#जय_राजपुताना #जय_जय_हिन्द_की_वीरता
जहाँ हिन्दू ------ वहां विजय ही विजय
पढ़िए राजस्थान के इतिहास की उस घटना की बारे में जब एक रानी ने विवाह के महज सात दिन बाद अपना शीश खुद अपने हाथों से काटकर पति को निशनी के तौर पर रणभूमि में भिजवा दिया था ताकि उसका पति उसके रूप-यौवन के ख्यालों में खोकर कहीं अपना कर्त्वय पूरी निष्ठा से ना कर पाए। यह इतिहास की एक ऐसी अद्भुत वीर गाथा है,,, जिसे पढ़ने मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते है ।
हाड़ा रानी !!
शादी को महज एक सप्ताह हुआ था। न हाथों की मेहंदी छूटी थी और न ही पैरों का आल्ता। सुबह का समय था, हाड़ा सरदार गहरी नींद में थे। रानी सज धजकर राजा को जगाने आई। इस बीच दरबान आकर वहां खड़ा हो गया। राजा का ध्यान न जाने पर रानी ने कहा, महाराणा का दूत काफी देर से खड़ा है। आपके लिए कोई आवश्यक पत्र लाया है उसे अभी देना जरूरी है। उसने हाड़ी रानी को अपने कक्ष में जाने को कहा। ठाकुर ने दूत से कहा, अरे शार्दूल तू। इतनी सुबह कैसे? शार्दूल ने कहा सचमुच बड़ी संकट की घड़ी आ गई है। हाड़ा सरदार का मन आशंकित हो उठा। सचमुच कुछ अनहोनी तो नहीं हो गयी है। दूत युद्ध के लिए प्रस्थान करने का निर्देश लेकर आया था। अंत में जी कड़ा करके उसने हाड़ा सरदार के हाथों में राणा राजसिंह का पत्र थमा दिया। राणा का उसके लिए संदेश था।
आखिर ऐसा क्या लिखा था पत्र में !!
उन्होंने मुगल सेना के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करन के लिए हाड़ा सरदार को पत्र लिखा था। वही संदेश लेकर शार्दूल सिंह मित्र के पास पहुंचा था। एक क्षण का भी विलंब न करते हुए हाड़ा सरदार ने अपने सैनिकों को कूच करने का आदेश दे दिया था। अब वह पत्नी से अंतिम विदाई लेने के लिए उसके पास पहुंचा था।
युद्ध के लिए निकल पड़े हाड़ा
केसरिया बाना पहने युद्ध वेष में सजे पति को देखकर हाड़ी रानी चौंक पड़ी, वह अचंभित थी। कहां चले स्वामी? सरदार ने कहा 'मुझे यहां से अविलंब निकलना है। हंसते-हंसते विदा दो। पता नहीं फिर कभी भेंट हो या न हो।' हाड़ा सरदार का मन आशंकित था। सचमुच ही यदि न लौटा तो। मेरी इस अर्धांगिनी का क्या होगा ?
सरदार के मन में अन्तर्द्वंद
एक ओर कर्तव्य और दूसरी ओर था पत्नी का मोह। इसी अन्तर्द्वंद में उसका मन फंसा था। विदाई मांगते समय पति का गला भर आया है यह हाड़ी रानी की तेज आंखों से छिपा न रह सका। हालांकि हाड़ा सरदार ने उसे भरसक छिपाने की कोशिश की। हताश मन व्यक्ति को विजय से दूर ले जाता है। उस वीर बाला को यह समझते देर न लगी कि पति रणभूमि में तो जा रहा है पर मोहग्रस्त होकर।
बस फिर क्या था??? फिर उसके बाद तो इतिहास किताब पर फिर सोने की स्याही से ही लिखा जाना था ।
पति विजयश्री प्राप्त करें इसके लिए उसने कर्तव्य की वेदी पर अपने मोह की बलि दे दी। वह पति से बोली स्वामी जरा ठहरिए। मैं अभी आई। वह दौड़ी-दौड़ी अंदर गई। आरती का थाल सजाया। पति के मस्तक पर टीका लगाया, उसकी आरती उतारी। वह पति से बोली। मैं धन्य हो गयीं, ऐसा वीर पति पाकर। हमारा आपका तो जन्म जन्मांतर का साथ है। राजपूत रमणियां इसी दिन के लिए तो पुत्र को जन्म देती हैं, आप जाएं स्वामी।
राणा निकल तो आया लेकिन..
