#विनोद_खन्ना--एक पहचान परदों के पार
मेरा आध्यात्मिक जीवन तब शुरू हुआ जब मैं उस मुकाम पर पहुंच गया था, जहां पर बहार की कोई चीज में मायना नहीं रखती थी। सब कुछ था मेरे पास: पैसा था, अच्छा परिवार था, शोहरत थी, इज्जत.....जो भी इच्छाएं थीं सब पूरी हो चुकी थी। उस वक्त मैंने यह सोचना शुरू कर दिया कि यह जो चेतना है( कांशसनेस) जिसकी सभी गुरु चर्चा करते है। वह क्या है। तो मैं पुस्तकों की दुकानों में खोजा करता था। किसी पुस्तक में मुझे क्या मिलेगा....
यह किस उम्र में आपकी खोज शुरू हुई?
वैसे तो में आठ साल का था तभी से में साधुओं के पास जाया करता था। किसी को हाथ दिखा था , किसी के पास आंखें बंद करके, ध्यान में बैठ जाता था। फिर मेरी पढ़ाई शुरू हुई, कॉलेज गया तो मेरा यह हिस्सा पीछे की और चला गया। मेरे अंदर ख्वाहिश जाग उठी के मैं अभिनेता बनूं। उस दिशा में मेरे कदम चल पड़े। वह कहानी ताक सबको पता है। फिर जब मेरा कैरियर कामयाब हो गया तो बचपन की वो चीजें फिर वापस आई। मैं एक दुकान में गया और मैंने परमहंस योगानंद की वह मशहूर किताब खरीद ली: आटो बाई ग्राफी आफ एक योगी—एक ही रात में उसे पुरी पुस्तक को पढ़ गया। योगानंद जी की फोटो देख कर मुझे लगा मैं इस आदमी को जानता हूं।
फिर मेरी ध्यान की खोज शुरू हुई। डेढ़ दो साल तक मैंने टी. एम. किया। लेकिन उसमें एक जगह जाकर लगा, अब दिवाल आ गई। थोड़ी बहुत शांति आ जाती है लेकिन उसके बाद कुछ नहीं है। उस बीस मिनट के दौरान थोड़े रंग दिखाई देते थे। दृश्य तैरते थे लेकिन आगे क्या? इसे समझाने वाला कोई नहीं था। उन दिनों हमारे क्षेत्र के विजय आनंद ओशो से संन्यास ले चुके थे। महेश भट्ट भी ओशो को सुनते बहुत थे। ये दोनों मेरे अच्छे दोस्त थे। उनके साथ में पूना आया और ओशो की कुछ कैसेट खरीदे। आश्चर्य की बात, उन प्रवचनों में मुझे उन सारे प्रश्नों के उत्तर मिल गए जो मेरे मन में चलते थे।
इस वक्त आपकी उम्र क्या रही होगी?
जाने क्यों आत्मा की उड़ान को मैं समय की सीमाओं में बाध रही थी। विनोद जी न उन दिनों की याद को ताजा करते हुए कहा: कोई पच्चीस-छब्बीस साल। दिसंबर 1974 की बात है। मैं ओशो के शब्दों को तो सुनता रहा लेकिन अस्तित्व चाहता था, यह संबंध सिर्फ दिमागी न रह जाये। उसने मुझे सीधे जिंदगी की जलती हुई सच्चाई का सामना करवा दिया: मौत। मेरे परिवार में छह-सात महीने में चार लोग एक के बाद एक मर गए। उनमें मेरी मां भी थी। मेरी एक बहुत अजीज बहन थी। मेरी जड़ें हिल गई। मैंने सोचा, एक दिन मैं भी मर जाऊँगा और मैं खुद के बारे में कुछ भी नहीं जानता हूं।
दिसंबर 1975 में एकदम मैंने तय किया कि मुझे ओशो के पास जाना है। मैं दर्शन में गया। ओशो ने मेरे से पूछा: क्या तुम संन्यास के लिए तैयार हो? मैंने कहा: मुझे पता नहीं। लेकिन आपके प्रवचन मुझे बहुत अच्छे लगते है। ओशो ने कहा तुम संन्यास ले लो। तुम तैयार हो। बस, मैंने संन्यास ले लिया।
उन्होंने आपकी कोई पूछताछ नहीं की कौन हो,कहां से हो?
