Friday 15 September 2017

हिमालय पर ड्रैगन की गिद्ध-दृष्टि। खतरे में है देवात्मा।

हिमालय पर ड्रैगन की गिद्ध-दृष्टि।
खतरे में है देवात्मा।

  आपको यह जानकार बड़ा आश्चर्य होगा भारत-चीन युद्ध पर चीन में ज्यादा फिल्मे बनी।उन्होंने शंघाई और हांगकांग में इस पर सैकड़ो डाकूमेंटरिया और शार्ट फिल्मे रिलीज की,कई भव्य फिल्मे बनाई और संसार के मत को पभावित किया।एक अपुष्ट खबर के मुताबिक़ इन फिल्मो को बनवाने में कई भारतीय पत्रकारों और फिल्मकारों का सहयोग भी लिया गया।दें-बेन-फु,द जम्प इन टू हेल,पट्रे-उला द चाऊ,जैसी फिल्मे बनाई।हालीवुड में 1963 से 68 तक कई फिल्मे चीनी एक्टरो को लेकर बनाई गई जो कमोबेश चीन को सपोर्ट कर रही थी।लास्ट कमांड,द 317थ प्लाटून,Dien Bien Phu,(1995)The Dominici Affair(1973)Charlie Bravo(1980) Les Filles du Régiment जैसी फिल्मे घुमा-फिराकर चीन को सपोर्ट कर रही थीं।उनके यहाँ इस पर सैकड़ो किताबे लिखी गई।जबकि हमारे यहाँ कुछ ही किताबे आई।उन्होंने बड़ी चतुराई से इसको दुनिया भर में प्रचारित किया,जस्टिफाई करने से ज्यादा अपने को शक्तिशाली और दबंग राष्ट्र के तौर पेश किया।1964 में बलराज साहनी,धर्मेन्द्र,प्रिया राजवंश को लेकर बनी फिलम'हकीकत,इस विषय पर बनी पहली मूवी थी,जो मुम्बैया तरीके से पेश की गई।चेतन आनंद की इस पिक्चर में वही डिप्रेसिव चूतियापा भरा पड़ा है जो मुम्बईया वामी चरित्र में सदीव से दिखता है।ख्वाजा अहमद आब्ब्बास की फिल्म "सात-हिन्दुस्तानी,की बैक-ग्राउंड स्टोरी भी उनही अवसादों से भरा पड़ा है।हमारे फिल्मकार देश कमजोर दिखाने ज्यादा विश्वास करते थे शायद।दोनों के अलावा इस विषय पर भारत की किसी भी भाषा में कोई फिल्म न बनन मुझे आश्चर्य से भर देता है।यह तथ्यांकित करता है कि चीन की घुसपैठ कम नही थी।अरे भाई उन्होंने तत्कालीन 'डिफेन्स मिनिस्टर,खरीद लिया था तो अन्य कोई और न बिका होगा।इसके जस्ट उलट मुम्बई में चाइना समर्थक,चाइना प्रेम से भरी बड़ी संख्या में फिल्में बनी।मेरे चादनी चौक टू चाईना,टयूबलाइट जैसी 40 फिल्में दिख रही है।यह भारत की विभिन्न भाषाओं में भी बनी है। विशेषकर बंगला में 30 से अधिक फिल्में बनी।बहुत सारी ऐसी किताबें भी लिखी गई,उपन्यास लिखे गए जो चाइना प्रेम से भरे हुए थे।यह पढ़कर कुछ विशेष बातें नजर आ रही हैं। हमारा सबसे बड़ा दुश्मन और उसकी सपोर्ट में बड़ी संख्या में लेख,उपन्यास, रिपोर्ताज,लिखा जाना और यहां हो रहे बड़े व्यापार के विरोध में भी कुछ ना लिखा जाना हम को साफ साफ दिखा रहा है कि एक बड़ा ओपिनियन मेंकर वर्ग था जो चाइना के साथ दुश्मनी के संबंधों को अनदेखा करके भारत में उसकी जण जमा रहा था।आज चाइना एक बड़ा खतरा है।बिल्कुल पाकिस्तान समर्थकों की तर्ज पर।पाकिस्तान के अंदर भारत को लेकर के दुश्मनों का एक बहुत बड़ा समूह सक्रिय रहता है। उसके जस्ट उल्टा भारत में पाकिस्तान  को येन-केन प्रकारेण सपोर्ट करने वाला एक बहुत बड़ा समुदाय खड़ा रहता है।चीन-पाक समर्थक लेखकों का एक बहुत बड़ा वर्ग रहता है।वह वामियो/काँन्गियो/सामियो के अतिरिक्त है।पाकिस्तान के फेवर में भारत में फिल्में बनाती है,लेख लिखती है,उपन्यास प्रकाशित करती है और ना जाने कैसी गंगा-जमुनी संस्कृति का एक प्रभाव लाने का प्रयास करती रहती है।इससे कुछ नही होता तो लिबरंढुओ की एक जमात तो पैदा ही हो जाती है।

