Monday 8 May 2017

1 लाख राजपूतों ने संहार किया सुबुकतिगिन व उसकी 8.5 लाख की विशाल सेना को

©Copyright मनीषा सिंह की कलम से आज की हमारी चर्चा का विषय होगा वीर गौरवगाथा लिखने वाली भारतवर्ष की वह पावन भूमि जो राजपूत राजाओं के अनुकरणीय बलिदान की रक्त साक्षी दे रही है, जिन्होंने विदेशी आक्रांता को यहां धूल चटाई थी और विदेशी 8.5 लाख सेना को गाजर मूली की भांति काटकर अपनी राजपुताना रियासत एकता की धाक जमाई थी । उनका वह रोमांचकारी इतिहास और बलिदान हमें बताता है कि भारतवर्ष का भूतपूर्व हिस्सा रहे जाबुल की भूमि ने हिंदुत्व की रक्षार्थ जो संघर्ष किया । उनका बलिदान निश्चय ही भारत के स्वातंत्रय समर का एक ऐसा राष्ट्रीय स्मारक है, जिसकी कीत्र्ति का बखान युग-युगों तक किया जाना चाहिए। उन्होंने शत्रु को चांटे ही नही मारे अपितु शत्रु को ही मिटा डाला, उनका वह पुरूषार्थ उस गांधीवादी परंपरा से बहुत बड़ा है और निस्संदेह बहुत बड़ा है, जिन्होंने शत्रु से चांटा एक गाल पर खाया तो दूसरा गाल भी चांटा खाने के लिए आगे कर दिया और अंत में चांटा मारने वालों की मानसिक दासता को उसकी स्मृतियों के रूप में यहां बचाकर रख लिया। हमने कृतज्ञता को महिमामंडित करना था, पर हम लग गये कृतघ्नता को
महिमामंडित करने। इसे क्या कहा जाए—-
-आत्म प्रवंचना?
-आत्म विस्मृति?
-राष्ट्र की हत्या?
-या राष्ट्रीय लज्जा?
राजपूतों ने धरती का कोना कोना लहू लुहान कर दिया मेरे भाइयों बदले में क्या मिला इतिहास में बदनामी राजपूत राजा कभी एक नहीं हुए तभी भारत गुलाम बना वास्तव में राजपूतों के तलवार की धार का सामना करने वाला कोई आक्रमणकारी पैदा ही नही हुआ था धरती पे पढ़िए इस इतिहास को 8.5 लाख सेना के साथ जब भीड़ 1 लाख क्षत्रिय वीर । सिर्फ इसलिए नही भिड़े थे क्योंकि उन्हें अपनी कुर्सी की रक्षा करनी थी आक्रमणकारी आक्रमण करने से पूर्व राजपूत राजाओ के पास समझौता प्रस्ताव भेजते थे अगर राजपूतों को अपनी कुर्सी की पड़ी होती तो व्यर्थ युद्ध क्यों करते उनकी कुर्सी ऐसी भी सलामत रहती वैसे भी परन्तु नही राजपूत कुर्सी के लिए नही धर्म और देश के लिए जीता हैं मरता हैं और मारता हैं ये कथन बिलकुल सत्य हैं #प्राण_देने_वाला_भगवान, #प्राण_बचानेवाला_‌वैद्य #और #प्राणों_की_रक्षा_करनेवाला_क्षत्रिय_होता_है इसलिए कुल , पीढ़ी बलिदान सब बलिदान कर दिए थे बल्कि प्रजाओ के लिए वेदों की रक्षा के लिए मंदिर भवन हिन्दू नारियों की अस्मित के लिए सब आहुति दे दिए ।   
राजपूत राजाओं की एकता ने मेवाड़, कन्नौज, अजमेर एवं चंदेल राजा धंग और काबुल शाही जंजुआ राजपूत राजा जयपाल ने सुबुकतिगिन की 8.5 लाख की असंख्य सेना को धुल चटाया था भूल गये इस इतिहास को केवल लिखा गया तो झूठी’ इतिहास जहा राजपूतों को गद्दार बता गया । जाबुल शाही जंजुआ राजपूत राजा जयपाल पर हमला किया, जंजुआ राजपूत वंश भी तोमर वंश की शाखा है और अब अधिकतर पाकिस्तान के पंजाब में मिलते हैं और अब कुछ थोड़े से हिन्दू जंजुआ राजपूत भारतीय पंजाब में भी मिलते हैं उस समय अधिकांश अहिगणस्थान(अफगानिस्तान), और समूचे पंजाब पर जंजुआ शाही राजपूतो का शासन था ।  जाबुल के राजा जयपाल की सहायता के लिये मेवाड़, अजमेर, कन्नौज, चंदेल राजा धंग ने भी गजनी के सुल्तान सुबुक्तगीन के विरुद्ध युद्ध के लिए अपनी सेना, धन, गज सेना सब दे दिया योगदान में ।
सुबुकतिगिन ने 8.5 लाख की असंख्य सेना लेकर जाबुल पर आक्रमण किया। यह आक्रमण ९७७ ई. (977A.D) के मध्य हुआ। उसकी मदद के लिए उसका पिता उज़्बेकिस्तान के सुल्तान सामानिद सेना के साथ आया । इतनी बड़ी सेना का यह भारत के भूभाग पर पहला आक्रमण था ।
