Thursday 9 March 2017

माटी और बाप-दादों की पुकार!

कजाकिस्तान यूरेशिया में स्थित एक देश है। क्षेत्रफल के आधार से ये दुनिया का नवाँ सबसे बड़ा देश है। एशिया में एक बड़े भूभाग में फैला हुआ यह देश पहले सोवियत संघ का हिस्सा हुआ करता था।मुस्लिम बाहुल्य देश है…उसने अपने कुछ स्थानों पर एक फरमान जारी किया जिसमें नागरिको को अरबी नाम,पहनावें और दाढ़ी रखने से रोक लगा दिया गया..उपासना-पद्दहती और पूजा-स्थल तथा व्यक्तिगत जीवन जीने के तरीके पर कोई भी बदलाव नहीं है..चाहो तो 24 घण्टे करते रहो….और वहां कोई क़यामत नहीं आई,……मुस्लिम जनता सहर्ष पहले से ही स्वीकार करके ख्रुस्तियाना,…जस्तियाना जैसे कजाकी नाम रखाती थी…..वहां की सरकार का कहना है उसने राष्ट्रीयता बढाने व आतंकवाद से बचने के लिए ऐसा निर्णय लिया है…!!
तत्कालीन रूस से निकले उजबेकिस्तान में भी लगभग ऐसा ही है…काकेशिया की कहानी तो और भी ज्यादा दिलचस्प है।
अब ज़रा “भयोहर-सहोदर,, चीन की पिछले हफ्ते की खबर देखिये।
१. चीन ने मुस्लिम महिलाओं के बुरका पहनने पर रोक लगायी।
२. चीन ने मुसलमानों को लम्बी दाढ़ी रखने से रोका।
३. चीन ने मुस्लिम दुकानदारों को भी शराब और सिगरेट बेचने के आदेश दिए।
४. चीन ने मुस्लिमों को रमज़ान में रोज़ा रखने से मना किया।
1948 से ही उन्होंने ‘अरेबिक, नाम,स्वरुप और पहनावे अपनाने पर कठोर कानून बना रखा है।यानी पूजा चाहे जैसे करो लेकिन छुई लू,या मी-हान जैसे चाइनीज नाम ही रख सकते हैं याकूब,इस्माइल या अजहर जैसे अरबी नाम नही रख सकते।खान-पान,पहनावा भी चीनी ही चलेगा।…शुक्रवार भी सामूहिक नही!!
ऐसा भी नही है कि वहां “संख्या,, कम है एक प्रांत मुस्लिम बाहुल्य है।8 से 9 करोड़ हैं सब खुल कर चीनी राष्ट्र-वादी हैं,जबर्दस्त पालन करते हैं।कभी किसी विदेशी की सह पर ‘अरबी, जीवन शैली के लिए कभी छिट-पुट आवाज आई तो कम्युनिष्ट चीन सरकार ने सीधे ‘जन्नत,की व्यवस्था कर रखी हैं……काहें को यहां फ़ालतू समय नष्ट करना.ध्यान से देखा जाए असली इलाज ‘कम्युनिस्ट,, ही करता है…अरे कजाक-श्लोवाक-उजबेक भी तो तत्कालीन सोवियत-संघ से ही तो निकले हैं।

