Monday, 27 February 2017

आक्रमण के हथियार बदल गए हैं-भाग-१२

'आक्रमण के हथियार बदल गए हैं-12,

'जो देश,समाज बच्चो के मानसिक विकास की पहलू पर नजर नही रखता अपना नैतिक,आर्थिक,विकास खो देता है।उसकी सुरक्षा भगवान् भी नही कर सकते! ,                                                                                      'वृहष्पति,

  चेम वाईजमेंन इजराइल के प्रधानमंत्री थे।यह 1949 की बात है।यहूदियों ने हम हिन्दुओ की तरह ही अतीत में बहुत दर्द भुगते थे।कभी समय हो तो "संघरर्षत इजराइल का इतिहास, जरूर पढ़ें..कलेजा काँप उठेगा। हिटलर तो केवल बदनाम ज्यादा हो गया।उसके अलावा भी सारी दुनिया में उनपर पर बहुत अत्याचार हुए हुए है,इंग्लैण्ड,फ्रांस,जर्मनी,प्रशा,स्पेन,रोमन,अरब, ईरानी सभी ने उन्हें सताया है।हिन्दुओ के अलावा लगभग सभी ने उनपर पर हर तरह के दुःख-दर्द दिए थे।
फ़िलहाल 1948 में यूएनओ ने उन्हें इजरायल दे दिया।यहूदियों के दो हजार साल के संघर्ष के बाद उन्हें बंजर,उजाड़ जमीन दी गई थी।हजारो साल के 14 दुश्मन देशो के बीच में वह बसा दिए गए।वहां पानी की बड़ी समस्या थी।लेकिन दुनियां भर से अपनी भाषा तक भूल चुके यहूदी बसने आ रहे थे।30-35 लाख तो शुरुआत में ही आ गए। उन्होंने हिब्रू भाषा खोज निकाली और पुनः बोलना शुरू किया।वह इजरायल बनाने में लग गए।1952 'आइतजक बेंजामिन, चेयरमैन बने उन्होंने उसी नीति को आगे बढ़ाया।वह 1962 तक रहे।उन्होंने अपना 'हैवी-स्टाइल टाइम,  छोटे-छोटे बच्चो को दिया

उनके बारे में पूरे यूरोप-अमेरिका-रशिया के कम्युनिष्ट पत्रकार एक से एक गन्दी-घटिया बातें लिखते थे।वह 7 से 15 आयुवर्ग के बालको के साथ सुबह-शाम मैदान में गुलाटी,कुश्ती,दौड़,उछल-कूद खेलते थे।देखा-देखी देश भर में सारे यहूदी प्रौढ़ यही कर रहे थे।वे बच्चो के साथ बातें करते,उनको-तरह के कार्टून,कॉमिक्स बना कर दिए जाते,और फिल्मे भी जो उनके महान पूर्वजो के संघर्ष से सम्बंधित होती।

  कम्युनिषट लेखक-पत्रकारों ने उन्हें जाने क्या-क्या नवाजा है।बिलकुल आज के ट्रम्प की तरह ही उनको विलेन बना दिया।रूस से आने वाली फिल्मों में वाइजमैन को विलेन दिखाया जाता।वैसे पहले कभी अंग्रेज,फ्रांसीसी,जर्मनो,स्पेनिश सभी अपने साहित्य में उन्हें विलेन ही रखते थे।इसलिए यहूदियों ने इसे सीरियसिली नही लिया।