नहीं कुछ नहीं, विनोद ने कहा,यूं लगा कि मैं इन्हें अच्छी तरह जानता हूं। कई जन्मों से हमारी पहचान है। उन्हें देखकर मुझे लार्जार दैन लाइफ का अहसास हुआ। और मैं ठीक जगह आ गया हूं—अपने घर।
इतना बोल कर विनोद होम कमिंग की भाव दशा को पुन: याद कर उसमें खो गये। कमरे में सधन चुप्पी उतर आई। सद्गुरू की बातें करने बैठो तो और क्या होगा। जुवा लड़खडाएगी नही? बहार पेड़ पर पक्षी बोल रहे थे, इस चुप्पी को पैना करने के लिए।
ओशो ने मुझे नाद ब्रह्म ध्यान करने के लिए कहा, विनोद जी स्मृतियों के खजानें को खोलते हुए बोले: अब मुझे लगता है कि शायद उस वक्त में बहुत सक्रिय था। मेरे अंदर शारीरिक ऊर्जा बहुत ज्यादा थी इस वजह से उन्होंने कहा होगा। अब तुम बैठ जाओ। मजे की बात यह है कि मेरा मन इतना सक्रिय नहीं था। मुझे बीच-बीच नि: शब्द अंतराल अनुभव होते थे। लेकिन में सोचता था कि यह अच्छा नहीं है। हमने जो सीखा हुआ है। कि एंप्टी माइंड इज़ डैविल वर्कशाप। वह मेरे दिमाग में घुसा था। इन निर्विचार अंतरालों से मैं घबरा जाता था। फिर जब ध्यान शुरू किया तब और भी डरावने अनुभव होते थे। शरीर में रासायनिक बदलाहट होने लगी। लेकिन मैंने ध्यान का दामन नहीं छोड़ा। मेरे भीतर ध्यान की लौ भभक गई थी।
वह वक्त ऐसा था कि मैं सुबह छह से रात बारह बजे तक काम करता था। शूटिंग पर जाने से पहले घर से ध्यान करके जाता था। रात को आने के बाद करता था और शूटिंग के बीच जब भी समय मिले, मेकअप रूम में जाकर ध्यान करने लगता। बस ओशो के प्रवचन सुनना ओ ध्यान करना। मेरे साथ कितने लोगों ने ओशो को सुना होगा इसका हिसाब नहीं है।
उन दिनों गेरूआ पहनना आग से खेलने जैसा था। ओशो का नाम आग्नेय हो गया था। इसलिए मैंने पूछा: आप संन्यास लेकर बंबई वापस गए होगें तो आपने गेरूऐ कपड़े पहनने शुरू कर दिये होंगे। लोगों पर इसका क्या असर हुआ।
असर क्या होना था, मुझे सब लोग पागल समझने लगे थे। परिवार वालों को बहुत धक्का लगा। उस वक्त ओशो भी बहुत विवादास्पद थे। लेकिन एक बात मैं कहना चाहूंगा। फिल्म इंडस्ट्री ने कभी मुझे अस्वीकृत नहीं किया। वे मेरे से हमदर्दी रखते की इसे शॉक लगा है। इसने संन्यास क्यों लिया होगा। इस तरह की बातें सोचते थे।
धीरे-धीरे क्या हुआ,मैं फिल्म जगत से ऊब रहा था। और मुझे बड़ी कशिश होती थी कि मैं सब कुछ छोड़कर पूना आश्रम में रहूँ। लेकिन जब मैंने ओशो से पूछा तो उन्होंने कहा, अभी तुम तैयार नहीं हो। तुम टोटल समग्र होकर काम नहीं कर रहे हो। जब तक तुम किसी काम को समग्रता से नहीं करते तब तक उससे बाहर नहीं हो सकते। अतिक्रमण तभी होता है। जब तुम समग्र होत हो। उस वक्त उन्होंने मुझे एक कहानी भी सुनाई थी, विनोद जी ने सहज ही उस प्रसंग पर संजीवनी छिड़कते हुए कहा।
कौन सी कहानी थी, याद है कुछ? ओशो की कही हुई कहानियां तो हम सभी जानते है लेकिन किसी शिष्य को विशिष्ट संदर्भ में कही हुई कहानी उसके लिए पथ प्रदर्शक बन जाती है। मानों कहानी न हुई, जीवन के रहस्य की कुंजी ही है।
वो कहानी एक झेन गुरु की.....एक चोर भागता हुआ निकल जाता है। वहां पर एक झेन गुरु ध्यान में बैठा हुआ था। पुलिस आकर इस गुरू को ही चोर समझकर पकड़ ले जाती है। और जेल में बंद कर देती है। गुरु कहता है, जैसी उसकी मर्जी वह यह भी नहीं कहता कि मैंने चोरी नहीं की यह सोचता है उसमे आस्तित्व का कोई राज है। अब जैल में भी गुरु ध्यान में लीन रहने लगा। उसके कारण और कैदी भी ध्यान करने लगे। 3-4 साल बाद असली चोर पकड़ा गया। पुलिस ने झेन गुरु को छोड़ दिया; कहने लगे, हमें माफ कर दें। गुरु ने कहा,