  और तो और भारत के तमाम मुस्लिम कम्युनिष्ट लेखको ने भी भारत को ही दोषी प्रचारित करने का प्रयत्न किया।जरा एक उदाहरण देखिये इंडिया-चाइना बाउंडरी प्रॉब्लम 1846-1947: हिस्ट्री एंड डिप्लोमैसी' नाम की इस पुस्तक में बताया गया है कि भारत ने अपनी तरफ से ऑफिशल मैप में बदलाव कर दिया। 1948 और 1950 के नक्शों में पश्चिमी (कश्मीर) और मध्य सेक्टर (उत्तर प्रदेश) के जो हिस्से अपरिभाषित सरहद के रूप में दिखाए गए थे, वे इस बार गायब थे। 1954 के नक्शे में इनकी जगह साफ लाइन दिखाई गई थी।'लेखक एजी नूरानी ने कहा है कि 1 जुलाई 1954 का यह निर्देश 24 मार्च 1953 के उस फैसले पर आधारित था जिसके मुताबिक सीमा के सवाल पर नई लाइन तय की जानी थी। किताब में भारत को ही दोषी दिखाते हुए कहा गया है,'यह फैसला दुर्भाग्यपूर्ण था। पुराने नक्शे जला दिए गए। एक पूर्व विदेश सचिव ने इस लेखक को बताया था कि कैसे एक जूनियर ऑफिसर होने के नाते खुद उन्हें भी उस मूर्खतापूर्ण कवायद का हिस्सा बनना पड़ा था।'माना जा रहा है कि वह पूर्व विदेश सचिव राम साठे थे जो चीन में भारत के राजदूत भी रह चुके थे।साठे की स्मृति को समर्पित इस पुस्तक का विमोचन 16 दिसंबर को चीनी प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ की भारत यात्रा के दौरान उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने किया था।

    विभिन्न भाषाओं में अपना पक्ष रखने के के लिए पुस्तक प्रकाशित करना आवश्यक माना जाता है।भारत में चीन समस्या को लेकर १९४९ से लेकर 2012 तक कोई अच्छी पुस्तक ही नही लिखी गई,बल्कि यह कहिये इस विषय पर कोई ख़ास पुस्तक ही नही आई।जबकि चाइना में १०० से अधिक किताबें इस पर लिखी गई।हमारे यहाँ २०१२ के बाद जरुर कुछ किताबे आई हैं जो प्रकारांतर से आपको कमजोर ही करती हैं।उस बीच साप्ताहिक और अखबारों ने इस पर कुछ लिखा हो तो मैं नहीं कह सकता।हिन्दी के एकाध उपन्यास बस भावनाओं के रोने के साथ खत्म हो जाते है।वेनिस गुयट रिचर्ड ने इस पर जबरदस्त लिखा है Shadow States: India, China and the Himalayas-1910–1962,बाद में 2016 में प्रकाशित कुणाल वर्मा की पुस्तक 1962: The War That Wasn't, 2013 में छपी केके सिंह की लिखी इंडो-चाइना रिलेशन,जेपी दलवी की लिखी २०१० में प्रकाशित Himalayan Blunder: The Curtain-Raiser to the Sino-Indian War of 1962,कुछ छापी गई हैं मौक़ा मिले तो पढ़े और समझे की कैसे चीजो को घुमाया जाता है।अगस्त २०१५ में यह छपकर है 1962: A View from the Other Side of the Hill,पीजेएस संधू,भावना त्रिपाठी,रंजीत सिंह कूल्हा,भारत कुमार,जीजी द्विवेदी इसके सम्पादक है।यह सब की सब इन दस सालो के दौरान आई है।कभी-कभी मुझे बड़ा डर लगता है कि जिन विषयों पर हमेशा विचार होना चाहिए उनको इतना दरकिना क्यों किया गया था।आखिर १९६२-से 2012 तक इस पर कोई गम्भीर विषयवस्तु क्यों नही आई?दैनिक समाचार पत्रों ने भी चीन जैसे खतरनाक मुद्दों को जन-चर्चा से दूर कर दिया।फ़िलहाल हम यहां पूरा चीन मुददा आपको बताते हैं।

अब नीतिया और तरीके बदल रहे हैं।बीजेपी सरकार इस मामले में चौकन्ना है।मीडिया उपयोग के साथ ही हर तरफ से अटैक होता है।अब चीनी चालाकियो की भाति मोदी भी चौतरफा घेरते है। ब्रिक्स सम्मेलन में चीन ने अगर पाकिस्तान पोषित आतंकवाद का विरोध दर्ज कराया तो यह मोदी की उपलब्धि मानी जायेगी|यह अपने में आश्चर्य-जनक था क्योकि उसके पहले डोकलम-विवाद पर चीनी सरकार और मीडिया जिस तरह से युद्ध का महौल बना रहे थे,और भारत को धमका रहे थे वह विचित्र तनाव पूर्ण था|एक बारगी चीन का अपने रूख से बदल जाना काफी सन्देह पैदा करता है|दक्षणी चीन सागर में उसने जिस तरह पीछे हटकर दो माह बाद पैतरा खेला था वह भी हमें सबक लेने के लिए पर्याप्त है।जापान उससे सजग रहता है।कल बुलेट ट्रेन के उदघाटन के बाद चीन की प्रक्रिया बिलकुल इर्ष्या से भरे दुश्मन जैसी रही है।

