#परशुरामजी_के_मातृवध_का_आगमिक_रहस्य
यूं तो भगवान रेणुकानंदन का भ्रमण क्षेत्र लगभग पूरा भारत रहा यहां भारत से मतलब वर्तमान भारत नही बल्की प्राचीन अखंड भारत जिसकी सीमायें अफगानिस्तान से लेकर ब्रह्म देश मतलब वर्तमान म्यामांर तक थीं जिसमे भारत के समीपस्थ महाचीन यानि वर्तमान तिब्बत भी शामिल था
पर सबसे अधिक उन का परिभ्रमण कहें या लीला क्षेत्र रहा कोकंण से लेकर केरल का इलाका रहा
सुनते हैं की अपने लिये यह रत्न सरीखी धरती उनने समुद्र से मांगी और सीमा निर्धारण के लिये परशु फेंका और वहां तक की सीमा रत्नाकर ने उनके लिये छोड़ दी यह कथा लगभग सभी लोगो को पता है
पर वहां पर भगवान परशुराम ने सप्त मुक्तिक्षेत्रो की स्थापना की या कहें संस्कार किया
जिनमे से सबसे मुख्य हैं
श्री मूकांबिका, कुल्लूर
रजताद्री यानि वर्तमान उडपि
मूकांबिका मे स्वर्णरेखांकित सांब सदाशिव लिंग का सरंक्षण या संस्कार उनने किया जिसे बाद मे भगवत्पाद शंकर ने भगवति मूकांबिका की उत्सव मूर्ति स्थापित करके और अधिक महिमासंपन्न कर दिया
मंगलौर की प्रसिद्ध मंगला देवी की प्रतिमा भगवान ने ही समुद्र गर्भ से निकाल कर वहां स्थापित की
वे इस दिव्य भूमि के संस्कार और धर्म प्रवर्तन हेतु मिथिला या तिरहुत से ब्राह्मणो के परिवार लेकर आये और उनको इस भूमि पर बसाया
ये ब्राह्मणअपने साथ अपनी कुलदेवी शांतादूर्गा का विग्रह साथ लेकर आये थे जो अभी भी गोवा मे स्थापित हैं
ऐसे अनेकानेक तीर्थो का प्रवर्तन,संस्कार और सरंक्षण भगवान ने किया समुद्री दस्युओं से रक्षा हेतु विलक्षण युद्ध कला कल्लरि का अविष्कार किया यह तो सब जानते हैं पर वह कल्लरी जिस सूक्ष्मातिसूक्ष्म शरीर विज्ञान या कला का स्थूल रूप है उसे बहुत कमलोग जानते हैं और जानते भी हैं तो केवल एक मूवी तक ही सीमीत है
शरीर के बहुत सूक्ष्म अध्ययन शास्त्र जिसमे हर तरह की नाड़ी ,नसो की बारीक से बारीक जानकारी भरी थी
जिसका जानकार उस ज्ञान से किसी व्यक्ति को स्वस्थ भी कर सकता था और अपंग भी यहां तक की मृत्युसरीखा महादान भी देसकता था
वह दिव्य कला थी "मर्म भेदन"
जो मुख्य रूप से चिकित्सा शास्त्र की पद्धति थी
केरल से लेकर रत्नागिरी , कोंकण और गोवा तक इनकी प्रशस्ति गाते कई स्थान हैं
इस युद्ध कला का प्रिय शस्त्र था "उर्मि"रस्सी की तरह लचकदार और लंबी तलवार जिसे कोड़े की तरह घुमाया जाता था
और ये भी देखें की यहां बिलकुल विपरीत दिशा मे हिमाचलमें तिब्बत सीमासे बिलकुल सटा के "नृमुण्ड"नामके पहाड़ी कस्बे मे एक गुफा मे स्थापित भगवान परशुराम की षोडशभुजी प्रतिमा स्थापित है जिसे स्थानीय पहाड़ी जन "कालकाम परशुराम "कहते हैं
