Saturday, 25 March 2017

रूपये की बरसात होगी। (पशु पालन)

रूपये की बरसात होगी।

कई शहरों के तमाम हिन्दू मांसाहारी सकते में है।नामी-गिरामी नान-वेजिटेरियन बिक्रेता उन्हें धोखे से भैस-बैल आदि बड़े पशुओं का मांस खिला रहे थे।जब से योगी शासन आया है और अवैध बूचड़खानों पर रोक लगाई है तब से भैंस और बीफ को लेकर मीडिया ने हो-हल्ला मचा रखा है।ऐसा लगता है कयामत आ गई हो।मीडिया के रहस्योदघाटन के बाद कुछ लोग कबाबियो पर केस की तैयारी में भी हैं।हालांकि मीडिया ने बूचड़खाने बन्द होने के विरोध करने की जल्दबाजी में यह गलती कर डाली।पर वह चर्चा में तो आ ही गई है।अब हर गली इस धोखेबाजी और धूर्तता पर चर्चा चल रही है।अब लोग खान-पान में सजग भी रहेंगे। फ़ूड कंसेप्ट के मामले में भारत वर्ष की जनता का फंडा सदैव से क्लियर रहा है।गो-धन-पशुओं को खाद्य की श्रेणी में कभी नही रखा गया था।यह दसवी शती के बाद बाकायदा योजना-बद्ध तरीके से पैदा किया गया है।पूरा माहौल बनाकर इसे भारत की मूल अर्थ-केंद्र काऊ-इकनॉमी को नष्ट करने की मंशा से यह किया गया।यहां मांस के रूप में कुक्कुट,मछली,पोर्क,और अज पशु ही मान्य रहे है।आपने सभी प्राचीन ग्रन्थों में 'वाराह शिकार,अवश्य पढा होगा।सदियों से समस्त वीर्यवान-शौर्यवान लोग सूअर मांस का उपयोग करते थे।इधर के 70 सालो में हमारे कमजोर होंते जाने के पीछे आहारों में आ रहा यह घनघोर बदलाव है।

  अगर हमें ताकतवर देश बनना है,बहुत सारा रुपया जल्दी से जल्दी कमाना है,ओलम्पिक में ढेर सारे पदक लाने है तो “सूअर पालिए और पदकधारी तो बनिये ही, धनी देश भी बनिए।अमेरिका-रूस-चीन-जर्मनी-साउथ कोरिया की तरह।उसका मांस दुनियां के सर्वश्रेष्ठ और पौष्टिक आहारों में गिना जाता है।उसकी ऊर्जा अंदर तक बलवान बनाती है।ब्रेन तथा हड्डियों के लिए रामबाण।

फैक्ट-1-ओलम्पिक के अब तक के 93 प्रतिशत पदक सूअर खाने वाले ले गए।
फैक्ट-2- ओलम्पिक में अब तक पोर्क न खाने वाले केवल 3 प्रतिशत ही पदक प्राप्त कर सके।
फैक्ट-3-दुनियां में पोर्क मांसाहार ही सर्वाधिक प्रचलित है।
फैक्ट-4-आज तक के हुए समस्त युद्धों में 90 प्रतिशत जीत पोर्क खाने वाली नस्लो को हुई है।
फैक्ट-5-समस्त संसार में यह मांस का सबसे बड़ा व् लाभप्रद व्यवसाय है।

बीफ की जगह पोर्क खाने वाले 93 प्रतिशत पदक ले गए।गोल्ड,सिल्वर,कांसा सब उनके यहां गया जो सूअर खाते हैं।केवल यही नही ओलम्पिक और अन्य खेलों में आज तक ‘गये,कुल पदको का 96 प्रतिशत पदक भी सूअर अहारियो ने जीते हैं।मैं इतिहास का विद्यार्थी रहा हूँ इसलिए यह भी बताना जरूरी है।आज तक के इतिहास में जितने भी आमने-सामने वाले ‘युद्द,हुए हैं उनमे ज्यादातर सूअर खाने वाले जीते हैं।पोर्क न केवल अत्यंत स्वादिष्ट होता है बल्कि अकूत शारीरिक क्षमता भी देता है।