अचानक 15 साल बाद दुनिया को एक ताकतवर देश दिखा,महान और शक्तिशाली।
दुनियां की इकोनामी का 8 प्रतिशत वाला देश जिसकी जनसँख्या केवल 50 लाख थी,दुनियां की आबादी में 1 प्रतिशत से भी कम जनसंख्या वाला इजरायल।उद्योग,कारोबार,एजूकेशन,विज्ञान,और ज्ञान से लबालब शक्तिशाली इजरायल।
असल भौचक तब रह गए जब 12 दुश्मन देशो ने एक साथ आक्रमण कर दिया और यहूदी बच्चो ने केवल सबको हराया ही नही सबकी कुछ न कुछ जमीन भी दबा ली,निशानी के लिए।यह वही बच्चे थे जो युद्ध,पैतरे,नीतियां,जासूसी और टिट फार टैट की नीति सीख रहे थे।उस एक-आँख वाले आइजमन और बेंजामिन के साथ।हर बच्चा उनके साथ कभी न कभी मैदान में लड़ा था।
सबने उनको हराया था।पढ़े-डायरी आन थाट,
पता है न इजरायल कितना ताकतवर है??
कैसे बना।घाघ चाचा ने भी इसे 1955 में सीखा,और वामियो-सामियो-कामियों के साथ लग गए।
मैं रूपइया लूंटूं तुम सनातन राष्ट्र प्रवाह मिटाओ का समझौता।
"टारगेट थे नौनिहाल,,परिणाम सामने है।

"बच्चे किसी भी राष्ट्र,समाज,का भविष्य होते है।उनका मनोरंजन उनके खेल,उनके हंसने,उनके सोचने,बोलने,चलने का तरीका तय करता है।यदि विकसित देश चाहिए तो पीढियों के निर्माणकर्ता को उल्लास-उत्साह,उमंग से भरे मनोरंजन दें उनमे से उचित शिक्षा वे खुद ही लेंगे।यही वास्तविक रचनात्मकता होगी।किसी भी देश के विकास की "जमीनी धुरी,वहां के नौनिहाल होते हैं।,

