्रियदर्शी अशोक" किसी राजा का नाम नहीं है । ये तो एक उपाधि है देखिये वाल्मीकि रामायण में शोकाकुल श्रीराम कहते हैं -
#अशोक_शोकायनुद .......#प्रियासंदर्शनेन_माम् !
(वाल्मीकि रामायण अरण्यकाण्ड ६०/१७)
इसी प्रकार महाभारत में शोकाकुल दमयन्ती कहती है
#विशोकां_कुरु_मां_क्षिप्रमशोक_प्रियदर्शन !!
( महाभारत वनपर्व ६४/१०)
इसी प्रकार इन २५८ ई पू के अभिलेखों में किसी अज्ञात राजा (जिसका अभिलेख में नाम भी नहीं ज्ञात) "प्रियदर्शी अशोक" की उपाधि दी गयी है जिसने धर्म के कार्यों से सभी के शोक दूर किये थे ।
रहा प्रश्न इसका अशोक मौर्य होने का तो महावंश और दीपवंश के अनुसार अशोक मौर्य ने अपने राज्याभिषेक के तीसरे वर्ष में शस्त्र त्याग कर बौद्ध धर्म अपना लिया ता जबकि अभिलेखों वाले प्रियदर्शी ने अपने अभिषेक के ८वें वर्ष में कलिंग युद्ध जीता था ।
शाहबाजगढ़ी अभिलेख में कहा है -
#अढ़वष_अभिसितस_देवनप्रियद्रशिष्यरञो_कलिगविजित "अभिषेक के आठवे वर्ष में देवों के प्रियदर्शी के राजा ने कलिंग जीता"
ये तो रहा पाश्चात्य विद्वानों द्वारा घोषित अशोक मौर्य और उसके पितामाह चन्द्रगुप्त मौर्य का भारतीय इतिहास में प्रमाणित समय -
१२वी सदी के महान् भारतीय इतिहासकार कल्हण ने रजतरंगिणी में चन्द्रगुप्त मौर्य का समय १५३४-१५०० ई पू और अशोक मौर्य का समय १४७२-१४३६ ई पू समय दिया है जो कि सिकन्दर के समकालीन भारतीय सम्राट सैंड्रोकोट्स ३२२-२९८ ई पू से १२१२ वर्ष पहले चन्द्रगुप्त मौर्य हुए थे और २६९-२३२ ई पू के प्रियदर्शी अशोक से १२०३ वर्ष पहले १४७२-१४३६ ई पू में अशोक मौर्य हुए ।
पाश्चात्य इतिहासकारों की इससे भी भयंकर भूल है जो एक ही अशोक मान लिया है जबकि ४ सम्राट अशोक हुए हैं ।
प्रथम अशोक सम्राट शिशुनागके पुत्र अशोक १९५४-१९१८ ई पू जो कौए की तरह काले वर्ण के थे । इस लिये कालाशोक या काकवर्ण के नाम से प्रसिद्ध थे।
द्वितीय अशोक सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के पौत्र और सम्राट बिन्दुसार के पुत्र अशोक वर्धन मौर्य थे । जो अपनी खूंखार प्रवृत्ति के कारण चण्डाशोक के नाम से भी प्रसिद्ध थे ।
तृतीय अशोक कश्मीर के गोनन्द वंश के ४८वें राजा अशोक १४४८-१४०० ई पू थे जो बौद्ध धर्म के प्रचारक थे । इसीलिए धर्माशोक के नाम से भी प्रसिद्ध थे।
चतुर्थ सम्राट चन्द्रगुप्त प्रथम के पुत्र समुद्रगुप्त ३२०-२६९ ई पू हुए जिन्होंने अशोकादित्य उपनाम ग्रहण किया था ।
अब बात करूँ चन्द्रगुप्त मौर्य के अंतिम अवस्था में जैन मुनि भद्रबाहु से जैन मुनि बनने की तो जैन मुनि भद्रबाहु चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यकाल में ही १२ वे वर्ष में निर्वाण पद को प्राप्त हो गए थे तब अंतिम अवस्था में जैन मुनि बनने की कथा भ्रामक है ।
शकारि सम्राट विक्रमादित्य ५७ ई पू से ४७० वर्ष पहले (५७+४७०=५२७ ) ५२७ ई पू में महावीर स्वामी जैन का निर्वाण हुआ था जिन्होंने आचार्य कौटल्य के अर्थ शास्त्र को मित्थ्या शास्त्र कहा है ।
(साभार ग्रन्थ : श्रीकरपात्रीजी महाराज निर्मित रामायण मीमांसा)
अब सिकन्दर के आक्रमण ३२६ ई पू से २०० वर्ष पहले निर्वाण को प्राप्त हुए । महावीर स्वामी ने आचार्य कौटल्य और उनके अर्थ शास्त्र का उल्लेख किया है । उनसे पहले ही कौटल्य सिद्ध हुए । फिर उनका शिष्य चन्द्रगुप्त मौर्य सिकन्दर का समकालीन कैसे हुआ ???
संदर्भ-:
१) श्रीकोटावेंकटचलम् रचित दि ऐज ऑफ़ बुद्धा ,
२) श्रीपुरुषोत्तम नागेश ओक रचित भारतीय इतिहास की भयन्कर भूलें ।
अशोक मौर्य ही था जिसने वैदिक यज्ञों पर प्रतिबन्ध लगाया, गुरुकुल वैदिक शिक्षा पर रोक लगाई ।
साभार #मनीषा_सिंह_बाईसा
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