Monday, 27 February 2017

आक्रमण के हथियार बदल गए हैं-भाग-२०

हथियार बदल गए है--20

'इस जगत का उतना नुकसान दुर्जनों की दुष्टता-दुर्जनता ने नहीं किया है जितना सज्जनों की निष्क्रियता ने किया है,अतः हर पल समाज के लिए सक्रिय रहें,।
                                      स्वामी विवेकानंद जी

बहुत पहले छोटे-पन पर यह कहानी मेरी नानी सुनाती थी।आप ने भी बचपन मे 'एक नेवले, की कहानी सुनी होगी।इस कहानी से बहुत सारी छोटी-छोटी लोकोक्तिया,भोजपुरी कहावते और लोक-कविताए भी जुड़ी होती थी।वह सब भूल गया पर कुछ-कुछ याद आता रहता है।निश्चित ही कुछ लोगो को याद आ जाएगा।उस नेऊरिया का बच्चा एक  पेड़ के कंदरे में कहीं फंस गया था।नेवले ने पेड़ से बहुत अनुरोध किया उसके बच्चे को दे देने के लिए।लेकिन पेड़ उस छोटे से नेवले की बात भला कहां सुनने वाला था।ऊपर से पेड़ ने उसके सिर पर अपना फल गिरा दिया।उस निरपराध का सर भी तोड़ दिया।टप्प-से टपाक से कपार मोर फोड्यो??

हार कर वह बढ़ई के पास गया।उसने उससे अनुरोध किया कि तुम उस पेड़ को काट दो, क्योंकि वो उसका बच्चा नहीं दे रहा।भला बढ़ई को क्या परवाह।एक ठिंगू से नेवले के लिए बढ़ई पेड़ कहां काटने वाला था।फिर वह राजा के पास गया।उसने राजा से कहा कि तुम बढ़ई को सजा दो क्योंकि बढ़ई पेड़ नहीं काट रहा और पेड़  मेरा बच्चा नहीं दे रहा।राजा ने उस नन्हे नेवले को डांट कर भगा दिया कि कहां एक छोटी सी बात के लिए वो उस तक पहुंच गया।यह हिम्मत।वह प्रतिक्रिया से भर उठा,हार नहीं मानने वाला था।महावत के पास गया कि अगली बार राजा जब हाथी की पीठ पर बैठेगा तो तुम उसे गिरा देना,क्योंकि राजा बढ़ई को सजा नहीं देता।बढ़ई पेड़ नहीं काटता।पेड़ उसका बच्चा नहीं देता।महावत ने भी चिड़िया को डपट कर भगा दिया।नेवला अब हाथी के पास गई और उसने अपने अनुरोध को दुहराया कि अगली बार जब महावत तुम्हारी पीठ पर बैठे तो तुम उसे गिरा देना क्योंकि वो राजा को गिराने को तैयार नहीं,राजा बढ़ई को सजा देने को तैयार नहीं,बढ़ई पेड़ काटने को तैयार नहीं,पेड़ बच्चा देने को राजी नहीं।हाथी बिगड़ गया।उसने कहा, "ऐ छोटे मूर्ख नेवले!तू इतनी सी बात के लिए मुझे महावत और राजा को गिराने की बात सोच भी कैसे सकता है?,,उसने भी भगा दिया।

आजिज़,मजबूर,हताश नेवले ने दिमाग लगाया,उसे उन सबको सजा देनी थी जो अपना काम ठीक से नही कर रहे थे।अंत में ढेरों साथियो के साथ मधु-मक्खियों के पास गया और वही अनुरोध दोहराकर कहा कि तुम हाथी के कान-सूंढ़ आदि में घुस जाओ।रानी मक्खी ने उससे कहा, "चल भाग यहां से।बड़ी आई हाथी की कान-सूंढ़ में घुसने को बोलने वाली।