निश्चित ही हममें से कुछ ने ही "प्लानेट एपस-वन,टू या थ्री नही देखी होगी।. विभिन्न प्रकार के जानवरो से बातें करने वाले "डाक्टर डूलिटिल, पर लगातार आने वाली सीरीज1-2-3 तो देखी होगी???
ये हालीवुड की बाल-फिल्मे हैं।इन्होने मेगा-हिट कायम की थी।
अब जब आपने नही देखी है तो बच्चों को भला कहां दिखाने वाले।वैज्ञानिक तरीके से सोचने,समझने और दुनियां को देखने का मानवीय "तरीका, विकसित होने लगता है।जब "होंम-एलोन-1,2,3,के छोटे बच्चे का कामेडी से भरा चालाकी पूर्ण संघर्ष देखते है।डैडी डी डे कैम्प या फ्री विली के बारे में हम सोच सकते हैं क्या???बच्चे 'चॉकलेट फैक्टरी,के माध्यम से अपनी हसरतें पूरी करते हैं।नार्निया-1,2,3 का काल्पनिक जादुई संसार बच्चो को एक ख्याली किन्तु व्यक्तित्व के प्रति आत्मविश्वास जगाता है।
हैरी-पाटर,ननी-मफी,स्टुअर्ट-लिटिल,किंडर-गार्डन, और
कार्टून-फिल्मे श्रेक,...एलिस इन वंडर लैंड,डंस्टन चेक..जथूरा.जुमांजी,पीटर पान,..कास्टेलो मीट फ्रैन्क्स्ताइन,बिग,बैक टू फ्यूचर
मेडा-गास्कर,आइस-एज,...रिंगल वेल,..स्पाइडर-विक़, जैसे हजारों मूवी ऐसी हैं जिनकी सीरीज पर सीरीज बनती जा रही है।
केवल छोटी लड़कियों के लिए हैरिस,.बिग फेयरी टेल,बार्बी-1,2,3,7,8, टिन्कर बेल,जैसी हजारों फिल्मे हालीवुड ने केवल बच्चियों के लिए बनाये।
उपरोक्त फिल्में दुनिया भर के सभी देशो की भाषाओं में डब हुए और अरबों-खरब डालर की कमाई भी और अभी भी कर रहे हैं।
"बेबी डे आउट,की कहानी इतनी ही है कि "एक साल,के बच्चे का अपहरण होता है,वह छोटा किड गुंडों को बहुत पकाता है।""बेब,एक बेबी पिग की कहानी है.."पूस्सी,....गारफील्ड,..एक बिल्ली के संघर्षो की गाथा है,ऐसे असम्भव चीजो को घटनाक्रमो और रोचकता से ऐसा पिरोया गया है कि बड़े,भी बच्चे के साथ "मजे,लेने लगते हैं।सोचिये उनका रिसर्च-वर्क कितना "बडी,मेहनत से भरी रही होगी!!उस फिल्म ने तब 80 करोड़ डालर कमाए थे,आज की 20 साल पहले।
इन फिल्मो का कुल कारोबार जोड़ने पर किसी बड़े देश के बजट से भी ज्यादा निकलता है।...
..ये तो छोड़ दीजिये..!!!
उनमे मनोरंजन के साथ-साथ गहरे "मानवीय सन्देश, होते है जो उत्साह,उल्लास के साथ सकारात्मक,समझपूर्ण संघर्ष को प्रेरित करते हैं।
लगभग हरेक फिल्म को मैं ने ध्यान-पूर्वक विश्लेषण किया।उसमे पूरा साल लगा।"वे,आपके बच्चों में काइयांपन से भरे "डिप्रेशिव थाट,,(कम्युनिज्म)नही भरते(हमारे फिल्मकारों की तरह),न बेवजह का रोना धोना ही घुसाए पड़े हैं।इसलिए वे विकसित,सक्षम देश बने रह सके।
40 के दशक से बन रही इन फिल्मो ने आत्मशक्ति से भरपूर,दिमागी व् शारीरिक स्वस्थ्य,और विकसित देश के मजबूत नागरिक तैयार किये।
एक ऐसी समझ जो मनोरंजन के माध्यम से ज्ञान,तकनीक,सूचनाएं और संस्कार अगली पीढ़ी में डाल देती है।
रूस,चीनी कम्युनिष्ट फिल्में और कूड़ा साहित्य के सहारे बच्चों में कट्टरता बोना चाहते थे।सोवियत रूस का हश्र पता ही है।चीन और अन्य कम्युनिष्ट देश और उनके बच्चे बार-बार उस सड़ांध से छुटकारे का उपाय खोजते दुनिया को दिख ही रहें।जल्द ही छुटकारा मिल भी जाएगा।
इस तरह के शिक्षण के बारे हमारे यहाँ "पता, ही नही चलता।अपने यहाँ प्राय: बाल फिल्मे उनसे चुराकर 'रीमेक,हुई है या फिर बोझिल सी एक-दो कहानियों के दुहराव करके बार-बार बनी हैं।बिलकुल "मैच फिक्सिंग,तर्ज पर।बच्चो को पता होता है अगला सीन या एक्शन क्या हो सकता है...न रोमांच,न एडवेंचर,न सस्पेंस,न थ्रिल और न ही रोचकता।