  वास्तव में यह पहली बार हो रहा है कि भारत और चीन दोनों अपनी रणनीति बनाते समय अपने रुख पर कायम रहते हैं और जीत के लिए दाव लगाते हैं।पहले इसमें हम हर बार मात खाते रहे है|अब भारत और चीन दोनों ही ऐसा कर रहे हैं और दोनों एक-दूसरे को परोक्ष रूप से संदेश दे रहे हैं कि मेरे मामलों में हस्तक्षेप मत करो।दोनों देशों के बीच गतिरोध का ताजा मुद्दा भारत, भूटान, चीन ट्राई जंक्शन में चुंबी घाटी के निकट 89 वर्ग किलोमीटर का डोकलाम क्षेत्र। यहां पर चीन की सेना सड़क निर्माण कर रही थी और इसको लेकर भारत और चीन के सैनिकों के बीच गतिरोध पैदा हुआ। भारत का कहना था कि इस सड़क के निर्माण का उद्देश्य भूटान और चीन की सीमा पर उसकी अंतिम सैनिक चौकी के निकट तक चीनी सेना का पहुंचना है जो यथास्थिति में व्यापक बदलाव लाएगा और जिसकी भारत की सुरक्षा के लिए गंभीर परिणाम होंगे।चीन का पीछे हटना तात्कालिक कारणों से हुआ|उसमे मुख्य वजह ब्रिक्स का सम्मलेन था जिसमे भारत के न जाने से चीन का भद्द पिटने की संभावना थी।
  चीन का इतिहास रहा है कि जिस किसी भी देश के साथ उसकी सीमा लगी है,उसे उसने अपने साम्राज्य में मिलाने की कोई कसर नहीं छोड़ी है,इसका सबसे बड़ा प्रमाण शान से खड़ी चीन की दीवार है,जो कभी चीन को चहुँ ओर से सुरक्षित करने के लिए बनायी गयी थी,अर्थात चीन की चाहरदीवारी थी,लेकिन वर्तमान में चीन की दीवार लगभग चीन के मध्य में है,निश्चित रूप से दीवार खिसकी नहीं है,साम्राज्य का ही विस्तार किया गया.भारत के साथ उसके युद्ध नहीं हुए थे तो उसका सबसे प्रमुख कारण यही था कि कहीं भी भारत और चीन की सीमा आपस में मिलती नहीं थी,तिब्बत के इन दोनों के मध्य में स्थित होने से भारत हमेशा से चीनी आक्रमण से बचा रहा.तिब्बत सदियों से भारत का ‘रक्षा कवच’ बना रहा।1962 में भारत पर आक्रमण करने के पहले चीन ने प्रचार करना शुरू किया था कि उसे भारत से खतरा है।हमले के तुरंत पश्चात चीन के प्रधानमंत्री ने सफाई दी थी कि यह सैनिक कार्रवाई सुरक्षा की दृष्टि से की गई है। अर्थात आक्रमणकारी भारत है, चीन नहीं। जबकि सच्चाई यह थी कि चीन-भारत भाई-भाई के नशे में मस्त भारत सरकार को तब होश आया था जब चीनी सैनिकों की तोपों के गोले छूटने प्रारंभ हो चुके थे। भारत की सेना तो युद्ध का उत्तर देने के लिए तैयार ही नहीं थी। 32 दिन के इस युद्ध में भारत की 35000 किलोमीटर जमीन भी गई और बिग्रेडियर होशियार सिंह समेत तीन हजार से ज्यादा सैनिक शहीद भी हो गए थे।उल्लेखनीय है कि 1954 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने चीन सरकार के साथ पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। विश्व में शांति स्थापना करने के उद्देश्य पर आधारित पंचशील के पांच सिद्धांतों में एक-दूसरे की सीमा का उल्लंघन न करने जैसा सैन्य समझौता भी शामिल था। इस समझौते को स्वीकार करते समय हमारी सरकार यह भूल गई कि शक्ति के बिना शांति अर्जित नहीं होती। हम चीन की चाल में फंस गए। 1960 में भी चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई ने भारत सरकार को अपने शब्दजाल में उलझाकर इस भ्रमजाल में फंसा दिया कि दोनों देश भाई-भाई हैं और सभी सीमा विवाद वार्ता की मेज पर सुलझा लिए जाएंगे।१९४८ से १९६२ तक हिन्दी-चीनी भाई-भाई के नकलियत के साथ तिब्बत पर कब्जा,उसके बाद मक्कारी के साथ चीन का आक्रमण फिर धोखेबाजी से जमीनों पर कब्जा,नेफा पर दावेदारी बारम्बार झूठ फरेब का इस्तेमाल और बारम्बार धोखा हमें यही जता रहा की वह के मक्कार देश है उसके जाल में हमें नहीं फंसना चाहिये|चीन की अक्टूबर 1964 में प्रथम परमाणु हथियार परीक्षण करने और 1965-1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध,एवं बाद के कई प्रकरणों में पाकिस्तान को समर्थन करने से कम्युनिस्टों के लक्ष्य तथा उद्देश्यों एवं पूरे पाकिस्तान में चीनी प्रभाव से इस बात की पुष्टि हो जाती है 'वह दुश्मन देश है और जरुरत पर शत्रुता ही निभाएगा।हमारा एक ब्दाआ हिस्सा,तिब्बत,मान-सरोवर जैसे पवित्र स्थल आज भी उसके कब्जे में है|वह अक्साई-चिन और गिलगित एरिया को आज भी कब्जाए है।