नहीं,अभी मुझे मत छोड़ो। मेरा काम पूरा नहीं हुआ है।
यह कहानी सूना कर ओशो ने कहां हम सभी जेल में है। कोठरी में है। हम एक सी सात बाई सात की कोठरी है। चाहे वह जेल के अंदर हो चाहे बाहर हो। जब तक हम समग्रता से अपना काम नहीं करते तब तक कोठरी से बाहर नहीं हो सकते।
यह कहानी मेरे भीतर गहरे प्रवेश कर गई। मैं अपने को और दूसरों को भी कोठरी में बंधा देखने लगा। मुझे यह भी दिखाई दिया कि मैं अभिनय में सब कुछ दांव पर नहीं लगता। मेरा रेजिस्टेंस हुआ करती थी फिल्मी गीतों के प्रति। मुझे भीतर से लगता था, क्या बकवास है। तो पुरी तरह से उनमें उतर नहीं सका। मेरे किरदार हों, मेरी फिल्मों की कहानी हो, डाइरक्शन हो, हर चीज में मेरी नापसंदगी बनी रहती थी।
अब मुझे पहली बार लगा कि हर आदमी की अपनी स्पेस होती है। और मेरी तरह वह भी उससे बंधा हुआ है। इसलिए मुझे हर व्यक्ति का सम्मान करना चाहिए। बस इतना सा फर्क करते ही काम में मुझे इतना आनंद आने लगा कि क्या बताऊ। हर एक के प्रति स्वीकार भाव आ गया। मेरे आनंद लोगों पर भी असर करने लगा। जैसे ही मैं काम से टोटल हुआ,मुझे बहुत मजा आने लगा।
फिर मैंने ओशो को यह अनुभव बताया। तो उन्होंने कहा,अब तुम ग्रुप्स करो। उससे मुझे बहुत फायदा हुआ। मेरी कई ग्रंथियां खुल गई और मेरी उर्जा मस्ती से बहने लगी। मैं संसार में पूरी तरह से था पर संसारी नहीं था।
यदि आपने संसार और संन्यास के बीच मज्झम निकाय खोज लिया था तो आप सब कुछ छोड़ कर आश्रम में क्यों आ गए? एक बात माननी पड़ेगी कि कुछ भी हो जाए आप विनोद भारती को डावा डोल नहीं कर सकते। कोई भी प्रश्न पूछे उनका तराजू स्थिर परिपक्व सम हो गया था वह समाधान के गहरी खाई यों में उतर गया था। शायद समाधि की सुगंध उसके नासापुट के करीब हो।
उन्होंने बिना झुंझलाए जवाब दिया। आश्रम में ओशो के पास रहने की मेरी गहरी तमन्ना थी। यह तो ओशो तो ओशो ने मुझे आज मानें के लिए संसार में भेज दिया था। फिर एक दिन अचानक ओशो ने कहा: अब तुम आश्रम में रहने आ जाओ। मैं दूसरे ही दिन बंबई गया, जोर दार प्रेस कांफ्रेंस ली और अपना संन्यास घोषित कर दिया। उस वक्त मेरा कैरियर शिखर पर था। कई निर्माता मेरी फिल्मों में पैसा लगा चुके थे। मेरे परिवार मेरे दोस्त, सब के लिए यह बहुत बड़ी दुर्घटना थी। मेरे आस पास एक बवंडर खड़ा हो गया। पत्नी बच्चे बिछुड़ गए। फिल्म जगत के लोग नाराज हो गये। यार-दोस्तों ने मुझे पागल करार दे दिया। जो समय नाम और पैसा कमाने का था उस समय मैं सब छोड़ रहा था। शायद में सही हूं कि ओशो को दुनियां में नहीं तो कम से कम भारत में सबसे ज्यादा बदनाम मैंने किया। ये कालिख तो मैंने अपने गुरु पर लगा ही दी और मैं जानता था वो मुझे क्या दे रहे है और बदले में गुरु को मैं क्या दे रहा हूं। मुझे पैसे का नाम का परिवार का इतना बुरा नहीं लगा ये तो छुटना ही है। नाम कब तक रहेगा। वह तो खोजाना ही है। पर ओशो को जो मैंने दिया........ इतना कह विनोद गहरे में कहीं खो गये। वह भाव विभोर हो गये। शब्द कुछ देर के मौन हो गये। उनका गला भर आया। कुछ देर केवल गुरु और निशब्द नीरवता छाई रही।
आपको पत्नी बच्चों को लेकर कोई अपराध भाव नहीं हुआ?
