#वेद_vs_विज्ञान भाग - 7
#भ्रूण विज्ञान(embryology)
भ्रूणविज्ञान (Embroyology) के अंतर्गत अंडाणु के निषेचन से लेकर शिशु के जन्म तक जीव के उद्भव एवं विकास का वर्णन होता है। अपने पूर्वजों के समान किसी व्यक्ति के निर्माण में कोशिकाओं और ऊतकों की पारस्परिक क्रिया का अध्ययन एक अत्यंत रुचि का विषय है। स्त्री के अंडाणु का पुरुष के शुक्राणु के द्वारा निषेचन होने के पश्चात जो क्रमबद्ध परिवर्तन भ्रूण से पूर्ण शिशु होने तक होते हैं, वे सब इसके अंतर्गत आते हैं, तथापि भ्रूणविज्ञान के अंतर्गत प्रसव के पूर्व के परिवर्तन एवं वृद्धि का ही अध्ययन होता है।
#भ्रूण विज्ञान(embryology)
भ्रूणविज्ञान (Embroyology) के अंतर्गत अंडाणु के निषेचन से लेकर शिशु के जन्म तक जीव के उद्भव एवं विकास का वर्णन होता है। अपने पूर्वजों के समान किसी व्यक्ति के निर्माण में कोशिकाओं और ऊतकों की पारस्परिक क्रिया का अध्ययन एक अत्यंत रुचि का विषय है। स्त्री के अंडाणु का पुरुष के शुक्राणु के द्वारा निषेचन होने के पश्चात जो क्रमबद्ध परिवर्तन भ्रूण से पूर्ण शिशु होने तक होते हैं, वे सब इसके अंतर्गत आते हैं, तथापि भ्रूणविज्ञान के अंतर्गत प्रसव के पूर्व के परिवर्तन एवं वृद्धि का ही अध्ययन होता है।
#वैज्ञानिक एवम #वैदिक तुलनात्मकता -
महाभारत के शांति पर्व 117,301, 320, 331, 356 तथा भागवत 3/31 में वर्णन मिलता है की शुक्र का एक कण शोणित के साथ क्रिया कर कलल का निर्माण करता है । शुक्र तथा शोणित को क्रमश : शुक्राणु (sperm) और अंडाणु (ovum) तथा कलल को युग्मनज या निषेचित डिंब (Zygote) भी कहा जाता है ।
भागवत में कहा गया है कि केवल एक ही रात में अर्थात लगभग 12 घंटे के समय में ही कलल का निर्माण हो जाता है ।
कलल आगे 5 रातों के पश्चात बुलबुले (bubble stage) रूप में आ जाता है (भागवत ३/३१/२ )
आधुनिक विज्ञानं का भी यही मत है । दस दिन में बेर के समान कुछ कठिन हो जाता है तथा 11 वें दिन का भ्रूण अंड (oval shaped) की भांति दिखाई पड़ता है ।
इस प्रकार भ्रूण में 15 दिनों में होने वाले सूक्ष्म परिवर्तनों (microscopic changes) का वर्णन मिलता है । आधुनिक विज्ञानं को ये सब जानने के लिए न जाने कोन कोन सी पचासों मशीनों का प्रयोग करना पडता है ।
भागवत 3/31/3 में लिखा है प्रथम महीने के अंत तक भ्रूण का सिर विकसित हो जाता है ।
आधुनिक विज्ञान में 30-32 दिन के भ्रूण का सिर साफ़ साफ़ देखा जा सकता है ।
आगे लिखा है कि गर्भावस्था के दूसरे महीने में भ्रूण के हाथ-पाँव और शरीर के अन्य भागों को विकसित होने लगते है.
6-8 सप्ताह (42-56 दिन ) के भ्रूण में हाथ-पाँव और शरीर के अन्य भाग
गर्भावस्था के तीसरे महीने में नाखून, बाल, हड्डियां और त्वचा विकसित होने लगती है तथा जननांग विकसित होने लगते है तथा कुछ समय पश्चात गुदा (Anus ) का निर्माण होता है ।
भागवत में कहा गया है कि केवल एक ही रात में अर्थात लगभग 12 घंटे के समय में ही कलल का निर्माण हो जाता है ।
कलल आगे 5 रातों के पश्चात बुलबुले (bubble stage) रूप में आ जाता है (भागवत ३/३१/२ )
आधुनिक विज्ञानं का भी यही मत है । दस दिन में बेर के समान कुछ कठिन हो जाता है तथा 11 वें दिन का भ्रूण अंड (oval shaped) की भांति दिखाई पड़ता है ।
इस प्रकार भ्रूण में 15 दिनों में होने वाले सूक्ष्म परिवर्तनों (microscopic changes) का वर्णन मिलता है । आधुनिक विज्ञानं को ये सब जानने के लिए न जाने कोन कोन सी पचासों मशीनों का प्रयोग करना पडता है ।
भागवत 3/31/3 में लिखा है प्रथम महीने के अंत तक भ्रूण का सिर विकसित हो जाता है ।
आधुनिक विज्ञान में 30-32 दिन के भ्रूण का सिर साफ़ साफ़ देखा जा सकता है ।
आगे लिखा है कि गर्भावस्था के दूसरे महीने में भ्रूण के हाथ-पाँव और शरीर के अन्य भागों को विकसित होने लगते है.