  चीन ने तिब्बत पर अधिकार किया इसके पीछे केवल भू लिप्सा ही नहीं, कारण कुछ और था।चीन के अपने उन सभी पड़ोसियों से जिनसे उसका विवाद है, का कारण केवल भूमि का लालच ही नहीं, कारण कुछ और है।चीन ने बंगाल की खाड़ी में म्यान्मार (बर्मा) से कोको द्वीप लीज पर क्यों लिया उसके भी कारण हैं ।भारत को घेरने की नीति चीन ने क्यों बनाई ? इसके पीछे भी कारण हैं।कम्युनिष्ट हमेशा से एक रणनीति बनाकर चलता है।यह बड़ा और समयबद्ध उद्देश्य लेकर चलता है।उसने एक हिमालयन स्ट्रेटजी बना रखी है उसी को केन्द्रत करके चल रहा है।
उसने हर तरफ/तरह से पूरे हिमालय को घेर रखा है।तिब्बत और नेफा तो है ही पूरब की तरफ से,लद्दाख की तरफ से, सियाचिन की तरफ से,सियाचिन ग्लेशियर की तरफ से,गिलगित की तरफ से,बालटिस्तान की तरफ से,अक्साई चिन की तरफ से तो कब्जिया ही चुका है।अब काश्मीर,बलूचिस्तान,के अलावा सिक्किम, भूटान,गढ़वाल और कुमायू पर उसकी गन्दी निगाह है।हर तरफ से उसकी सीमाएं हिमालय में हमारी सीमाओं से टच खाती हैं।वह पूरब से पश्चिम,उत्तर तक हिमालई संसाधनों पर नजर गड़ाए बैठा है।उसे पता है हिमालय खनिज संपदाओं के साथ पानी का अथाह भंडार है।पानी नहीं वह मीठे पेयजल का अथाह भंडार है।आने वाले दिनों में शुद्ध पानी इस दुनियाँ की सबसे कीमती वस्तु बनने वाला है।खनिजयुक्त हिमालयी जल।गंगा,जमुना,सरस्वती के अलावा आठ सौ नदियों का उदगम स्थल।विभिन्न प्राकृतिक संसाधन, पेड़-पौधे,पशु-पक्षी,कीट,जड़ी,बूटियां,पौधे की तरह लाखों प्रजातियों का केंद्र है हिमालय। इन चीजों को छोड़ दिया जाए तो अध्यात्मिक उर्जा का भंडार है।चीन उसका व्यापारीकरण करना चाहता है। हिमालय समस्त विश्व का केंद्र है।यह बात उसे पता है।चीन पिछले 80 सालों से हिमालय को पूर्णतया कब्जे में लेना चाहता है।यही उसका थाट-सेंटर है।जैसे ही हिमालय कब्जे में आया हिंदुस्तान उसके कब्जे में खुद ब खुद आ जाएगा।हिंदुस्तान के कम्युनिस्ट गफलत में है कि वह भारत पर साम्यवाद थोपने के लिए अधिकार करना चाहता है।भारतीय मैदानी जमीनों पर अधिकार करना चाहता है। चीन किसी भी तरह इतनी बड़ी जनसंख्या को कम्युनिस्ट रूप में बिल्कुल नहीं बदलना चाहता।उस का टारगेट,उसका उद्देश्य,उसका लक्ष्य, एकदम स्पष्ट है कि किसी तरह हिमालय भूमि को कब्जे में लो "संपूर्ण संसार,तुम्हारे कब्जे में आ जाएगा।

   उसने 100 साला रणनीति बना रखी है।इस बीच उसके पेड भारतीय बौद्धिक जमात भारत में वातावरण बनाने में लगे रहेंगे।माओ ने तिब्बत पर अधिकार कर लिया,अक्सा चान (अक्साई चिन) भारत से छीन लिया।भारत का नेतृत्व इस बात को बहुत देरी से समझा, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। यदि जवाहरलाल नेहरु इस बात को समय पर समझ जाते तो तिब्बत पर कभी भी चीन का अधिकार नहीं होने देते | बहुत देरी से समझे तो बिना किसी तैयारी के १९६२ में चीन से युद्ध आरम्भ कर दिया, जिसमें हम बहुत बुरी तरह हारे । चीन से १९६२ का युद्ध हमने ही शुरू किया था बिना किसी तैयारी के।फिर नेपाल और नेफा रणनीतिया बनी।इस बीच उसने श्रीलंका और पाकिस्तान को अपने घेरे में ले लिया।श्रीलंका में कांग्रेस के राज-परिवार ने बड़ी मदद की।उन्हें बदला लेना थी।लिट्टे और प्रभाकरण के पूरे परिवार को मरवाने के लिए वाया चीन हथियार और मदद दिलवाया गया श्रीलंका की सेना को।इसकी कीमत भारतीय व्यापार और उद्योग को खत्म करवाने के रूप में वसूली गई।बदला होती ही ऐसी चीज है।चीन ने भारत के दक्सिन में जड़े जमा ली।कांग्रेसी मूर्खता के चलते।