सारे जगत के डॉक्टर ‘रेड मीट ,से बचने और ‘व्हाइट मीट,खाने का सलाह देते हैं।अमूमन वह ‘सूअर-मांस,, ही होता है।रेड मीट बड़े पशुओं से प्राप्त होता है जिसे डब्ल्यूएचओ ने मानवीय स्वास्थ्य के लिए खतरनाक घोषित कर रखा है।कैलोरी और मेडिकल साइंस की दृष्टि से पोर्क सबसे अधिक पाचन-शील और स्वास्थ्यवर्धक होता है।(हालांकि मैं ”मांसाहारी, नही हूं और घनघोर विरोधी हूँ)किंतु कारण जानने की जिज्ञासा में मैं ने दुनियां के तमाम मांसाहारियों से बात की तो पता चला की सूअर से ‘लजीज,मांस किसी भी जंतु का नहीं होता।शायद इसीलिये ‘पोर्क, दुनिया भर में काफी बड़ी मात्रा में खाया जाता है।    रूस,अमेरिका,चीन,इंग्लैण्ड,फ्रांस,इटली,स्पेन (संपूर्ण यूरोप) आस्ट्रेलिया,जापान,साउथ-कोरिया जैसे सफल देशों में पोर्क मुख्य भोजन है।अफ्रीकन और लैटिन अमेरिकन देशो में जरूरी आहार है…..विशेषकर जमैका में जहां वह काफी लोकप्रिय है।जिन देशों में नही खाया जाता है।वह किस स्थिति में हैं पाठक उनका आंकलन खुद कर लें।जाने किस ‘नीति, के तहत हम यहां हम सूअर रखाये(बचाये)जा रहे हैं।अन्य मांसो के एक्सपोर्ट की तुलना में सूअर का मांस भारी लाभ का सौदा है।लेकिन हम जान-बूझकर उसमे बहुत पीछे हैं।विश्व के टॉप 15 एक्सपोर्टरों में भी हमारा नाम नही है।जबकि विदेशी मुद्रा के लिए यह सबसे सरल तरीका था।

“”15 countries that exported the highest dollar value worth of pork during 2015:,
United States: US$4 billion (15.9% of total pork exports)
Germany: $4 billion (15.7%)
Spain: $3 billion (11.9%)
Denmark: $2.5 billion (10%)
Canada: $2.2 billion (8.8%)
Netherlands: $1.8 billion (7%)
Belgium: $1.3 billion (5.2%)
Brazil: $1.2 billion (4.6%)
France: $827 million (3.3%)
Poland: $773.1 million (3.1%)
Ireland: $415.7 million (1.6%)
Mexico: $394.6 million (1.6%)
Chile: $391.4 million (1.5%)
Austria: $378.6 million (1.5%)
Hungary: $342.2 million (1.4%)

तो इस ओलम्पिक में पोर्क का सबसे बड़े उत्पादक-एक्सपोर्टर अमेरिका के सबसे बड़े पदकधारी होने के पीछे पोर्क ही है न!!
हे हे हे हे।

खैर छोड़िये!!
सूअर के कारोबार में हम क्यों पिछड़ गए??
क्या कारण है…..Understud है।
हमारी अर्थ-व्यवस्था विकास के लिए सूअर पालन बहुत बड़ी भूमिका अदा कर सकता है।दुनिया का इन बिल्ट सबसे बड़ा कारोबार है सबसे बड़ा बाजार है जो हमारे हाथ से बड़ी चालाकी से निकाल दिया गया।‘हाथो-हाथ,, हम दुनियां भर पर कब्जा कर सकते हैं।
बड़े जंतुओं की तुलना में उसका उत्पादन आसान है और और कई गुना लाभदायक भी।एक साल में दो बार 12 बच्चे पैदा करता है।अगर 20 जोड़े सूअर आपने पाल लिए तो यकीन मानिये बिना किसी ख़ास लागत-और श्रम के पांच-साल में 2 करोड़ के मालिक बन सकते है।सारी दुनियां में पोर्क यानी सूअर के मांस की इतनी मांग है कि हमारे गाँव के गाँव अमीर हो सकते हैं।
सबसे मजे की बात यह है कि हैवी-क्वालिटी के दुनिया भर में भारतीय सूअरों की सर्वाधिक मांग है।वैश्विक आंकड़ो की दृष्टि से सूअरों की संख्या के मामले में हम टॉप पर हैं।वे एक सूअर से साल में छः स्वस्थ्य-बच्चे निकाल पाते हैं 12 तक पहुँचते-पहुँचते उनकी क्वालिटी निहायत रद्दी हो जाती है। पर हमारे यहां उनकी संख्या 24 तक पहुँचती है ‘वह भी पूर्णत: हेल्दी।देश के किसी भी हिस्से में चले जाइए मांसाहार हेतु पशुपालन में सूअर आज भी मुख्य है।प्राचीन काल में वह अनिवार्य व्यवस्था थी इस्लामिक अटैक के बाद उसका स्थान ‘बकरी पालन,ने ले लिया।वह अति-वनस्पति-आहारी (ज्यादा खाने वाली)होने के कारण कई गुना मंहगा पड़ती है।फिर भी हम सप्लाई(एक्सपोर्ट)नही कर पाते?हमारे उत्पादक और एक्सपोर्टर क्यों पीछे हैं?
कभी सोचा?