  अब तक अनुरोध की मुद्रा में रहे नेवले ने रौद्र रूप धारण कर लिया।उसने कहा कि "मैं चाहे पेड़,बढ़ई,राजा, महावत, और हाथी का कुछ न बिगाड़ पाऊं।पर तेरे छत्ते को तो खुद नोच-नोच कर खा ही सकता हूँ।मधुमक्खिया डर गई।भाग कर वो हाथी के पास गई।हाथी भागता हुआ महावत के पास पहुंचा।महावत राजा के पास कि हुजूर उसका काम कर दीजिए नहीं तो मैं आपको गिरा दूंगा।राजा ने फौरन बढ़ई को बुलाया।उससे कहा कि पेड़ काट दो नहीं तो सजा दूंगा।बढ़ई पेड़ के पास पहुंचा।बढ़ई को देखते ही पेड़ बिलबिला उठा कि मुझे मत काटो।मैं उसका बच्चा लौटा दूंगा।आपको अपनी ताकत को पहचानना होगा।
"आपको पहचानना होगा कि भले आप छोटे से नेवले की तरह होंगे।लेकिन ताकत की कड़ियां कहीं न कहीं आपसे होकर गुजरती होंगी।हर सेर को सवा सेर मिल सकता है, बशर्ते आप अपनी लड़ाई से घबराएं नहीं।आप अगर किसी काम के पीछे पड़ जाएंगे तो वो काम होकर रहेगा।उपाय भी यही है,।

  हमारी असली समस्या दूसरी है।हमारी सबसे बड़ी ताकत हमारी कमज़ोरी थी।हज़ारों सालों से “पूर्ण लोकतांत्रिक-स्वातन्त्र्य, को हमने अपने सामाजिक,आंतरिक,अध्यात्मिक,नैतिक और राजनैतिक जीवन् का आधार बना रखा था।इसने हमें विविधताओ-विरोधो के साथ तालमेल के सहज स्वभाव को विकसित किया।तमाम लोगो की असल समस्या यह है दुनिया की किसी भी प्रजाति की “एकांगी जीवन शैली,से मैच नही करता।बाद की आई “आक्रांता कौमो, से ”सफल मुकाबला,, न कर पाना इसी कमज़ोरी की वजह से था।वह राजनीतिक रूप से काबिज होने के बाद जीवन के हरेक क्षेत्र मे अधिकार और दखलन्दाज़ी चाहते थे।यानी पूर्ण मतांतरण।कम्युनिष्ट,फ्रायड वादी और सामी तीनो ही एक-एक चीज़ पकड़े जीवन् जी रहे हैं।इसको मैं एकांगी चिंतन की जीवन्-पद्धति कहता हूँ।1-सामी,सेमेटिक मजहब इस्लाम या ईसाइयत जो अरब देशो से निकली उन्होने एक संप्रदाय को जीवन समस्त जीवन की धुरी रखकर जीना-मरना शुरू कर दिया। 2-कामी-यानी भोगवादी केवल फ्रायड के”काम,(सेक्स)को ही केंद्र में रखकर जीवन के बारे में सोचता है।दुनिया की एक बड़ी आबादी इसी केन्द्रित कर जीती है। 3-वामियों का सारा चिंतन पूंजी,क्रांति और शोषण के इर्द-गिर्द है। 4-दुनिया भर में कुछेक लाख लोगो का चिंतन और जीवन शैली केवल “परमात्म-चिंतन, के प्रति मोक्ष की कामना मे भी लगा है किन्तु यह मनुष्य की “जीवन-शैली, के रूप में कभी भी नही अपनाया जा सका।क्योकि “जीवन,की जरूरते और प्रकृति के लिए कार्य रूप में संभव नही है।हीगल ने इसे ही “द्वंदात्मक आदर्श, कहना चाहा।उपरोक्त एकांगी चिंतन निहायत ही नकारात्मक आक्रामणकारी में बदल कर रख देता है।कट्टर और किसी का भी न मानने की बात ही दिमाग़ रह जाती है।दूसरे अस्तित्व की स्वतंत्रता और मान्यता देना एकांगी विचार-धारा खुद रोक देती है।दुनियाँ भर मे यही हुआ।उपरोक्त सभी विचारधाराओं ने (आदर्श मार्गियों को छोड़कर)एक “सशक्त आक्रामक साम्राज्यवादी राजनीतिक संगठन,,खड़ा कर लिया।उसके लिए व्यायाम,मीटिंग,पहनावे,खान-पान,वेश-भूषा,पूजा के तरीके आदि-आदि भी बना डाला।संगठनात्मक स्थिति उनके ताकतवर होने का कारण बन गयी।एक लाईन मे समझ लीजिये उनका सांगठनिक रूप ही हथियार है।मैंने कही पढ़ा है दुनिया भर के इतिहास मे आज तक कुल 48 प्राचीन संस्कृति-सभ्यताए पनपी है केवल दो बची है एक सनातन संस्कृति दूसरी यहूदी।बाकी सब को इस्लाम या इसाइयत लील गया।कभी ह्यू-ग्रांट या विल-ग्रांट के दसो वाल्यूमों पर एक नजर दौड़ायें।

