मानव का विश्वास जगेगा।
मेरे एक मित्र हैं, बड़े अधिकारी हैं।मैं कभी-कभी उनके पास जाता हूं।बड़े मजाकिया स्वभाव के हैं।एक दिन मजाक-मजाक में बोले बनारसी को पहचानना हो तो क्या करोगे।मैंने कहा 'पता नहीं, मैं तो आवाज से ही पहचान लेता हूं।बगल में खड़ा हो तो सूंघ लेता हूं।वह बोले ऐसे नही।मैं बताता हूं।
"बनारसी की पहचान है उसे लाओ,लस्सी पिलाओ,पूरा खत्म होने के बाद वह गिलास या कुल्हड़ में थोड़ा पानी डालकर उसे धूल के पिएगा तो समझ लो बनारसी है।अगर ऐसा नही करता तो समझो यह बनारसी नहीं।उसको तब-तक तृप्ति नही मिलती जब तक वह थोड़ा पानी डालकर,खंगाल के न पी ले,।मुझे भी ध्यान में आया हां यार यह तो मैं भी करता हूं।
एक दिन प्रभु जी साथ ही थे उनके सामने भी बोल गये।फिर हम कहां चुप रहने वाले।तत्काल बोले 'बनारसी गोरस का,परम ब्रह्म का अपमान नहीं कर सकता।वह थोड़ी सी भी 'अन्नात भवन पर्जन्य,का सम्मान करना जानता है।वह जानता है कि उस दुग्ध कण में परमात्मा का वास है।वह उपभोक्ता,दिखावा संस्कृति से ग्रस्त नही है इसलिए वह उसे ऐसे ही नहीं फेंक देता।यह संस्कार है।वह साहब भौचक,चुप्प,वहाँ से खिसक लिए।
यह बात केवल बनारसी की नहीं है,यह भारतवर्ष के किसी भी हिस्से में आप देखेंगे।तमिलनाडु से लेकर कश्मीर तक,गुजरात से लेकर बंगाल तक आप किसी पुराने बुजुर्ग आदमी के साथ भोजन करने बैठ जाइए।आप देखेंगे वह अत्र का एक दाना नहीं बर्बाद करते।केले के पत्ते चाट डालते है,थाली पोंछ लेते है।गांव में ऐसा ही होता है।वह परम ब्रह्म के उस प्रसाद का पान करते हैं जिसमे ईश्वर की ऊर्जा होती है।वह आखिरी दाने तक को उपयोग में लेते हैं।प्रथम ग्रास गो (देव) ग्रास,द्वितीय ग्रास कौवा(पितृ) ग्रास,तृतीय ग्रास कुक्कुर ग्रास, देव यज्ञ करते हैं। पितृयज्ञ करते हैं और ऋषि यज्ञ करते हैं।वह तीनों ऋण चुकाते हैं।यह संस्कारों में है,यही विचारों में है, यही जीवन पद्धति में भी है।
ब्रह्मार्पणं ब्रम्हार्विह ब्रम्हाग्नऊ ब्रम्हणाहुतम।
ब्रम्हेवते न गंतव्यं ब्रह्मकर्म समाधिना।
हर हिंदू को पता है कि अन्न का प्रत्येक कण, दुग्ध का प्रत्येक कण,परमात्मा का अंश है।उसे बर्बाद नहीं करना।उसे अंतिम पल तक उपयोग करना है।उसे पता है अन्ना भवन पर्जन्या।उसे पता है कि जीव देह से निकलने के बाद सूर्य या चन्द्र ऊर्जा तक जाता है,सूर्य से लौटकर वह रश्मियों के माध्यम से अन्न में बदलता है। अन्न से ही ऊर्जा प्राप्त होती है।वह दूर जाकर मिलती है।वह कर्म नित्य न्यू नयन अन्न उत्पन्न करता है।वह ब्रम्ह से ही उपस्थित होता है और ब्रह्म में ही समा जाता है।अन्य संस्कृतियों की समस्या यह है की वे मानते है सनातन धर्म का अनुयायी परमात्मा को अच्छी जानता-व्यवहार करता है।
