Thursday 9 March 2017

चूहों की गरमी निकल गई

""चूहों की गरमी निकल गई!!,,,
   भरभंडक कथा।

एक पुरानी हवेली मे परिवार के लोग रहते थे..परिवार काफी बड़ा था...उसमे कुछ जवान-बुजुर्ग और कई छोटे-छोटे बच्चों के साथ रहकर वे किसी तरह गुजर-बसर कर रहे थे॥अभाव मे महिलाये तक परेशान थी...शौच-आदि के लिए उन्हे बाहर जाना होता था...किन्तु वे किसी से कुछ कह नही पाती थीं॥परिवार भी बड़ा था पर गिरती हुई हवेली भी काफी बड़ी थी॥
  हवेली को देखकर कहा जा सकता था की कभी आलीशान और धन-स्ंपन्न रही होगी.....अधिकाश हिस्सा गिर चुका था और कुछ अधगिरे से कमरे मे वह परिवार रहता था....वे लोग विश्व-बैंक,आईआईएमएफ आदि-आदि से भिक्षा मांग-मांग कर गुजारा किया करते थे...कभी-कभार भिक्षा मांगने से बची हुई रकम से मकान की मरम्मत आदि करवा लेते थे।
  एक दिन उनके यहा कुछ परिवर्तन हुआ.....उस घर के लोगो की परेशानिया देखकर एक सन्यासी जिनका नाम  भरभंडक था....दया-वश  मदद के लिए आ गए...कुछ दिनो बाद घर के बुजुर्गो ने भरभंडक से उस घर की व्यवस्था संभालने का निवेदन किया॥थोड़ी हिचकिचाहट के बाद भरभंडक ने उस घर की कमान संभाल ली॥लेकिन जल्द ही उनको यह समझ मे आ गया की समस्या ज्यादा विकट है उसके निराकरण के लिए किसी अन्य निष्कामी सन्यासी को बुलाना होगा।
उन्होने एक ज्ञानी और जानकार साधु मित्र को बुलाया॥
यह साधू जीवन समस्या का विशेषज्ञ था.॥अच्छा अर्थशास्त्री और समाजविज्ञानी भी था...विदेशी बैंको से भी उसका कोई लेना देना नही था..वह घर पर एक दो-दिन रुका॥
भरभंडक ने उसका बहुत स्वागत-सत्कार किया। रात को भोजन के उपरान्त दोनों में देर तक धर्म-चर्चा भी होती रही।किंतु भरभंडक उस सुंदर चर्चा के बीच मे भी फटे बांस से भिक्षा-पात्र को खटखटाने लगता।वह यह कार्य बार-बार करता॥

...यह देखकर आगंतुक सन्यासी को यह बात बहुत बुरी लगी .उसने समझा भरभंडक उसकी बात को पूरे मन से नहीं सुन रहा है।
साधु को और क्या चाहिये...केवल सम्मान ही तो!इसे उसने अपना अपमान समझा ।.वह क्रोध से भरकर बोला
  ”भरभंडक तुम मेरे साथ मैत्री नहीं निभा रहे। न तो तुम मन से मेरी बात सुन रहे हो और न मेरे प्रश्नों के उत्तर सही ढंग से दे रहे हो।.आखिर यह क्या बवाल है ...पूरा-परिवार बांस की फटर-फटर का शोर मचाए हुये है...मैं तो पूरी रात नही सो सका...न पूजा-पाठ ही ठीक से हो पाया।

यह तो अपमान है । मैं इस अपमान को सहन नहीं कर सकता, इसीलिए यह  हवेली छोड़कर बाहर जा रहा हूं।”
अपने मित्र-साधु की बात सुनकर भरभंडक बोला ”मित्र ऐसी बात मत कहो ।   तुम्हारे समान मेरा कोई दूसरा मित्र नहीं है।इस समय इस घर की अर्थ-व्यवस्था  के लिए मुझे आपके सद-परामर्श की जरूरत है।इसी लिए तो तुम्हें यहाँ बुलाया है।
जबसे मैं ने इस घर की व्यवस्था संभाली है मेरी समस्या का कारण तो कुछ और ही है ।”

     ”भरभंडक बोला...पिछले सत्तर साल से इस महल मे पता नही कहा से  हजारो चूहे आ गए...असल मे  मेरे प्रमाणो के हिसाब से शुरुआती व्यवस्थापक विदेशी चूहों के शौकीन थे...वे प्रारंभ के समय अपने साथ कुछ विदेशी नस्ल के चूहे रखने लगे...यहाँ तो पहले से ही खूंख्वार नसल मौजूद थी...क्रास-ब्रीड हुआ तो  ये घर के लिए संकट बन गए॥..शुरुआत मे अनाज की बोरिया खा जाते...फिर बिजली के तार...फिर घर की ठोस चींजे भी खा गए..कपड़े-लत्ते,गाड़ी,घोड़ा सब हजम कर गए.....इन चूहों के कारण हम भिखारी हो गए।...
केवल यही नही इनके डर-वश हमने अपने भिक्षा-पात्र को बड़े बांस की टहनी पर टांगना शुरू कर दिया॥ये इतने दमदार है की ” उतनी ऊंचाई पर टंगे हमारे भिक्षा-पात्र से उछल-उछाल कर अन्न चुरा कर खा जाते है।उन्होंने पूरे मकान के नीचे-नीचे बिलो का जाल बना रखा है।उसी नाते मकान का अधिकतर हिस्सा गिर गया।
  चूहे को डराने के लिए ही हम पूरे-परिवार सहित काश्मीर तक जाकर खटर-पटर करता रहते हैं। भिक्षा-पात्र को बांस से खटखटाता रहता हूं।उन चूहों ने तो उछलने में बिल्ली और बंदर को भी मात दे रखी है,अब तो हमे यह डर लगने लगा है की चूहे हमे ही न खा जाएँ।,,,

   ”भरभंडक की बात सुनकर सन्यासी-(विशेषज्ञ) मित्र कुछ नर्म हुआ।उसने पूछा : ”तुम्हें मालूम है कि उन चूहों का बिल कहां तक है?”
”भरभंडक ने कहा : ”नहीं मैं नहीं जानता ।” सन्यासी मित्र ने कहा : ”उनका बिल अवश्य ही किसी खजाने के ऊपर है।इतनी गर्मी केवल ''केवल पैसे,,में ही होती है....स्पेशिली उस पैसे में जो खुद के श्रम से न कमाया हो...यानी भ्रस्टाचार के कालेधन मे.॥ वे उस अवैध-धन की गर्मी से इतना ऊपर-ऊपर तक उछलते है।..............उन लोगो ने उसी दिन खोद कर वह खजाना-धन निकाल लिया।
वह 'खजाना,, इतना ज्यादा था की गिनने के लिए आए मजदूर भी धनी हों गए॥
आगे विकास वगैरह खुदी समझ लीजिए।
    धन की गर्मी खत्म हो जाने के बाद...अब वे चूहे सामने रखे "भात,का एक दाना भी नही हिला पाते थे....काले-धन की गर्मी जो निकल गई॥
बाद में तो चूहा खाने के शौकीनों ने भी उन्हे हाथ से ही पकड़-पकड़ खाना-पकाना शुरू कर दिया।.....चूहों से मुक्ति पाने के बाद उस हवेली ने धीरे-धीरे अपना वैभव वापस पा लिया॥

पैसा ख़तम... गर्मी ख़तम...अपराधियो का नियंत्रण खतम..लोकतंत्र मजबूत!

साभार: पवन त्रिपाठी
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