  हज़ारों साल पहले हमारे ऋषियों-मुनियों ने किसी एक बिन्दु को केंद्र न बनाकर जीवन का आधार अर्थ धर्म,काम,मोक्ष चारो को ही लिया।उसी को ध्यान मे रखकर राज्य,शिक्षा,समाज और जीवन् पद्धति की रचना की।सब आज भी उसी अनुरूप जीते हैं।उसपर भी जन-जन में व्याप्त कर्म-फल और पुनर्जन्म की अवधारणा..हमें सहज ही आंतरिक विकास और ऊर्जा से भरपूर सकरात्मक बना देती है(वे इसे मानने तो दूर बात करने से भी बहुत डरते हैं)बाकी हमारे समाज की अध्यात्मिक शक्ति,खुद को ढालने की शक्ति इसी जीवन शैली से निकली है।इसका कोई कुछ नही उखाड़ सकता अगर यह खुद कोई ‘एकल,संगठनिक लबादा न ओढ़ ले तो।पूर्ण-स्वतंत्रता वादी होने के कारण उन्होंने ‘संगठन, स्वरुप देने की कोशिश ही नही की।स्वाभाविक है समाज की ‘व्यक्तिगत कमजोरियां हावी हो जायेंगी।संगठित समाज न होने के कारण आंतरिक अनुशासन भी खत्म हो गया।डरे हुए समाज में व्यक्तिगत स्वार्थ-परता स्वयं कायम हो जाती है।परिणाम ये रहा ताकत ही कमजोरी बन गयी।सांगठनिक स्वरुप न होने के कारण एक-हजार साल तक गुलाम बनना पड़ा।

  हरेक छ:सौ साल मे ये हुआ।इधर के सौ साल से वामियो ने भी उनके जैसा संगठन-शक्ति खड़ी की और सत्ता आधारित क्रान्ति का प्रत्यारोपड़ किया।दुनिया में एक भी उदाहरण ऐसा मौजूद नही है जब जब “कम्युनिष्ट संगठन,के अलावा जन-सामान्य का भला साम्यवाद से हुआ हो।लोकतांत्रिक स्वरुप,अभिव्यक्ति,स्वतंत्रता,न्याय,समानता,संवेदनशीलता से कोसो दूर केवल कम्युनिष्ट संगठन के आसपास घूमता रहता है।इस्लामिक संगठन और वेटिकन की तरह अपने पूरे कट्टर वजूद के साथ सह-अस्तित्व को नकारता हुआ।वाम पंथ खून की होली खेलता,प्राण लेता हुआ सांगठनिक स्वरुप में दुनियां भर में खड़ा होने लगा।शोषण,मजदूर,और विभिन्न शब्दों से खिलवाड़ करके आप खुद को तो धोखा दे सकते हैं किंतु कालप्रवाह इनको समय के साथ बेनकाब कर देता है।इस तरह के सर्वहारा क्रांति की नकालियत दुनियाँ भर मे साबित हो चुकी है।हमारी जीवन शैली इतनी उद्दात्त और शक्तिशाली है की अगर उनके पास सांगठनिक स्वरूप न होता तो “हम,उन्हे पचा चुके होते…अपने संगठन-सहित पचा भी जाते।अगर राज-सत्ता पर काबिज न होते तो।उन्होने किसी न किसी भाँति लंबे समय से सत्ता पर पकड़ बनाए रखी।बल्कि राजनीति और सत्ता को ही समाज और जन-जीवन का आधार बना लिया।स्थितियाँ बदल गयी है।उनके पास संगठन है अपने संप्रदाय,किताब,पैगंबर,एक तीर्थ स्थान केंद्रित।इन सब के पीछे राजनीतिक,आर्थिक,भौतिक लाभ होते ही हैं लाख कुतर्क गढें तब भी।हमारे पास हज़ारों किताब,हर चेतना में फैला ब्रम्ह,हज़ार मत,हज़ारों पूजा पद्धति,हज़ारों शक्तिया,देवी-देवता गुरुओं की अध्यात्मिक शक्तियाँ हैं साथ ही कोई भी भी बात “मानने न मानने,का पूर्ण स्वातन्त्र्य है।किन्तु….1-हमारे पास शुक्रवारीय ताकत नही!2-हमारे पास “इतवारीय, नेटवर्क नही है।