नरेन्द्र मोदी इस बात को समझते थे, अतः प्रधानमंत्री बनते ही उन्होंने उन सब देशों की मित्रता यात्रा की जिनकी सीमा चीन से लगती है।कभी माओ भी बहुत अच्छी तरह योजना बनाकर चल रहा था,उसने इसी तर्ज पर हमे घेरना शुरू किया था।पर जवाहलाल नेहरु नहीं समझ पाये।बाद में हार के कारणों को जानने के लिए भारत सरकार ने युद्ध के तत्काल बाद ले. जनरल हेंडरसन ब्रुक्स और इंडियन मिलिट्री एकेडमी के तत्कालीन कमानडेंट ब्रिगेडियर पी एस भगत के नेतृत्व में एक समिति बनाई थी।दोनों सैन्य अधिकारियो द्वारा सौंपी गई रिपोर्ट को भारत सरकार अभी भी इसे गुप्त रिपोर्ट मानती है। दोनों अधिकारियों ने अपनी रिपोर्ट में हार के लिए प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को जिम्मेदार ठहराया था।

  कभी सोचा है दक्षिणी चीन सागर को लेकर चीन का अन्य पड़ोसी देशों से विवाद क्यों है ?चीन भारत को बहुत बुरी तरह धमका रहा है,पर युद्ध करने का साहस उसमें नहीं है,मोदी की वजह से।चीन की टैक्टिस को भी याद रखना होगा कि 1965, 1971 और 1999 किसी भी लड़ाई में चीन पाकिस्तान का साथ देने नहीं आया।चीन अपने राष्ट्रीय हित को सबसे ऊपर रखता है।वह सम्पूर्ण हिमालय को टारगेट करके चल रहा है।हिमालय के पूर्वी हिस्से को तकरीबन कब्जिया ही चुका है।अब पिछले ६७ साल से  भारतीय भारतीय हिमालय भूमि को निशाने पर लिए है।इसीलिये जब तब सीमाओं पर अतिक्रमण करता रहता है।कांग्रेस के दस साल में ८८ बार आतिक्रमण किया,वे मामले को चुपचाप दबा देने में लगे रहते।एक बार बाकायदा ३५ किमी अन्दर घुस आया तब जाकर चेते।जब चीन ने तिब्बत पर अधिकार किया इसका असली कारण वहाँ की अथाह जल राशि, और भूगर्भीय संपदा है, जिसका अभी तक दोहन नहीं हुआ है| तिब्बत में कई ग्लेशियर हैं और कई विशाल झीलें हैं।भारत की तीन विशाल नदियाँ ब्रह्मपुत्र, सतलज, और सिन्धु तिब्बत से आती हैं।गंगा में आकर मिलने वाली कई छोटी नदियाँ भी तिब्बत से आती हैं।चीन इस विशाल जल संपदा पर अपना अधिकार रखना चाहता है इसलिए उसने तिब्बत पर अधिकार कर लिया।धीरे-धीरे करके पूरे तिब्बत में उसने चीनी नागरिक बसा डाले है।अब वहां असली तिब्बती केवल २३ प्रतिशत के आसपास बचे है वह भी पूरी तरह चीनी रंगत और संस्स्कृति में रचे जा चुके है।सुनियोजित योजना के तहत पूरी तिब्बती नस्ल ही खत्म कर दी है।क्म्युइश्त हर जगह यही करता है।वह प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जा करने के लिए हिमालय कब्जियाना चाहता है,विशेषकर पानी पर।अभी कल ही तो बोला की वह "जल से सम्बन्धित कोई डाटा भारत को नही देगा,।अमूमन इस उतार-चढ़ाव वाले डाटाज का बड़ा महत्त्व होता है।हम तमाम धरातलीय योजनाये बना सकते है।लेकिन पानी वाले मामले में वह किसी तरह समझौते नही करता।भारत-चीन के बीच असली लड़ाई तो पानी की लड़ाई है। पीने के पानी की दुनिया में दिन प्रतिदिन कमी होती जा रही है। भारत और चीन में युद्ध होगा तो वह पानी के लिए ही होगा|दक्षिणी चीन सागर में उसका अन्य देशों से विवाद भूगर्भीय तेल संपदा के कारण है जो वहाँ प्रचुर मात्रा में है।चीन का सीमा विवाद उन्हीं पड़ोसियों से रहा है जहाँ सीमा पर कोई नदी है, अन्यथा नहीं| रूस से उसका सीमा विवाद उसूरी और आमूर नदियों के जल पर था| ये नदियाँ अपना मार्ग बदलती रहती हैं, कभी चीन में कभी रूस में। उन पर नियंत्रण को लेकर दोनों देशों की सेनाओं में एक बार झड़प भी हुई थी।अब तो दोनों में समझौता हो गया है और कोई विवाद नहीं है|वियतनाम में चीन से युआन नदी आती है जिस पर हुए विवाद के कारण चीन और वियतनाम में सैनिक युद्ध भी हुआ था| उसके बाद समझौता हो गया|चीन को पता था कि भारत से एक न एक दिन उसका युद्ध अवश्य होगा अतः उसने भारत को घेरना शुरू कर दिया।बंगाल की खाड़ी में कोको द्वीप इसी लिए उसने म्यांमार से लीज पर लिया।