यह हर एक पंथ-जाति-समुदाय-कुल के हिंदू-संस्कारों में होता है।वह गाय ही नही पीपल,वट, बेल,आंवला आदि सभी वृक्षो की पूजा करता है क्योंकि उसमें वासुदेव है।वह दूर्वा चढ़ाता है क्योंकि वह शक्ति का अनंत ऊर्जा का परिचायक है।वह हाथी की पूजा करता है क्योंकि गणेश जी विघ्न विनाशक हैं।वह सिंह की पूजा करता है क्योंकि वह देवी की सवारी है।वह कुत्ते की पूजा करता है क्योंकि वह भैरव का वाहन है।वह नदियों,तालाबो,कुओं,की पूजा करता है क्योंकि उसमें वरुण है।वह वायु की पूजा करता है क्योकि वह पञ्च प्राण के रूप में है।इस दुनिया की कोई प्राणवान,मूर्तिमान संज्ञा नही है जिसे वह किसी न किसी रूप में पूजता न हो।वह समस्त जीव-जड़,बनस्पति,प्रकृति के साथ जुड़ कर,आस्था,श्रध्दा के साथ रहता है क्योकि पुनर्जन्म के बाद उसी धरा पर आना है।वैश्वानर,विश्वेदेवा कहकर समस्त कण-कण की पूजा करता है पूजा करता है।यही शक्ति उसमे निरन्तर सकारात्मकता का प्रवाह खोल देती है।यही सकारात्मकता युगों से आक्रान्ताओ से उसकी रक्षा कर रही है।
अब मैं उन अधिकारी मित्र के ऊपर आता हूं।उनकी सोच, संस्कार ऐसे कहां से आ गए कि दूध या लस्सी की दही धुल के पीते हैं यह खराब चीज है।यह बड़ी पिछड़ी सी बात है, बड़े कुंठा वाली बात है।खिल्ली उड़ाते हैं।केवल उनके ही नही आज के सभी खाते-पीते घरों में ऐसे कुविचार-कुसंस्कार भर गए है।खाने में जब तक थोड़ा छोड़ नही देंगे तब तक समृध्द कहां दिखती है।बोतल का पानी खरीद कर थोड़ा पीकर वहीं छोड़ देते है।आधे गिलास में पानी जूठा छोड़कर वरुण देव का अपमान करके चले आते हैं।ऐसी हजारो छोटी-छोटी दिखावे वाली चीजे इधर के सौ साल में डेवलप हो गयी है।
किसने भर दिया ऐसे विचार।यह आधुनिक कहे जाने वाले पढ़े-लिखे आदमी करते है इतनी अदना सी बात समझ में नही आई।उन सब को पता है दुनियाँ में तो छोड़िए भारत में ही 5 करोड़ लोग ऐसे हैं पूर्ण-पुष्टाहार नही मिल पाता।सारी दुनियां में एक बड़ी संख्या को भरपेट भोजन नही मिलता।एक बड़े हिस्से को साफ़ पानी पीने को नही मिलता लेकिन हम अपने घरों में बर्बाद करते है।अधिकाँश घरों में बासी खाँना फेंक दिया जाता है।वे उसे किसी जानवर तक को नही डालते।आज देश के ऐसे कई होटलों में या किसी विवाह में चले जाइए,बहुत सारे बड़े लोगो के घरों में अन्न का बर्बाद होना आदत में आ गया है।बड़ी मात्रा में खाना फेकना गौरव का विषय है।फेक देने पर अब शर्म भी नहीं आती, कोई संकोच नहीं होता है कि हम गलत कर रहे हैं।ऐसे विचार-संस्कार किसने भरे है??
यह 10 वीं शताब्दी से सामी संस्कृतियों के साथ भारत में आया।खुद भर हींक खाओ और बचा बर्बाद कर दो,सब नष्ट कर दो।जितना भोग सको,भोगो। परमात्मा का डर नहीं है क्योकि उसने ही तो यह बख्शा है।उसी की तो देन है यह,उसकी देन क्यों नकारोगे,इसलिए बचा फेंक दो।उनके लिए उसमें परमात्मा तो है नहीं।वह तो कहीं ऊपर बैठा हुआ है जो बाद में जन्नत भेजेगा।परमात्मा,ईश्वर,परम् चेतना उस सर्वशक्तिमान,सद, चित,आनन्द के लिए 'ऊपर-वाला,शब्द ही दसवीं शताब्दी में इस्लाम के साथ भारत आया।उससे पहले के किसी भी पुस्तक,विचार,सम्प्रदाय में ईश्वर के लिए ऊपर वाला शब्द न पाएंगे।उनके अनुसार वह कही ऊपर बैठा हुआ है जो कयामत की रात(डे आफ जजमेंट) को आएगा।फिर केवल ईमान,लाने वालो या फिर ईशू की भेंड़ो को स्वर्ग भेजेगा।दोनों सामी सम्प्रदायो ने अपने को भेजने पर बल दिया है।फिर तब तक सब कुछ खाना-पीना-मौज-मस्ती और क्या।इसी लिए तो बख्शी गई है न यह दुनियां।इस भाव ने भारत में रईस,अमीर, अय्याश,बादशाह नामक एक भयावह भोगी आइडियल चीज खड़ी कर दी।इस्लाम अपने साथ इर्द गिर्द अधिकाधिक संपत्तियां,खाने-पीने की वस्तुओं,अमीरी दिखावे का भाव,जबर्दस्ती का प्रदर्शन लेकर आया।इसने समाज में भोजन का,खान-पान की सामग्री का अपमान करना शुरू किया।यहां तो एक ऐसा लुटा-पिटा समाज भी खड़ा हो गया जिसके पास भरपेट खाने को भी नहीं था।वह अपना पेट भरने को लालायित था और एक दूसरा समाज राजसी ठाट बाट से रह रहा था।फेंक रहा था इसने जड़े जमा ली।
