ईसाईयों पर विजय का अमर स्मारक, 'ज़ेवियर रॉक' नहीं 'विवेकानन्द स्मारक'
-----------------------------------------------
सम्पूर्ण देश में घूमता हुआ भ्रमणशील संन्यासी भारत के दक्षिणी अंतिम छोर पर पहुंचा जहाँ पर प्राचीनकाल से भगवती कन्याकुमारी का मंदिर स्थित है। संन्यासी माँ के चरणों में गिर पड़ा। वहीं समुद्र में दो चट्टानें हैं जो भूमि से अलग हो गई हैं। शिला तक पहुँचने का कोई दूसरा उपाय न देख संन्यासी ने समुद्र में छलांग लगा दी। चट्टान पर 1892 की 25, 26 और 27 दिसम्बर को माँ के चरणों में संन्यासी ने ध्यान किया। भारतभूमि का अतीत, वर्तमान और भविष्य संन्यासी के चित्त पर चित्रपट की तरह चल पड़ा, और उनको उद्घाटित हुआ भारत की दीनता का मूल कारण और उसका समाधान। ईश्वर द्वारा निर्दिष्ट ध्येय का उन्हें साक्षात्कार हुआ। चारों और समुद्र की उत्ताल प्रचण्ड तरंगों के बीच भारत की पीड़ा से क्लांत संन्यासी का व्यग्र मन शांत हो गया। वह थे स्वामी विवेकानंद और स्थान था विवेकानंद शिला, कन्याकुमारी। दक्षिणी छोर पर उन्मुक्त घोषणा करती वह शिला, “भारत हिन्दूओं का है।”, चार धामों के बाद हिन्दू जनमानस का पांचवा धाम बन गयी है। अपने में समेटे हुए हिन्दूओं की विजय का इतिहास, विधर्मियों की धूर्तता का चित्र और सनातन धर्म के संघर्ष की कहानी।
1963 को विवेकानंद जन्मशताब्दी समारोह में राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ के प्रान्त प्रचारक दत्ताजी दिदोलकर को प्रेरणा हुई कि इस शिला का नाम विवेकानंद शिला रखना चाहिए और उसपर स्वामीजी की एक प्रतिमा स्थापित करनी चाहिए। कन्याकुमारी के हिन्दुओं में भारी उत्साह हुआ और उन्होंने एक समिति गठित करली। स्वामी चिद्भवानंद जी इस कार्य में जुट गये। पर इस मांग से तमिलनाडू का कैथोलिक चर्च घबरा उठा, और डरने लगा कहीं यह काम हिन्दुओं में हिंदुत्व की भावना न भर दे, मिशन की राह में यह प्रस्ताव चर्च को बड़ा रोड़ा लगा। अपनी धूर्तता के लिए विश्वविख्यात चर्च तुरंत एक्शन में आ गया। चर्च ने उस शिला को विवेकानंद शिला की बजाय ‘सेंट जेवियर रॉक’ नाम दे दिया और मिथक गढ़ा कि सोलहवीं शताब्दी में सेंट जेवियर इस शिला पर आये थे। शिला पर अपना अधिकार सिद्ध करने के लिए वहां चर्च के प्रतीक चिन्ह ‘क्रास’ की एक प्रतिमा भी स्थापित कर दी और चट्टान पर क्रॉस के चिन्ह बना दिए। मतान्तरित ईसाई नाविकों ने हिन्दूओं को समुद्र तट से शिला तक ले जाने से मना कर दिया। ध्यान दें कि भारतद्रोही चर्च ने जिस सेंट जेवियर को चुना वह वहशी आतंकी दुर्दांत मिशनरी कौन था, जिसके नाम पर आजतक भारत में हजारों कान्वेंट स्कूल चलते हैं?
