'गुड ब्वाय बैड ब्वाय,
मैं टीवी पर एक फिल्म देख रहा था। 'गुड बॉय बैड बॉय,।फिल्म कोई ख़ास नही थी, ऐसे ही बेकार सी है। ना हिट गई और ना ही उसकी कभी चर्चा हुई।ऐसे हजारों फ़िल्में आई है जिनके आने और पिटने का भी पता नही चलता।उस फिल्म में एक दृश्य है,जरा आप भी देखिये!
बैड बॉयज गुड बॉयज के साथ बैठे हैं, लड़के-लड़कियां दोनों हैं।यह लाइब्रेरी में फिल्माया गया है।लड़का(इमरान-हाशमी) जो पढ़ाकू लड़का है वह हीरोइन को इंप्रेस करने के लिए अपने हाथ में एक मोटी सी किताब लिए है।सीन अच्छा चल रहा था और मैं भी दिलचस्पी से फिल्म को देख रहा था।अचानक लाल किताब पर चपे बड़े से नाम पर मेरा ध्यान गया।यह सीन नाम सहित दस मिनट तक दिखाया गया था। टाइटल सहित बार-बार पर्दे पर शो कर रही थी।मैंने देखा उस किताब का नाम लिखा हुआ था कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो।गुड बॉयज लड़कियों को और लोगों को संदेश दे रहे थे।लाइब्रेरी में इस तरह की अच्छी किताबें होती हैं।बैड बॉयस के लिए वह बता रहे थे कि वह पूजा-पाठ करते हैं,गायत्री मंत्र पढ़ते हैं, धर्म के अनुसार चलते हैं।बड़े गन्दे होते है। बड़ा अजीब सा लगा।वह कैसे नैरेटिव गढ़ते हैं,कैसे अपना नरेशन करते हैं।ऐसे हजारों की संख्या में ऐसी फिल्में बनाई गई है,उनके निर्देशक या तो मुस्लिम हैं,या ईसाई क्रिप्टो क्रिश्चियन,अगर यह न हुए तो वामपंथी ही होंगे।पता करेंगे तो इप्टा,एसएफआई,या सीधे एमसीपीआई,आदि से जुड़े होंन्गे नही तो कांग्रेस के पेड।मैंने उन सभी फिल्मों का अध्ययन किया।वह बड़ी गहराई से छोटे-छोटे टुकड़ों में मैसेज भेज देते हैं, और हिन्दूत्व विरोध स्टैब्लिश करते हैं।विचारधारा के रूप में ऐसे छद्म-धर्मनिरपेक्षता के लिए,या मजहब के पक्ष में,ईसाइयों के पक्ष में, छोटे छोटे दृश्यों में डाले जाते हैं।आप ध्यान से देखिएगा और यह दिमाग पर साइलेंट रूप में बहुत गहरा असर छोड़ते हैं।सीधे सन्देश दे रहे हैं जो पढ़ने वाले लड़के हैं,अच्छे लड़के हैं,हीरो-हीरोइन हैं वह कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो पढ़ते हैं।नही तो इस्लामिक या ईसाई है,और उन्हें हिंदू-जीवन शैली में खलनायकत्व दिखता है।वे कुरआन रखते हैं,दास कैपिटल पढ़ते हैं,और बाइबिल उनका आदर्श ग्रन्थ है।कम्युनिस्ट एक्टिविटीज करते हैं,इसीलिये बुद्धिजीवी है। कम्युनिज्म,देशद्रोह और राष्ट्र के विरोध में नारे लगाना बुद्धिजीवीता की पहचान है। देशप्रेम की बातें करना,हिंदू धर्म की बातें करना,हिंदू पूजा वगैरह करना यह सब पिछड़ापन है वह दकियानुसी बातें हैं।यह नैरेशन पिछले 70 सालों से दिमाग में ठूसा जा रहा है,और स्थापित किया जा रहा है,सिनेमा से, मीडिया से, साहित्य से, किताबों से,प्रचार पुस्तकों से और तमाम कथाओं से,कहानियों से बहुसंख्यक किशोरों,युवकों को टारगेट में लिए है।
अपने संचारी रचनाओं के सहारे जिसे वह माडर्न,आधुनिक या प्रगतिशील कहना/जताना चाहते हैं वह बेसिकली कम्युनिज्म, ईसाईयत या इस्लाम को कहना चाहते हैं।भारत में वह हिंदुओं को पिछड़ा,दकियानूस,पोंगापंथी, अंधविश्वासी,प्राचीन कालीन,मूर्ख टाइप का सिद्ध करने में लगे होते हैं। इन चीजों पर इंद्रियों पर इन कथानकों पर,पस्तुति के तरीकों पर, पर टारगेट्स पर आपत्ति करनी पड़ेगी।हमें हर बार माइन्यूट व्यू से देखना पड़ेगा और खुलकर इसका विरोध करना पड़ेगा। विशेषकर मुंबईया पिक्चरों को ध्यान से आप देखेंगे तो वह अघोषित रूप में आप पर आक्रामक है।दिखते नहीं है उनके तरीके बड़े चालाकी पूर्ण ढंग से होते हैं।वह अपने कथानक गढ़ते ही इस तरह हैं अपने सीन बनाते ही इस तरह हैं की तार्किक लगे। अपनी बातें कहते ही इस तरह है कि वह जस्टिफाई कर सकें, बुद्धिजीविता-पूर्ण लगे।
छोटे बच्चे जो ज्यादा समझ नही सकते वे इनका निशाना है।यह माइंड हंट करने जैसा है,नये संस्कार में जकड़ देना। विशेषकर इंजीनियरिंग कॉलेजों, मेडिकल कॉलेजों,तमाम विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले प्रथम वर्ष-द्वितीय वर्ष के लड़के-लड़कियां, इंटरमीडिएट हाईस्कूल और उस से छोटी कक्षाओं के बच्चे इन फिल्मों को देखते हैं और प्रभावित होते हैं।जो ज्यादा गहराई में उतरकर नही सोचते-समझते वे इनके टारगेट है।धीरे-धीरे वह प्रॉक्सी हिंदू होते चले जाते हैं।हमें खुला प्रतिरोध जताना होगा।हमे साउथ की फिल्मो को बढ़ाना होगा वे इस मामले में सजग है।लेकिन मुंबइया जहर वहां भी फैल सकता है इस पर सचेत रहना होगा।
Courtesy: Pawan Tripathi, https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=10155661457671768&id=705621767
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