  बात केवल राष्ट्र की नहीं होती।राष्ट्र में ही हमारी आर्थिक सुरक्षा,व्यक्तिगत सुरक्षा,कारोबारी,धन,संपत्ति,घर,मकान,जाति,पाँति, बाल-बच्चे,बेटीया,जीवन की सुरक्षा,पूजा-पद्दति,उपासना-स्थल,स्वाभिमान की सुरक्षा,मान-मर्यादा सब कुछ उसके अंदर ही होती है।राष्ट्र के कमजोर पड़ते ही हम खुद ब खुद कमजोर पड़ जाते हैं।हमारा सब कुछ छिनने लगता है।युगो से ऐसा ही होता रहा है।जब तक हम सचेत और संगठित रहे तब तक कोई समस्या नही आई लेकिन जैसे ही हमने सोचने का तरीका बदला हमारा सब कुछ छिन गया।लेकिन इन एक हजार सालों में हमारी व्यक्तिवादी सोच कमजोरियों के कारण उभरी है ।हम राष्ट्र के बारे में चिंतन नहीं करते,हम पहले स्थान पर उसे नहीं रखते,इसलिए उसकी कीमत चुकाते हैं। जिन पूर्वजों ने ऐसी कमजोरियां अपने स्वाभाव में विकसित होने दी उन्होंने भारी कीमत चुकाई।हमने इतिहास से नहीं सीखा तो उसकी कीमत हम भी चुकाएंगे।इस वर्तमान शिक्षा पद्धति ने जानबूझकर के हमको व्यक्तिवादी दृष्टिकोण से जीने का लहजा दिया है, नितांत अकेले रहने का लहजा,स्वकेंद्रित लाइफ की तरफ मोड़ा है। उसके पीछे कुछ सोची समझी निश्चित चाल थी.।सोची-समझी मंशा काम कर रही थी। वह सोची-समझी मनसा हमें कमजोर करती है।हमारे देश को कमजोर करती है। हमारी परिस्थितियों को कमजोर करती है। हमको राष्ट्र के बारे में वैसा ही चिंतन अपनाना होगा जैसे हम अपने व्यक्तिगत परिवार के बारे में सोचते हैं। उसी तरह हरदम उस विषय पर सचेत रहना होगा।तब हमारी आने वाली पीढ़ियां सुरक्षित रहेंगी।अन्य कौमे ऐसे ही जीती हैं। वह राष्ट्र या संप्रदाय प्रथम कर्तव्य मानती हैं। सबसे पहले वह मुसलमान है या ईसाई हैं फिर वह व्यक्ति हैं।ऐसे ही हम भी अपने चित्त में यह बात बैठा ले सबसे पहले हम एक राष्ट्र है।जिसकी रक्षा करनी है।बिल्कुल परिवार की तरह उसके बारे में हमें सबसे पहले सोचना होगा तब जाकर हम सुरक्षित होंगे।