अब जरा इधर नजर डालिये…!!!
आज के इसाई-इस्लामिक बाहुल्य
देश जो अब अपने गौरव-शाली अतीत से इंच भर पीछे नही हटते……हालाकि उनके भी खोपड़े में कभी उनके बाप-दादों के प्रति नफरत भर दिया गया था….उन्होंने अपना इतिहास खोज-निकाला और फिर से स्थापित किया…पूजा-पद्दति इस्लामिक या इसाई जरुर रह गई है पर नाम मात्र की।……कभी “इलख़ानी, साम्राज्य एक मंगोलियाई ख़ानत थी जो 13 वीं सदी में ईरान और निकटस्थ अज़रबैजान देश में शुरू हुई थी और जिसे इतिहासकार मंगोल वृहद साम्राज्य का ही एक हिस्सा मानते हैं। इसकी स्थापना चंगेज खान के पोते हलाकु ख़ान ने की थी और इसके चरम पर इसमें ईरान ,ईराक , सीरीया, फिलीस्तीन, अफगानिस्तान , तुर्कमेनिस्तान, आर्मेनिया , अज़रबैजान , तुर्की , जॉर्जिया, मॉल्दोवा सरीखे रूसी कॉकेशियाई व पूर्वी यूरोपीय देश शामिल थे और साथ ही आज के पश्चिमी पाकिस्तान का बड़ा इलाका ( बलूचिस्तान, वजीरीस्तान) शामिल था
हलाकु ख़ान मंगोल साम्राज्य के संस्थापक चंगेज का सगा पोता और उसके छोटे पुत्र तोलुई ख़ान का बेटा था, हलाकु की माता सोरगोगतानी बेक़ी (तोलुइ ख़ान की पत्नी) ने उसे और उसके भाइयों को बहुत निपुणता से पाला और पारिवारिक परिस्थितियों पर ऐसा नियंत्रण रखा कि हलाकु आगे चलकर एक बड़ा साम्राज्य स्थापित कर सका,, हलाकु ख़ान की पत्नी दोक़ुज़ ख़ातून एक नेस्टोरियाई / कॉप्टिक / सीरीयाई ईसाई थी और हलाकु के इलख़ानी राज में सिर्फ बौद्ध धर्म और ईसाई धर्म को ही बढ़ावा दिया जाता था, दोक़ुज़ ख़ातून ने बहुत कोशिश की के हलाकु भी ईसाई बन जाए लेकिन वह मरते दम तक बौद्ध धर्म का अनुयायी ही रहा।
इलख़ानी बहुत से धर्मों के प्रति सहानुभूति रखते थे लेकिन इनमें बौद्ध और ईसाई धर्म को ही विशेष स्वीकृति हासिल थी।उस समय मुस्लिम शासक या खलीफ़ा भ्रष्टाचार, आपसी दुश्मनी, ऐयाशी और कत्लेआम में ही लिप्त थे,चंगेज़ खान ने ख्वारिज़्म के शाह से दोस्ती की तरफ हाथ बढाने के उद्देश्य से एक राजनयिक दल भेजा, मगर इसे ख्वारिज़्म के शाह की मूर्खता कहेंगें कि उस ने सभी 400 लोगों को उस ने सब को जासूसी के इल्जाम मे मरवा दिया, हत्या करा दी, क्योंकि वे इस्लाम का पालन करने वाले नही थे……चंगेज़ ख़ान ने जब सुना के उस के राजनयिक दल की हत्या कर दी गयी है तो उस ने शपथ ले कर कहा कि अब एक भी मुस्लिम मुल्क और मुसलमानो को नही छोड़ूंगा और इस तरह मंगोल सेना हमले के लिये निकल पड़ी,…..उस के बाद पूरी दुनिया ने देखा के किस तरह मुसलमानो का क़त्ले आम हुआ…..सबसे गजब की बात वे खूंख्वार लोग बौद्ध थे….वही बौद्ध जो शांति,अहिंसा,सत्य,अस्तेय और अपरिग्रह का प्रणेता रहा है…….!!!
खैर!!!
आज “वे,, अपने अपने तत्कालीन नायको की बड़ी-बड़ी मूर्तियां हर चौराहे पर लगा रहे….वे मुसलमान होकर भी सरेआम इस्लामिक देशो “पर, वह भी खलीफा पर आक्रमण करने वाले ‘हलाकू,की शानदार मूर्तियां अपने घरो सजाते हैं।उनके म्यूजियम की शान होती हैं…!
वे अपने बच्चो के नाम हलाकू और चंगेज रखने लगे हैं।
“अरब, छटपटा रहा है।