हाड़ा सरदार अपनी सेना के साथ हवा से बातें करता उड़ा जा रहा था। किन्तु उसके मन में रह रह कर आ रहा था कि कहीं सचमुच मेरी पत्नी मुझे बिसार न दे? वह मन को समझाता पर उसका ध्यान उधर ही चला जाता। अंत में उससे रहा न गया। उसने आधे मार्ग से अपने विश्वस्त सैनिकों के रानी के पास भेजा। उसको फिर से स्मरण कराया था कि मुझे भूलना मत। मैं जरूर लौटूंगा। और रानी के लिए संदेश भिजवाया कि पत्र वाहक द्वारा कोई अपनी प्रिय निशानी अवश्य भेज देना।
रानी ने दिया ये जवाब
हाड़ी रानी पत्र को पढ़कर सोच में पड़ गयीं। युद्धरत पति का मन यदि मेरी याद में ही रमा रहा, उनके नेत्रों के सामने यदि मेरा ही मुखड़ा घूमता रहा तो वह शत्रुओं से कैसे लड़ेंगे।
उसके मन में एक विचार कौंधा। वह सैनिक से बोली वीर 'मैं तुम्हें अपनी अंतिम निशान दे रही हूं। इसे ले जाकर उन्हें दे देना। थाल में सजाकर सुंदर वस्त्र से ढंककर अपने वीर सेनापति के पास पहुंचा देना। किन्तु इसे कोई और न देखे। वे ही खोल कर देखें। साथ में मेरा यह पत्र भी दे देना।'
ऐसा सिर्फ एक क्षत्राणी ही कर सकती थी
हाड़ी रानी के पत्र में लिखा था 'प्रिय। मैं तुम्हें अपनी अंतिम निशानी भेज रही हूं। तुम्हारे मोह के सभी बंधनों को काट रही हूं। अब बेफ्रिक होकर अपने कर्तव्य का पालन करें मैं तो चली... स्वर्ग में तुम्हारी बाट जोहूंगी।' पलक झपकते ही हाड़ा रानी ने अपने कमर से तलवार निकाल, एक झटके में अपने सिर को उड़ा दिया। वह धरती पर लुढ़क पड़ा। सिपाही के नेत्रों से अश्रुधारा बह निकली। कर्तव्य कर्म कठोर होता है सैनिक ने स्वर्ण थाल में हाड़ी रानी के कटे सिर को सजाया। सुहाग के चूनर से उसको ढका। भारी मन से युद्ध भूमि की ओर दौड़ पड़ा।
हाड़ी रानी के पत्र में लिखा था 'प्रिय। मैं तुम्हें अपनी अंतिम निशानी भेज रही हूं। तुम्हारे मोह के सभी बंधनों को काट रही हूं। अब बेफ्रिक होकर अपने कर्तव्य का पालन करें मैं तो चली... स्वर्ग में तुम्हारी बाट जोहूंगी।' पलक झपकते ही हाड़ा रानी ने अपने कमर से तलवार निकाल, एक झटके में अपने सिर को उड़ा दिया। वह धरती पर लुढ़क पड़ा। सिपाही के नेत्रों से अश्रुधारा बह निकली। कर्तव्य कर्म कठोर होता है सैनिक ने स्वर्ण थाल में हाड़ी रानी के कटे सिर को सजाया। सुहाग के चूनर से उसको ढका।
भारी मन से युद्ध भूमि की ओर दौड़ पड़ा।
देखता रह गया सरदार
सरदार ने दूत से कहा 'रानी की निशानी ले आए?' यदु ने कांपते हाथों से थाल उसकी ओर बढ़ा दिया। हाड़ा सरदार फटी आंखों से पत्नी का सिर देखता रह गया। उसके मुख से केवल इतना निकला 'उफ् हाय रानी। तुमने यह क्या कर डाला। संदेही पति को इतनी बड़ी सजा दे डाली खैर। मैं भी तुमसे मिलने आ रहा हूं।'
जीत की निशानी दी सरदार ने रानी को
हाड़ा सरदार के मोह के सारे बंधन टूट चुके थे। वह शत्रु पर टूट पड़ा। इतना अप्रतिम शौर्य दिखाया था कि उसकी मिसाल मिलना बड़ा कठिन है। जीवन की आखिरी सांस तक वह लड़ता रहा। औरंगजेब की सहायक सेना को उसने आगे नहीं बढऩे दिया, जब तक मुगल बादशाह मैदान छोड़कर भाग नहीं गया था। इस विजय को श्रेय किसको? राणा राजसिंह को या हाड़ा सरदार को। हाड़ी रानी को अथवा उसकी इस अनोखी निशानी को?
जय हाड़ा रानी ---जय जय भारतीय नारी --- जय जय राजपुताना ---जय जय हिन्दू
साभार:
https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=253010771814372&id=100013163531113
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