8.5 लाख की सेना सेना नही होती है, अपितु एक ऐसा भयंकर तूफान होता है जिसके सामने किसी का भी रूकना असंभव होता है। मैदानों की सीधी लड़ाई लड़कर इतनी बड़ी सेना को परास्त करना रणबांकुरों का और युद्धनीति के ज्ञाताओं का ही काम हो सकता है। युद्धनीति और युद्धकौशल में भारत सदा अग्रणी रहा है । व्यूह रचना के विभिन्न प्रकार और फिर उन्हें तोडऩे की युद्धकला विश्व में भारत के अतिरिक्त भला और किसके पास रहे हैं? इसलिए 8.5 लाख सेना के इस भयंकर तूफान को रोकने के लिए भारत के क्षत्रिय वर्ग की भुजाएं फड़कने लगीं।
सुबुकतिगिन ने भारत के विषय में सुन रखा था कि इसकी युद्ध नीति ने पूर्व में किस प्रकार विदेशी आक्रांताओं को धूल चटाई थी? इसलिए वह विशाल सेना के साथ भारतवर्ष का राज्य जाबुल की ओर बढ़ा । यह बात नितांत सत्य है कि भारत के अतिरिक्त यदि किसी अन्य देश की ओर इतनी बड़ी सेना कूच करती तो कई स्थानों पर तो बिना युद्ध के ही सुबुकतिगिन की विजय हो जानी निश्चित थी। राजपुताना के पौरूष ने 8.5 लाख की विशाल सेना की चुनौती स्वीकार की। हमारा मानना है कि इस चुनौती को स्वीकार करना ही भारतवर्ष की पहली जीत थी और सुबुकतिगिन की पहली हार थी, क्योंकि सुबुकतिगिन ने इतनी बड़ी सेना का गठन ही इसलिए किया था कि भारत इतने बड़े सैन्य दल को देखकर भयभीत हो जाएगा और उसे भारतवर्ष की राजसत्ता यूंही थाली में रखी मिल जाएगी, उसने सेना का गठन यौद्घिक स्वरूप से नही किया था, और ना ही उसका सैन्य दल बौद्धिक रूप से संचालित था। वह आकस्मिक उद्देश्य के लिए गठित किया गया संगठन था, जो समय आने पर बिखर ही जाना था।
वोह समय आगया सन ९७७ ईस्वी (977A.D) में जाबुल और पंजाब के सीमांतीय पर लड़ा गया ऐतिहासिक युद्ध जहाँ एक तरफ थी सुबुकतिगिन की 8.5 लाख की लूटेरो सेना और दूसरी तरफ थी भारतमाता के संस्कृति,ग्रन्थ के रक्षकों की 1 लाख सेना थी मेवाड़, अजमेर, कन्नौज, जेजाभुक्ति प्रान्त (वर्त्तमान बुन्देलखण्ड) के राजा धंग चंदेल, जाबुल शाही जंजुआ राजपूत राजाधिराज जयपाल सब एक होगये जाबुल पंजाब सीमान्त पर क्षत्रिय वीर अपने महान पराक्रमी राजाओं के नेतृत्व में धर्मयुद्ध लड़ रहे थे, जबकि विदेशी आततायी सेना अपने सुल्तान के नेतृत्व में भारत की अस्मिता को लूटने के लिए युद्ध कर रही थी ।
8.5 लाख सेना सायंकाल तक 3.5 लाख से भी आधा भी नही बचे थे , गजनी के सुल्तान की सेना युद्ध क्षेत्र से भागने को विवश हो गयी युद्ध में स्थिति स्पष्ट होने लगी इस भयंकर युद्ध में लाशों के लगे ढेर में मुस्लिम सेना के सैनिकों की अधिक संख्या देखकर शेष शत्रु सेना का मनोबल टूट गया और समझ गया था कि राजपूत इस बार भी खदेड़, खदेड़ कर मारेंगे । क्षत्रिय सेना के पराक्रमी प्रहार को देखकर सुबुकतिगिन का हृदय कांप रहा था । 
९७७ ईस्वी (977A.D) में इस युद्ध में सुबुकतिगिन की मृत्यु राजा जयपाल के हाथो होती हैं परन्तु इस बात को वामपंथी इतिहासकार छुपा देते हैं सुबुकतिगिन की मृत्यु का भेद नही बताते हैं, परन्तु इतिहासकार फिरीश्ता, डॉ. एस.डी.कुलकर्णी ने अपनी किताब The Struggle for Hindu Supremacy एवं Glimpses of Bhāratiya में लिखा गया हैं इस स्वर्णिम इतिहास का क्षण “1 लाख राजपूत राजाओं के संयुक्त सैन्य अभियान से सुबुकतिगिन की 8.5 लाख की विशाल सेना को परास्त कर मध्य एशिया के आमू-पार क्षेत्र तक भगवा ध्वज लहराकर भारतवर्ष के साम्राज्य में सम्मिलित किया था युद्ध का फलस्वरूप राजाधिराज जयपाल के प्रहार से सुबुकतिगिन की मृत्यु होती हैं” ।  