बस वही रोना-धोना,ओवर एक्टिंग से भरे सीन और चलताऊ सी (सीनेमैटोग्राफी ),उबाऊ,बासीपन से भरे निराशा भरे गाने।
जब हम 'फ्लाई-अवे होम,...बीयर या अपोलो,या ई-टी जैसी फिल्मो को अपने यहा किसी अन्य नाम से पुन: बनाते है तो वह ओरिजीनलिटी नही आ पाती न सहज संतुलन बैठता है।
........जॉकीमान,..पंगा गैंग,बम-बम बोले,महक,ब्ल्यू अम्ब्रेला,स्टैनले टिफिन बाक्स,दो-दूनी चार,राक फ़ोर्ड,हवा-हवाई,जजंतरम-ममन्तरम जैसी फ़िल्मे बना कर आप भविष्य के नागरिको क्या जताना-सीखना-दिखाना चाहते थे..??????
....और "कामेडी या मनोरंजन...तभी तक अच्छा लगता है जब तक बेटर नही मिलता...जैसे ही हाली-वुड की मूवी हाथ लगती है "बच्चे,उसे प्रिफर(प्राथमिकता) करते है।मैं अपने बच्चो से कहता हूँ आज हम घर में "मुंबईया फिल्म, (चिल्ललर पार्टी,राजू चाचा, मकड़ी टाइप) देखेंगे 7 साल की "सुमि,10 साल की रिद्दिमा एकमत होकर तुरंत जबाब देती है 'पापा आप अकेले झेलिए।वे पता नही क्या दिखाते हैं!मैं तो मिकी-माउस देखूँगी या फिर माउन्स हन्ट देखूँगी।,,
"कैस्पर,उनकी पसंदीदा फिल्मो में से एक है या फिर बाल गणेश,वीर हनुमान,लिटिल कृष्णा,भी देख लेती हैं।
....हम तो अभी "तारे जमीन पर ढो,रहे हैं वह भी "अकल रहित नकल,...परियों और जादू की सुनहली दुनियां भी "पिछड़ी एक सुनिश्चित विचारधारा,का कूड़ा दिमाग में डालती रही है।बच्चे अब फालतू "रोने-धोने, से मुक्ति चाहते हैं।अमूमन उनकी फिल्में 'वाम-पंथी कर्म-काण्ड, जैसी थी...अब अक्षत डाल दो...अब प्रसाद चढ़ा दो।
हालाकि बाल-फिल्मो से खूब पैसे बनाये गये।उसका कारण यह है कि अन्य देशो की तुलना में हमारे यहाँ दर्शको का एक विशाल हुजूम सहज ही उपलब्ध रहा है, न की उत्कृष्टता।इन वर्षो में सिनेमा ही एकमात्र मनोरंजन का साधन रहा।कुछ भी कूड़ा-कर्कट परस दो कुछ न कुछ दर्शक मिल ही जाते है।लेकिन इस देश की जनता का अभाग्य कि किसी को भी लूटने का मौका बस मिल जाए.....!
'मुम्बईया सिनेमा, उद्योग के कब्जेदारों ने बच्चों से मनोरंजन के नाम पर केवल पैसे ऐंठे..भविष्य के प्रति कोई जिम्मेदारी न निभाई।
का करें दुर्भाग्य गत हजार साल से पीछा नही छोड़ रहा।
इन समय के सत्तादारों ने इन्हें इनाम-विनाम भी बाँट दिए ताकि समय आने पर ,वापसी,का कर्मकाण्ड कर कार्यकर्ता का दायित्व पूरा कर सकें,.............. साहित्यिक कार्यकर्ताओ की तरह।जंबो,..चूरन गोली,.अकबर-बीरबल,वीर अभिमन्यु,जलपरी,ग्रीन चीक,छोटा भीम..घटोत्कच आदि जैसी कुछ फ़िल्मे इधर के एक-दो साल में बननी तो शुरू हुई हैं किंतु उनमें वो बात नही आ पा रही है...महज औसत दर्जे की चलताऊ सी लगती हैं..!
1957 मे बनी फिल्म "हम पंछी एक डाल के,तक कुछ कोशिशे दिखती हैं उसके बाद तो नेशनल अवार्ड वाली फिल्में भी जाने क्या बताना चाह रही हैं..फूल और कलियाँ,डेलही की कहानी,नन्हे-मुन्ने सितारे,सावित्री,राजू और गंगाराम,पाँच पुतलिया,सफेद हाथी,आज़ादी की ओर,अंकुर,मैंना और कबूतर,कभी पास-कभी फेल,गोल,चुटकन का महाभारत,देख इंडियन सरकस,इन सभी मे मनोरंजन तो नही ही की शिक्षा और संस्कार क्या दिए,,..शोध का विषय-वस्तु है...!
प्रामाणिक रूप मे दुनियाँ की अन्य भाषा मे नही देखी जाती,..भारत के बाक्स-आफ़िस पर असफल रहीं फिर पुरस्कृत क्यों की गयीं,,..यह भी जाँच का प्रश्न है।