बहुत गहराई से अध्ययन के बाद यह निकल कर सामने आया।हम सनातनी दो बड़ी बीमारियों से ग्रसित है।समूह डिसऑर्डर,और 'लास्ट टाइम फोबिया से ग्रसित है।पिछले 1 हजार बरस के संघर्ष,अपमान,हार और दुख हमारे अवचेतन में संस्कार रूप में ग्रहण हो गया है।परिणाम स्वरुप वह किसी भी कार्य के अंतिम क्षणों में इधर-उधर भटक जाते है।आप देखेंगे ओलंपिक,एशियाड गेम आदि में होता है। तमाम ऐसी चीजों में होता है कि जब हमारा लास्ट टाइम मैनेजमेंट गड़बड़ा जाता है।इसको एक्सट्रीम फोबिया के नाम से भी जाना जाता है। वह लगातार असफलताओं के कारण उपजता है।एजुकेशन सिस्टम से,एवं शिविर लगाकर,ऐसे ट्रेनिंग सेंटर खोल करके या खुद अंतः चिकित्सा करके इस सामूहिक बीमारी को दूर करना होगा।इस बीमारी के दूर करने से सौ-सामूहिक समस्याएं खुद हल हो जाएगी।यह दूर करने का प्रयत्न नहीं किया जाता है।उसके बदले में आदमी या समूह बदल करके रिजल्ट लाने का प्रयास होता है।यह अपने में सबसे गलत चीज है क्योंकि यह लंबे काल के लिए उस समूह के दिमाग पर अंकित हो जाता है।इतिहास के कई क्षणों को हम सतत काल में डुबो देते हैं उसका परिणाम वर्तमान चुकाता है।जैसे ही हिंदू समाज टीम-स्पिरिट डिसऑर्डर से उबरता है दुनियां को परम्-सुख की अवस्था में ले जाने से कोई नही रोक पायेगा।

हमारे यहाँ उन्होंने आत्मकेंद्रित,व्यक्तिवादी,धूर्त गिरोह बना लिये है।युगों से संगठन,सुरक्षा,एवं खुद कुछ करने से रोंकते हैं।ऐसा ही सिस्टम बना दिया गया है की लगातार कनफ़्यूज कर सके।उसने एक एस्कैपिस्ट समाज खड़ा कर दिया।वह स्यूड़ो इंटरनेशनल ब्रदरहुड के भ्रम मे जी रहा है।ज़िम्मेदारियों से बचने की कोशिश करता है।वह तमाम तरह के लबादे ओढ़ कर अपने को “बुद्धिजीवी समझने, की मूर्खता से ग्रसित है।दिमाग मे अकेले होने का भाव स्थायी रूप से घर कर गया है।उसके कीमत उसको बुढ़ापे मे भुगतनी पड़ती है।एक बात स्पष्ट जान लीजिए यह फर्जी ज्ञान-विद्या,कोठिया किसी काम की नही रह जाती।इतिहास से
सबक मिला सारे सभ्यताओ के पास भौतिक साधन खुद ही आ जाते है।हमारे लोगो के पास भी आ ही गए।बार-बार।पर छिन भी गए।हम बार-बार गुलाम हुये।चलो अंग्रेज़ चले गए।फिर वही खतरा आ गया तो?वैसे हमारी सेनाए इतनी मजबूत है की एक साथ चमड़ी खींच लें, पर अगर कोई 'गजवा ए हिन्द, करने आ ही गया तो?अच्छा होगा यह जाति-भाषा-नस्ल-ऊंच-नीच-छोटा-बड़ा सब छोड़िए संगठित हो जाइए।“संगठन मे ही शक्ति है।हमारे पास झूठ को तोड़ने-वाली सांगठनिक शक्ति नही खड़ी होती है तो हमें आगे भी भुगतना पड़ेगा।वह किसी भी तरह आपको संगठित होने से रोंकेंगे।।इसी लिए जब आरएसएस खड़ा होने लगा तो तमाम तरह की रुकावटे डाली गई।बदनाम करने की कोशिश की गई।उसे टाइप्ड-इमेज मे जकड़ दिया की लोग उससे भागने लगे।कुल-मिलाकर हिंदू समाज युगों-युगों से संगठनात्मक ढांचे की कमी से जूझ रहा है।अब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ उसे पूरा कर रहा है।आज हिन्दू समाज का संगठन ही दुश्मनो की आँख के चुभन का कारण है।आज तेजी से संघ के बढ़ते हुए कार्य,हिंदू समाज का सांगठनिक बढ़ता स्वरूप लोगों की निगाह में चुभ रहा है।हमारे लिए सबसे अच्छा होगा कि हम कोई ना कोई सक्रिय रुप स्थानीय स्तर पर निभा सकें।इसके लिए संघ की शाखाएं उपयुक्त रहेंगी।हमे लोगो से इस्लामिक शुक्रवार,या इसाइयत के रविवार,सप्ताह मे एक दिन अवश्य मिलना चाहिए।आदत मे डाल लीजिये।लगातार सकारात्मक रहते हुये सक्रिय होइए।उसी से संगठित समाज खड़ा होगा।सुरक्षित और प्रभावी समाज अपने आप हो जाएगा।इसलिए यह सबसे अच्छा है कि 'संगठित भारत,समर्थ भारत, खड़ा करने के लिए संघ की किसी एक शाखा में व्यक्तिगत रूप से नित्य उपस्थित होइए। आगे आगे यह खुद ब खुद होता चला जाएगा।क्या करना है यह संगठन में लगभग 10-12 हजार प्रचारक हैं।जिन्होंने शादी-विवाह नहीं किया है।पूर्णकालिक हैं,24 घंटा वही उनका काम है।उनके अपने व्यक्तिगत परिवार भी नहीं है तो वह सोचेंगे और अच्छा ही सोचेंगे।अगर थोड़ी बहुत उनके स्तर पर कमी रह जाती है तो यह हम आप मिलकर दूर कर सकते हैं। किंतु संगठन भाव टूटने ना पाए।यह प्रयास निरंतर होते रहना चाहिए।जब संगठन भाव समाज में खड़ा हो जाएगा तो सामर्थ्य भाव खुद ब खुद आ जायेगा।धर्म की स्थापना के कलियुग मे संगठन का अवतार होगा।किसी भी तरह का मतलब किसी भी तरह करिये।