6-8 सप्ताह (42-56 दिन ) के भ्रूण में हाथ-पाँव और शरीर के अन्य भाग
गर्भावस्था के तीसरे महीने में नाखून, बाल, हड्डियां और त्वचा विकसित होने लगती है तथा जननांग विकसित होने लगते है तथा कुछ समय पश्चात गुदा (Anus ) का निर्माण होता है ।
आधुनिक मत के अनुसार 8 सप्ताह (56 दिन = लगभग 2 माह ) के भ्रूण में जननांग पाए जाते है तथा पूर्णतया प्राप्त करने में तीसरा महिना आ ही जाता है ।
तथा आगे लिखा है चोथे महीने में सात प्रकार की धातुओं (tissues) का निर्माण होता है जो इस प्रकार है :
रस (tissue fluids), रक्त (blood), स्नायु (muscles), मेदा (fatty tissue), अस्थी (bones), मज्जा (nervous
tissue) तथा शुक्र (reproductive tissue). आधुनिक विज्ञानं का भी यही मत है ।
पांचवे महीने में शिशु में भूख तथा प्यास विकसित होती है । जातविष्ठा (मल) पेट में ग्रहणी से मलाशय तक पाया जाता है जिसमे स्वयं भ्रूण के ही बाल (lanugo hairs) तथा उपकला कोशिकाएँ भी शामिल होती है । ये सभी भ्रूण की आंत तक एमनियोटिक द्रव निगलने के फलस्वरूप ही पहुँच सकते हैं । एमनियोटिक द्रव (amniotic fluid) वह द्रव है जिसमे भ्रूण स्थित होता है । बाल (lanugo hairs) और उपकला कोशिकाएँ भ्रूण की त्वचा द्वारा ही एमनियोटिक द्रव में गिरती है जिसे भ्रूण ग्रहण करता है । और इन बालो (lanugo hairs) तथा उपकला कोशिकाओं का शिशु की आंतों में पाया जाना जठरांत्र संबंधी मार्ग के कार्य सुचारू कार्य करने को दर्शाता है ।
अर्थात पांचवे महीने में शिशु का जठर तंत्र तथा आंते आदि कार्य करने लगते है तथा यह भी निश्चित है की शिशु का एमनियोटिक द्रव ग्रहण करना एक स्व प्रक्रिया नही है अपितु शिशु की भूख तथा प्यास को दर्शाता है । शिशु को भूख तथा प्यास की अनुभूति होने के फलस्वरूप ही वह एमनियोटिक द्रव ग्रहण करता है ।
छठे महीने में शिशु गर्भ में घूर्णन करने लगता है अर्थात करवट लेने लगता है तथा कई प्रकार के ढकाव (एमनियोटिक द्रव/उतकों आदि ) द्वारा घिरा रहता है
सातवे महीने में शिशु का मस्तिष्क कार्य करने लगता है और 7 महीने का शिशु व्यवहार्य हो जाता है ।
आधुनिक विज्ञान इस तथ्य को हाल ही में हुए एक प्रयोग के पश्चात समझ पाई है ।
श्लोक 22 में कपिल मुनि लिखते है कि 10 महीने में भ्रूण को नीचे की और प्रसूति वायु द्वारा धकेला जाता है ।
इस प्रकार गर्भ में भ्रूण से शिशु निर्माण की प्रक्रिया सूक्ष्म रूप से भागवत 2/10/17 से 22, 3/6/12 से 15 तथा 3/26/54 से 60 में मिलता है जिसमे मुह,नाक,आँखे,कान, तालू, जीभ और गला आदि शामिल है । तथा (3/6/1 से 5) तक में जिव निर्माण में योगदान देने वाले 23 गुणसूत्रों का भी वर्णन मिलता है ।
तथा आगे लिखा है चोथे महीने में सात प्रकार की धातुओं (tissues) का निर्माण होता है जो इस प्रकार है :
रस (tissue fluids), रक्त (blood), स्नायु (muscles), मेदा (fatty tissue), अस्थी (bones), मज्जा (nervous
tissue) तथा शुक्र (reproductive tissue). आधुनिक विज्ञानं का भी यही मत है ।
पांचवे महीने में शिशु में भूख तथा प्यास विकसित होती है । जातविष्ठा (मल) पेट में ग्रहणी से मलाशय तक पाया जाता है जिसमे स्वयं भ्रूण के ही बाल (lanugo hairs) तथा उपकला कोशिकाएँ भी शामिल होती है । ये सभी भ्रूण की आंत तक एमनियोटिक द्रव निगलने के फलस्वरूप ही पहुँच सकते हैं । एमनियोटिक द्रव (amniotic fluid) वह द्रव है जिसमे भ्रूण स्थित होता है । बाल (lanugo hairs) और उपकला कोशिकाएँ भ्रूण की त्वचा द्वारा ही एमनियोटिक द्रव में गिरती है जिसे भ्रूण ग्रहण करता है । और इन बालो (lanugo hairs) तथा उपकला कोशिकाओं का शिशु की आंतों में पाया जाना जठरांत्र संबंधी मार्ग के कार्य सुचारू कार्य करने को दर्शाता है ।
