Monday, 12 June 2017

वेद_vs_विज्ञान भाग-4, परमाणु_सिद्धांत

#वेद_vs_विज्ञान भाग-4
                             --  #परमाणु_सिद्धांत --
#वैज्ञानिक_दावा -
परमाणु सिद्धांत के जनक जॉन डाल्टन को माना जाता है (६ सितंबर, १७६६ - ७ जुलाई, १८४४) एक अंग्रेज़ वैज्ञानिक थे। इन्होंने पदार्थ की रचना सम्बन्धी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जो 'डाल्टन के परमाणु सिद्धान्त' के नाम से प्रचलित है।
डाल्टन ने द्रव्यों की प्रकृति के बारे में एक आधारभूत सिद्धांत प्रस्तुत किया। डाल्टन ने द्रव्यों की विभाज्यता का विचार प्रदान किया जिसे उस समय तक दार्शनिकता माना जाता था। ग्रीक दार्शनिकों के द्वारा द्रव्यों के सूक्ष्मतम अविभाज्य कण, जिसे परमाणु नाम दिया था, उसे डाल्टन ने भी परमाणु नाम दिया। डाल्टन का यह सिद्धांत रासायनिक संयोजन के नियमों पर आधरित था। डाल्टन के परमाणु सिद्धांत ने द्रव्यमान के संरक्षण के नियम एवं निश्चित अनुपात के नियम की युक्तिसंगत व्याख्या की। डाल्टन के परमाणु सिद्धांत के अनुसार सभी द्रव्य चाहे तत्व, यौगिक या मिश्रण हो, सूक्ष्म कणों से बने होते हैं जिन्हें परमाणु कहते हैं। डाल्टन के सिद्धांत की विवेचना निम्न प्रकार से कर सकते हैं:
सभी द्रव्य परमाणुओं से बने होते हैं।
परमाणु अविभाज्य सूक्ष्मतम कण होते हैं जो रासायनिक अभिक्रिया में न तो सृजित होते हैं और न ही उनका विनाश होता है।
किसी भी दिए गए तत्व के सभी परमाणुओं का द्रव्यमान एवं रासायनिक गुण समान होते हैं।
भिन्न-भिन्न तत्वों के परमाणुओं के द्रव्यमान एवं रासायनिक गुणधर्म भिन्न-भिन्न होते हैं।
भिन्न-भिन्न तत्वों के परमाणु परस्पर छोटीपूर्ण संख्या के अनुपात में संयोग कर यौगिक नियमित करते हैं।
किसी भी यौगिक में परमाणुओं की सापेक्ष संख्या एवं प्रकार निश्चित होते हैं।
एक रासायनिक प्रतिक्रिया परमाणुओं की एक पुनर्व्यवस्था है।
#वैदिक ज्ञान जो चोरी हुआ - महर्षि कणाद वैशेषिक सूत्र के निर्माता, परंपरा से प्रचलित वैशेषिक सिद्धांतों के क्रमबद्ध संग्रहकर्ता एवं वैशेषिक दर्शन के उद्धारकर्ता माने जाते हैं। वे उलूक, काश्यप, पैलुक आदि नामों से भी प्रख्यात थे।
‘दृष्टानां दृष्ट प्रयोजनानां दृष्टाभावे प्रयोगोऽभ्युदयाय' : अर्थात प्रत्यक्ष देखे हुए और अन्यों को दिखाने के उद्देश्य से अथवा स्वयं और अधिक गहराई से ज्ञान प्राप्त करने हेतु रखकर किए गए प्रयोगों से अभ्युदय का मार्ग प्रशस्त होता है। -वैशेषिक दर्शन अध्याय 10
कणाद के अनुसार पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, दिक्‌, काल, मन और आत्मा इन्हें जानना चाहिए। इस परिधि में जड़-चेतन सारी प्रकृति व जीव आ जाते हैं। कणाद ने परमाणुओं को तत्वों की ऐसी लघुतम अविभाज्य इकाई माना जिनमें इस तत्व के समस्त गुण उपस्थित होते हैं।
कणाद के अनुसार परमाणु स्वतंत्र नहीं रह सकते। एक प्रकार के दो परमाणु संयुक्त होकर ‘द्विणुक' का निर्माण कर सकते हैं। यह द्विणुक ही आज के रसायनज्ञों का ‘वायनरी मॉलिक्यूल' लगता है। उन्होंने यह भी कहा कि भिन्न-भिन्न पदार्थों के परमाणु भी आपस में संयुक्त हो सकते हैं। वैशेषिक सूत्र में परमाणुओं को सतत गतिशील भी माना गया है तथा द्रव्य के संरक्षण (कन्सर्वेशन ऑफ मैटर) की भी बात कही गई है। ये बातें भी आधुनिक मान्यताओं के संगत हैं।