भारत की प्रकृति में लगभग सभी समुदायों में वह भोजन का अंग तो था ही,इसके अलावा समृद्धि, धार्मिक,तांत्रिक,मांत्रिक प्रतीकों का अंग रहा है।शक्तिशाली राजे वाराह को  राजचिन्ह के रूप में दर्शाते थे।प्रतिहार  नागभट्ट जिसने 8वी शती में अरब आक्रमणकारियों को हराकर नष्ट कर दिया था उसका राजचिन्ह वाराह था।
आप वाराह की उपयोगिता इससे समझ सकते हैं कि 'सूअर की चर्बी, दैनिक दिनचर्या में ग्राम में जीवन में अनिवार्य हिस्सा है।अभी गांव में किसी भी घर में चले जाइए सूअर की चर्बी का बोतल हर घर के बाहर रहता है।गाँवों में आज भी सौ समस्याओं का एक इलाज होता है। 50 प्रतिशत शारीरिक बीमारियों का इलाज सूअर के चर्बी से होता है। लगभग सभी घरों में सूअर की चर्बी दवाइयों के रूप में अनिवार्यत: मौजूद रहता है।यह कोई आज से नहीं है, युगों से इसका इस्तेमाल हम तमाम तरह के संसाधनों,प्रसाधनों,औषधियों के रुप में सूअर की चर्बी उपयोग में लेते रहें है।सूअर का दांत बड़े से बड़े तांत्रिक कार्यों में उपयोग में लिया जाता है। कहते हैं दुनिया का सबसे शक्तिशाली प्रेत भी आ जाए तो सूअर का दांत दिखा दो तो भाग जाएगा।इतनी पापुलर डिश अचानक गायब कैसे हो गया यह कैसे हो गया अचानक इतना उपेक्षित व् निरुपयोगी कैसे हो गया?सोचिये-सोचिये।

किसी भी वामपंथी द्वारा लिखे गए ‘प्राचीन भारतीय इतिहास, की किताब उठाकर पढ़ लें कि ‘लाइट आफ एशिया गौतम बुध्द की मृत्यु सूअर का मांस खाने से हुई थी।उतना महान आदमी भी यदि पोर्क खा रहा था तो प्रमाण है उन दिनों वह मुख्य मांसाहार रहा ही होगा।इतिहास के कम से कम 15 सौ से अधिक उदाहरण मौजूद है कि सूअर का मांस ही भारत में प्रचलित खाद्य था।इस प्रकार अगर अगर गहराई से अध्ययन किया जाए तो आपको दिखेगा कि युगों से भारत का लोकप्रिय और मुख्य ‘मांस-आहार,मछली और सूअर ही था।तीव्र और बड़ी संख्या का सहज उत्पादन उसका कारण था।सदैव से एक पूरा समाज ही उसकी अर्थव्यवस्था के केंद्र में रहा है।बाद मे कुत्सित मंशा के साथ उस व्यवसाय को नीचा दिखाकर हतोत्साहित किया जाने लगा।