इन वर्षो में बनी सभी फिल्मो का "तुलनात्मक-शोध-अध्ययन-विश्लेषण, किया जाए तो इन सत्तर सालों में हमारे फिल्मकारों ने निहायत ही गैर-जिम्मेदाराना तरीके से फिल्मे बनाई।उनको अपनी फिल्मों के निर्माण का "उद्देश्य,भी नही पता रहता था।अगर वह मनोरंजन के लिए बनती थी तो निहायत फूहड़,घटिया और बेवकूफाना थी।उगाही ही उनका उद्देश्य था।कंफ्यूजियाना ही उनका उत्पाद था।
इतने सालों से हमारे सो-काल फिल्मकार जाने किस लोक-या युग में रहते रहे थे।
सांस्कृतिक सन्देश देती पौराणिक,वैदिक और सांस्कृतिक आदर्श कहानिया तो खैर सेकुलर-वामी सोच के खिलाफ थे इसलिए बनाना ही नही था,.....ऊपर से सरकार के नाराज होने का खतरा।अपनी कोई काबिलिलियत नही थी।.पंचतंत्र,....वृहतकथा संहिता,...अमरकथा,..गोपाल भांड.तेनाली रामन के देश में अच्छी कहानियो और पटकथाओं का अभाव न था बल्कि......इन वर्षो में फिल्मकार,,साहित्यकार और सरकार वामी-सेकुलारिया (प्रो-ईसाई-इस्लामिक) 'दिमागी दरिद्रता, का शिकार हो गयी थी..।....अच्छी दिशा में जा रही कई फिल्मो को सेकुलरिज्म घुसेड़ने के चक्कर में कबाड़ होते देखा है।
अधिकाँश बाल फिल्मो में फालतू का रूदन,दुःख,शोषण,उदासी,निराशा से भरा भयावह नकारात्मक चित्रण किये गये हैं....बचा/खुचा काम बेसुरे गीतों ने कर दिया है.....ऊपर से रुदाली टाइप के संगीत!वह भी किसी वेस्टर्न म्यूजिक से मारा हुआ।आज के नेट-सोशल मीडिया के युग में छोटे-छोटे बालक तुरन्त बता देते है,मोजार्ट है की बीथो बिन"!
या रीमेक किसी फ़िल्म का मारा हुआ है!
यह बच्चों में चेलेंज स्वीकारने की क्षमता घटाने का काम करता था।यही सब हमारे देश के लगातार पिछड़े रह जाने,व् गरीबी के कारणों में से एक बना।.....जब उत्साह-उमंग व् ऊर्जा से लबालब युवक ही न तैयार हुए तो "रचनात्मता पूर्ण निर्माणक, कहाँ से बनते।इन फिल्मो ने दिमाग से लाचार,नौकरीपेशा लायक वर्ग तैयार करने में बड़ी भूमिका निभायी,।ऐसे नही 'राजवंश,लगातार सत्तर सालों तक बना रहता!
   और उनमे भी मनोरंजन के माध्यम से किसी संदेश के बजाय वही "कम्युनिष्टिक प्रशिक्षण,करने की कोशिश दिखती है,सरकारी पाठ्यक्रमो में बनाया गया है।फिल्मकारो के इस गैर-जिम्मेदाराना अयोग्यतापूर्ण सोच ने पूरे पांच पीढियों के "बालमन, को "अवसादी, बना डाला।उसका प्रभाव यह रहा कि स्वतंत्र और विकासवादी सोच विकसित होने की जगह पूरा "देश,लगातार सत्तर सालों तक द्वन्द में जीता रह गया।उल्लास-उल्लास से भरा "निर्द्वन्द, बचपन एक राष्ट्र का मूल-भूत विकास कारक तत्व होता है।उन्हें पीढ़ी दर पीढ़ी गुलाम चाहिए थे इसीलिये एनऍफ़टी में"गजेन्द्र सिंह,अखरते हैं।क्योकि सोच और साजिशों मे दखलंदाजी का खतरा मँडराता रहता है।साल दर साल देश की जनता को अपनी कट्टरता तले"ठगते,वे रहे और 'असहिष्णु हम हैं,!!
अब ज़रा इन सौ सालों मे बनी विश्व की टाप पचास बाल-फ़िल्मो पर निगाह दौड़ाईये..(कमेन्ट बाक्स मे है).ये मुंबइया फिल्म उद्योग की हक़ीकत खोलते हैं...ये मेरी बनाई लिस्ट नही है...ये दुनिया भर के सैकड़ो विशेषज्ञो के पैनल ने 'ब्रिटिश फ़िल्म इंस्टीट्यूट,ने लगातार नजर रखकर व् तुलनात्मक अध्ययन करके यह लिष्ट बनाई है।लिस्ट जरूर देखे॥समय मिले तो फिल्मे भी।
हमारी एकमात्र ....एक फ़िल्म 1955 में बनी 'पाथेर-पांचाली, उसमे शामिल है।मैं उसे बड़ो की फ़िल्म कहता हूँ।
