Sunday, 9 July 2017

वेद_vs_विज्ञान भाग - 29, खगोलभौतिकी (Astrophysics)

#वेद_vs_विज्ञान भाग - 29
                          #खगोलभौतिकी
                       (Astrophysics)

#परिचय - खगोलभौतिकी (Astrophysics) खगोल विज्ञान का वह अंग है जिसके अंतर्गत खगोलीय पिंडो की रचना तथा उनके भौतिक लक्षणों का अध्ययन किया जाता है। कभी-कभी इसे 'ताराभौतिकी' भी कह दिया जाता है हालाँकि वह खगोलभौतिकी की एक प्रमुख शाखा है जिसमें तारों का अध्ययन किया जाता है।

#आधुनिक विज्ञान के मतानुसार - गैलिलीओं गैलिली (सन् 1564-1642) ने सन् 1612 में आकाशमंडल के अध्ययन में पहली बार दूरदर्शी का प्रयोग किया; किंतु जब तक दूरदर्शी की रचना में समुचित उन्नति नहीं हुई, इसके उपयोग से भी ग्रहपृष्ठों के अध्ययन के अतिरिक्त कोई और विशेष महत्वपूर्ण सूचना न प्राप्त की जा सकी।
19वीं शताब्दी के द्वितीय चतुर्थांश में हुआ, जब सूर्य तथा अन्य तारों के प्रकाश के अध्ययन में जर्मनी के भौतिकविद्, गुस्तैफ रॉबर्ट किर्खहॉफ (सन् 1824-1887), द्वारा प्रतिपादित वर्णक्रमिकी के सिद्धांतों का उपयोग प्रारंभ हुआ। इस साधन के विकास में फोटोग्राफी से अत्यंत सहायता मिली, क्योंकि इसकी सहायता से आलोकित वर्णक्रमपट्ट स्थायी रूप से तुलनात्मक अध्ययन के लिये उपलब्ध होने लगे।

#वैदिक ज्ञान जो कही उन्नत था -
खगोल विज्ञान को वेद का नेत्र कहा गया, क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टियों में होने वाले व्यवहार का निर्धारण काल से होता है और काल का ज्ञान ग्रहीय गति से होता है। अत: प्राचीन काल से खगोल विज्ञान वेदांग का हिस्सा रहा है। ऋग्वेद, शतपथ ब्राहृण आदि ग्रथों में नक्षत्र, चान्द्रमास, सौरमास, मल मास, ऋतु परिवर्तन, उत्तरायन, दक्षिणायन, आकाशचक्र, सूर्य की महिमा, कल्प का माप आदि के संदर्भ में अनेक उद्धरण मिलते हैं। इस हेतु ऋषि प्रत्यक्ष अवलोकन करते थे। कहते हैं, ऋषि दीर्घतमस् सूर्य का अध्ययन करने में ही अंधे हुए, ऋषि गृत्स्मद ने चन्द्रमा के गर्भ पर होने वाले परिणामों के बारे में बताया। यजुर्वेद के 18वें अध्याय के चालीसवें मंत्र में यह बताया गया है कि सूर्य किरणों के कारण चन्द्रमा प्रकाशमान है।

पश्चिम में १५वीं सदी में गैलीलियों के समय तक धारणा रही कि पृथ्वी स्थिर है तथा सूर्य उसका चक्कर लगाता है, परन्तु आज से १५०० वर्ष पहले हुए आर्यभट्ट, भूमि अपने अक्ष पर घूमती है, इसका विवरण निम्न प्रकार से देते हैं-
अनुलोमगतिनौंस्थ: पश्यत्यचलम्‌
विलोमंग यद्वत्‌।
अचलानि भानि तद्वत्‌ सम
पश्चिमगानि लंकायाम्‌॥
आर्यभट्टीय गोलपाद-९
अर्थात्‌ नाव में यात्रा करने वाला जिस प्रकार किनारे पर स्थिर रहने वाली चट्टान, पेड़ इत्यादि को विरुद्ध दिशा में भागते देखता है, उसी प्रकार अचल नक्षत्र लंका में सीधे पूर्व से पश्चिम की ओर सरकते देखे जा सकते हैं।

इसी प्रकार पृथुदक्‌ स्वामी, जिन्होंने व्रह्मगुप्त के व्रह्मस्फुट सिद्धान्त पर भाष्य लिखा है, आर्यभट्ट की एक आर्या का उल्लेख किया है-
भ पंजर: स्थिरो भू रेवावृत्यावृत्य प्राति दैविसिकौ।
उदयास्तमयौ संपादयति नक्षत्रग्रहाणाम्‌॥
अर्थात्‌ तारा मंडल स्थिर है और पृथ्वी अपनी दैनिक घूमने की गति से नक्षत्रों तथा ग्रहों का उदय और अस्त करती है।
अपने ग्रंथ आर्यभट्टीय में आर्यभट्ट ने दशगीतिका नामक प्रकरण में स्पष्ट लिखा-प्राणे नैतिकलांभू: अर्थात्‌ एक प्राण समय में पृथ्वी एक कला घूमती है (एक दिन में २१६०० प्राण होते हैं)

#विशेष -उस ईश्वर के अनेक नामों में एक नाम अनंत कोटि व्रह्माण्ड नायक बताया गया है। यह नाम जहां व्रह्मांडों की अनन्तता बताता है, वहीं इस विश्लेषण के वैज्ञानिक होने की अनुभूति भी कराता है। इस प्रकार इस संक्षिप्त अवलोकन से हम कह सकते हैं कि काल गणना और खगोल विज्ञान की भारत में उज्ज्वल परम्परा रही है। पिछली सदियों में यह धारा कुछ अवरुद्ध सी हो गई थी। आज पुन: उसे आगे बढ़ाने की प्रेरणा पूर्वकाल के आचार्य आज की पीढ़ी को दे रहे हैं।

साभार: अजेष्ठ त्रिपाठी, https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=281815768951502&id=100013692425716

No comments:

Post a Comment

Note: only a member of this blog may post a comment.

मानव_का_आदि_देश_भारत, पुरानी_दुनिया_का_केंद्र – भारत

#आरम्भम - #मानव_का_आदि_देश_भारत - ------------------------------------------------------------------              #पुरानी_दुनिया_का_केंद्र...