उनके आयुधो मे यही "उर्मि"नामकी तलवार है और इस तीर्थ के पुजारी स्थानीय किरात मतलब पहाड़ी हैं
जिसका प्रचलन उत्तर मे लगभग ना के बराबर रहा या शायद जो भी रहा वह मराठे लाये
लाते भी क्यों मराठे जिन बाजीराव पेशवा को इसको चलाने का निष्णांत माना जाता है वे "चितपावन"ब्राह्मण थे कोकंण"के
उस चित्पावन ब्राह्मणो की उत्पत्ति परशुराम जीके कमंडल के मंत्रपूत जल से मानी गई है
यहां पर ध्यान दीजीये अर्बुद गिरी पर विशिष्ठ गोत्रिय विष्णुअवतार अजिनबुद्ध द्वारा यज्ञकुंड से चार क्षत्रिय कुलो की उत्पत्ति का प्रसंग
समानता देखकर अनुमान लगाये की यहां क्या कहा जारहा है रूपक मे छिपाकर
एक बार हम अपने जैन मित्र के साथ उनके तीर्थ केसराय पाटण को गये वहां पर जाकर पता लगा की यह जैनतीर्थ नही सनातनियो का तीर्थ है उत्तर वैदिक काल से
जिन महाराज रंतिदेव के यज्ञपशुओ के चर्म यदाकदा जिसमे बहते ही रहते थे और इसीकारण उस महानदी की नाम चर्मण्यवती पड़ा उसके किनारे उनके द्वारा स्थापित चतुर्भुज विष्णु प्रतिमा और श्वेतवर्णीय योगमुद्रासीन नारायण की प्रतिमा के नाम पर ही इस तीर्थ का नाम केसराय पाटण नही केशवराव पाटण था पर इस जगह का सर्वाधिक प्राचीन स्थान था भगवान परशुराम द्वारा स्थापित "जम्बूमार्गेश्वर लिंग"जिसके प्रति श्रद्धा का भाव आसपास की भीलो में बहुत ज्यादा है
चंबल के किनारे यह स्थान शायद विस्मृत ही होगया है लोक मन से लेकिन वनवासीयो ने इसे जागृत बना रखा है
विदर्भ और मराठवाड़ा मे यही प्रतापी और उग्र तेज संपन्न व्यक्तित्व का रूपांतरण अत्यधिक तेजस्विनी और तपःपूत माता के स्नेहिल पुत्र मे होजाता है
आजकल के नव्यसभ्य और वाम , प्रगतिशील समुदाय ने जिस प्रकरण पर सबसे ज्यादा उंगली उठाई उसे कौन समझ सका
यहां से प्रवेश होता है चतुर्थ महाविद्या प्रचंड चंडिका छिन्नमस्ता का
इनके विलक्षण साधको में हिरण्याकश्यिपु, प्रहलाद पुत्र वैरोचन , परशुराम और मध्याकाल मे श्री गोरख नाथ और चौरासी सिद्धो मे अनन्यतम कनखलापा और मेखलापा रहीं
वर्तमान समय के नौटंकी भांडो पर ना जाईयेगा
इस अतीव उग्र इष्ट का साधक भी उतना ही उग्र होना चाहिये जो माद्दा हर किसी के लिये संभव नही
यहां जो रूपक स्त्री विरोध का बहुत बड़ा प्रमाण माना जाता है वह योग और आगम का रहस्य है
चतुर्थ विद्या साधक पर तीक्ष्ण कृपा करती है उसके शब्दावली मे क्रम या करूणा कृपा नही
मूलाधार में निबद्ध जीवात्मा सहोदरी कुंडलिनी या नये शब्दो मे कहें तो कॉस्मिक इलेक्ट्रिसिटी को तीव्रता से आधार पद्म से निकाल कर अनाहत तक को भेद देती है
इसकी तीव्रता झेलना हर किसी का सामर्थ्य नही
इसी कारण चतुर्थ विद्या के साधको की परंपरा नही के बराबर रही