पोर्क का हतोत्साहन और चमड़े का व्यापार हथियाना दलितों के साथ इतिहास की सबसे बड़ी ”आर्थिक साजिश,, है।भारत वर्ष में गरीब और दलित जातियाँ आज भी सबसे बड़ी संख्या में खाद्य और उत्पादक के रूप में सूअर ही पालती हैं।उनकी सम्पन्नता इससे बढ़ सकती थी।चूँकि वह टारगेट वोटर हैं तो ‘सेकुलर,उसको गरीब और असहाय बनाये रखने के लिए उसके उत्पाद को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में नही लगने देना चाहते थे।कम्युनिष्ट और सामी पत्रकारों ने बड़ी खूबसूरती से उसे पाठ्यक्रमो और लोगों की नजर से गायब किया।उनके अपने कारण भी आप जानते ही हैं।कांग्रेसियों ने उसे सेकुलरिज्म की भेंट चढ़ा दी।”वैसे जब तक हम सूअर खाते रहे दुनियां के विजेता तो रहे ही ‘राह,भी दिखाते रहे,।

  1950 के बाद भारत में यह विधिवत प्रचारित किया  गया कि सूअर का मांस से मस्तिष्क ज्वर और मेनिनजाइटिस जैसी बीमारिया पैदा होती है।कई अन्य बीमारियों को भी इससे जोड़ा गया।इसका कोई आधार नहीं था।यह केवल भारत और इस्लामिक देशो में ही बहु प्रचारित है।इन निराधार बातो को मीडिया और सिनेमा ने भी स्थापित किया।मैक्स दिल्ली में न्यूरोलॉजी के विशेषज्ञ 'डॉक्टर मुकेश, का कहना है इन बीमारियों का सूअर मांस से दूर दूर तक कोई नाता नहीं है,।देश के कई नामी-गिरामी चिकित्सको का भी यही कहना है। कई कृमि वैज्ञानिक भी यही कहते है।जिन बीमारियो को पोर्क से जोड़ा गया वह लगभग सभी पशुओं के मांस से जेनरेट हो सकती हैं।लेकिन जिस मंशा से यह बात लोगो के जेहन में बैठाई गई वह खतरनाक थी।मैं नाम नही लिखना चाहता।अगर आप इस Google पर ही जाकर सर्च करिए तो वह नाम निकल आएंगे।जिन्होंने इस बात की स्थापना की कि सूअर का मांस बीमारियां पैदा करता है तो उन नामों को देखकर आप बहुत अच्छी तरह समझ सकेंगे की असल मंशा क्या थी।
फिलहाल यह बड़ी चतुराई से देशभर में घृणित रूप बनाकर फैलाई गई थी।कुछ वामी-सामी पत्रकारों ने इसे खूब प्रचारित किया।आज सूअर मांस का कारोबार समाप्त-प्राय है।गहराई में जाकर जब आप इसको देखते हैं तो यह साजिश आपको साफ साफ दिखती है।एक समाज की मजहबी मानसिकता ने कैसे धीरे-धीरे मेन फूड को समाज से किनारे लगा दिया।डीएन झा,डीडी कौशांबी,आदि वामी इतिहासकारों ने इसको बीफ की तरफ मोड़ने की कोशिश की।ऐसे बहुत सारे लोगों से लिखवाये जाने लगा कि सुअर मांस भारत में कभी फूडिंग रूप में नहीं था।उन बातों को नेपथ्य में डाल कर के चीजों को घुमा दिया गया।फलस्वरुप एक समाज जो सूअर-पालन का विशेषज्ञ था।अच्छी अर्थव्यवस्था चलाता था वह धीरे-धीरे दलित वर्ग में गिना जाने लगा।योगी सरकार को अब् उसके उत्थान के लिए आवश्यक होगा कि सूअर मांस को प्रोत्साहित किया जाए।केवल थोड़ा दिमाग लगाकर जहमत उठाकर लोगो के कहने-सुनने से आगे बढ़कर वैज्ञानिक ढंग से सूअर पालन करिये फिर देखिये कैसे रूपये की बरसात होती है।दुनियां का कोई बिजनेस इस विकास दर से नही बढ सकता।

  थोड़ा भी मनन-चिंतन-अध्ययन-विश्लेषण का शौक और बुद्धि हो तो खुद ही समझ लीजिए’ गो-आधारित अर्थ व्यवस्था, पर’अरेबिक,जीवन शैली क्यों आक्रमणकारी वृत्ति से भरी रही “सूअर,, क्यों नापसंद रहा यह भी।

(Re-post with Editing)

साभार:
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=10155050912401768&id=705621767

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