1542 में पुर्तगाल के राजा और पोप की मदद से फ्रांसिस जेवियर भारत पहुंचा था। उस समय गोवा पर पुर्तगालियों का अधिकार हो चूका था और मिशन अपने मतान्तरण के कार्य में लगा था। हिन्दुओं से उसकी घृणा का आलम यह था कि जेवियर कहता है, “हिन्दू एक अपवित्र जाति है, इन काले लोगों के भगवान भी काले हैं इसलिए ये उनकी काली मूर्तियाँ बनाते हैं। ये अपनी मूर्तियों पर तेल मलते हैं, जिससे दुर्गन्ध आती है और इनकी गंदी मूर्तियाँ बदसूरत और डरावनी होती हैं।” मूर्तियों, कर्मकांडों, और जाति के कारण हिन्दुओं का मतान्तरण कठिन था, इसलिए जेवियर ने गोवा की पुर्तगाल वायसराय के साथ मिलकर हिन्दू मन्दिरों को गिराने का आदेश दे दिया। तलवार की नोंक पर धर्मांतरण करवाए गये, मन्दिर गिराने के बावजूद हिन्दू मूर्तियों पर आश्रित थे और घरों में मूर्तिपूजन करते थे। इससे मूर्तिपूजा पर उसने रोक लगवा दी। फ्रांसिस जेविअर की नजर में ब्राह्मण उसके सबसे बड़े शत्रु थे क्यूंकि वे धर्मांतरण करने में सबसे बड़ी रुकावट थे। इसलिए वेदपाठी ब्राह्मणों को उसने जिन्दा जलवाया, जो विश्वास न लाया उसे बीच में से कटवा दिया, बप्तिस्मा न पढने वाले की जीभ कटवा दी, 15 वर्ष तक के सभी हिन्दुओं के लिए ईसाई शिक्षा लेना अनिवार्य कर दिया, उनके मुंह में गोमांस ठूंसा गया, वेदपाठ पर पाबंदी लगा दी, द्विजों के जनेऊ तोड़ दिए, पुर्तगालियों ने हिन्दू स्त्रियों के बलात्कार किए, अरब यूरोप की वासना शांत करने स्त्रियों को जहाजों पर लाद दिया जाता, कितनी ही स्त्रियों ने समुद्र के जलचरों का कूदकर वरण किया था, लोहे की छड़ियों से स्त्रियों के स्तन विकृत किए जाते, योनि और गुदा में गर्म सरिये डाले जाते, नाख़ून उखाडकर कीलें चुभोई जातीं, हिन्दू विवाह और कर्मकांडों पर रोक लगा दी, जो सार्वजनिक अनुष्ठान करता पाया जाता उसकी खाल उधेडी जाती, आँखें गर्म सरियों से फोड़ी जातीं, चीमटों से मांस खींचा जाता। बार्देज़ के 300 हिन्दू मन्दिर ध्वस्त किए, दो ही दशकों में अस्लोना और कंकोलिम मन्दिर विहीन हो गये, सारे देवी देवता नष्ट हो गये, केवल श्रीमंगेश और शांता भवानी अपने स्थान पर स्थिर थे।
हिन्दुओं को ईसाई बनाते समय उनके पूजा स्थलों को, उनकी मूर्तियों को तोड़ने में जेवियर को कितनी अत्यंत प्रसन्नता होती थी यह उसके ही कथन से देखिए, “जब सभी का धर्म-परिवर्तन हो जाता है तब मैं उन्हें यह आदेश देता हूँ कि झूठे भगवान् के मंदिर गिरा दिए जाएँ और मूर्तियाँ तोड़ दी जाएँ। जो कल तक उनकी पूजा करते थे उन्हीं लोगों द्वारा मंदिर गिराए जाने तथा मूर्तियों को चकनाचूर किये जाने के दृश्य को देखकर मुझे जो प्रसन्नता होती है उसको शब्दों में बयान करना मैं नहीं जनता". हजारों हिन्दुओं को डरा धमका कर, मार कर, संपत्ति जब्त कर, राज्य से निष्कासित कर, जेलों में प्रताड़ित कर ईसा मसीह के भेड़ों की संख्या बड़ाने के बदले फ्रांसिस जेविअर को ईसाई समाज ने संत की उपाधि से नवाजा था। उसी आतंकी जेवियर को चर्च ने चुना ताकि हिन्दूओं को अपमानित कर सकें।