भगवती रेणुका चतुर्थ विद्या की साधिका थीं सो उस धारा के नियमानुसार उनको पति और पुत्र का बिछोह सहना पड़ा
परंतु मूलाधार से जागी चेतना विशुद्धी पर आकर रूक गई
उस विशुद्धी मंडल मे बद्ध प्रज्ञा को तीक्ष्ण शक्तिपात द्वारा उनके ही पुत्र जो उस समय माता के गुरू स्थानीय थे मुक्त करके सहस्त्रार भेदन करवा दिये
यह पुत्र के गुरू बनकर माता को मुक्तस्वरूप करके आत्मदर्शन करवाने का दूसरा अद्वीतीय उदाहरण रहा
पहला उदाहरण भगवान कपिल का सांख्य तत्व उपदेश द्वारा आत्मदर्शन करवाने का था
परंतु अंतर केवल ये रहा इन दोनो मे की जहां कपिल -देवहूति प्रकरण मे यह क्रम कृपा रही वहीं परशुराम -रेणुका मे यह तीक्ष्ण कृपा रही
तीक्ष्ण कृपा भारी पीढ़ादायक होती है लगभग मरणांतक कष्ट के बराबर या कभी कभी मृत्यु से भी भयंकर
इच्छुक और स्वाध्यायी जन ध्यान से पौराणिक प्रकरण देखे दर्जनो प्रकरणो मे इस तीक्ष्णकृपा को अन्यान्य रूपको में छिपा दियागया
गुरू के महती पद पर प्रतिष्ठित पुत्र ने अपनी माता के अवरूद्ध मार्ग को मुक्त करा और माता ने अपने इष्ट से सारूप्य पा लिया
भगवती रेणुका भगवती छिन्नमस्ता की उपविद्या होगईं
रक्त पंचमी, रेणुका शबरी, के नाम से इनका अपना विलक्षण पटल पद्धति है
पूरे मराठवाड़ा और विदर्भ की इष्ट सच्चे अर्थो मे लोक माता जिनके पूजा अर्चन मे केवल और केवल ब्राह्मण अर्चको का अधिकार नही
अति साधारण ग्रामीण ,अनपढ़, वनवासीयो की भाव भरे अनगढ़ अर्घ्यो से संतुष्ट सर्वस्व प्रदान करने वाली जगदंबा वासुदेवानंद सरस्वती जी और दतिया स्वामी दोनो ने इस विलक्षण देवी स्वरूप के ऊपर बहुत लिखा
और भगवान प्रसन्न हैं मातृवध का भयंकर पातक अपने सिर पर लिये
भगवान पर ब्राह्मण वाद को फैलाने वाले लोगो के लिये यह अनुपम सूचना है की वे "परशुराम तंत्र "का अवलोकन करें यदी उनको मिलसके तो जिसमे परशुराम गायत्री का पूर्ण प्रयोग दिये गये हैं( और उस का अधिकार बर्बर ,खस, यवन ,इत्यादी सभी को दिया है )कोष्ठक मे लिखा गया वाक्य गलत है सो क्षमा प्रार्थी हैं उसे सही करने के लिये अत्रि विक्रमार्क जी का धन्य वाद
परंतु हमको पूरा विश्वास है की जिन मूर्खो के सिर मे लाल या नीली स्याही डली हुई है या केवल जातिमद भरा है चाहे वो कोरे ब्राह्मणत्व का हो या रॉयल राजपुताने का उनको सामने यह पवित्र आगमस्वरूप श्रुति अपना भेद नही खोलेगी
(नीचे चित्र मे चिपलूण का प्रसिद्ध परशुराम मंदिर के श्री विग्रह)
#साभार - #अविनाश_शर्माजी
साभार: https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=457611927913159&id=100009930676208
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