ईरान से तूरान,…किर्गिस्तान से तजाकिस्तान,ईराक,अफगान,नाइजर से नाइजीरिया,युगांडा,मिश्र,तुर्की तक दुनिया में जहां कहीं भी इस्लाम गया तो धर्म या सम्प्रदाय सोच और पूजा-पद्दति ही नही बदला एक तरह से “दूसरा अरब,ही खड़ा कर दिया गया।पुरानी चींजो और प्रणालियों,तरीको और संस्क्रति के नामों-निशा मिटा दिये गये।
यह एक मजबूत “सांस्कृतिक-धार्मिक-राजनीतिक आक्रमण था…जिसने स्थानीय समाजिक ताने बाने को बिगाड़ दिया….अस्तित्व की वही खोज इस्लामिक देशो में खुनी जंग की शकल में प्रकट हो रहा है।इन सब से आजिज अधिकतर देश अपनी जडो की तरफ लौट रहे हैं।वे अपनी ‘स्व-अस्तित्व,के लिए आवाजें उठनी शुरू हो गई हैं।अरब वाद पर सबसे पहला हथौड़ा तुर्की ने उन्नीसवीं शाताब्दी की शुरुआत में मारा था……..खिलाफत तो खत्म ही की नाम,पहनावे,और भाषा की स्वतंत्रता उन्होंने तत्काल हासिल कर ली…विरोध बहुत हुआ पर कमाल पाशा ने एक न सुनी।

बकौल अभिजीत जी जो की इस विषय पर कई गम्भीर पोस्ट लिख चुके हैं) “””””द्वन्द के नतीजे में ही तुर्की में मुस्तफा कमाल पाशा जन्मे, जिन्होंने इस्लाम के नाम पर अरब सभ्यता को स्वीकारने से मना कर दिया. सन् 1920 में ग्रैण्ड नेशनल असेम्बली का प्रथम अधिवेशन मुस्तफा कमाल पाशा की अध्यक्षता में अंकारा में हुआ. इस असेंबली ने 3 मार्च 1924 को तुर्की का संविधान पारित किया, इस संविधान की धारा 2 में इस्लाम को राजकीय मजहब घोषित किया गया था, 1928 में संविधान से यह धारा निकाल दी गई यानि इस्लाम अब राजकीय मजहब नहीं रहा. इसके बाद पान-इस्लामिज्म के स्थान पर पान-तुर्कीइज्म शब्द का प्रयोग होने लगा. सन् 1925 में शरीयत के अनुसार की जाने वाली शादियों को अवैध घोषित कर किया गया और उसकी जगह युगानुकुल कानून लाये गये. पर्दा प्रथा भी खत्म की गई. मजे की बात तो ये है कि सन् 1928 में अरबी लिपि को भी अवैध घोषित कर दिया गया जो पवित्र कुरान की भाषा थी और उसकी जगह रोमन लिपि को स्वीकार कर लिया गया. कमालपाशा ने भाषा शुद्धिकरण अभियान चलाते हुए अपनी भाषा में से चुन-चुन कर अरबी शब्दों को निकाल दिया, अजान, कुरान और नमाज़ें तुर्की भाषा में होने लगी. 1934 में महिलाओं को मताधिकार का हक दिया गया और तो और सन् 1935 में शुक्रवार के स्थान पर रविवार की छुट्टी शुरू की गई. अब जाहिर है कि ये सारी बातें इस्लामी शरीयत से मेल खाने वाली नहीं थी. विरोध के स्वर उभरे तो कमाल पाशा ने बड़ा स्पष्ट कहा कि हम तुर्क पहले हैं मुस्लिम बाद में और हम व्यक्तिगत रुप से उपासना में इस्लाम को पूरा सम्मान देंगें मगर इसका यह कदापि मतलब नहीं कि हम इस्लाम के नाम पर तुर्की की अपनी मूल राष्ट्रीय संस्कृति के ऊपर अरबी संस्कृति के आक्रमण को भी सहन कर लें इसलिए हम हम तुर्की की अपना भाषा, अपने रिवाज और अपनी विरासत पर अरबी का आक्रमण बर्दाश्त नहीं कर सकतें .
कमालपाशा का मनोद्वंद तुर्की के बहुसंख्यक युवकों का भी मनोद्वंद था इसलिए इस्ताम्बुल की सड़कों पर कट्टरपंथी मुल्लाओं और इन युवकों में संघर्ष चला पर जीत नैसर्गिक मानव मन यानि अपना मुल्क, अपनी संस्कृति, अपने रिवाज की अवधारणा की हुई. इस मनोद्वंद का विस्तार तुर्की की सीमाओं तक ही नहीं रहा बल्कि दुनिया के हर इस्लामिक मुल्क के मुस्लिम मानस को कमाल पाशा के कदम ने झकझोर कर रख दिया. अगला नंबर ईरान और मिश्र का था।,,,