पर हिन्दू वीर यहाँ रुके नहीं, स्वयंसेवक बालन और लक्ष्मण समुद्र में कूदकर शिला तक पहुँच गये, एक रात रहस्यमयी तरीके से क्रॉस गायब हो गये। पूरे जिले में संघर्ष की तनाव भरी स्थिति पैदा हो गयी और राज्य कांग्रेस सरकार ने धारा 144 लागू करदी। कांग्रेस मुख्यमंत्री भक्तवत्सलम धार्मिक थे और कांची शंकर में गाढ़ आस्था रखते थे पर दलीय स्वार्थ वोटबैंक के लिए चर्च को नाराज नहीं करना चाहते थे। पर दत्ता जी की प्रेरणा से मन्मथ पद्मनाभन की अध्यक्षता में अखिल भारतीय विवेकानंद शिला स्मारक समिति का गठन हो हुआ और घोषणा हुई कि 12 जनवरी, 1963 से आरंभ होने वाले स्वामी विवेकानंद जन्म शताब्दी वर्ष की पूर्णाहुति होने तक वे शिला पर उनकी प्रतिमा की स्थापना कर देंगे। समिति ने 17 जनवरी, 1963 को शिला पर एक प्रस्तर पट्टी स्थापित कर दी। किन्तु 16 मई, 1963 को इस पट्टिका को रात के अंधेरे में ईसाइयों ने तोड़कर समुद्र में फेंक दिया गया। स्थिति फिर बहुत तनावपूर्ण हो गयी। स्थिति नियन्त्रण से बाहर होने पर सरसंघचालक श्रीगुरुजी को आगे आना पड़ा। श्रीगुरुजी ने सरकार्यवाह एकनाथ रानाडे जी को यह कार्य सौंपा। विवेकानंद वांग्मय में एकनाथ जी आकंठ डूबे हुए थे। रामकृष्ण मिशन के स्वामी माधवानंद जी से आशीर्वाद लेकर वे जीजान से जुट गये। एकनाथ रानाडे जी के मंथन से निकली, “हे हिन्दुराष्ट्र! उत्तिष्ठत! जाग्रत!”
तमिलनाडू मुख्यमंत्री भक्तवत्सलम तो पक्ष में थे पर केन्द्रीय संस्कृति मंत्री हुमांयू कबीर पर्यावरण आदि का बहाना बनाकर रोड़े अटका रहे थे। हुमांयू बंगाल के थे और पूरा बंगाल कन्याकुमारी में विवेकानंद स्मारक के लिए लालायित था। एकनाथ रानाडे जी ने हुमांयू कबीर के सारे हथकंडे सावर्जनिक कर दिए जिससे हुमांयू का भारी विरोध हुआ। अब हुमांयू के हाथ से स्थिति निकल गयी थी। पर जवाहरलाल नेहरु की अनुमति के बिना कुछ भी सम्भव न था, और उनका हिन्दूविरोध जगजाहिर ही था। एकनाथ जी इसके लिए शास्त्री जी के पास गये जो स्मारक निर्माण के पक्ष में थे। शास्त्री जी के समर्थन से एकनाथ जी ने 323 सांसदों के समर्थन पत्र केवल 3 दिन में हासिल किए, जिसमें कम्युनिस्ट से लेकर मुसलमान तक शामिल थे, जो किसी न किसी तरह स्वामीजी का सम्मान करते थे। नेहरु को जब इतने सांसदों का हस्ताक्षर पत्र मिला तो वे भक्तवत्सलम जी को स्मारक की सहमती देने के लिए बाध्य हो गये। फिर भी भक्तवत्सलम और विवेकानंद समिति के बीच स्मारक के आकार, भव्यता आदि को लेकर विवाद चलता रहा। इस बीच ईसाईयों ने मार्ग में रुकावट डालने में कोई कसर नहीं छोड़ी। समिति जहाँ भव्य स्मारक चाहती थी वहीं भक्तवत्स्लम केवल एक छोटे स्मारक के लिए अड़े थे। पर एकनाथ रानाडे जी सभी अवरोधों को पार करते रहे और सामंजस्य बिठाकर एक भव्य स्मारक का निर्माण करवाया, जिसमें ध्यान मंडप, भगवा ध्वज, ॐ की प्रतिमा तक शामिल हुए। ईसाईयों ने स्मारक के ठीक सामने समुद्रतट पर तीन तीन बड़े चर्चों का निर्माण कर अपनी खिसियानपट जाहिर की। पर अंत में हिन्दू समाज की विजय हुई और यह हिन्दू समाज की धरोहर आपके सामने है दक्षिण छोर से संदेश दे रही है, “भारत हिन्दुओं का था, हिन्दुओं का है, हिन्दुओं का रहेगा।” जयतु जयतु हिन्दूराष्ट्रम्!!
साभार: मुदित मित्तल, https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1605538992874575&id=100002554680089
No comments:
Post a Comment
Note: only a member of this blog may post a comment.