  वह एक दूरगामी योजना से चल रहा है।चीन का दृष्टिकोण किसी भी तरह मैक्सिमम संसाधनों का दोहन करके व्यापारिक श्रेष्ठता बनाना है।मूल उद्देश्य और गहरा है जो की आपने अभी कुछ दिनों पहले नेपाल में देखा की किस तरह वहां माओवादियों ने कहर ढाए और वहां की हिन्दू-राष्ट्र को समाप्त कर दिया।अब उसे किसी भी तरह भूटान पर कब्जा करना है |वह शुरुआत से ही अरुनान्चल,सिक्किम और भूटान पर नजर गड़ाये है|इस तरह अक्साई-चिन, तिब्बत,नेपाल,सिक्किम,और भूटान का इलाका हडपने की रणनीति पर चल रहा है| उसे हिमालय के समस्त संसाधन और लोगो में कम्युजिम की गंध फैलानी है।उसकी आड़ में चीनी राष्ट्रवाद का विस्तार करना है।उसने भारत और आस-पास बड़ी मात्रा में कम्युनिष्ट पार्टी करे रुप में लाखो एजेंट खड़े कर लिए हैं जो धीरे-धीरे उसके माल के पक्ष में माहौल-लाजिक तैयार करते हैं|उद्देश्य सदैव यही है कि कम्युनिज्म और माओवाद के रुपमें चीनी साम्राज्यवादी विस्तार|पहले वह सस्ते माल और संसाधन के रुप में कब्जा करते हैं फिर तिब्बत,शिझियांग और अक्साई-चिन आर किर्गिस्तान में बदल देते हैं|यह केवल सस्ते माल का मामला नही है।यह विचारधारा की जंग है जो वह पूरे सुनियोजित तरीके से लड़ रहा है।कम्युनिष्ट अपने हरेक अप्रोच से हमारी हार पक्की कर रहे है।वे भली भाति जानते है जो चीन केवल पैसा ही नही ले जा रहा,भारत के रोजगार ख़त्म कर रहा है,मजदूर और मजबूर बढा रहा है।इन्ही को  भडका कर भारत से लोकतंत्र खत्म करके उसे माओवाद लाने की योजना है।

   कांग्रेस को तिब्बत पर भारत का अधिकार नहीं छोड़ना चाहिए था|इतिहास,संस्कृति,सभ्यता की दृष्टि से तिब्बत हमारा अंग रहा है।अंग्रेजों का वहाँ अप्रत्यक्ष अधिकार था।आजादी के बाद भारत ने भारत-तिब्बत सीमा पर कभी भौगोलिक सर्वे का काम भी नहीं किया जो बहुत पहिले कर लेना चाहिए था| सन १९६२ में बिना तैयारी के चीन से युद्ध भी नहीं करना चाहिए था। जब युद्ध ही किया तो वायु सेना का प्रयोग क्यों नहीं किया? चीन की तो कोई वायुसेना तिब्बत में थी ही नहीं| १९६२ के युद्ध के बारे बहुत सारी बातें जनता से छिपाकर अति गोपनीय रखी गयी हैं|चीन अभी भारत से सीधा युद्ध्ह इसलिए नहीं कर सकता क्योंकि भारत से व्यापार में उसे बहुत अधिक लाभ हो रहा है| वह भारत से व्यापार बंद नहीं करना चाहता| भारत भी अपनी आवश्यकता के बहुत सारे सामानों के लिए चीन पर निर्भर है|बदलती वर्तमान परिस्थोतियो में यूद्ध की रणनीतिया भारत के फेवर में है।