पाकिस्तान जैसा देश भी अब 5 हजार साल के इतिहास की बात करने लगा है।पाकिस्तानी बुद्दिजीवी खुलकर सिन्धु-घाटी और मोहनजोदड़ो में अपने अतीत के सुहावने-पन तलाशने लगे हैं।पाणिनी और चाणक्य,राजा दाहिर को वे खुलकर उन्हें अपने लगने लगे हैं।
यही नही ईरान जेरेक्सीज….डेरियस…जरुथ्रुष्ट में बाप-दादे महसूसता है।
ईराक तो सद्दाम-हुसेन के समय से सचेत है।अब सुमेरिया और असीरियन सभ्यता को लेकर गर्वान्वित था।उसके पाठ्यक्रमों में इस्लाम से अधिक लम्बे-चौड़े अध्याय उनके प्राचीन इतिहास के थे।
मिश्र इस मामले में पहले से ही सचेत था…अब वह अपने पुराने नामो की बनावट पर भी लौटना शुरू हो गया है।अफ्रीकन देशों में तो इस पर और ज्यादा बवाल है।लोग अपनी जड़े तलाश रहे हैं।
यह अरेबिक राष्ट्र-वाद उन्होंने बड़े चतुराई से छठी शती से मध्यकाल में पूरी दुनिया के अनेको देशों तक पहुंचाया.. एक तरह से अरब का सांगठनिक-साम्राज्यवादी विस्तार था..!!
आज तुर्क और चीन,कजाकिस्तान,उज्बेकिस्तान,इंडोनेशिया, जैसे देश अपने नामों,पहनावे, रीति-रिवाजों,खान और पुरखो की धरोहरों और इतिहास को लेकर अरबी तौर-तरीके से रहने को लेकर हरदम सचेत रहते हैं……वे खुलेआम उससे इनकार कर रहे हैं…..!!
क्योंकि राष्ट्र की अवधारणाएँ उनको स्पष्ट हैं…….आज की रोज उत्पन्न हो रही सुरक्षात्मक,असामाजिक समस्याओं को लेकर वे तत्पर-जागरूकतापूर्ण इमानदारी से निर्णय ले रहे हैं!!
……. समस्या इस बात की थी उनकी भौगोलिक परिस्थितियां एकदम अलग थी…साथ ही सभी का सांस्क्रतिक विकास और जीवन शैली….इस्लामिक धार्मिक बदलाव उनके पुरुखों की थाती,खान-पान,रहन-सहन,आंतरिक विकास,बोली-भाषा सबकुछ,हरेक चीज अरेबिक
जीवन शैली मे परिवर्तित करके रख देती है….यह उनके लिए कष्टकारी लगने लगता था….
इस मामले में एक अध्ययन और करने लायक है…।