वह सामी संस्कृति तो पूर्णतया मेटेरियलिस्टिक है।चेतनता के प्रति इमोशन,भावनाएं तो उसी समय खत्म कर दी जाती हैं।जब कोई एक छोटा प्यारा कोमल सा बच्चा घर में साल दो साल पाला,सालो उसे गोद में खिलाते रहे,दुलारा,पुचकार,उसके साथ खेलना भावनात्मक रूप में जुड़े और एक दिन उसे धीरे धीरे,रेतते हुए उसे जबह किया।केवल मार ही नही दिया बल्कि खा भी गये।मन और भावनाये तो खुद-ब-खुद कठोर हो जाएंगी, निष्ठुर हो जाएंगी।यह भाव उसे परम्-आद्यात्म को महसूस ही नही करने देगा।वह उनके दिमाग, मन को मैटीरियल में कैद करके रख देता है।चेतना की उड़ान ही नही भरने देता।नितांत भौतिकवादी है जो परमात्मा को भी एक उस सामने दिखने वाली चर्म-चक्षु से उपभोग करने वाली चीज समझती है।एक जाने कैसी जन्नत की कल्पना किए बैठे हैं वहां भी यहीं इस भौतिक जगत की चीजें ही मिलेंगी।वे चेतना जगत,अनुभूतियों के अनंत विस्तार तक कल्पना भी नही कर पाए।मैं(अहं) का अनन्त में विलीनीकरण उनकी समझ से ही परे की बात थी।ऊपर से सोच यह कि इस जगत में एक बार ही आया है।इस देह के बाद उसे फिर नहीं आना है।एक सम्प्रदाय का अनुकरण करके सब कुछ मिल जाना है। दीने-इलाही पर ईमान लाने मात्र से पाप-कर्मो से भी छुटकारा मिल जाएगा।इस एक लाइन ने और गर्त में डाल दिया।जिस जगह पर फिर नहीं आना है उसके लिए जिम्मेदारी का भाव कहां से आएगा।जब पुनर्जन्म ही नहीं होना है।मृत्यु के बाद कयामत तक गड़े इन्तजार करना है तो फिर इस धरा, प्रकृति की रक्षा की बात कहां से आएगी। वह तो सब ज्यादा से ज्यादा भोग लेना चाहेगा।ऊपर भी उसे यही सब मिलेगा जो यहां है।72 हूरें,शहद की नदियां,बढ़िया शराब की नदियां, तमाम तरह के भौतिक सुख उसे मिलेंगे इसी कल्पना में खोया हुआ धरती की प्रकृति नष्ट कर डालना चाहता है।उसे बड़े-बड़े बम फोड़ने से क्या फरक पड़ जाएगा,जब वहां रिजर्वेशन है।इसे ही वह आध्यात्मिकता समझता है।इसी को आध्यात्मिकता चरम समझता है।जब लक्ष्य ही भोग है तो इस सुंदर धरती की सुरक्षा क्यों करेगा।इस धरती,पर्यावरण आदि के चीजों के अनंतकाल की कल्पना वह क्यों करेगा?
मूलतः सोच का अंतर है।लस्सी के अंतिम कण भी धुल कर पीते हैं।यह राष्ट्र रक्षा करता है,यह हिंदू संस्कृति की ही रक्षा नही करता है पुरे पर्यावरण और धरती के लिए आवश्यक है।त्येन त्यक्तेन भुंजीथा,यानी त्याग पूर्वक उपभोग करो,क्योकि "ईशावास्यमिदम सर्वम जगत्येंन जगत्याम जगत,।उस परमात्मा का वास इस जगत के एक-एक कण में है।अन्न-जल का सम्मान करिए,जीवो पर दया करिये,पर्यावरण-प्रकृति को बचाइए यही हिंदुत्व है।इसे जगाइये यही मानवत्व का विश्वास जगायेगा।
हिन्दू जगे तो विश्व जगेगा मानव का विश्वास जगेगा।
साभार
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