Sunday 30 July 2017

नाग पंचमी के कुछ वैदिक अन्वेषण स्रोत

नाग पञ्चमी के कुछ अर्थ-वेद का सर्पविद्या अंग लुप्त होने के कारण इसे ठीक से समझना सम्भव नहीं है। पर नीचे दिये कुछ उद्धरणों के आधार पर इसके कुछ अर्थ दिये जा रहे हैं।
रज्जुरिव हि सर्पाः कूपा इव हि सर्पाणां आयतनानि अस्ति वै मनुष्याणां च सर्पाणां च विभ्रातृव्यम् (शतपथ ब्राह्मण, ४/४/५/३)
नमोऽस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथिवीमनु। येऽन्तरिक्षे ये दिवि तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः॥ (यजु, वाजसनेयि १३/६)
ते (देवाः) एतानि सर्पनामान्यपश्यन्। तैरुपातिष्ठन्त तैरस्माऽइमांल्लोकानस्थापयम्स्तैरनमयन्यदनमयंस्तस्मात् सर्पनामानि। (शतपथ ब्राह्मण, ७/४/१/२६)
इयं वै पृथिवी सर्पराज्ञी (ऐतरेय ब्राह्मण ५/३३, तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/४/६/६, शतपथ ब्राह्मण २/१/४/३०, ४/६/९/१७)
देव वै सर्पाः। तेषामियं (पृथिवी) राज्ञी। (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/२/६/२)
सर्पराज्ञा ऋग्भिः स्तुवन्ति। अर्ब्बुदः सर्प एताभिर्मृतां त्वचमपाहत मृतामेवैताभिस्त्वचमपघ्नते। (ताण्ड्य महाब्राह्मण, ९/८/७-८)
अर्बुदः काद्रवेयो राजेत्याह तस्य सर्पा विशः... सर्पविद्या वेदः... सर्पव्द्याया एकं पर्व व्याचक्षाण इवानुद्रवेत्। (शतपथ ब्राह्मण, १३/४/३/९)
ते देवाः सर्पेभ्य आश्रेषाभ्य आज्ये करंभं निरवपन्। तान् (असुरान्) एताभिरेव देवताभिरुपानयन्। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/१/४/७)
सर्प के वेद में कई अर्थ हैं-(१) आकाश का ८वां आयाम। इसको वृत्र, अहि, नाग भी कहा गया है। इस अर्थ में नाग, अहि, सर्प आदि का ८ संख्या के लिये व्यवहार होता है। यान्त्रिक विश्व के ५ आयाम हैं-रेखा, पृष्ठ, आयतन, पदार्थ, काल। चेतना या चिति करने वाला पुरुष तत्त्व ६ठा आयाम है। दो पिण्डों या कणों के बीच सम्बन्ध ऋषि (रस्सी) ७वां आयाम है। पिण्डों को सीमा के भीतर घेरने वाला वृत्र या अहि है।
वृत्रो ह वाऽ इदं सर्वं वृत्वा शिश्ये। यदिदमन्तरेण द्यावापृथिवी स यदिदं सर्वं वृत्वा शिश्ये तस्माद् वृत्रो नाम। (शतपथ ब्राह्मण, १/१/३/४) स यद्वर्त्तमानः समभवत्। तस्माद् वृत्रः (शतपथ ब्राह्मण, १/६/३/९)
(२) आकाश गंगा (ब्रह्माण्ड) की सर्पाकार भुजा अहिर्बुध्न्य (बुध्न्य = बाढ़, ब्रह्माण्ड का द्रव जैसा फैला पदार्थ, अप्; उसमें सर्प जैसी भुजा अहिः, पुराण का शेषनाग), इसमें सूर्य के चारों तरफ भुजा की मोटाई का गोला महर्लोक है जिसके १००० तारा शेष के १००० सिर हैं जिनमें एक पर कण के समान पृथ्वी स्थित है। (३) पृथ्वी की वक्र परिधि सतह सर्पराज्ञी है। ७ द्वीपों को जोड़ने वाले ८ दिङ्नाग हैं। (४) समुद्री यात्रा मार्ग मुख्यतः उत्तर गोलार्ध में था। पृथ्वी पर वह मार्ग तथा उसके समान्तर आकाश का मार्ग नाग वीथी है। (५) व्यापार के लिये वस्तुओं का परिवहन करने वाले नाग हैं जो पूरे विश्व में फैले हैं। केन्द्रीय वितरक माहेश्वरी हैं। यह अग्रवालों में बड़े माने जाते हैं। (६) नाग पूजा पृथ्वी तथा उसके ऊपर मनुष्य रूप नागों के कार्य में सहयोग के लिये शक्ति देना है जिससे वे विश्व का भरण पोषण कर सकें। इसे देवों द्वारा दिया गया आज्य कहा है। आज्य का स्रोत दूध है जो प्रतीक रूप में दिया जाता है। इसकी व्याख्या वेदों की सर्पविद्या में थी जो लुप्त है। (७) आश्लेषा (तैत्तिरीय में आश्रेषा भी) के देवता सर्प हैं। यह नक्षत्र मुख्यतः ब्रह्माण्ड की सर्पिल भुज के मध्य में है। श्रावण मास में सूर्य आश्लेषा नक्षत्र में रहता है, मुख्यतः शुक्ल पञ्चमी तिथि के निकट। पूर्णिमा को चन्द्रमा इसके विपरीत श्रवण नक्षत्र में रहेगा जिसका देवता सर्प का विपरीत गरुड़ है। अतः इस समय नाग पूजा होती है।
वृत्रशङ्कुं दक्षिणतोऽधस्यैवानत्ययाय। (शतपथ ब्राह्मण, १३/८/४/१)
सूर्य जब पृथ्वी सतह पर सबसे दक्षिण रहता है तब वह श्रवण (३ तारा, तार्क्ष्य = गरुड़) नक्षत्र में होता है। उसके बाद उत्तरायण होने पर उत्तरी गोलार्ध में वृत्र = रात्रि का मान कम होने लगता है। अतः श्रवन का देवता गरुड़ है।
(८) पृथ्वी की नाग (गोलाकार पृष्ठ) सीमा के भीतर रहने वाले सर्पाकार जीव भी सर्प हैं।

Courtesy: https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=10207513466754670&id=1829149612

No comments:

Post a Comment

Note: only a member of this blog may post a comment.

विश्वगुरु_भारत_से_विकासशील_भारत_का_सफर

-- #विश्वगुरु_भारत_से_विकासशील_भारत_का_सफर -- -------------------------------------------------------------------- इतिहास में भारतीय इस्पा...