शिया समुदाय इस मामले थोड़ा लिबरल है।लेकिन दुनिया में मुसलमानों की कुल आबादी में शियाओं के मुकाबले सुन्नी अधिक हैं।कुछ समय पहले 2011-12 में अमेरिकी “”संस्था पियू रिसर्च सेंटर,, की ओर से 200 देशों में किए गए सर्वे के अनुसार 2009 में कुल मुस्लिम आबादी एक अरब 57 करोड़ थी और यह कुल आबादी (छह अरब 80 करोड़) का 23 फीसद थी।जबकि विकिपीडिया आज लगभग 171 करोड़ जनसंख्या बताता है, सम्बन्धित देशो ने उसमे अपने आंकड़े खुद जोड़े हैं।
सुन्नी इस मामले में ज्यादा कट्टर है। यह मतभेद भी शोध योग्य है इससे बहुत कुछ उजागर होगा।
“पियू,, के अनुसार कुल मुस्लिम आबादी में से 80 फीसद एशिया और उत्तरी अफ्रीका में है।पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका में मुस्लिम आबादी बहुल देश सबसे अधिक हैं।वैसे कई मुस्लिम संगठन “पियू,और अन्य आधिकारिक आंकड़े खारिज करते हैं वे और ज्यादा संख्या बताते हैं।किन्तु दुनिया भर की जनसंख्या के कैलकुलस पर यही पाया जाता है।
अब जरा ध्यान देने योग्य मुद्दा देखिये……
तीस करोड़ मुस्लिम ऐसे देशों में रहते हैं जो इस्लामी देशों के तौर पर नहीं जाने जाते,जैसे कि भारत,… चीन में ये किसी भी “एक इस्लामिक,, देशों की तुलना में सर्वाधिक संख्या है….. इसी तरह जार्डन और लीबिया, दोनों मुस्लिम देशों से ज्यादा रूस में हैं।मुसलमानों की कुल आबादी में 10-13 फीसद शिया हैं, 87-90 फीसद सुन्नी।
दुनिया भर में ईसाईयों की संख्या पर भी मतभेद है किन्तु दुनिया भर इसाई देशो की संख्या सर्वाधिक है। एजेंसीज और विकिपीडिया का मानना है यह 242 करोड़ हैं जो यूरोप,अमेरिका,अफ्रीका,आष्ट्रेलिया, में बड़ी संख्या के रूप में हैं और एशिया में भी अच्छी-खासी उपस्थिति है।वह विश्व की आबादी 720 करोड़ दर्शा रहा है।
हिन्दुओ की संख्या 181 करोड़ मानी है जो दुनिया भर में फैले हैं… सूरीनाम,नेपाल,फिजी और हिन्दुस्तान में बहुसंख्यक है…बांग्लादेश और पाकिस्तान में सबसे बड़ा अल्पसंख्यक 8.3 एवं 1.78 प्रतिशत…..!!
एक बड़ा आंकड़ा बौद्द उपासना पद्दति का है जिनकी संख्या 58.7 करोड़ है जो चीन,कम्बोडिया,म्यानमार,श्रीलंका,ताइवान,लाओस,भूटान,जापान,कोरिया,वियतनाम,एवं मलेशिया, आदि देशो में सर्वाधिक हैं।अन्य भी 45 करोड़ के आस-पास हैं।

जहां भी आज इस्लाम है बहुतायत देश ऐसे हैं कभी उस धरती पर बौद्ध-धर्म हुआ करता था….शान्ति-अहिंसा कैसे…इस्लाम के विस्तार में खो गई….चिन्तन का विषय है… इस पर नहीं जाऊंगा!!!

लेकिन वह जहां भी गया “अरेबिक जीवन शैली,, का विस्तार रूप में ही गया…इस्लाम के आगमन के पश्चात पुरानी यादे…….नामो की बनावट,पहनावे, रीति-रिवाजों,खान और पुरखो की धरोहरों और इतिहास,किताबें,इमारत्,पूजास्थल….पूरी-तरह नष्ट कर दियें….कमोबेश ऐसा ही ईसाइयों ने भी दुनियाँ भर में ऐसा ही किया है वे भी जहां गए दुसरे को जड़-मूल से साफ़ कर दिया..(किन्तु इस पर कभी बाद में!!)

