Friday, 15 September 2017

मूर्तिविसर्जन

#खण्डन
                     ------#मूर्तिविसर्जन ------

पिछले कई दिनों से मूर्तिविसर्जन के बाद ली गई तस्वीरे सोसल मीडिया में शेयर करके इस परंपरा का मजाक बनाया जा रहा है, कुछ महान बुद्धिजीवी वर्ग ज्ञान पे ज्ञान दिए जा रहा है लेकिन उनका मुँह इसपे कभी नही खुलता की इस परंपरा के पीछे ऐसे बहोत से कारण है जो मानव समाज, और पर्यावरण दोनो के लिए उपयोगी है , कैसे आइये देखते है ----

#शास्त्रों_के_अनुसार ---
जल ब्रह्म का स्वरुप माना गया है। क्योंकि सृष्टि के आरंभ में और अंत में संपूर्ण सृष्टि में सिर्फ जल ही जल होता है।जल बुद्घि और ज्ञान का प्रतीक माना जाता है। इसके देवता गणपति को माना गया है। जल में ही श्रीहरि का निवास है इसलिए वह नारायण भी कहलाते हैं।माना जाता है कि जब जल में देव प्रतिमाओं को विसर्जित किया जाता है तो देवी देवताओं का अंश मूर्ति से निकलकर वापस अपने लोक को चला जाता है यानी परम ब्रह्म में लीन हो जाता है। यही कारण है कि मूर्तियों को जल में विसर्जित किया जाता है।

#अब_जरा_इसका एक #सामाजिक_लाभ देखते है  -

समाज मे आपसी सौहार्द से ही एक सभ्य समाज की नींव पड़ती है और इसके लिए जरूरी है कि लोग आपसी भेदभाव मिटा कर एक दूसरे का साथ दे , मूर्तिविसर्जन में लोग एक दूसरे से मिलते है एक दूसरे से भेदभाव भुला कर आस्था के साथ इस विसर्जन में भाग लेते है जिससे एक आपसी सहयोग और सौहार्द बढ़ता है ।।

ये तो हुई कुछ ऐसी बातें जो आप सभी जानते है अब जरा इस विसर्जन की वो बाते भी जान लेते है जो कम लोग जानते है ---

#मूर्तिविसर्जन_का_वैज्ञानिक_संबंध --

#जलीय_जीवन की प्राथमिक इकाई का निर्माण --

आपने अगर कभी ध्यान दिया होगा तो आपने देखा होगा कि मूर्ति बनाने के लिए पहले घास (पुआल, भूसी, खर) का प्रयोग होता था जो पूरी तरह सड़ गल के उसी नदी या जल स्रोत का हिस्सा बन जाता था जिसमे मूर्तिविसर्जन किया जाता था बाद में उस घास पे प्राइमरी शैवलो का निर्माण होता है उसे जलीय जीव अपना आहार बनाते है और फिर ये क्रम आहार सृंखला का निर्माण करता है यानी कही न कही इस आहार सृंखला का बेसिक यही घास होती है ।।

#जलीय_स्रोतों_का मिट्टी से डेल्टा व अन्य उपजाऊ जमीन का निर्माण --
हालांकि आपको ये लग सकता है कि एक मूर्ति से कितनी मिट्टी मिलेगी जो डेल्टा तक बना दे लेकिन जब आप आकड़ो को देखते है तो आपको ये मिलेगा की लाखों टन मिट्टी हम मूर्तिविसर्जन के नाम पे नदियों में डाल देते है जो नदी बहाकर ले जाती है और इस निर्माण में एक बड़ा योगदान ये मिट्टी करती है ।।

प्रतिमाओं का निर्माण यदि बायोडिग्रेडेबल (नष्ट होने वाले) पदार्थों से होता है तो उनके विसर्जन से जलस्रोत के पानी की गुणवत्ता पर बुरा असर नहीं पड़ता है बल्कि वो एक निर्माण में सहायक है ।

#आज_का_मूर्तिविसर्जन_कितना_सही --

यह कई साल पहले होता  था पर अब प्रतिमाओं के निर्माण में प्लास्टर आफ पेरिस, प्लास्टिक, सीमेंट, सिन्थेटिक विविध रंग, थर्मोकोल, लोहे की छड़, घास-फूस, पुआल, क्ले इत्यादि का उपयोग होता है, रंग बिरंगे आयल पेंटों में नुकसान करने वाले घातक रसायन मिले होते हैं इसलिये जब मूर्तियों का विसर्जन होता है तो भले ही बायोडिग्रेडेबल सामग्री नष्ट हो जाती है पर प्लास्टर आफ पेरिस और पेंट के घातक रसायन पानी में मिल जाते हैं और अन्ततोगत्वा पानी जहरीला हो जाता है। उसका असर जलीय वनस्पतियों, जीव-जन्तुओं के अलावा मनुष्यों की सेहत पर भी पड़ता है,इससे पानी की कठोरता और बीओडी (Biological oxygen demand) बढ़ जाती है। कैल्शियम और मैग्नीशियम की भी मात्रा बढ़ जाते हैं। मूर्तियों को आकर्षक दिखाने की होड़ में चूँकि कई रंगों का आयल पेंट प्रयुक्त होता है इसलिये जब मूर्ति पानी में विसर्जित होती है तो आयल पेंट में मौजूद भारी धातुएँ यथा ताँबा, जस्ता, क्रोमियम, कैडमियम, सीसा, लोहा, आर्सेनिक और पारा जल स्रोतों के पानी में मिल जाते हैं।

चूँकि धातुएँ नष्ट नहीं होतीं इसलिये वे धीरे-धीरे भोजन शृंखला का हिस्सा बन अनेक बीमारियों यथा मस्तिष्क किडनी और कैंसर का कारण बनती हैं। जलाशयों पर किया अध्ययन बताता है कि कहीं-कहीं उपर्युक्त धातुओं के अलावा निकल और मैंगनीज भी पाया गया है।  अध्ययनों से पता चलता है कि विसर्जन के तुरन्त बाद साफ पानी के लगभग सभी पैरामीटर (सकल घुलित ठोस, गन्दलापन, कठोरता, कुल ठोस, पी-एच मान इत्यादि) बढ़ जाते हैं

#विशेष --

जो परम्पराए मानव लाभ के लिए बनाई गई थी उसे हम लोगो ने दिखावे और लालच के कारण हानि का बना दिया मूर्तिविसर्जन एक जरूरी परम्परा थी और हमेसा रहेगी वरन इसके मूलरूप को जस का तस रहने दे ना कि दिखावे के नाम पे इसे नष्ट कर दे।।

साभार: अजेष्ठ त्रिपाठी, https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=307766209689791&id=100013692425716

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