राष्ट्र के प्रति इन राजाओं के पराक्रम की उपेक्षा के पीछे एक षडयंत्र काम करता रहा है, जिसके अंतर्गत बार-बार के पराजित मुस्लिम आक्रांताओं ने यदि एक बार विजय प्राप्त कर ली तो वह नायक बना दिया जाता रहा है, और पराजित को खलनायक बना दिया जाता रहा है। इसलिए हम आज तक भी अपने इतिहास में विदेशी नायक और क्षत्रिय खलनायकों का चरित्र पढऩे के लिए अभिशप्त हैं। विदेशी नायकों का गुणगान करने वाले इतिहास लेखक तनिक हैवेल के इस कथन को भी पढ़ें-जिसमें वह कहता है-’यह भारत था न कि यूनान जिसने इस्लाम को अपनी युवावस्था के प्रभावशाली वर्षों में बहुत कुछ सिखाया इसके दर्शन को तथा धार्मिक आदर्शों को एक स्वरूप दिया तथा बहुमुखी साहित्य कला तथा स्थापत्यों में भावों की प्रेरणा दी।’
साम्प्रदायिक मान्यताएं होती हैं घातक इतिहास के तथ्यों के साथ गंभीर छेड़छाड़ कराने के लिए साम्प्रदायिक मान्यताएं और साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह सबसे अधिक उत्तरदायी होते हैं। साम्प्रदायिक आधार पर जो आक्रांता किसी पराजित जाति या राष्ट्र पर अमानवीय और क्रूर अत्याचर करते हैं, प्रचलित इतिहास लेखकों की शैली ऐसी हैं कि उन अमानवीय और क्रूर अत्याचारों का भी वह महिमामंडन करती है। यदि इतिहास लेखन के समय लेखक उन अमानवीय क्रूर अत्याचारों को करने वाले व्यक्ति की साम्प्रदायिक मान्यताओं या पूर्वाग्रहों को कहीं न कहीं उचित मानता है, या उनसे सहमति व्यक्त करता है, तब तो ऐसी संभावनाएं और भी बलवती हो जाती हैं।
रोमिला थापर जैसी कम्युनिस्ट इतिहास कार की मान्यता है कि महमूद किसी मंदिर को तोडऩे नही आया था, वह तो अरब की किसी पुरानी देवी की मूर्ति ढूंढऩे आया था जिसे स्वयं पैगंबर साहब ने तोडऩे को आज्ञा दी थी। (दैनिक जागरण 1 जून 2004, एस. शंकर-’रोमिला का महमूद’)। रोमिला थापर जैसे इतिहासकार तथ्यों की उपेक्षा कर रहे हैं और अपनी अपनी मान्यताओं को स्थापित करते जा रहे हैं। मान्यताएं भी ऐसी कि जिनका कोई आधार नही जिनके पीछे कोई तर्क नही और जिनका कोई औचित्य नही।

संदर्भ-:
1. S.D Kulkarni The Struggle for Hindu Supremacy
2. Glimpses of Bhāratiya Rajendra Singh Kushwaha
3. Mitra, Sisirkumar (1977). The Early Rulers of Khajurāho
4. Smith, Vincent Author (1881). "History of Bundelkhand"
5. Dikshit, R. K. (1976). The Candellas of Jejākabhukti

Courtesy: https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=1836005820054592&id=100009355754237

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