  1962 के युद्ध के समय भारत पर आक्रमण के समर्थन मे एक पार्टी बंट गई थी(पता करिये कौन लोग आक्रान्तो के स्वागत में कलकत्ता में तोरण-द्वार बनवा रहे थे)।सोचिये भला एक समुदाय ऐसा है जो युद्ध की स्थिति में दुश्मन की जीत चाहता है।आज भी भारत में कम्युनिस्ट चाइना का एक बहुत बड़ा समर्थक वर्ग है।वह लॉबी और पार्टियो के रूप में स्थापित हो चुका है।यह अपने को बुद्धिजीवी कहता है(हालांकि अब उसे कोई मानता नही)।उसकी कोशिश रहती है कि चीन की हर चीज को जस्टिफाई कर सके।वह उसकी ऐंगल से चीजो को पेश् करता है। चीन के नजरिए से भारत में सपोर्टेड माहौल बनाता है।वह इसमें लगातार प्रयासरत रहता है कि चीनी आद्योगिक नीतियां न प्रभावित हो जाये।बहुत ऊपर से प्राप्त खबर है कि भारत में दिल्ली और कोलकाता,मुम्बई  में बैठे कुछ पत्रकार कम्युनिस्ट चाइना के सरकारी अखबार के लिए कम्युनिष्ट सरकार की तरफ से भारत विरोधी खबरें लिखते हैं। वह भी अन्यान्य नामो से भारत के खिलाफ खबरें लिखते हैं।अभी कुछ दिनों पहले डोकलाम मुद्दें पर रोज चीनी अखबार,चीनी सरकारी मीडिया भारत को धमकाती थी।पता चला कि यहां से वह अंग्रेजी में लिख कर भेजी जाती थी।फिर चीन में चीनी भाषाओं में, मंदारिन में ट्रांसलेशन करके उसे छापा जाता था। आप अनुमान लगा सकते हैं यह कौन लोग हैं जो अपने ही देश के खिलाफ दिन और रात खबरें लिखते हैं।अपने देश को नीचा दिखाने में लगे रहते है।चीन के हितों के एजेंट के रूप में काम करते हैं।चीन के फेवर में,चीनी माल के पक्ष में,चीन के विदेश नीति के सपोर्ट में, चीन की आक्रामक नीतियों के पक्ष में, चीन के औद्योगिक नीतियों के पक्ष में वह तमाम लेख लिखते हैं और फैलाते हैं। वह एक नरेशन गढ़ते हैं और जन-जन में माइंडसेट के रूप में उतारने की कोशिश करते हैं।ऐसे ही जैसे कुछ इस्लामिक और ईसाई पत्रकार और लेखक रोमन या अरेबियन हितों के लिए लगातार लिखते रहे हैं।वे हमेशा भारत मे भय,दुःख,विशाद,कमजोरी का माहौल बनाते रहते हैं।मुझे यह जानकर बड़ा दुख हुआ कि अपने ही देश को धमकाने वाले लेख,खबरें तैयार करके भारत से ही भेज रहे थे। उन मातृहंताओ का नाम पता करना कठिन नहीं है,अनुमान लगाना कठिन नहीं है आप खुद नाम अनुमान लगा सकते हैं।जिस देश में इतना बड़ा देशद्रोही वर्ग हो उस देश के अस्तित्त्व के लिए खतरे हरदम बढ़ जाते हैं।

सरकार की गैर-जिम्मेदाराना नीतियों के चलते इन वर्षो में चीन ने हमारे हजारो उद्योग धंधे बेकार कर दिए।सस्ते के चक्कर में हमारे व्यापारियों ने सोचे-समझे बगैर अंधाधुंध चीनी कूड़े बेचना शुरू कर दिया।चीनी सामान हरेक फील्ड में छा गया।लाखो हिन्दुस्तानियों का रोजगार-व्यापार छिन गया। इलेक्ट्रानिक,मैकेनिकल,इंस्ट्रूमेंटल के अलावा भी उसने चुपचाप हजारो सालो में स्थापित पारम्परिक कुटीर उद्योगों को हथिया लिया है।हस्तकारी,कुम्हार,खिलौना-कार,कृषि उत्पाद,साजकार,डिजाइन,वास्तु प्र्साधन,एवं पूजन-सामग्री फील्ड तक कब्जिया ली है।इसमें लगे करोड़ो शिल्पकार अब बेरोजगार है,वे मजदूर हो चुके हैं।सौन्दर्य प्रसाधन निर्माण में लगे हजारो पारम्परिक कार्य धीरे-धीरे चीन के कब्जे में करवाया गया है।आपको क्या लगता है छोटी-छोटी चींजो पर हजारो पेज छापने वाले अखबार-मैगजीन,घंटो फालतू  कार्यक्रम दिखाने वाले चैनल ऐसे गम्भीर विषयो को क्यों नही उठाते?उनकी कुत्सा आप समझने की कोशिश करिए।वे किसी भी तरह चीन को मजबूत देखना चाहते हैं।हमारे अन्दर के चीन-भक्त भारत को कत्तई मजबूत नही देखना चाहते।हमारी हार में ही उन्हें जीत दिखती है।