महर्षि कणाद कहते हैं, द्रव्य को छोटा करते जाएंगे तो एक स्थिति ऐसी आएगी, जहां से उसे और छोटा नहीं किया जा सकता, क्योंकि यदि उससे अधिक छोटा करने का प्रत्यन किया तो उसके पुराने गुणों का लोप हो जाएगा। उनके अनुसार द्रव्य की दो स्थितियां हैं- एक आणविक और दूसरी महत्। आणविक स्थिति सूक्ष्मतम है तथा महत्‌ यानी विशाल ब्रह्माण्ड। दूसरे, द्रव्य की स्थिति एक समान नहीं रहती है।
।।धर्म विशेष प्रसुदात द्रव्य गुण कर्म सामान्य विशेष समवायनां पदार्थानां साधर्य वैधर्यभ्यां तत्वज्ञाना नि:श्रेयसम:।। -वैशेषिक दर्शन 0-4
अर्थात धर्म विशेष में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष तथा समवाय के साधर्य और वैधर्म्य के ज्ञान द्वारा उत्पन्न ज्ञान से नि:श्रेयस की प्राप्ति होती है।
द्रव्य को जानना : कुछ भी जानने के लिए प्रथम माध्यम हमारी इन्द्रियां ही हैं। इनके द्वारा मनुष्य देखकर, चखकर, सूंघकर, स्पर्श कर तथा सुनकर ज्ञान प्राप्त करता है। बाह्य जगत के ये माध्यम हैं। विभिन्न उपकरण इन इंद्रियों को जानने की शक्ति बढ़ाते हैं। सर्वप्रथम द्रव्य को इसी से जाना जा सकता है।
दूसरा और अधिक महत्वपूर्ण माध्यम अंतरज्ञान माना गया जिसमें शरीर को प्रयोगशाला बना समस्त विचार, भावना, इच्छा इनमें स्पंदन शांत होने पर सत्य अपने को उद्घाटित करता है। अत: ज्ञान प्राप्ति के ये दोनों माध्यम रहे तथा मूल सत्य के निकट अंतरज्ञान की अनुभूति से उपर्युक्त प्रश्नों का उत्तर खोजने का प्रयत्न हुआ।
द्रव्य क्या है? पृथिव्यापस्तेजोवायुराकाशं कालोदिगात्मा मन इति द्रव्याणि।। -वै.द. 1/5
अर्थात पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा जीवात्मा तथा मन- ये सभी द्रव्य हैं। यहां पृथ्वी, जल आदि से कोई हमारी पृथ्वी, जल आदि का अर्थ लेते हैं। पर ध्यान रखें इस संपूर्ण ब्रह्मांड में ये 9 द्रव्य कहे गए, अत: स्थूल पृथ्वी से यहां अर्थ नहीं है। इसका अर्थ जड़ से है। जड़ जगत ब्रह्मांड में सभी जगह है। इसे आज का विज्ञान ठोस पदार्थ कहता है।
#विशेष -
महर्षि कणाद के मत में मन तथा आत्मा भी द्रव्य हैं। यह समझना जरा कठिन है कि आत्मा किस तरह द्रव्य है। आज का विज्ञान भी इसे अभी समझने में सक्षम नहीं है। दरअसल जिस तरह आकाश के कई प्रकार हैं उसी तरह आत्मा के। अथ: प्रत्येक द्रव्य की स्थिति आणविक है। वे गतिशील हैं तथा परिमंडलाकार उनकी स्थिति है।
‘नित्यं परिमण्डलम्‌'।- वै.द. 7/20
अर्थात : परमाणु छोटे-बड़े रहते हैं, इस विषय में महर्षि कणाद कहते हैं-
एतेन दीर्घत्वहृस्वत्वे व्याख्याते (वै.द.) 7-1-17
अर्थात : आकर्षण-विकर्षण से अणुओं में छोटापन और बड़ापन उत्पन्न होता है।
इसी प्रकार ब्रह्मसूत्र में कहा गया-
महद्‌ दीर्घवद्वा हृस्वपरिमण्डलाभ्याम्‌ (व्र.सूत्र 2-2-11)
अर्थात महद्‌ से हृस्व तथा दीर्घ परिमंडल बनते हैं।
परमाणु प्रभावित कैसे होते हैं तो महर्षि कणाद कहते हैं-
विभवान्महानाकाशस्तथा च आत्मा (वै.द. 7-22)
अर्थात् उच्च ऊर्जा, आकाश व आत्मा के प्रभाव से।
परमाणुओं से सृष्टि की प्रक्रिया कैसे होती है? तो महर्षि कणाद कहते हैं कि पाकज क्रिया के द्वारा। इसे पीलुपाक क्रिया भी कहते हैं अर्थात अग्नि या ताप द्वारा परमाणुओं का संयोजन होता है। दो परमाणु मिलकर द्वयणुक बनते हैं। तीन द्वयणुक से एक त्रयणुक, चार त्रयणुक से एक चतुर्णुक तथा इस प्रकार स्थूल पदार्थों निर्मित होते जाते हैं। वे कुछ समय रहते हैं तथा बाद में पुन: उनका क्षरण होता है और मूल रूप में लौटते हैं। हमारे शरीर और इस ब्रह्मांड की रचना इसी तरह हुई है।
साभार: अजेष्ठ त्रिपाठी, https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=267956933670719&id=100013692425716

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