नहीं, विनोद जी ने आत्मविश्वास से कहा, एक तो मैं कोई गलत काम नहीं कर रहा था। गुरु के पास ही जा रहा था। दूसरी बात मैंने उनको साथ लेने की बहुत कोशिश की लेकिन उनकी ओशो में कोई रूचि नहीं थी। तो बात स्पष्ट हो गई कि अब हमारे रास्ते अलग थे। रहा निर्माताओं का सवाल,तो मैंने जो वादे किए थे। सारे पूरे किए, मैं शूटिंग के लिए पूना से बंबई जाया करता था।
मैंने 1978 में संन्यास की घोषणा की थी लेकिन मैं 1981 तक पुरानी फिल्में खत्म करने के लिए पूना से बंबई जाया करता था। सिर्फ दो फिल्में अधूरी थी। वे पूरी नहीं कर सके। फिर ओशो ने कहा, तुमने उन्हें काफी समय दिया है। अब तुम्हारी कोई जिम्मेदारी नहीं है।
यदि यह सच है तो पत्रकारों ने आपके खिलाफ इतना तूफान क्यों उठाया कि आपने कितनों के पैसे डुबो दिए, निर्माताओं को मझधार में छोड़ दिया।
विनोद को असंतुलित करना असंभव है। उन्होंने इस स्वर में कहा जैसे बुजुर्ग बच्चे के बारे में कहते हे। फिल्मी पत्रकारों की कौन कहे? उन्हें मिर्च मसाला चाहिए बस। मेरे जीवन की घटनाएं ही ऐसी थी कि उन्हें उछालने का खूब मौका मिला। संन्यास इतनी निजी और आंतरिक घटना है, इसे बाहर से कैसे समझा जा सकता है।
अच्छा अब आपकी आश्रम की दिनचर्या के बारे में कुछ बताएँगे?
आश्रम में मेरा जो जीवन था वह पुराने ढाँचे से हर तरह से उल्टा था। बंबई में मैं निरंतर लोगों के बीच घिरा रहता था। यहां ओशो ने मुझे अपने निजी उद्यान में बागवानी करने के लिए कहा। बाग़ क्या बिलकुल जंगल था। वहां आप कोई पेड़ नहीं कांट सकते। ने पत्ते तोड़ सकते। ग्रीन मुक्ता मेरी बॉस थी। वह मुझे कहां-कहां घुसकर पौधे लगाने के लिए भेजती थी। मेरी छह फुट की देह—मेरे हाथ पांव छिल जाते थे। कांटे चूभ जाते थे। खून निकल आता था। मिट्टी में सन जाता था। पर ये काम था अनूठा और ह्रदय गामी। मेरे अहं कार की जड़ों तक को खोद गया। वरना तो यह बीज घास की तरह है। बरिस हुई नहीं की सुखा रेगिस्तान सा दिखने वाला स्थान भी पल हरा हो जाता है। शायद यही मेरे दोस्त विजय आनंद और महेश के साथ हुआ काश वो बोधिकता से आगे जा ध्यान का समर्पण का रस्सा स्वाद ले लेते। फिर आप मेरा कमरा देखिये वह मेरे नाप का ही थी। पूरे पेर फला ही नहीं सकता था। मुझे पब्लिक टायलेट में जाना पड़ता था। यहीं नहीं मुझ से यह भी कहा गया था की इस कमरे में दो लोगों की मृत्यु हो चुकी है। मेरे भीतर मौत का गहरा डर जो था। विनोद ने हंस कर कहां।–वहीं खिलते-बिखरते हुए फूल सी हंसी जो हम पर्दे पर देखते है।
स्वामी विनोद भारती( विनोद खन्ना)
मां अमृत साधना
अप्रैल अंक 1994, ओशो टाईम्स
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