अपने बच्चे को इतनी गहरी 'निराशा-हताशा,असफल,कमजोर भारत की तस्वीर मुझे नही दिखानी,जैसी उस 'रे,ने दिखाई है।
  इस तरह लेखन,कार्टून,कामिक्स,पत्र-पत्रिकाएँ,बाल-साहित्य,गेम,इन्स्ट्रुमेंट एसबी एक घातक हथियार की तरह यूज की जाती है।आपकी पीढ़ियो के सोच,विचार,और संस्कार मे बदलाव के लिए फिर वे रहन-शएचएन जीवन शैली सब बदलने लगते है।ऋषियों-मनीशियों के संस्कार उन्हे बेगाना-लगने लगता है।कुछ दिनो बाद ही यही बच्चे उनके लिए तर्क गढ़ रहे होते है।अगली पीढ़ी बोलती है...""वे हिन्दू लोग अपने मुरदे जलाते क्यो है??,,उसका नाम बस अर्पण सिंह,मिश्र,खन्ना,आर्य आदि  होता है,किन्तु वह खुद को 'वे,बोल रहा होता है।
जडो से काटने का यह प्रयास पूरी योजना-रचना से किया गया है। यह शिक्षा-पद्दति केवल “भगवान्, ही नही अपनी ठगी-पूर्ण सामी सोच के अलावा माँ-बाप,देश,संस्कृति,जीवन शैली,आचार-विचार,आस्थायें,अपने पूर्वज,पितर,महापुरुष आदि सबकुछ हल्का कर देती है,पूरी तरह कैजुअल,स्वाभिमान नष्ट करने की स्लो प्रक्रिया है!एक धीमा जहर जो “मानसिक विकलांग,समाज तैयार करता है।वह खुद के पूर्वजो की चीजों को गालिया देकर खुद को “सेकुलर, समझ संतुष्टि महसूस करता है।
यह कभी नही सोचता कि ये इसाई,मुस्लिम अपनी आस्थाओं को लेकर क्यों इतना “कट्टर, है वे क्यों नही अपनी किताब अपने पैगम्बर को “गरियाते,और सेकुलरिज्म का लबादा दिखाते।
वामी-सामी-कामी-झामी के साजिशो की यही सफलता है।
......और पिछले 150 साल से मिल रही मिशनरियीय-शिक्षा।कहना ही क्या?
  इस शिक्षा के लिए “लालायित,, रहे अपनी लापरवाही की कीमत 74 लाख से अधिक “वृद्दजन गार्जियन,देश भर में चुका रहे हैं वे या तो बड़े बंगले में अकेले हैं या फिर वृद्दाश्रम में।इनके बच्चे मिशनरी स्कूल शिक्क्षित हैं।आप अपने शहर में जांच सकते हैं।पश्चिमी देशो के लिए यह आम है हम भारतीयों के लिए नई चीज।
जो अपने बाप का न हुआ,जिसमे स्वाभिमान नही है उसी को “जन्तु, कहते है..!
“ये,नव-प्रशिक्षित जन्तु अपने माँ-बाप के भी नही होते।पूर्वजों के प्रति उनका स्वाभिमान क्रमश: समाप्त किया जाता है।धीरे-धीरे उनके अंदर अपनी आस्थाओं,श्रद्दा और मान-बिन्दुओ की हंसी उड़ाने की “”प्रवृत्ति, तैयार की जाती है।अपनी पूजा पद्दतियों के प्रति एक नकारात्मक भाव भरा जाता है।
“सनातन, के प्रति स्वाभिमान तो छोडिये यह प्रवृत्ति अपने पैदा करने वालों,के प्रति भी ”वास्तविक सम्मान, नही रहने देती।नकारात्मकता इनकी चेतना में निहित हो जाती है।मनो वैज्ञानिक शोधो से एक खूंख्वार तथ्य सामने आया है “वे खुद नही जानते वे क्या चाहते हैं।
     पता कर भइए! इनके ही माँ-बाप आज बड़े बंगलो में अकेले सड़ रहे हैं।वृद्दाश्रम में भेजे जा रहे हैं।बेटवा कैरिअर संवार रहा है,बड़े शहरो या विदेश में।बीच-बीच में हाल-चाल ले-लेते हैं।पैसा भेजते रहते है।……..तलाक़-वलाक आम बात है,,.शुरुआती पीढ़ी वाले गहरे डिप्रेसन और अकेले-पन से पीड़ित होकर मरे,,,बाद वाले जो खुद को बड़े “”बुद्धिजीवी,कहते/समझते थे,उनमे से दो चार को खोजो या तो अब पूजा-पाठ मे डूबे पश्चाताप कर होंगे या फिर अवसाद के साथ अन्य बीमारियों का इलाज कराते किसी अशपताल मे अकेले पडे मिल जाएँगे….सकारात्मकता नही है तो दोस्त-साथी,हित,नातेदार कोई नही बच रहता..विशेषकर कम्युनिष्ट और सेकुलरिशटो का बुढ़ापे में बड़ा बुरा हाल दिखता है।थोड़ा अगाल-बगल घूम आओ मिल जाएँगे।
  