अर्थात पांचवे महीने में शिशु का जठर तंत्र तथा आंते आदि कार्य करने लगते है तथा यह भी निश्चित है की शिशु का एमनियोटिक द्रव ग्रहण करना एक स्व प्रक्रिया नही है अपितु शिशु की भूख तथा प्यास को दर्शाता है । शिशु को भूख तथा प्यास की अनुभूति होने के फलस्वरूप ही वह एमनियोटिक द्रव ग्रहण करता है ।
छठे महीने में शिशु गर्भ में घूर्णन करने लगता है अर्थात करवट लेने लगता है तथा कई प्रकार के ढकाव (एमनियोटिक द्रव/उतकों आदि ) द्वारा घिरा रहता है
सातवे महीने में शिशु का मस्तिष्क कार्य करने लगता है और 7 महीने का शिशु व्यवहार्य हो जाता है ।
आधुनिक विज्ञान इस तथ्य को हाल ही में हुए एक प्रयोग के पश्चात समझ पाई है ।
श्लोक 22 में कपिल मुनि लिखते है कि 10 महीने में भ्रूण को नीचे की और प्रसूति वायु द्वारा धकेला जाता है ।
इस प्रकार गर्भ में भ्रूण से शिशु निर्माण की प्रक्रिया सूक्ष्म रूप से भागवत 2/10/17 से 22, 3/6/12 से 15 तथा 3/26/54 से 60 में मिलता है जिसमे मुह,नाक,आँखे,कान, तालू, जीभ और गला आदि शामिल है । तथा (3/6/1 से 5) तक में जिव निर्माण में योगदान देने वाले 23 गुणसूत्रों का भी वर्णन मिलता है ।
आधुनिक विज्ञान में कहा गया है एक शुक्राणु के 22 गुणसूत्र, एक अंड के साथ मिलकर भ्रूण निर्माण करते है । बिलकुल यही तथ्य आज से लगभग 7500 वर्ष पूर्व लिखी गई महाभारत में भी मिलता है ।
भागवत (2/10, 3/6, 3/26) में लिखा है जननांग तथा गुदा आदि के पश्चात ह्रदय का निर्माण होता है । यह तथ्य 1972 में H.P.Robinson द्वारा Glasgow University में ultrasonic Doppler technique के माध्यम से सिद्ध किया जा चुके है ।
भागवत में लिखा है दोनों कानो में प्रत्येक का कार्य ध्वनी तथा दिशा का ज्ञान करना है यह तथ्य 1936 में Ross तथा Tait नामक वैज्ञानिकों द्वारा सिद्ध किया गया की दिशा का गया आन्तरिक कान में स्थित Labyrinth नामक संरचना द्वारा होता है । इसका वर्णन ऐतरेय उपनिषद (लगभग 6000 से 7000 ईसा पूर्व ) 1/1/4 तथा 1/2/4 में भी मिलता है ।
भागवत (2/10, 3/6, 3/26) में लिखा है जननांग तथा गुदा आदि के पश्चात ह्रदय का निर्माण होता है । यह तथ्य 1972 में H.P.Robinson द्वारा Glasgow University में ultrasonic Doppler technique के माध्यम से सिद्ध किया जा चुके है ।
भागवत में लिखा है दोनों कानो में प्रत्येक का कार्य ध्वनी तथा दिशा का ज्ञान करना है यह तथ्य 1936 में Ross तथा Tait नामक वैज्ञानिकों द्वारा सिद्ध किया गया की दिशा का गया आन्तरिक कान में स्थित Labyrinth नामक संरचना द्वारा होता है । इसका वर्णन ऐतरेय उपनिषद (लगभग 6000 से 7000 ईसा पूर्व ) 1/1/4 तथा 1/2/4 में भी मिलता है ।
#विशेष -
मात्र साफ़, महंगे विदेशी वस्त्र पहनने तथा टाई लटका लेने से कोई बुद्धिमान नही हो जाता । उपरोक्त सारे अनुसन्धान हमारे ऋषि लोगो ने भगवा धारण किये ही किये थे ।
मात्र साफ़, महंगे विदेशी वस्त्र पहनने तथा टाई लटका लेने से कोई बुद्धिमान नही हो जाता । उपरोक्त सारे अनुसन्धान हमारे ऋषि लोगो ने भगवा धारण किये ही किये थे ।
साभार: अजेष्ठ त्रिपाठी, https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=269187750214304&id=100013692425716
No comments:
Post a Comment
Note: only a member of this blog may post a comment.