आपको खुद तय करना है की आगे क्या करना है।कोई फर्क नही पड़ता की लोग आपको क्या कहते हैं लेकिन इससे जरूर फरक पड़ता है की आपके साथ क्या होता है।बहुत साफ समझिए सहिष्णुता आप पर ओढ़ाई हुई चीज है।छोटी-छोटी भूमिकाए खुद चुननी होगी।तुम्हारे घर में एक डंडा तक नहीं होता। अचानक कोई बड़ा कुत्ता,जानवर हमला कर दे, बिल्ली घर में घुस आए तो हो-हो-दुर-दूर करके दौड़ते हो।हथियार के नाम पर एक लाठी नहीं होती,डंडा नहीं होता तुम्हारे पास।चलो तुम्हें सरकारों पर विश्वास है और यही युगों-युगों से होता रहा है।ऊपर से 'कोऊ नृप होय,हमें का हानी,, और 'हानि, तुम्हारी ही होती रही है।तुम्हारे अपने पूजनीय-आराध्य भगवान तक की हानि तुम्हारे सामने होती रही है।तो भैया तैयारी रखो कोई न कोई।सुरक्षा का कुछ उपकरण जरूर घर में होना चाहिए जो तुम्हें संबल दे सके।डंडा, लाठी,कुदाल,हंसिया,हथौड़ा,खुरपा रखना कोई गैरकानूनी काम नही है इन पर कोई लाइंसेस नही होता है।समझे!

   लोकतंत्र में सबसे बड़ी चीज होती है वोट की ताकत।आप बहुत अच्छी तरह समझ बूझ कर अपने मत का इस्तेमाल करिए।जब सरकार पर बेस्ड हो ही गये है तो ठीक सरकार चुने।अपनी सरकार, अपनी विचारधारा की सरकार,अपने लोगों की सरकार चुने जो कम से कम तुम्हारी सुरक्षा,तुम्हारे पुरखो के त्याग का सम्मान,तुम्हारे राष्ट्रीय स्वाभिमान,सनातन भविष्य की सुरक्षा,तुम्हारे पीढ़ियों की संस्कृति की सुरक्षा सुनिश्चित करे।जो भी व्यक्ति राजनीतिक पार्टी या संगठन आपकी खुद की राष्ट्र के विचारधारा का सम्मान करते हैं राष्ट्र के कार्य को कृतसंकल्पित करते हैं उनको ही अपना मतदान वोट दीजिए।यह भी समस्या का बहुत बड़ा निदान है।बल्कि 1 हजार समस्याओं का निदान आपका एक सामूहिक कदम है।समूह में सक्रिय रहिये,लोगो को जगाते रहिये,जरूरत पड़ने पर खुद राजनीति में उतरिये यही चीज आपको आपके पितरो के अस्तित्त्व तक ले जाएगी।उससे पहले तो अंदर से जातीयता का भाव घटाइए,धीरे-धीरे एक एक समाज-एक संगठन की आदत आपको ताकतवर बना देगी।आप लिस्टिंग करेंगे तो तो ढेरो काम निकाल आएंगे जो देखने मे तो छोटे लगते है पर उनसे बड़े अर्थ निकलटे है।यहाँ मेरा तात्पर्य आग्रही होने से है।आपके पास जो भी समय बचता है गरीब-बस्तियो मे दीजिये।उन्हे पढाइए।उनके सुख-दुख मे शामिल होइए।उनके साथ,अपना खाना ले जाकर खाइये,नि:स्वार्थ।विश्वास रखिए वामियों-सामियों-कामियो के खिलाफ यह पोटेंशियल बम ही है।हम जिस फ़ील्ड मे है वहा अपना सम्पूर्ण(परफेक्ट)देना होगा।मतलब की जीरो डिफ़ेक्ट।आपने 2008 मे जेस ब्रेडफोर्ड की मूवी 'ईको,देखी होगी।जब आप किसी चीज को टालते है तो वह भयानक रूप ले लेती है।आप जबाब दे।