  ईसाई कांग्रेसियों,वामियों,मुस्लिमों के गठजोड़ ने तरीके से सनातन संस्कृति को अपनें मूल स्थान से पूरी तरह निपटाने की ठानी थी!1947 के बाद सारे फ़िल्मकारों ने पूरी योजना के साथ उनका सहयोग किया था…एकाध छोटे-मोटे निर्माता आगे भी आए वे सरकारों द्वारा नीति के तहत बुरी तरह हतोत्साहित किए गये… वो तो भला हो “साउथ की फिल्मों और टेलिविजन के छोटे पर्दे,, का नही तो अपना गोबर सभी के दिमाग़ मे भरने मे कोई कसर न छोड़ी।अब टेलीविजन पर आ रहे बाल सीरियल और कार्टून-सीरियल- फिल्मे भी हिंसा-सेक्स और सेकुलर कुत्सा की राह पर हैं।
फिल्मों के माध्यम से सनातन जीवन् शैली के विरोधी सोच को ग्लैमराईज किया..हज़ारों साल की संस्कृति को दिमागी तौर पर पिछड़ा व्यक्त किया,ऐसे ही फ़िल्मकारों को सरकारों द्वारा प्रोत्साहन दिया जाता था जो सेकूलरिज़्म के नाम पर पूर्वजों की थाती को घटिया,पिछड़ा,अविकसित साबित करें…!
जब मैसेंजर,पैंगम्बर,बेनहर,टेन कमांडमेंट,जीजस,मोजेज,टाइटन,हरकुलिस,ट्राय,स्पार्टकस,मरियम आदि जैसी 3-4 सौ करोड़ डालर लागत से पौराणिक-गाथाओ पर फिल्में बना कर हालीवुड वाले अपनी धार्मिक सामाजिक आस्थाओ को गौरव से दिखा सकते हैं।..खूब कमा सकते हैं.तो हमारे फिल्मवाले हजारों-हज़ार महागाथाओ पर कर क्यों नही बनाते थे..?जबकि उन गाथाओं मे इस दुनियाँ के लिए अपनी तरह के स्वतंत्र और संप्रदाय-रहित संदेश छुपे थे..!
दिमाग़ में सेकूलरिज़्म का कूड़ा जो भरा हुआ था..प्रो-ईसाई-मुस्लिम सेकूलरिज़्म!
ऊपर से सरकार का “हिन्दू-हतोत्साह प्रोजेक्ट,!!!
शिक्षा और पाठ्य-क्रमों के मध्यम से सरकारों ने भी धीमा जहर भरा,…दुष्परिणाम खुद भुगतो।क्योंकि अपनी चीज़ों का अपमान और भोगवाद शिक्षा और मनोरंजन के मध्यम से डाला है उसका दंश तुम्हे खुद ही सहना होगा।

(...आगे पढिए-भाग 13)

साभार https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=10154914723066768&id=705621767

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