   1948 में ही पश्चिमी देशों ने, अमेरिका ने और रूस ने भी और उस समय के शांति परिषद और भारत को सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्य के रूप में लेना चाहते थे।परन्तु भारत मे रह रहे उस समय के 'चीन-भक्त बुद्धिजीवी समुदाय, चीन को ही स्थाई सदस्य बनवाने में लग गया।परिणाम यह रहा भारत ने दोस्ती के चलते चीन को सुरक्षा-परिषद का स्थाई सदस्य बनवा दिया।वही स्थाई सदस्य जो बाद में भारत को हर हाल में अपने वीटो से 'स्थाई सदस्य, बनने से रोकता है।स्थाई सदस्य बनने के कुछ दिनों बाद ही उसने मानसरोवर,तिब्बत,हड़प लिया उससे मन न भरा तो सीधा हमला बोल दिया।धोखा देना उसकी फितरत है।चीन ने हमें 1951 में धोखा दिया, 1959 में धोखा दिया,चीन ने हिंदी चीनी भाई-भाई की आड़ में धोखा दे दिया।हिमालय में धोखा दिया,चीनी समंदर में धोखा दिया,चीन ने आसमान में धोखा दिया, अमेरिका को धोखा दिया,रूस को धोखा दिया,हरेक बगलगीर जापान और कोरिया को धोखा दिया,वियतनाम को धोखा दिया, वियतनाम को उसने उकसाकर अमेरिका से भिड़ा दिया और मदद करने आगे नहीं आया।ऐसे ही मंगोलिया और साउथ कोरिया,ताइवान को धोखा दिया। उसने अपने नागरिकों को ही धोखा दिया। समाज को धोखा दिया।चीन की कम्युनिस्ट पार्टी धोखा देने वाली पार्टी है।वह कभी विश्वसनीय तरीके से नहीं आगे बढ़ती।अभी वह डोकलाम से पीछे हट गयी है,अभी आतंकवाद के समर्थन करते-करते अचानक विरोध में बोल रही है।वे एक सटीक रणनीति बनाकर चल रहे हैं।प्राकृतिक साधनों के लिए, आप की जमीन कब्जाने के लिए फिर से धोखा देंगे।उसने देखा अभी भारत की मजबूत स्थिति है,दुनिया भारत के साथ है ऊपर से ब्रिक्स सम्मेलन सिर पर आ पड़ा है।भारत न आया तो भद्द पिटेगी।साख खत्म हो जाएगा।इसके अलावा आर्थिक रुप से उसे बहुत बड़ा घाटा हो रहा था।दुनियाँ भर में चीनी सामानों की खरीद पर असर पड़ रहा था।

   ध्यान रहे अब वह इंतजार में है,कि वह पूरे हिमालय क्षेत्र पर कब्जा कर सके।बस वह सही समय का इंतजार कर रहा है।जब आप का ध्यान भटक जाए।आप तैयार रहिए।चीन को सदैव के लिए हटा देने के लिए।चीन के तरीके से उसे हर दम नजर रखें।नजर रखकर के उसके साथ लड़ने को भी तैयार रहिए।नहीं तो वह समय पर धोखा देकर के फिर 1962 दोहरा सकता है।केवल हमें चीनियों से ही सावधान रहने की जरुरत नहीं है बल्कि भारत में चीन-भक्तों का एक बड़ा वर्ग है।बिल्कुल पाकपरस्तो की तर्ज पर।उससे हरदम सावधान रहने की जरूरत है।क्योंकि बौद्धिक स्तर पर,मानसिक स्तर पर, राजनीतिक स्तर पर और आर्थिक स्तर पर वह चीन के लिए माहौल बनाने का काम करती है।भारत को हराने का काम करती है।जो भी शक्तिशाली होता है चीन से लड़ता है वे उसे ही मिटाने लगते हैं।लोकतंत्र कि कमियों का पूरा लाभ उठा कर राष्ट्रभक्त को ही मिटाने में लगते है।उनसे भी लड़ते रहे।

  चीन की युद्धक तैयारियों के मद्देनजर भारत की सरकार, सेना और समस्त जनता को खम्म ठोककर खड़े होना चाहिए।समय आ गया है हर हिन्दुस्तानी को उसका मुकाबला करना चाहिए।सीमाओं पर सैनिक मुकाबला करते ही हैं,विदेश नीतियों में सरकार सजग है।हम सभी को अपनी-अपनी जगह उसका मुकाबला करना चाहिए।हमारे लेखको को कुछ भी कर इस पर किताबे निकालनी चाहिए,हर भाषा में खूब लिखा जाए।हिमालयी क्षइत्रो में हमें अपनी सक्रियता बढ़ानी चाहिए।संचार के साधनों के अलावा,सास्कृतिक गतिविधिया,आद्योगिक विकास,फिल्म इंडस्ट्री उस स्तर की डाकूमेंटरी बनाना,रिलीज करना,बड़ी संख्या में फिल्मे बनाने वाले लोग भी आगे आये,हरेक भाषा में।स्पेशिली आर्थिक स्तर पर उसका मुकाबला बढ़ाने की जरूरत है।तमाम फील्ड ऐसे हैं जहां उसका कब्जा हो चुका है आजाद कराना होगा।अपनी हरेक इंडस्ट्री को क्वांटिटी,क्वालिटी और टेक्निकली साउंड होकर मुकाबला करना होगा।चीनी माल का बहिष्कार तो करो ही।किसी भी तरह चीनी सामानों का उपयोग ना करें।किसी भी तरह चीन के सस्ते उत्पादों का उपयोग ना करो,उसके माल खपने न पाएं यही चीन को परास्त करने का तरीका है।हमारी जिम्मेदारियां और बढ़ गई है कि हम चीनी माल,वस्तुओं को केवल नकार ही न दें बल्कि जलाना शुरू कर दें,उनके सामानों की कीमत हमें देश के पराजय से चुकानी पड़ सकती है।उनके सामानों का फेवर करने वालो को माकूल और कड़ा जवाब दें।यह कड़ाई ही हमारे भविष्य की सुरक्षा का आधार बनेगी। हमने इसी के बल पर अभी-अभी उसे पीछे हटने को मजबूर किया है।यही उसकी कमजोर कड़ी है।इसी पर प्रहार करिये,जीत आपकी होगी वरना हम एक दिन हिमालय खो देंगे।

साभार: पवन त्रिपाठी, https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=10155597431996768&id=705621767

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