क्या अभी तक आप में से किसी ने सुना है…
किसी भी खुदाई में 2000 हजार, 3000 हजार साल पुराना मस्जिद मिला है???
कोई दरगाह मिला???
चर्च मिला या क्रॉस मिला..??
.सिर्फ मन्दिर ही क्यो मिलते है??
ये समस्त भू-खण्ड प्रारंभ से अभी तक एक सनातनी है और शाश्वत सनातनी ही रहेगी ….क्योकि व्यक्ति सनातनी ही जन्मता है।. भले ही दुर्दांत वामपंथी लोग कुछ भी बोलते रहे ……………….. मुस्लिम,ईसाई विद्वान्,कुछ भी बोले पर उनका कोई भी अस्तित्व नही था ………उनका यह विस्तारवादी- साम्राज्यवाद दुनिया की निगाहों में आ गया है।दुनिया सजग रहने लगी है।
शायद इसी वजह से इतिहास में इसाई और इस्लामिक विद्वान मेनीपुलेशन की जबर्दस्त कोशिश करते हुए दीखते हैं।
मध्य-प्राचीन काल में मूलत: हिंदुस्तान की जीवन शैली और धर्म लेकर भारत से बाहर गए…स्पेशिली वैष्णव,बौद्ध और जैन…. जो मलय,बोर्नीयो,बाली,…जकार्ता,
श्याम(वियतनाम),माली,सूरीनाम, जापान,बर्मा,थाईलैंड,कोरिया,बोर्नियों आदि-आदि…लेकिन यह हिंदुत्व के उदात्त,सहिष्णु,समन्वयवादी,……..लोकतांत्रिक जीवन-पद्धति और धर्मप्राण प्रकृति ही है की उसने वहां जाकर अपने को पूर्ण रुपेण स्थापित करने के बावजूद उनके जीवन-संस्कृति,इतिहास एवं लोक-प्रणाली पर कभी आक्रमण नहीं किया…स्थानीय लोगों ने बौद्ध-प्रणाली ने तो बाकायदा उपासना-पद्धतियों में भी जबरदस्त फेर-बदल किये… ……दर-असल “”हिन्दुस्तानी राजनीतिक-विस्तारवादी-आर्थिक,, नजरिये के साथ वहा गए ही नहीं थे…वे तो एक मानव की “विशिष्ट आतंरिक स्वतंत्रता व विकासवाद,, के प्रचारक थे न कि आक्रान्ता….!!!
यही संतुलित नजरिया पूरी दुनियां में किसी न किसी रूप में पाया जाता है।जीवन शैली….सोच…नमस्कार पद्दति….पूजा की स्वतंत्रता….हाथ जोड़कर नमस्कार करना….झुक कर स्वागत करना….ध्यान….ऊंकार नाद,……योग…नित्य-अनुभूतियों के साथ…स्वांस-सिद्द्ता,…तंत्र में विश्वास और आंतरिक-अध्यात्म,दूसरों को भी आजादी देने का भाव…..परमात्मा की समानता-वादी सत,चित,आनंद दृष्टी की हिन्दू पद्दति को ही दुनिया का एक बड़ा हिस्सा मानता है…दुनियाभर की “सवैधानिक व्यवस्थाये,हिन्दू जीवन-शैली और स्वन्त्रतवाद की समर्थक हैं।पूरी की पूरी अमेरिकन आबादी इस आदर्श पर जीती है भले ही इसाई या अन्य मतावलंबी हो।दुनियां भर में फैले हमारे साधू-संत और प्रवचक..इस्कान..डिवाइन आर्गनाइजेशन,…गायत्री परिवार…आर्ट आफ लिविंग जैसी 630 से अधिक संस्थाए है जिनकी उपस्थिति सभी 204 देशो में हैं..विदेशी धरती पर उनके प्रवचनो में जुटने वाली बड़ी भीड़ कट्टरता किताबी और साम्प्रदायिक कट्टरता से दुनिया के ऊबने का इशारा कर रही है।..प्रकारांतर से लगभग 335 करोड़ लोग….आज हिन्दू जीवन शैली जी रहे हैं इसवी 2050 आते-आते यह आंकड़ा 65 प्रतिशत पार कर चुका होगा..मतलब कि भविष्य में पूर्ण-स्वतंत्रता,सह-अस्तित्त्व-पूर्ण शान्ति,प्रेम से भरी आनंदमयी विश्व-व्यवस्था की आशा कर सकते हैं।
क्योकि लोग दुनिया को नष्ट नही करना चाहते बल्कि सुंदर और विविधता-पूर्ण आजादी से जीते देखना चाहते हैं।
मजे की बात यह प्रबुद्द हैं।स्वत: सोचने की क्षमता से लैस पूर्णता की तरफ कदम बढाते हुए।
…उन्हें आप खुलकर इन विषयों पर बात करेंगे तो अपने विचार बताते हैं।कमोबेश बौद्द देश तो खुलकर “”इस पर आस्था व्यक्त करते है,।यानी पारिभाषिक तौर पर माना जाए तो वे हिन्दू हैं।लोग डर,लोभ,अहं या संवेदना-वश जनसंख्या आंकड़े में ‘उक्त धर्म,…………जरुर दर्ज करवा रहे परन्तु
उपासना-पद्दति,किताब मानने और कहीं भी आस्था रखने की अंदरूनी आजादी को लेकर दुनिया भर में गहरा अंतर्द्वंद जारी है….और सुनिश्चित तौर पर पूर्ण-स्वतंत्रता की दिशा में बढ़ रहा है!!!

साभार: पवन त्रिपाठी

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