    शिक्षा,सिनेमा,लेखन,साहित्य,मीडिया,राजनीति हर जगह खुलकर जबाब दीजिये।ऐसे लोगो को आगे आना होगा जो अपने पौराणिक पुरुषो पर अच्छी फिल्मे बनाए,डाकुमेट्री बनायेँ,परफेक्ट और उनके गूंज और दृष्टि से बाहर आकर नए पैरामीटर पर खुली रिपोर्टिंग करें।हमारा लेखन कभी दुनिया मे सिरमौर रहा है।कूड़ा तो इधर के 70 वर्षो मे स्थापित किया गया है।अब्सोल्यूट टर्म से भरी आर-पार के संदेश देती अच्छी कहानिया,अच्छे उपन्यास लिखे,अमीश त्रिपाठी जैसा।उनके दिमागी जाल से हमे लोगो को बाहर निकालना होगा।जी-टीवी जैसे चैनल और भी स्थापित करने होंगे।तब जाकर खबरे सुधरेंगी।सच जानने के लिए हमे अपना नेटवर्क विकसित करने पर ज़ोर देना चाहिए।एक बात और मार्कट-फोरसेज  जैसे ही आपके मूड को भापती हैं वे खुद ही बदलाव लाने लगती है।पूरा साहित्य और मीडिया इनही दो बातो पर टिका है।वे हर जगह आपको क्न्फ़्युज करने आते है।उनको उनके मुंह पर बोलिए।जब आप एक बार अवाइड करते है तो एक उपासना-स्थल खो देते है।जब समाज की प्रतिक्रिया नही आती तो वे रोज-रोज करके आधिकार मान लेते है।फिर जबर्दस्ती एक्सेप्ट करवाते है।अगर वे मानवाधिकार के नाम पर आतंकियो के साथ खड़े हो सकते है तो उनके सामने उनकी दूनी-भीड़ लेकर हमे तुरन्त पहुचना चाहिए।वह एक पत्र लिखते है तो सौ आवेदन पत्र सार्वजनिक पहुचना चाहिए।वे अगर कम्यूनल कहते है तो उन्हे रास्ट्र-विरोधी कहने मे कोई हर्ज नही।कमबुद्धि तो वे पहले से ही है।अगर वे भक्त कहते हैं तो 'लोकतंत्र का अंध-विरोधी, का विशेषण उनके लिए ही है।न्यायपालिका,कार्यपालिका,व्यवस्थापिका,मीडिया का उपयोग हमे भी करना चाहिए।आप खड़े होइए।लोकतन्त्र के हथियारों का उपयोग करिए यह केवल उनके लिए ही नही है।उस छोटे नेवले की तरह तब तक सिस्टम का उपयोग करने की कोशीश करिए जब तक धरम की स्थापना नही हो जाती।

(वैसे तीन जरूरी मुद्दे व्यूरोक्रेसी,न्यायपालिका,और कारपोरल घराने आपके विश्लेषण के लिए छोड़ रहा हूं।कुछ अन्य बाकी है वह पुस्तक मे आएगा)

साभार https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=10154956838576768&id=705621767

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